सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी
बहराइच शहर ख़ित्ता-ए-अवध का क़दीम इ’लाक़ा है।बहराइच को सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी और उनके जाँ-निसार साथियों की जा-ए-शहादत होने का शरफ़ हासिल है,जिसकी बरकत से पूरे हिंदुस्तान में बहराइच अपना अलग मक़ाम रखता है।अ’ब्बास ख़ाँ शेरवानी ने ब-हवाला ”मिर्आत-ए-मस्ऊ’दी” लिखा है कि सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) की पैदाइश 21 रजब या शा’बान 405 हिज्री मुताबिक़ 15 फ़रवरी 1015 ई’स्वी को अजमेर में हुई थी।(हयात-ए-मस्ऊ’दी,मत्बूआ’1935 ई’स्वी सफ़हा 50) आपके वालिद का नाम सय्यिद सालार साहू और वालिदा का नाम बी-बी सत्र मुअ’ल्ला(बहन सुल्तान महमूद ग़ज़नवी) था।आप अ’लवी सय्यिद हैं।मुसन्निफ़-ए-‘‘आईना-ए-मस्ऊ’दी’’ ने आपका नसब-नामा इस तरह लिखा है:”सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी बिन शाह साहू ग़ाज़ी बिन शाह अ’ताउल्लाह ग़ाज़ी बिन शाह ताहिर ग़ाज़ी बिन शाह तय्यिब ग़ाज़ी बिन शाह मोहम्मद ग़ाज़ी बिन शाह उ’मर ग़ाज़ी बिन शाह मलिक आसिफ़ ग़ाज़ी बिन शाह बत्ल ग़ाज़ी बिन शाह अ’ब्दुल मन्नान ग़ाज़ी बिन शाह मोहम्मद हनीफा ग़ाज़ी (मोहम्मद इब्न-ए-हनफ़िया)बिन असदुल्लाह अल-ग़ालिब अ’ली इब्न-ए-तालिब कर्मल्लाहु वज्हहु।’
क़ित्आ’त-ए-तारीख़-ए-विलादत अज़ अकबर ‘वारसी’
हुए पैदा जो ग़ाज़ी मस्ऊ’द
ज़ुल्मत-ए-जेहल हो गई काफ़ूर
अकबर ‘वारसी’ ये है इल्हाम
लिख विलादत का साल मत्ला-ए’-नूर
405 हिज्री
रहमत के फूल दीन में इस्लाम के खिले
पैदा हुए जो सय्यिद-ए-सालार नेक-फ़ाम
अकबर तमाम ख़ल्क़ है उनकी तरफ़ रुजूअ’
साल-ए-विलादत उनका लिखो मरजा’-ए-अनाम
405 हज्री
हुआ रौशन जो तालि-ए’-मसऊद
जगमगाते हैं दीन और दुनिया
सन विलादत का ये लिखो ‘अकबर’
दीन-ओ-दुनिया के का’बा-ओ-क़िब्ला
405 हिज्री
अ’ब्बास ख़ाँ शेरवानी ब-हवाला-ए-”मिर्आत-ए-मस्ऊ’दी’ लिखते हैं कि ब-क़ौल ”मिर्आत-ए-मस्ऊ’दी’ के जब सुल्तान महमूद ग़ज़नवी ने 1016-ई’स्वी मुताबिक़ 407 हिज्री (सहीह 1018-ई’स्वी-मुताबिक़ 409 हिज्री) में जब कन्नौज पर हमला किया तो सिपह-सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी अपनी वालिदा माजिदा के पास अजमेर में रहते थे।कन्नौज से वापसी के बा’द महमूद ग़ज़नवी ने सालार साहू को लाहौर पहुंच कर वापस कर दिया और वो अजमेर आ गए। (हयात-ए-मस्ऊ’दी ,मत्बूआ’1935-ई’स्वी सफ़हा 65)
