कबीर दास
महात्मा कबीर से हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा वाक़िफ़ है। शायद ही कई ऐसा नज़र आए जो कबीर के नाम से ना आशना हो। उन के सबक़-आमूज़ भजन आज भी ज़बान-ए-ज़द-ओ-ख़लाएक़ हैं जहाँ दो-चार साधू बैठे या सत्संग हुआ, वहाँ कबीर के ज्ञान का दरिया मौजें मारने लगा। बावजूद ये कि महात्मा कबीर जाहिल थे। लेकिन उन की तबीअ’त में फ़ित्रत ने शाइ’री का जौहर कूट-कूट कर भर दिया था। सच ये है कि शाइ’री फ़ित्री और इ’ल्मी इक्तिसाबी इ’ल्म का तअ’ल्लुक़ शाइ’री से बिलकुल ऐसा है जैसा कि हुस्न का जेवर से। ज़ेवर न हो तो हस्न का मर्तबा कम नही हो सकता इसी तरह इ’ल्म के बग़ैर भी शाइ’री अपना जौहर दिखा सकती है।
कबीर दास के ज्ञान-ओ-भजन से साबित होता है कि आप रास्ती के पक्के पैरो थे और यही वजह है कि आज तक एक तारिकुद्दुनिया और एक दुनियादार दोनों कबीर दास से यकसाँ मोहब्बत रखते हैं। आप ने एक पंथ भी निकाला था जो कबीर पंथ के नाम से मश्हूर चला आता है। कबीर पंथी साधू सर पर नोक-दार टोपी पहनते हैं।
कबीर साहब कौन थे, कहाँ और किस वक़्त पैदा हुए, उनका असली नाम क्या था, किस मज़हब के पाबंद थे, उन की शादी हुई या नहीं, कहाँ रहे और कितने दिन तक ज़िंदा रहे, उन बातों का पता लगाना आसान नहीं, क्यूँकि विद्वानों में इख़्तिलाफ़ है, किसी ने कुछ लिखा है और किसी ने कुछ। कबीर कसौटी में उन की पैदाइश सन 1455 विक्रमी में और वफ़ात सन 1575 विक्रमी लिखी है, डॉक्टर बंटर साहब पैदाइश 1337 विक्रमी बतलाते हैं और विल्सन साहब वफ़ात सन 1505 विक्रमी में फ़रमाते हैं। साधुओं से ये पता चलता है कि आप की उ’म्र तीन सौ बरस की थी। आप सन 1205 विक्रमी में पैदा हुए और सन 1505 विक्रमी में वफ़ात पाई। ये फ़ैसला करना कि किस का बयान सच है सख़्त मुश्किल है लेकिन कबीर पंथ के आ’लिमों की राय मो’तबर ठहराई जा सकती है और इसलिए कहा जा सकता है कि उन की पैदाइश सन 1455 विक्रमी में जेठ की पूर्णिमाशी को हुई।
कबीर दास मुसलमान थे और मुसलमानों में जुलाहों के फ़िर्क़े से उनका तअ’ल्लुक़ था। वो एक जगह ख़ुद फ़रमाते है-
तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा बूझहु मोर गियाना
जिस से आप का जुलाहा होना साबित हो जाता है, लेकिन ये सवाल बाक़ी रहता है कि वो पैदाइशी जुलाहा थे या बा’द में उस फ़िर्क़े से मुंसलिक हो गए। कबीर की कहावतों से पता चलता है कि वो पैदाइशी जुलाहे नहीं थे बल्कि सिर्फ़ मुसलमान माता-पिता की गोद में परवरिश हुई है। मश्हूर है कि काशी धाम में एक जुलाहा नीरू नामी रहता था। उस की शादी नीमा नामी एक औ’रत के साथ हुई थी, नीरू जब नीमा को उसके बाप के घर से ला रहा था तो उस को काशी के रास्ते में लहर तालाब के किनारे एक खूबसूरत बच्चा नज़र आया । उस बच्चा के मुतअ’ल्लिक़ मुहक़्क़ीन का ख़्याल है कि वो एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से जेठ पूर्णिमाशी सन 1455 विक्रमी में पैदा हुआ था। दुनियावी शर्म-ओ-बदनामी के लिहाज़ से ग़रीब ब्राह्मणी बच्चे को लहर तालाब के किनारे फेंक आई थी इसलिए बच्चा को लेकर ससुराल जाना दुनियावी रस्म के लिहाज़ से उसे पसंद न किया, मगर नीरू ने इस बात की क़तई’ परवाह न की, उस ने बच्चे को उठा लिया और नीमा की गोद में दे दिया यही बच्चा आख़िर एक दिन उनकी गोद में पल कर कबीर के नाम से मश्हूर हआ।
