मसनवी की कहानियाँ -6

मज्नूँ और लैला की गली का कुत्ता(दफ़्तर-ए-सेउम)

मज्नूँ एक कुत्ते की बलाऐं लेता था, उस को प्यार करता था और उस के आगे बिछा जाता था।जिस तरह हाजी का’बे के गिर्द सच्ची निय्यत से तवाफ़ करता है उसी तरह मज्नूँ उस कुत्ते के गिर्द फिर कर सदक़े क़ुर्बान हो रहा था। किसी बाज़ारी ने देखकर आवाज़ दी कि ऐ दीवाने ये क्या पाखंड तूने बना रखा है। कुत्ते का बच्चा हमेशा ग़लाज़त खाता है और सब कुछ अपनी ही ज़बान से चाटा करता है। इसी तरह कुत्ते के बहुत से ऐ’ब उसने गिनाए क्योंकि ऐ’ब देखने वाला ग़ैब की भनक भी नहीं पाता।

मज्नूँ ने कहा कि तू ज़ाहिरी सूरत का देखने वाला है ज़रा गहराई में उतर और मेरी आँखों से उसे देख कि मेरे मालिक की मोहब्बत में गिरफ़्तार है यानी कूचा-ए-लैला का निगहबान है। ज़रा उस की हिम्मत और उस के इंतिख़ाब पर ग़ौर कर कि उसने किस मक़ाम को पसंद किया है। वो जगह जो मेरे दिल का चैन है ये उस जगह का मुबारक कुत्ता है। वो मेरा हम-दर्द और हम-जिंस है। जो कुत्ता लैला के कूचे में रह गया उस के पांव की ख़ाक बड़े बड़े शेरों से भी अफ़ज़ल है। मैं शेर को उस के एक बाल बराबर भी नहीं समझता।

इसलिए दोस्तो अगर सूरत से नज़र उठा लो और मा’ना में पहुंच जाओ तो वहाँ जन्नत ही जन्नत है।

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