जब सिपह-सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी की उ’म्र क़रीब साढे़ चार साल की हुई तो सय्यिद इब्राहीम की उस्तादी में उनकी ता’लीम की बिसमिल्लाह हुई।चूँकि ज़हीन थे इसलिए दस साल की उ’म्र में ख़ासी तरक़्क़ी कर ली।महमूद उस वक़्त ख़ुरासान की मुहिमों में मसरूफ़ था।इस मसरुफ़ियत को देखकर दामन-ए-कोह की रिआ’या ने महमूद के गवर्नर मलिक छज्जू को दिक़ करना शुरूअ’ किया|उन्होंने महमूद से शिकायत की।इस पर सालार साहू का तबादला अजमेर से काहलेर को कर दिया गया कि वहाँ का इंतिज़ाम करें।सालार साहू अपने इकलौते बेटे को और बी-बी सत्र मुअ’ल्ला को अजमेर छोड़ कर काहलेर चले गए।जब सिपह-सालार का काहलेर पर तसल्लुत हो गया और महमूद ग़ज़नवी ने मुस्तक़िल तौर पर उनको वहाँ रहने का हुक्म दे दिया तो सालार साहू ने बी-बी सत्र मुअ’ल्ला और सिपह-सालार मस्ऊ’द को भी काहलेर में तलब किया।सुल्तान महमूद ख़ुद तो आपसे मोहब्बत करता था लेकिन उसका बेटा मसऊ’द ग़ज़नवी और वज़ीर अहमद बिन हसन मेमंदी उस मोहब्बत से ख़ुश न थे।जिसकी वजह से सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) ने पाए-तख़्त में क़याम करना मुनासिब न समझा और 1072 ई’स्वी, मुताबिक़ 418 हिज्री के अवाख़िर में सल्तनत की तरफ़ से अ’लाहिदगी इख़्तियार कर ली और सुल्तान महमूद से इजाज़त लेकर धर्म प्रचार के लिए गज़नी से हिन्दुस्तान की तरफ़ सफ़र शुरूअ’ किया। मुख़्तलिफ़ मक़ामात मुल्तान, ओझ ,अजोधन,दिल्ली,मेरठ,गढ़मुक़्तेश़्वर,संभल,कन्नौज,गोपा मऊ,कानपूर,बिलग्राम,मलावा (हर्दोई),तसरख,कड़ामांकपुर,डलमऊ पहूंचे।धर्म सन्देश देते हुए आप सतरख ज़िला’ बाराबंकी तक आ गए।यहीं पर आपके वालिद सय्यिद सालार साहू (रहि.) की वफ़ात हुई।आपके वालिद का मक़बरा सतरख में मौजूद है और मरजा’-ए-ख़ल्क़ है।
सुल्तानुश्शोहदा हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रह.) सय्यिद ज़फ़र अहसन बहराइची 2011 ई’स्वी,सफ़हा 40
सय्यिद ज़फ़र अहसन बहराइची (सज्जादा-नशीन ख़ानक़ाह हज़रत शाह नई’मुल्लाह बहराइची नक़्शबंदी मुजद्ददी अल-मा’रूफ़ ख़ानक़ाह-ए-नई’मिया, मौलसरी मस्जिद बहराइच)अपने वालिद सय्यिद शाह ए’जाज़ुल-हसन नक़्शबंदी मुजद्ददी (रहि.) से रिवायत करते हैं कि जब आप(सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी) की शहादत हो गई तो सबसे पहले एक अहीर ने आपका मज़ार दूध में मिट्टी गूंद कर बनाया था।ये रिवायत सीना ब-सीना चली आ रही है। हज़रत मौलाना शाह नई’मुल्लाह साहिब नक़्शबंदी मुजद्ददी मज़हरी बहराइची के अज्दाद-ए-किराम हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी के हम-राह हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए थे।(सुल्तानुश्शोहदा हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) 2011,सफ़हा 43/52)