कबीर की पैदाइश के बारे में दूसरी कहानी यूँ मश्हूर है कि एक ब्राह्मण फ़क़ीर था जो हर वक़त भगवत भजन में मश्ग़ूल रहता था। परमात्मा उस की उस सच्ची भक्ति से ख़ुश तो था लेकिन इम्तिहानन उसका फल देने में तव्क़्क़ुफ करता रहा। एक दिन किसी नीची ज़ात का एक नातवाँ और बर्हना मुफ़्लिस उस ब्राह्मण फ़क़ीर की कुटी के बाहर आ खड़ा हुआ और पहनने के लिए कपड़ा और खाने के लिए अनाज माँगने लगा, फ़क़ीर उस वक़्त परमात्मा के ध्यान में मश्ग़ूल था। मुफ़्लिस की बार-बार की पुकार से उस के ध्यान में ख़लल आने लगा और ग़ुस्से में कुटी से बाहर निकल कर फ़क़ीर से कहा- क्या मैं जुलाहा हूँ जो मुझ से कपड़ा माँगता है ? दूर हो ! चला जा ! ईश्वर के ध्यान में फ़र्क़ आता है। वो बेचारा मुफ़्लिस हट तो गया मगर कुछ दूर जाकर और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। ब्राह्मण हिक़ारत से उस फ़क़ीर की तरफ़ देखता हुआ कुटी के अंदर चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया। यकायक ये आवाज़ आई-
राम तो बरहमन-ओ-मुसलमान दोनों में मौजूद हैं
फिर ऐ नादाँ क्या तू उस राम की इ’बात में मश्ग़ूल है जो हर जगह हाज़िर-ओ-नाज़िर नहीं है!
साथ ही फ़क़ीर ने ये बद दुआ’ की कि तुम कलियुग में एक मुफ़्लिस के यहाँ जन्म लो। उस बद दुआ’ को सुन कर ब्रहणन फ़क़ीर भौचक्का सा रह गया। दरवाज़ा खोल कर बाहर आया और मुफ़्लिस फ़क़ीर को न पाकर छाती पीट-पीट कर रोने लगा। वो महसूस करने लगा कि मैं ने बड़ी ग़लती की। चूंकि वो ईश्वर का पुराना भक्त था, इस लिए जानता था कि ये बद-दुआ’ ख़ाली न जाएगी। पस सच्चे दिल से दरगाह-ए-इलाही में मआ’फ़ी का ख़्वास्तगार हुआ। उस वक़्त उस ने एक ग़ैबी आवाज़ सुनी, कि “बद-दुआ’ तो भुगतना लाज़मी है और वो तुम्हें भुगतनी पड़ेगी।’’
ब्रहमण बोला कि ऐ परमात्मा ! क्या करूँ ? क्या अब इतने दिन की भक्ति बेकार ही जाएगी ? ग़ैब से आवाज़ आई – “नहीं दुनिया में कोई काम ऐसा नहीं जिस का फल न मिले। तुम को भी अपनी मेहनत का फल मिलेगा। तुम मुझे पुत्र की शक्ल में पाओगे।’’ ब्रहमण ने फिर पूछा क्या उसी मुसलमान के शरीर के साथ और उसी मुसमान के घर में ? जवाब आया, हाँ, काशी मैं तुम दोनों ही बास करोगे। और मैं वहीं तुम्हारी गोद में आऊंगा, जिस ने तुम्हें बद-दुआ’ दी है वो भक्त काशी में मेरे नाम को प्रचार करेगा, और मैं तुम्हारी संतान रूप से उस के पास फैज़ हासिल करूँगा यही ब्रहमण फ़क़ीर का जुलाहा नीरू और नीमा है और वो भक्त महात्मा रामानंद स्वामी और लहर तालाब पर हुआ लड़का श्री कबीर जी हैं।