‘‘मिर्आत-ए-मस्ऊ’दी’ के मुताबिक़ पहले आपने अपने एक सरदार हज़रत सालार सैफ़ुद्दीन को इस मुहिम के लिए भेजा।अ’ब्बास ख़ाँ शेरवानी ने अपनी तस्नीफ़ ”हयात-ए-मस्ऊ’दी” में इस बारे में लिखा है ब-क़ौल ”मिर्आत-ए-मस्ऊ’दी” के बहराइच पहुँच कर सालार सैफ़ुद्दीन ने इ’त्तिला’ दी कि यहाँ जंगल ही जंगल है और रसद नहीं मिलती है।खाने के लिए ग़ल्ला भेजिए।इस पर सिपह-सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी ने मक़ामी चौधरियों को जम्अ’ किया जिनमें सिधूर ज़िला’ बाराबंकी और अमेठी ज़िला’ लखनऊ के चौधरी भी शामिल थे और उनसे ग़ल्ला तलब किया।उनकी तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी की और अव्वल ग़ल्ला की क़ीमत अदा की और बा’द को उनसे ग़ल्ला लिया|अगरचे चौधरियों ने इसरार किया कि वो क़ीमत बा’द में ले लेंगे।(हयात-ए-मस्ऊ’दी मतबूआ’ 1935, सफ़हा116)
सिपह-सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी का ये बरताव न महज़ पोलिटिकल दानाई और दूर-अंदेशी पर मब्नी था बल्कि इससे उनकी ईमानदारी और इन्साफ़ का भी पता चलता है।लूट मार की उनकी ग़र्ज़ होती तो यक़ीनन बिला क़ीमत अदा किए हुए बहुत सा ग़ल्ला मयस्सर आ जाता।अल-ग़र्ज़ शा’बान 423 हिज्री जुलाई 1032 ई’स्वी में जब उनकी उ’म्र 18 साल की थी वो बहराइच रवाना हुए।(हयात-ए-मस्ऊ’दी मतबूआ’ 1935 ,सफ़हा 116)
सय्यिद ज़फ़र अहसन बहराइची लिखते हैं:
‘‘शा’बान 423 हिज्री मुताबिक़1032 ई’स्वी में सालार मस्ऊ’द बहराइच आए थे|उस ज़माने में बहराइच में जंगल ही जंगल था और छोटी-छोटी बस्तियाँ थीं और बहुत से ख़ुद-मुख़्तार राजा थे।अगर्चे वो कन्नौज के राजा के मा-तहत थे।सहीट-महीट ज़िला’ बहराइच(मौजूदा वक़्त में ज़िला’ श्रावस्ती के क़रीब)1907 में एक कतबा बरामद हुआ था जो मौजूदा वक़्त में लखनऊ के अ’जाएब-घर में मौजूद है।” (सुल्तानुश्शोहदा हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) 2011,सफ़हा 44
1290 ई’स्वी के एक मकतूब में 13वीं सदी के मश्हूर सूफ़ी शाइ’र हज़रत अमीर ख़ुसरो हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी की दरगाह का ज़िक्र करते हुए नज़र आते हैं।उनका ये ख़त कहता है कि बहराइच शहर के अ’ज़ीम शहीद सालार ग़ाज़ी का ये मुअ’त्तर-मुअ’त्तर आस्ताना सारे हिन्दुस्तान को संदल-बेज़ करता नज़र आता है।(ए’जाज़-ए-ख़ुसरवी, अमीर ख़ुसरो मतबूआ’ 1895 ई’स्वी-सफ़हा 156)
इब्न-ए-बतूता जो कि बादशाह मोहम्मद बिन तुग़लक़ के साथ बहराइच आया था उसने आपकी दरगाह के बारे में लिखा है ‘‘हमने शैख़ सालार (सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी) की क़ब्र की ज़ियारत की।उनका मज़ार एक बुर्ज में है लेकिन मैं (इब्न-ए-बतूता) इज़्दिहाम के सबब उसके अंदर दाख़िल न हो सका।’’
( अ’जाएबुल-असफ़ार सफ़र-नामा इब्न-ए-बतूता,1913, सफ़हा 190)
अ’फ़ीफ़ शम्स सिराज ने लिखा है
बादशाह (फ़िरोज़ शाह तुग़लक़) ने 776 हिज्री मुताबिक़ 1374 ई’स्वी में बहराइच का सफ़र किया और शहर में पहुंच कर सय्यिद सालार मस्ऊ’द (रही.) के आस्ताना पर हाज़िर हो कर फ़ातिहा-ख़्वानी की सआ’दत हासिल की।बादशाह ने बहराइच में चंद रोज़ क़याम किया और इत्तिफ़ाक़ से एक शब हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी (रहि.) की ज़ियारत नसीब हुई।सय्यिद सालार ने फ़िरोज़ शाह को देखकर अपनी डाढ़ी पर हाथ फेरा या’नी इस अम्र का इशारा किया कि अब पीरी का ज़माना आ गया है ,बेहतर है कि अब आख़िरत का सामान किया जाए और अपनी हस्ती को याद रखा जाए।सुब्ह को बादशाह ने हल्क़ किया और फ़िरोज़ शाह की मोहब्बत-ओ-इत्तिबा’ में उस रोज़ अक्सर ख़ानान-ओ-मुलूक ने सर मुंडवाया।(तारीख़-ए-फ़िरोज़ शाही ,सिराज, 1938 ई’स्वी सफ़हा 253)
फ़िरोज़ शाह तुगलक़ जब बहराइच आया था उस वक़्त हज़रत अमीर माह के हम-राह आपके मस्कन से रवाना हुए तो राह में पंजों के बल चलने लगे। फ़िरोज़ शाह ने ये मंज़र देखा तो सबब दरयाफ़्त किया।उन्होंने कहा जो कुछ मैं देख रहा हूँ अगर तू देखता तो तू भी ऐसे ही चलता।उसके बा’द अपनी टोपी सर से उतार कर बादशाह के सर पर रख दी तो बादशाह ने देखा कि ज़मीन पर हर तरफ़ शोहदा की लाशें बिखरी हुई हैं,जो ख़ून से शराबोर हैं। किसी के हाथ कटे हैं, किसी का सर, और किसी के और दूसरे आ’ज़ा।और उनके जनाज़ों के दरमियान से लाख बच-बचा कर चलने के बावजूद पाँव किसी न किसी से लग ही जाता।फ़िरोज़ शाह तुग़क़ ने अमीर माह (रहि.) साहिब से कहा सालार ग़ाज़ी की कुछ करामत बयान करें।अमीर माह साहिब ने जवाब दिया कि इस से ज़्यादा और कौन सी करामात चाहते हो कि आप के जैसा बादशाह और मेरे जैसा फ़क़ीर दोनों उनकी दरबानी कर रहे हैं। इस जवाब पर बादशाह जिसके दिल में इ’श्क़ की चाश्नी थी बहुत महज़ूज़ हुआ। (सुल्तानुश्शहदा हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी रहि.) 84)
मौलाना मौलवी हाफ़िज़ मोहम्मद फ़ारूक़ नक़्शबंदी मुजद्ददी बहराइची (रहि.) लिखते हैः
हज़रत सय्यिद अमीर माह बहराइची (रहि.) के बाबत तारीखों में लिखा हुआ है कि आप दरगाह शरीफ़ जाते वक़्त अपना पूरा क़दम ज़मीन पर नहीं रखते थे।अंगूठों के बल चलते थे।(सवानिह हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी ,1913-ई’स्वी-सफ़हा 19)
मुंशी मोहम्मद ख़लील ने आपकी करामत के बारे में लिखा है