दूसरी कहानी कबीर साहब की पैदाइश के बारे में ये बयान की जाती है कि महात्मा रामानंद स्वामी का एक सच्चा चेला जो ब्रहमण था, अपनी विधवा लड़की को स्वामी जी के पाम गया। जिस तरह हिंदू समाज में फ़क़ीरों के पैर पर सर रखते हैं, उसी तरह स्वामी, रामानंद जी के चरण लड़की ने छूए । यका-यक स्वामी जी के मुंह से ये अल्फ़ाज़ (पुत्रवती भव) (तुम्हारे लड़के हों ) निकले। चूँकि महात्माओं की बातों का सच होना लाज़मी है, इसलिए उस का भी पूरा होना ज़रूरी था आख़िर ब्रह्मचारिणी की ज़िंदगी बसर करते हुए भी उस विधवा के हमल रह गया और उस से पुत्र पैदा हुआ। दुनियावी कलंक के छपाने के लिए वो अपने बच्चे को लहर तालाब के किनारे फेंक आई जिस को जुलाहे ने पाला यही लड़का कबीर के नाम से मश्हूर हुआ।
कबीर दास बचपन ही से धर्म-कर्म के साथ रहते थे, उन को हर वक़्त राम राम की धुन लगी रहती थी, एक जुलाहे के घर में परवरिश पाना और फ़िर राम-राम की धुन में मगन रहना बिल्कुल नामुम्किन सा मा’लूम होता है, मगर सुहबत का असर ना-मुम्किन को मुम्किन बना देता है । मश्हूर है कि कबीर दास स्वामी रामानंद जी के चेले थे, एक दिन स्वामी जी रात के वक़्त गंगा जी के स्नान के लिए जा रहे और इत्तिफ़ाक़ से कबीर सीड़ियों सो रहे थे अंधेरे में स्वामी जी का पैर उन के बदन में लग गया पैर लगते ही स्वामी बोल उट्ठे ‘‘राम-राम कह, राम-राम कह’’ कबीर साहब ने उसी को मंत्र मान लिया और बस उसी दिन से अपने को स्वामी जी का चेला समझने लगे। मुसलमान के घर पर परवरिश पाने पर भी कबीर साहब का रुख़ ज़ियादह-तर हिंदू धर्म की तरफ़ था। एक जगह आप ने कहा है कि।
ज़ाति जुलाहा क्या करे हिरदै बसे गोपाल।
कहें कबीर राम रस माने जुलाहा दास कबीर हो
दास कबीर गो जुलाहा है मगर राम रस से मस्त हो गया है । कबीर कहता है कि दिल तो ख़ुदा का घर है, जुलाहा होने से क्या होता है। मतलब ये है कि ईश्वर के सामने जाति का भेद मिट जाता है, उस के सच्चे भक्त को दुनियावी ज़ात का ख़्याल नहीं रहता वो हमेशा ईश्वर के ध्यान में मगन रहता है।
कबीर की शादी हुई थी या नहीं इस में भी इख़्तिलाफ़ है, कबीर पंथ के आ’लिमों का क़ौल है कि कोई नामी औ’रत उस के साथ रही मगर उनहोंने उस के साथ शादी नहीं की। ये भी कहा जाता है कि कमाल उनका बेटा और कमाली उन की बेटी थी। इस मआ’मला मे भी मुख़्तलिफ़ और हैरत अंगैज़ बातें मुनी जाती हैं’’। ‘‘डूबा वंश कबीर का उपजे पूत कमाल’’ ये भी मश्हूर कहावत है, उस से पता चलता है कि उन्होंने शादी ज़रूर की थी।
कबीर की शादी के मुतअ’ल्लिक़ एक पुर लुत्फ़ रिवायत ये भी मश्हूर है कि एक दिन उन का गुज़र ऐसे जंगल में हुआ जहाँ एक झोंपड़ी के सिवा इन्सानी आबादी का कुछ भी निशान न था। झोंपड़ी के सामने एक चबूतरा था, ये उस पर बैठ कर जंगल की बहार देखने लगे। दफ़्अतन झोंपड़ी का दरवाज़ा खुला और एक ख़ूबसूरत दोशीज़ा झोंपड़ी से निकल कर उन के सामने आ गई । भक्त कबीर देख ही रहे थे कि लड़की ने ख़ुद सिलसिला-ए-गुफ़्तगू छेड़ दिया-
‘‘तुम कौन हो’’
‘‘कबीर’’
‘‘मज़हब क्या है ?’’
‘‘कबीर’’
‘‘घर कहाँ है’’
‘‘कबीर’’
लड़की कबीर की गुफ्तगू सुन कर मुतहय्युर हुई और उन के हुस्न-ए-ज़ाहरी के अ’लावा बातिनी महासिन का कुछ ऐसा असर पड़ा कि वो कबीर दास का दम भरने लगी। कबीर दास ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है, लड़की ने बताया उस कुटी में एक सन्यासी रहा करते थे जो थोड़े दिन हुए स्वर्गवासी हो चुके हैं मैं ने उन्हीं के ज़ेर-ए-साया परवरिश पाई है । वो कहते थे कि मैं ने तुझे गंगा जी के लहरों में खेलते हुए पाया है। तू एक लकड़ी के चौके पर कंबल में लिपटी हुई बही चली जाती थी। इसी वजह से मैं ने तेरा नाम कमली रक्खा है, कबीर दास भी कमली की ज़ुह्द-शिकन निगाहों के इशारों से मसहूर हो चुके थे आख़िर उस हसीन दोशीज़ा की दरख़्वास्त पर उसे अपने घर ले आए।
मश्हूर है कि ये हूरवश देवी इतनी अताअ’त शिआ’र थी कि भक्त कबीर तम्सीलन उस की अताअ’त शिआ’री का ज़िक्र किया करते थे, एक मर्तबा एक साहूकार का लड़का चेला बनने के लिए हाज़िर हुआ कबीर ने पूछा, क्या तुम्हारी शादी हुई है, उस ने कहा हाँ, कबीर ने पूछा बीवी कैसी है उसने कहा निहायत अताअ’त-शिआ’र,फ़रमाया, उस को भी लाओ, साहूकार के लड़के को ये सुन कर कुछ तअम्मुल हुआ, भक्त कबीर ने अपने कश्फ़ से लड़के के दिल का हाल मा’लूम कर लिया, और कमली से एक प्याला पानी माँगा। जब कमली पानी लेकर आई तो कबीर दास ने उन के हाथ से प्याला ले कर ज़मीन पर गिरा दिया और फिर पानी लाने के लिए कहा। अब की मर्तबा भी जब प्याला सामने आया तो पानी ज़मीन पर फेंक दिया, उस तरह दस मर्तबा पानी माँगा कर फेंका दिया मगर कमली ने एक मर्तबा भी न कहा कि पानी क्यूँ गिराते हो। साहूकार का लड़का समझ गया कि भक्त कबीर ने इम्तिहानन अताअ’त-ए-शिआ’री का तरीक़ा बता दिया है, चुनाँचे घर आकर अपनी बीवी से पानी माँगा। जब वह प्याला लेकर आई तो उसके हाथ से प्याला लेकर पानी ज़मीन पर गिरा दिया। दुबारा फिर पानी लाई और उसने फिर गिरा दिया। तीसरी मर्तबा झिंझला गई और बोली आज भांग पी कर तो नहीं आए हो लड़का अपनी ग़लत-फ़हमी पर नादिम हुआ कि क्यूँ उसने कबीर दास के सामने अपनी बीवी को अताअ’त-ए-शिआ’र कहा था।
कबीर निहायत ही बा-मुर्रवत और ख़ुश ख़लक़ थे। आप साधुओं और फ़क़ीरों कि ख़िदमत सच्चे दिल से करते थे गो पढ़े लिख़े न थे। महज़ सतसंगी थे, लेकिन धर्म की मुश्किल-तरीन बातों से वाक़िफ़ थे। याद-ए-ईलाही में ज़िंदगी का बसर करना उन का शिआ’र था। हिंदू-मुसलमान को एक नज़र से देखते थे, सदाक़त को ईमान का ज़ेवर सझते थे।
कबीर ने ख़ुद कोई किताब नहीं लिखी वो भजन कहते थे और उन के शागिर्द उहें याद कर लिया करते थे, बा’द को सब इकट्ठा कर के बहुत से ग्रंथ बना लिए गए।
कबीर साहब की उलटबांसी भी बहुत मश्हूर है, जो उनकी ज़कावत-ओ-ज़िहानत की बेहतरीन मिसाल है, आप बुत-परस्ती के निहायत मुख़ालिफ़ थे और अपने को ख़ुदा का क़ासिद समझते थे फ़रमाते हैं।
काशी में हम प्रगट भये है रामानंद चेताये
समरथ का परवाना लाए हंस उबारन आये
हम काशी में ज़ाहिर हुए रामानंद ने हमें ता’लीम दी, हम अज़ली क़ाबिलयत का परवाना लाए हैं और दुनिया को निजात दिलाने के लिए आए हैं।
जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहिं कहा निहोरा रे।
अगर कोई शख़्श काशी जैसी मुक़द्दस शहर में मरे तो उस में ख़ुदा के ख़ुश होने की कौन सी बात है, काशी और मगहर की सरज़मीन दोनों बराबर हैं ब-शर्त कि दिल में ख़ुदा की मोहब्बत हो। उसी मज़्मून को हमारे मुकर्रम दोस्त जनाब अहसन नाज़िम हलक़ा-ए-अदबिया ने इस शे’र में अदा किया है।
तअ’य्युनात से आज़ाद है जबीन-ए-नियाज़
नज़र में तू है फिर दैर क्या हरम क्या है
कबीर की शाइ’री सारे हिंदुस्तान में मश्हूर है, आप ने बेहतर से बेहतर ख़्याल का नक़्शा खींचा है, कोई मिस्रअ’ नहीं जो नसीहत-आमीज़ न हो, यहाँ आप के कलाम का मुख़्तसर इक़्तिबास दर्ज किया जाता है।
लूट सके तो लूट ले सत्य नाम की लूट
पीछे फिर पछिताओगे प्रान जाहिं जब छूट
ख़ुदा के सच्चे नाम की लूट हो रही है और लूट सके तो लूट ले, नहीं तो जान निकल जाएगी तो पछताएगा। मतलब ये है कि ईश्वर की याद में मश्गूल हो जा ज़िंदगी चंद रोज़ा है, ग़फ़लत करेगा तो अफ़्सोस करेगा।
दुख में सुमिरन सब करे सुख मे करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय
दुख और मुसीबत में सभी ईश्वर को याद करते हैं और दुख से निजात पाने की दुआ’ करते हैं। अगर सुख में उसका शुक्र अदा किया जाए तो कभी तकलीफ़ पास न आए।
सुमिरन की सुधि यों करे ज्यों गागर पनिहार
हालै डोलै सुरति में कहै कबीर बिचार
खुदा की याद इस तरह करो और उस पर इस तरह नज़र रखो जिस तरह पानी भरने वाली अपने भरे हुए घड़े की जुंबिश पर नज़र रखती है की जुंबिश से कहीं पानी छलक न जाए।
माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख् माहि
मनुवां तू दहु दिस फिरै यह तो सुमिरिन नाहि
अगर दिल दुनिया की मोहब्बत में मुब्तला हो तो माला फैरने और राम-राम कहने से कुछ फ़एदा नहीं है। सुमिरिन उस को नहीं कहते, यही ता’लीम मौलाना रूम देते हैं फ़रमाते हैं।
बर ज़बान-ए-तस्बीह दर दिल गद-ओ-ख़र
ईं चुनीं तस्बीह के दारद असर
हाड जरै ज्यौ लाकड़ी केस जरे ज्यों घास
सब जग जरता देख कर भये कबीर उदास
हड्डी मिस्ल-ए-लकड़ी के जलती है और बाल मिस्ल घास के कबीर सारी दुनिया को जलती देख कर उदास हैं, कबरी इज़्हार-ए-अफ़्सोस करते हैं कि दुनिया वाले शब-ओ-रोज़ दुनिया की आग में जलते हैं और दौज़ख़ की आग से बचने की कोशिश नहीं करते।
झूटे सुख को सुख कहै मानत है मन-मोद
जगत चबेना काल का कुछ मुख में कुछ गोद
कबीर साहब फरमाते हैं की दुनयावी चंद रोज़ सुख-ओ-आराम को न मानना चाहिए ये सब झूटा सुख है क्यूँकि दुनिया का मौत का जरबन है या’नी मौत के सब शिकार है कोई आज कोई कल।
काल करे सो आज कर आज करे सो अब
पल में परलै होय गी बहुरि करो गे कब
तुझे जो कुछ कल करना है आज ही कर ले, और जो कुछ आज करना है, अभी कर क्यूँ कि ज़रा देर मं क़यामत आजाएगी, या’नी वक़्त ख़त्म हो जाएगा) फिर तू कब करे गा। गया वक़्त फिर हाथ आता नहीं।
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोहिं
एक दिन ऐसा होयगा मैं रूंधौंगी तोहिं
मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू क्या मुझ को रोंदता है एक दिन ऐसा आने वाला है कि मैं तुझको पामाल करूंगी, मक़्सूद ये है कि
दुश्मनों से दोस्ती यारों से यारी चाहिए
ख़ाक के पुत्ले बने तो ख़ाक-सारी चाहिए
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै
दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै
सारी दुनिया ख़ुशी की ज़िंदगी बसर करती है आराम से खाती है और सोती है मगर एक कबीर अलबत्ता दुखी है, वो सारी रात जागता है और रोता है । मक़्सूद ये है की दुनिया वाले अपनी हक़ीक़त से बे-खबर हैं वो फ़ानी सुख को सुख समझते हैं और लज़्ज़ात-ए-दुनिया से मस्रूर होकर ग़फ़लत की की नींद में मुब्तला हैं लेकिन कबीर जो अपनी हक़क़त और दुनिया की बे-सबाती पर नज़र रखता है, न उसके आँसू थमते हैं न नींद आती है। एक उर्दू शाइ’र कहता है।
इक टीस सी दिल में उठती है इक दर्द जिगर में होता है
हम रातों को उठकर रोते हैं जब सारा आ’लम सोता है
प्रेम छिपाये न छिपै जा घट परगट होय
जो बे-मुख बोलत नहीं नैन देत हैं रोय
मतलब ये है कि मोहब्बत छिपाए से छिप नहीं सकती अगर कोई शख़्स ज़ब्त-ए-फ़ग़ान भी कर ले तो अश्क-बार आखें, उस राज़ को ज़ाहिर कर देंगी।
कबीर की शाइ’री, सिर्फ़ नासिहाना शाइ’री न थी बल्कि वो हर सिंफ़ पर क़ादिर थे दोहों के अ’लावा उन्हों ने मौसमी गाने भी लिखे हैं। एक क़ाबिल-ए-ता’रीफ़ होली मुलाहिज़ा हो।
नैहरवा हम का नहि भावे
साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहं कोई जाय न आवे
चूँकि भाषा शाइ’री में उ’मूमन औ’रत की तरफ़ से, इज़्हार-ए-ज्ज़बात किया जाता है इसलिए कबीर दास ने भी यही तरीक़ा इख़्तियार किया है उस होली में गोया एक फ़ुर्क़त नसीब औ’रत अलाम-ए-जुदाई का इज़्हार कर रही है वो कहती है कि
मुझे अपना मायका ज़रा भी पसंद नहीं, मेरे महबूब का देश इतना ख़ूबसूरत है कि वहाँ जाकर कोई वापस नहीं आता, वहाँ चाँद सूरज,हवा पानी को गुज़र नहीं फिर कौन है जो मेरा पैग़ाम पहुंचाए और मेरे दिल के दर्द से मेरे महबूब दिल-नवाज़ को आगाह करे। अगर मैं आगे चलती हूँ तो मुझे रास्ता नहीं मिलता, और पीछे रहती हूँ तो मकरूहात दुनिया साथ नहीं छोड़तीं, आख़िर मेरी सखी, मैं किस तरह अपनी ससुराल जाऊँ आह मुझे फ़िराक़-ए-महबूब तबाह कर रहा है। ब-जुज़ पेश्वा-ए-हक़ीक़ी के दूसरा कौन है जो मुझे ये रास्ता बता दे, काश ऐ कबीर ! महबूब ख़्वाब ही में आकर दिल की सोज़िश को बुझा देता।
मायका से दुनिया, दयार-ए-महबूब से आ’लम-ए-बक़ा और साईं से महबूब-ए-हक़ीक़ी या’नी शायद बद हस्ती नवाज़ मुराद है।
आप ने भक्ती के मुतअ’ल्लिक़ भी मोहब्बत के पदों में नसीहतें की हैं मसलन-
नैहरवा में दाग लगाय आई चुनरी
और रंगरेजवा के मरम न जाने नहिं मिले धोबिया कौन करे उजरी
…
कहत कबीर सुनौ भाई साधौ बिन सतगुरु कबहू नहिं सुधरी
आह मेके में, लिबास-ए-उ’रूसी दाग़दार हो गया। इस इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के रंगरेज़ का हाल किस को मा’लूम है (जो इस दिल-फ़रेब) चुनरी का रंगने वाला है) कोई ऐसा धोबी भी नहीं मिलता जो उस दाग़ को छुड़ा दे, आह उसे कौन साफ़ कर सकता है।उस मैली चुनरी को पहन कर ससुराल जाती है उम को देख कर दयार-ए-महबूब के लोग कहेंगे कि ये बड़ी बद-सलीक़ा औ’रत है। सुनो कबीर की बात सुनो, बग़ैर पीर-ए-तरीक़त के उस लिबास का ऐ’ब दूर न हो सकेगा।
रंगे हुए सय्यारों या’नी बने हुए फ़क़ीरों के मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाते हैं-
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा
आसन मारि मन्दिर में बैठे
नाम छांड़ि पूजन लगे पथरा
कनवा फड़ाय जोगी जट्टा बढ़ौलैं
दाढ़ी बढ़ाय जोगी हुई गेलैं बकरा
जंगल जाय जोगी धुनियाँ रमोलैं
काम जराय जोगी बनि गैलें हिजरा
मथवा मुड़ाय जोगी रंगौले
गीता बांचि कै होई गैले लबरा
कहत कबीर सुनौ भाई साधौ
जम दरवजवा बांध जाले जावे पकरा
ऐ जोगी तूने अपने दिन को नहीं रंगाया सिर्फ़ कपड़ा रंगा लिया है। तू आसन मार के मंदिर में बैठ गया और उस मा’बूद-ए-हक़ीक़ी को छोड़ कर पत्थर की परस्तिश करता है। तूने (दुनिया के दिखाने के लिए) अपने कानों में हलक़ा-ए-अताअ’त ड़ाल दिया है और जटा बढ़ा कर बकरों की तरह दाढ़ी बढ़ा ली है। तू जंगल मं जाकर धूनी मारता है और दुनिया को फ़रैब देने के लिए अपने उन अ’ज़ा को बेकार बना लिया है जिन का तअ’ल्लुक़ नफ़्स-ए-खैवानी से है। तू बजाए नफ़्स-ए-कश फ़क़ीर के गोया हिजड़ा बन जाता है। तू सर मुंड़वा कर और रंगीन कपड़े पहन कर दुनिया का सबक़ देता है। हालाँकि तेरा दिल तेरी जुबान का साथ नहीं देता। (ऐ बने हुए जोगियो) कबीर की बात सुनो, मौत आ कर ये सब फ़रैब बातिल कर देगी और ख़ुदा के दरबार में निहायत अ’ज़ाब के साथ बांध कर ले जाएगी।
साभार – ज़माना पत्रिका ( 1925 )
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