1926 ई’स्वी में आपके उ’र्स के मौक़ा’ पर शिरकत का मौक़ा’ मिला। देखा कि एक बड़ा चह-बच्चा है जिसमें मज़ार शरीफ़ के अंदर से ग़ुस्ल-ए-मज़ार का पानी आता है।उस में ऊपर तले जुज़ामी लोग एक के ऊपर एक गिरे पड़ते हैं और जिनके नसीब में सेहत-याबी हुई अच्छे हो कर चले जाते हैं।राक़िमुल-हुरूफ़(मुंशी मोहम्मद ख़लील)अ’ब्दुल-ग़फ़ूर साहिब वैक्सी नेटर की छौलदारी पर मुक़ीम था जो हिफ़्ज़ान-ए-सेहत के निगराँ थे। उनसे मा’लूम हुआ कि अभी एक जुज़ामी बिल्कुल तंदुरुस्त हो गया।गली सड़ी उंगलियाँ फिर ख़ुदा के हुक्म से बराबर हो गईं। जुज़ामी ग़ुल मचा रहे थे कि वो अच्छा हो चला वो अच्छा हो चला। तहक़ीक़ करने से बाहर के मुतअ’द्दिद अश्ख़ास ने इसकी बाबत वसूक़ से बयान किया कि कल ज़रूर एक जुज़ामी सेहत-याब होगा और हर साल ऐसा हो जाता है। क्यों न हो मर्दान-ए-ख़ुदा ख़ुदा न-बाशंद,लेकिन ज़े-ख़ुदा जुदा न-बाशंद।(ग़ाज़ी बाले मियाँ 1926 ई’स्वी सफ़हा 4)
शैख़ मोहम्मद इकराम ने अपनी तस्नीफ़ ”आब-ए-कौसर’’ में शैख़ इस्माई’ल लाहौरी का ज़िक्र करते हुए नोट में लिखा है
शैख़ इसमाई’ल लाहौरी जो 1005 में लाहौर आए थे,उस ज़माने की मश्हूर शख़्सियत हैं लेकिन बा’द की रिवायात के मुताबिक़ जिनका तहरीरी आग़ाज़ इब्न-ए-बतूता,बर्नी और अ’फ़ीफ़ से होता है।हिंदुस्तान की एक मश्हूर ज़ियारत-गाह उनकी ज़िंदगी में ही सूबा-ए-मुत्तहिदा (मौजूदा नाम उतर प्रदेश के शहर बहराइच)में क़ाएम हो चुकी थी।ये हज़रत मस्ऊ’द ग़ाज़ी (जिन्हें मियाँ ग़ाज़ी या सालार बाला पीर भी कहते हैं) का मशहद और मज़ार था। उन्हें सुल्तानुश्शोहदा का लक़ब भी हासिल है और चूँकि वो हिंदुस्तान के सबसे पहले शोहदा में से थे इसलिए ख़ास इमतियाज़ रखते थे। सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ ने आपके मज़ार को दुबारा बड़ी शान से ता’मीर करने का हुक्म दिया था।आपसे और आपकी मज़ार से कई करामतें मंसूब की जाती हैं और अ’वामुन्नास में आपका बड़ा असर है।बहराइच में जहाँ आपका मज़ार है आपका उ’र्स बड़ी धूम-धाम से होता है और इस के अ’लावा लाहौर,दिल्ली,और दीगर बड़े शहरों में भी आपके नाम पर अ’लम निकाले जाते हैं।(आब-ए-कौसर ,1964, सफ़हा 74)
ख़्वाजा अकबर वारसी मेरठी ने क़ित्आ’-ए-तारीख़-ए-शहादत लिखा है।
क़ित्आ’-ए-तारीख़-ए-शहादत हज़रत सय्यिद सालार मस्ऊ’द ग़ाज़ी
सालार ग़ाज़ी दर चमन-ए-ख़ुल्द चूँ रसीद
ग़िलमान-ओ-हूर रा शुदः इमरोज़ रोज़-ए-ई’द
‘अकबर’ ब-फ़िक्र बूद कि हातिफ़ ज़े-ग़ैब गुफ़्त
तारीख़-ए-इंतिक़ाल,वली-ए-जहाँ शहीद
424 हिज्री
हज़रत-ए-मस्ऊ’द ग़ाज़ी की शहादत का कमाल
जब हुआ मक़्बूल-ए-हक़ आई निदा-ए-ज़ुल-जलाल
है ये ज़िंदा इस से हम राज़ी हैं ‘अकबर’ वारसी
लिख दो , बल अह्याउ इं-’द रब्बिहिम, रिहलत का साल
424 हिज्री
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Dr. Shamim Munemi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi