महाराष्ट्र के चार प्रसिद्ध संत-संप्रदाय- श्रीयुत बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य
भारतवर्ष में संत-महात्माओं की संख्या जिस प्रकार अत्यंत अधिक रही है, उसी प्रकार उन के द्वारा स्थापित सम्प्रदायों की भी संख्या बहुत ही अधिक है। समग्र भारत के संप्रदायों के संक्षिप्त वर्णन के लिए कितने ही बड़े बड़े ग्रंथों की जरूरत पड़ेगी। वह भी किसी एक विद्वान् के मान की बात नहीं। इस लेख में केवल महाराष्ट्र देश में ही समुद्भुत संतों के द्वारा संस्थापित, सुप्रसिद्ध चार संप्रदायों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। अपेक्षाकृत नवीन संप्रदाय का पहले, तंदनतर क्रमशः प्राचीन संप्रदायों का विवरण उपस्थित किया जावेगा।
1. रामदासी
इन चारों संप्रदायों में से अपेक्षाकृत सब से अर्वाचीन यही रामदासी संप्रदाय है। फिर भी यह तीन सौ वर्ष से कम पुराना नहीं है। इस की स्थापना छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास जी ने की थी। स्वामी जी का जन्म 1608 ई. में हुआ था और बैकुंठ-लाभ 1682 ई. में। इस प्रकार 17वीं शताब्दी के लगभग मध्यकाल में इस संप्रदाय की स्थापना हुई। स्वामी रामदास के जीवन की मोटी-मोटी घटनाएँ इतनी प्रसिद्ध है कि उन्हें दुहराने की जरूरत नहीं। इतना तो सब लोग जानते है कि यह स्वामी जी की ही शिक्षा तथा उपदेश का फल था कि छत्रपति शिवाजी के मन में सनातनधर्म के ऊपर अवलंबित हिन्दू-राष्ट्र की संस्थापना का विचार उत्पन्न हुआ, और उन्होंने उस विचार को कार्य-रूप में भी बड़ी योग्यता से परिणत कर दिखाया। संसार के दुःखद प्रपंच से घबड़ाकर निवृत्ति में ही सुख के मार्ग को बतलाने वाले बहुत से महात्मा मिलेंगे, परंतु विशद् विचार कर प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दोनों के यथायोग्य सम्मेलन पर महात्माओं में अग्रणी थे। अतः इस रामदासी संप्रदाय का मुख्य अंग समाज की ऐहिक तथा पारलौकिक दोनों तरह की उन्नति करना है। स्वयं स्वामी जी ने हरिकथा-निरूपण, राजकारण तथा सावधानपना या उद्योगशीलता को अपने सम्प्रदाय का मुख्य लक्षण बतलाया है। प्रयत्न, प्रत्यय और प्रबोध- इन्ही तीन शब्दों रामदास के जीवन तथा ग्रंथों का सार है।
रामदासी तथा बारकरी संप्रदायों में इसी कारण भेद दिखाई पड़ता है। वारकरी संप्रदाय तो संपूर्ण रूप से निवृत्तिपरक है, परंतु रामदासी संप्रदाय में प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दोनों का यथानुरूप मिश्रण किया गया है। यहीं इस की विशिष्टता है।
मानपंचक में स्वामी जी ने कहा है—
रामदासी ब्रह्मज्ञान सारासारविचारण।
धर्मसंस्थापने साठीं कर्मकांड उपासना।।
सदा जागरूक रहना और यत्न करते रहना- इन दोनों पर स्वामी जी का विशेष पक्षपात था। इन दोनों के आश्रय से केवल ऐहिक सुख की ही प्राप्ति नहीं मिलती, प्रत्युत पारलौकिक सुख की भी प्राप्ति सहज में हो सकती है। यहां राज्य की प्राप्ति हो सकती है, तो वहां स्वराज्य की। अतः इन्हें उन्होंने बड़े महत्व का बतला कर सदा जागरूकता की सुंदर शिक्षा दी है।
राक्षसों के बंदीगृह से ऋषियों और देवताओं के उद्धार करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र इस संप्रदाय के उपास्य देवता है, तथा दासमारुति के स्थान पर भीममारूति की उपासना यहां प्रचलित है। रामदास को महात्मा लोग हनुमान जी का अवतार मानते है। सं. 1567-71 शक में हनुमान जी की भिन्न-भिन्न स्थानों पर 11 मूर्तियों की स्थापना स्वामी जी ने की। काशी में भी रामदास द्वारा स्थापित हनुमान जी हैं। इस संप्रदाय का मुख्य उद्देश्य यह है कि इस के अनुयायी गीता में प्रतिपादित कर्मयोग के सच्चे मार्ग पर शुद्ध मन से चले, जिस से उन का दोनों लोक बन जाय। इसमें गृहस्थ भी है और विरक्त भी। विरकतों के लिए ब्रह्मचारी रह कर भिक्षा पर अपनी जीविका चला कर निष्काम बुद्धि में समाज का धारण-पोषण करना और साथ ही आत्म-ज्ञान का हासिल करना आदर्श कहा गया है।
दासबोध तथा स्वामी जी के अन्य ग्रंथ इस संप्रदाय के भाषा-ग्रंथों में परम माननीय है। सं. 1570 शक से स्वामी जी ने जो रामनवमी का उत्सव आरंभ किया वह आज तक बड़े समारोह के साथ किया जाता है। हजारों की भीड़ सिंहगढ़ आदि स्वामी जी के संबद्ध पवित्र स्थानों पर जुटती है, और कई दिनों तक लगातार रघुपति राघव राजा राम, पतितपावन सीताराम, मंत्र गगन-भेदी कीर्तन होता रहता है। इस की सांप्रदायकि पद्धति अलग है, तथा रामनवमी के उत्सव मनाने की भी विधि रामदास जी ने ही लिए रक्खी है। स्वामी जी ने राममंत्र के 49 श्लोक लिखे है जो प्रख्यात है। उन में से केवल दो श्लोकों को यहां उद्धृत कर और मनोबोध का परिचय दे कर रामदासी के संक्षिप्त वर्णन को समाप्त करते हैं—–
तुला हि तनू मानवी प्राप्त झाली।
बहू जन्म पुण्यें फला लागिं आली।।
तिला तूं कसा गोंविसी विषयीं रे।
हरे राम हां मन्त्र सोपा जपा रे।।
कफें कंठ हा रुद्ध होईल जेव्हां।
अकस्मात तो प्राण जाईल तेव्हां।।
तुला कोण तेथे सखे सोयरे रे।
हरे राम हां मंत्र सोपा जपा रे।।
रामदास स्वामी ने मन को संबोधन कर संसार की माया को छोड़ देने और भगवान् की ओर लगने के जो विमल तथा स्फूर्तिदायक उपदेश दिए है वे मनोबोधाचे श्लोक के नाम से प्रसिद्ध है। रामदासी लोगों में ये पद्य भी खूब प्रसिद्ध है। ये सुंदर श्लोक मन पर तुरंत असर करने वाले है। प्रातः काल उठ कर राम का चिंतन और रामनाम का भजन करने तथा सदाचार न छोड़ने की कैसी सुंदर शिक्षा मन को दी गई है——
प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा।
पुढ़े वैखरी राम आधी वदावा।।
सदाचार हा थोर सोडूं नये तो।
जनीं तोचि तो मानवीं धन्य होतो।
मन! तू संकल्प-विकल्प छोड़ कर एकांत में रमाकांत के भजन में सदा लगा रह—–
मना! अल्प संकलप् तोही नसावा।
सदा सत्यसंकल्प चित्तीं बसावा।।
जनीं जल्प विकल्प तोही त्यजावा।
रमाकांत येकांत कालीं भजावा।।
2.सत्पंथ
यह विचित्र पंथ महाराष्ट्र के धार्मिक संप्रदायों में अन्यतम है। विचित्रता यह है कि इसे चलाया एक मुसलमानी फकीर ने, पर इसे मानते है हिंदू और इसे वैदिक धर्म के विधि आचार जैसे मौजी-बंधन, शिखा-सूत्र, चार वर्ण और चार आश्रम आदि सब मान्य है। खानदेश के फ़ैज़पुर में (जहां गत कांग्रेस हुई थी) सत्पंथियों का एक प्रसिद्ध धर्म-मंदिर है। उसी मठ के अधिकारी ने इस संप्रदाय का संक्षिप्त वर्णन लिखा है जो महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश के 20वें भाग में प्रकाशित हुआ है उसी के आधार पर यह प्रामाणिक वर्णन दिया जाता है।
सन् 1449 ई. में इसे इमाम शाह नामक मुसलमानी फकीर ने स्थापित किया। ये ईरान के निवासी थे और घूमते-घामते गुजरात में आए थे। अहमदाबाद से नौ मील दक्षिण गीरमथा गाँव के पास ये रहते थे। पहुँचे हुए सिद्ध थे। इन के चमत्कार को देखकर अनेक लोग इन क भक्त बन गए। बाबा के पाँच पट्ठ शिष्य हुए जिन में एक मुसलमान था और चार हिन्दु। मुसलमान शिष्य का नाम हाज़र बेग, तथा हिंदू शिष्यों का भाभाराम, नागाकाका, साराकाका था। पाँचवी शिष्या थी। यह चिंचिबाई भाभाराम की बहिन थी। इस पंथ के अनुयायियों की संख्या काठियावाड़, गुजरात में खूब अधिक है। महाराष्ट्र में खानदेश के गाँवों में ही विशेष कर के सत्पंथी गृहस्थ पाए जाते है।
पिराणा नामक स्थान में इमाम शाह की गद्दी है, जहाँ पर प्रत्येक मास की शुद्ध द्वितीय, गोकुलाष्टमी, रामनवमी, ध्रुवाष्टमी तथा भाद्र के शुक्ल एकादशी को बड़ा मेला लगता है जिस में हिंदु लोग हजारों की संख्या में भाग लेते है। इस मत में ब्राह्मण भी है परंतु अधिक संख्या बनिया, कुनबी तथा नरेनिया आदि जातियों की है जो इमाम ही कहलाते है। इस शाखा में मुसलमान शिष्य बिल्कुल नहीं है। गद्दी पर ब्रह्मचारी ही बैठने की चाल है और वह लेवा (घर बनाने वाले) पाटीदार जात का होता है। जयपुर में और खानदेश के अन्य गाँवों में भी इन की ख़ासी संख्या है।
ये लोग भागवत, रामायण, गीता आदि धर्म-ग्रंथों को तो मानते ही है, साथ ही इमाम शाह के लिखे गुरुपदेश को भी मानते है। जिस में हिंदू-धर्म के ग्रंथों के वचन संग्रहीत है। इस के अतिरिक्त इस मत के 21 विशिष्ट ग्रंथ है जो अधिकांश गुजराती और हिंदी में लिखे हुए है। कुछ के नाम ये है- जोगवाणी (गु.), बोधरास (गु.), सत्-वचन (गु., हि.), ब्रह्मप्रकाश (हि.) आदि। इन के देखने से इन के मत का पर्याप्त ज्ञान हो सकता है। इन लोगो का गुरु-मंत्र है- शिवोहम। यह बाल-विवाह करते है। विधवा-विवाह का भी चलन है। श्राद्ध करते है। साथ ही मंदिरों में प्रेतात्मा की उत्तम लोक की प्राप्ति की इच्छा से उच्चासन नामक विधि भी की जाती है। इस मत का साहित्य अल्प ही है।
3.महानुभाव पंथ
इस पंथ के भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न भिन्न नाम है। महाराष्ट्र में इस महात्मा पंथ तथा मानभाव (जो महानुभाव शब्द का अपभ्रंश है) पंथ कहते है। गुजरात में अच्युत पंथ और पंजाब में जयकृष्णि पंथ के नाम से पुकारते है। इस नामकरण का कारण पंथ में कृष्णभक्ति की प्रधानता है। इस पंथ के वास्तविक इतिहास का पता अभी लगा है क्योंकि इस के अनुयायी अपने धर्म-ग्रंथों को अत्यंत गुप्त रक्खा करते थे। वे उसे अन्य मतावलंबियों की दृष्टि से भी आने नहीं देते थे। इस पंथ की भिन्न-भिन्न शाखाओं ने अपने धर्म-ग्रंथों के लिए एक सांकेतिक लिपि बना रक्खी है जो शाखा-भेद के अनुसार छब्बीस है। अतः संयोगवश इन के ग्रंथ इतर लोगों के हाथ में भी आ जायँ तो आना न आना बराबर रहता था, क्योंकि लिपि के सांकेतिक होने से वे उस का एक अक्षर न बाँच सकते थे और न समझ ही सकते थे। परंतु इस बीसवीं सदी के आरंभ से इन का कुछ रुख बदला है, इतर लोगों ने इन के ग्रंथों को पढ़ा है, और प्रकाशित किया है। स्वयं लोकमान्य तिलक की लिपि के रहस्य को ठीक-ठीक समझाने का काम किया प्रसिद्ध इतिहासज्ञ राजवाडे ने और इन के ग्रंथों के मर्म बतलाने का काम किया महाराष्ट्र-सारस्वत के लेखक भावे ने और महानुभावी मराठी वाङ्मय के रचयिता श्री यशवंत देशपांडे ने। इन्हीं विद्वानों के शोध के बल पर आज इन के मत, सिद्धांत, ग्रंथ तथा इतिहास का बहुत कुछ प्रामाणिक पता चला है।
महाराष्ट्र देश में मानभावों के प्रति लोगों में बड़ी अश्रद्धा है। सवेरे-सवेरे मानभाव का मुँह देखना ही क्यों उस का नाम लेना भी अपशकुन माना जाता है। एक प्रचलित कहावत है-करणी कसावाची, बोलणी मानभावाची, अर्थात् करनी तो कसाई की है और बोली मानभाव की। साधारण बोलचाल में मानभाव और कसाई दोनों को एक ही श्रेणी में रखने में लोग नहीं हिचकते। मानभाव गृहस्थ अपने धर्म को कदापि नहीं प्रकट करता था। वह छिप कर अपना जीवन बिताता था। बड़े-बड़े संतों की भी यही बात थी। एकनाथ, तुकाराम आदि महात्माओं की बानी में भी मानभावों के प्रति अनादर भरा हुआ है। इस प्रकार इन का सर्वत्र तिरस्कार होता था, इन के प्रति सर्वत्र द्वेष फैला हुआ था। आज कल यह कुछ कम हुआ है, परंतु फिर भी यह है ही। इस तिरस्कार का कारण इन के इतिहास के अवलोकन से स्पष्ट मालूम पड़ता है। शक की 12वीं शताब्दी में यह मत जनमा। श्रीकृष्ण और दत्तात्रेय मत के उपास्य देवता है। देवगिरि के यादव नरेश महादेव और रामराय इन के गुरुओं और आचार्यो को बड़े सम्मान के साथ सभा में बुलाते थे। मुसलमानों के आने से वह समय पलट गया। मानभावो ने भी मुसलमानों के हिंदूधर्म के प्रति किए गए छल और अत्याचार को देख कर अपने धर्म के रहस्यों को छिपाया। ये लोग मूर्तिपूजा को नहीं मानते। अतः यवनों ने इन्हे मूर्तिपूजक हिंदुओं से अलग समझा और इनके साथ कुछ रियायत की। बस हिंदू लोग इन से बिगड़ गए और इन्हे दगाबाज समझने लगे। श्रीकृष्ण और दत्तात्रेय से संबद्ध तीर्थ-स्थानों पर ये अपना चबूतरा बनाने लगेः स्त्री शूद्रों के लिए भी संन्यास की व्यवस्था की। भगवाधारी संन्यासी से भेद बतलाने के लिए इन के संन्यासी काला कपड़ा पहनने लगे। इन्ही सब अहिंदू आचारों से हिंदू जनता बिगड़ गई और इन्हें कपटी, छली, दुष्ट तथा वचक समझने लगी। सौभाग्य-वश यह भाव समय की अनुकूलता से पलट रहा है।
इस मत का आजकल प्रचार केवल महाराष्ट्र ही में नही है, प्रत्युत गुजरात, पंजाब, यू. पी. के कुछ भाग कश्मीर तथा सुदूर काबुल तक है। हिंदुओं में वर्ण-भेद को हटा कर सब में समानता तथा मैत्री का प्रचार करना ही इस पथ का उद्देश्य है। इस के संस्थापक है चक्रधर जो भड़ोच के राजा थे और जिन का असली नाम था हरपाल देव। 1185 शक में इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और शिष्य-मंडली इन के विचित्र चमत्कार को देख कर जुटने लगी। इन्होंने 500 शिष्य किए जो गुजराती थे। पीछे महाराष्ट्र में यह मत फैला। इस की भिन्न-भिन्न 13 शाखाएं है जिन्हें आम्नाय कहते है। इन शिष्यों में प्रधान नागदेवाचार्य थे, जिन के सतत उद्योग है इस का प्रचुर प्रचार हुआ। इन्हें वेदशास्त्र सब मान्य है। संस्थापक भी ब्राह्मण थे तथा तीन सौ वर्षो तक ब्राह्मण ही इस के प्रमुख नेता होते थे। इन के दो वर्ग है- उपदेशी और संन्यासी। उपदेशी गृहस्थ है, वर्ण-व्यवस्था मानते है और उन का विवाह स्वजातियों से ही हुआ करता है। संन्यासी स्त्री और शूद्र भी हो सकते है। श्रीकृष्ण और दत्तात्रेय उपास्य देवता है। गीता मान्य धर्मग्रंथ है। इस कारण चक्रधर के समय से ले कर आज तक अनेक मानभावी संतों ने स्मतानुसार गीता पर टीकाएँ लिखी है। ये लोग द्वैतवादी है। परमेश्वर को निर्गुण निराकार मानते है, जो भक्तों पर कृपावश साकार रूप धारण कर लेता है।
महानुभाव संप्रदाय में जितने ग्रंथ उपलब्ध है, उतने शायद ही तत्सदृश अन्य मत में हो। सब से बड़ी विशेषता इन का प्राचीन साहित्य है। ज्ञानेश्वरी (श. 1212) ही मराठी साहित्य का आद्य-ग्रंथ अब तक माना जाता था, परंतु मानभावों के प्राचीन ग्रंथों की उपलब्धि के कारण यह मत अब बदल गया है क्योंकि ज्ञानेश्वर महाराज से पूर्व के भी अनेक मानभावी गद्य तथा पद्य ग्रंथ उपलब्ध हुए है। महीद्र भट्ट का लीला-चरित्र (चक्रधऱ स्वामी का जीवन-वृत्त, श. 1195), भास्कर कवि का ओवी बद्ध शिशुपाल वध और एकादश स्कंध भागवत, और कृष्णचरित्र (गद्य), केशव व्यास और गोपाल पंडित का सिद्धांत-सूत्रपाठ (गद्य) जो इस मत का प्रधान दर्शन-ग्रंथ माना जाता है और जिस की व्याख्या में अनेकानेक ग्रंथ बने है-आदि बहुत ग्रंथ ज्ञानेश्वरी से भी पूर्व के है। अतः मानभावों का उपकार मराठी साहित्य पर बहुत अधिक है। इतना ही नहीं, इन्होंने पंजाब जैसे यवन-प्रधान देश में अहिंसा का प्रचार किया, काबुल में हिंदू मंदिर बनाया, जिस का पहला पुजारी नागेंद्र मुनि बीजापुरकर नामक दक्षिणी ब्राह्मण था, खास महाराष्ट्र में भी इनके निवारण का प्रयत्न किया है। मराठी भाषा के ऊपर भी इन का उपकार कैसे गिनाया जाय? दोस्त मुहम्मद का प्रधान विचारदास, और कश्मीर के महाराज गुलाब सिंह का सेनापति सरदार भगत सुजन राय दोनों मानभावी उपदेशी थे। अतः इन्होंने मराठी को धर्मभाषा अपने राज्य में बनाया था। आज भी लाहौर में बहुत से व्यापारी मानभावी है, जो अपने खर्चे से मानभावी ग्रंथों का प्रकाशन भी कर रहे है। इस मत के महतं लोग भी अब अपने धर्मग्रंथों को, जिन की विपुल संख्या आज भी मराठी भाषा में विद्यमान है, प्रकाशित करने की ओर अग्रसर दीखते है। यह मराठी साहित्य के लिए शुभ अवसर है।
4.वारकरी पंथ
यह संप्रदाय महाराष्ट्र देश की धार्मिकता की बहुमूल्य विभूति है। यह वहीं जन्मा, वहीं पनपा, वहीं इस ने शाखाओं का विस्तार किया और आज भी वहीं पूरे देश भर में अपनी शीतल छाया में हजारों भक्त नर-नारियों को विश्राम दे कर सांसारिक ताप से उन्हें मुक्त कर रहा है। इस संप्रदाय का इतिहास लिखना क्या है पूरे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध प्रसिद्ध संतों के जीवन, प्रभाव, और कार्य का प्रदर्शन करना है, क्योंकि रामदासियों की संख्या छोड़ देने पर अधिकांश महाराष्ट्रीय संत इसी पंथ के अनुयायी थे। इन संतों से परिचित होने के पहले इस पंथ के नाम का ठीक-ठीक अर्थ जान लेना नितांत उचित है।
महाराष्ट्र में पढरपुर नामक एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। वहां विट्ठलनाथ जी की मूर्ति है। विट्ठल शब्द विष्णु शब्द का अपभ्रंश प्रतीत होता है। अतः विट्ठलनाथ जी कृष्णचंद्र के बाल-रूप है। आषाढ की शुक्ला एकादशी और कार्तिक की शुक्ला एकादशी को साल में कम से कम दो बार विट्ठल के भक्तजन पंढरपुर की यात्रा किया करते है। इसी यात्रा का नाम है-वीरा। अतः इस पुण्य-यात्रा के करने वालो का नाम हुआ-वारकरी। इसी कारण इस पंथ का नाम वारकरी पंथ पड़ा है। महाराष्ट्र में एक बड़े महात्मा पुंडलीक हो गए है, जिन की भक्ति से प्रसन्न हो कर स्वयं कृष्णचंद्र बाल-रूप धारण कर उन के सामने प्रकट हुए, और उन्होंने उन के बैठने के लिए एक ईंट रख दी जिस पर वे खड़े हो गए। ईंट पर वह खड़ी मूर्ति श्री विट्ठलनाथ जी की है। बाल-कृष्ण को तुलसी बड़ी प्यारी है। अतः भक्त लोग गले में तुलसी की माला डाल कर पूर्वोक्त एकादशी को लाखों की संख्या में विट्ठल जी के मधुर दर्शन कर अपने जीवन को सफल करने के लिए जब इक्ट्ठे होते है और जब उन के भक्त कंठ से पुंडलीक वरदा हरि विट्ठल मंत्र की सांद्रध्वनि गगन-मंडल को भेदन करती हुई निकलती है, तब का दृश्य शब्दों में वर्णन करने के योग्य नहीं। उस समय प्रतीत होता है कि धार्मिकता की बाढ़ आ गई हो। भक्तजनों के मनोमयूर नाचने लगते है। आनंद की सरिता बहने लगती है। इन में आषाढ़ी एकादशी (हरिशयनी) को तो सब से अधिक भीड़ होती है। तीन लाख से भी ऊपर भक्तजन एकत्र होते है। इस दृश्य की कल्पना भी वारकरी संतों के व्यापक प्रभाव को आज भी बतलाने में समर्थ हो सकती है।
यह वारकरी संप्रदाय पूर्णतया वैदिक धर्मानुकूल है। जिन्हे इस की उत्पत्ति में अवैदिकता की बू आती है, वे गलती पर है। यह बिल्कुल भागवत-संप्रदाय है। भगवान् कृष्ण की भक्ति ही मोक्ष का प्रधान साधन है। भक्तिमार्गी होने पर भी यह पंथ माध्वादिमतों के सदृश द्वैतवादी नहीं है, प्रत्युत पक्का अद्वैतवादी है। अद्वैतवाद के साथ भक्ति का मेल करा देना इस मार्ग की अपनी विशेषता है। यह भक्ति ज्ञान के प्रतिकूल नहीं है, प्रत्युत एकनाथ महाराज के कथनानुसार भक्ति मूल है और ज्ञान फल है। जिस प्रकार विना मूल रहे फल पाने की संभावना नहीं रहती, उसी तरह बिना भक्ति के, ज्ञान के उत्पन्न होने की भी बात असंभव है। भक्ति तथा ज्ञान दोनों का समन्वय इस मार्ग में है। एकनाथ जी ने अपने भागवत में स्पष्ट कहा है—-
भक्ति तें मूल ज्ञान ते फल।
वैराग्य केवल तेथीं चे फूल।।
भक्ति युक्त ज्ञान तेथे नाही पतन।
भक्ति माता तथा करित से जगन।।
भगवान् की प्राप्ति के लिए अन्य साधन बड़े कठिन है। यदि कोई सुलभ और सहज साधन हाथ के पास है, तो वह हरिभजन की है। इसी लिए इन संतों ने हरिभजन पर इतना जोर दिया है। इन का निश्चित मत है कि श्री पंढरीनाथ की भजन द्वारा उपासना करने से भक्तों के अभ्युदय तथा निःश्रेयस दोनों की सिद्धि होती है।
इस पंथ में चार संप्रदाय है- (1) चैतन्य संप्रदाय- इस मत में दो भदे है। एक में राम-कृष्ण-हरि यह वडक्षरी मंत्र है और दूसरे में प्रसिद्ध मंत्र (2) स्वरूप संप्रदाय- इस का श्री राम जय राम जय जय राम यह त्रयोदशाक्षरी मंत्र है। इस के छोटे-छोटे उप-संप्रदाय है। (3) आनंद संप्रदाय- इस का त्र्यक्षरी मंत्र है श्री राम और द्वयक्षरी मंत्र केवल राम। इस के अंतर्गत नारद, वाल्मीकि, रामानंद, कबीर आदि संत माने जाते है। (4) प्रकाश संप्रदाय- इस का मंत्र है ऊँ नमो नारायण। इस प्रकार मंत्र के भेद से वारकरी पंथ के इतने प्रभेद है।
यह पंथ प्रधानतया कृष्णभक्ति-मूलक होने पर भी शिव का विरोधी नहीं है। इस में हरि और हर दोनों की एकता ही मानी जाती है। यह इस की बड़ी विशिष्टता है। स्वयं पढ़रीनाथ के सिर पर शिव की मूर्ति विराजमान है, तब पंढरीराय के भक्त का शिव से विरोध भला कभी हो सकता है? ये लोग जिस प्रकार एकादशी के दिन व्रत रहते है उसी भाँति शिवरात्रि और सोमवार को भी। इन्हीं के कारण महाराष्ट्र देश में दक्षिण-देश के समान शिव-विष्णु के मतभेद का नाम निशान भी नहीं है। यद्यपि प्रधानतया विट्ठल नाथ ही उपास्य देवता है, पर साथ ही साथ अन्य हिंदू देवताओं की भी पूजा और आराधना इस मत में चलती है। ज्ञानेश्वर महाराज, नामदेव, एकनाथ तथा तुकाराम जी इस संप्रदाय के प्रसिद्ध महात्मा हो गए है जिस से संबद्ध सब स्थान तीर्थ के समान पवित्र माने जाते है। इन के मान्य ग्रंथ भागवत तथा गीता तो है ही, साथ ही मराठी ग्रंथों में ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत तथा तुकाराम के अभग इन के मान्य धर्मग्रंथ है जिन का पठन-पाठन गुरु-पम्परा से लिया जाता है। महाराष्ट्र में आज भी अनेक कीर्तनकार है जो इन ग्रंथों के सांप्रदायिक अर्थ की व्याख्या बड़ी विद्वत्ता और मार्मिकता के साथ करते है। ओर आज भी इन कीर्तनकारो की बानी में ज़ोर है, प्रभाव है, और महात्माओं की वाणी को जन-साधारण तक पहुँछाने के लिए पर्याप्त समार्थ्य है।
इस मत के सब संतों के परिचय देने के लिए यहां स्थान नहीं है। इस के लिए तौ एक पुस्तक लिखी जा सकती है। यहां पर केवल प्रसिद्ध संतों के ही कुछ नाम दिए जाते है—–
संतनाम कालःशक समाधिस्थान
निवृत्तिनाथ 1195-1219 त्र्यंबकेश्वर
ज्ञानेश्वर महाराज 1197-1218 आलदी
सोपान देव 1199-1218
मुक्ताबाई 1201-1219 एदलाबाद
बिसोबा खेचर 1231 एदलाबाद
नामदेव 1192-1272 पढ़रपुर
गोरा कुंभार 1189-1296 तेर
सावता माली 1217 अरणभेडी
नरहरी सोनार 1235 पंढरपुर
चोखा मेला 1260 पंढरपुर
जगमित्र नागा 1252 परली (बैजनाथ)
कूर्मदान 1253 लऊल
जनाबाई पंढरपुर
चागदेव 1227 पुणतांबे
भानुदास 1370 पैठण
एकनाथ 1470-1521 पैठण
राघव चैतन्य ओतूर
केशव चैतन्य 1393 गुलबर्गा
तुकाराम 1572 देहू
निलोबा राय पिपलनेर
शंकर स्वामी शिरूर
मल्लाप्पा आलदी
मुकुंद राय आवे
कान्होपात्रा पंढरपुर
जोगा परमानंद बार्शी
ये सब संत महात्मा कृष्णभक्ति के प्रसारक हुए। इन में बड़ा-छोटा कहना अपराध है। फिर भी इन में से चार महात्माओं ने कृष्ण-भक्ति के देवालय को महाराष्ट्र में बनाया और सजाया। पंथ की उत्पत्ति का पता नहीं, परंतु ज्ञानदेव महाराज ने इस मंदिर का पाया ज्ञानेश्वरी के द्वारा खड़ा किया, नामदेव ने अपने भजनों से इस का विस्तार किया, एकनाथ महाराज ने अपने भागवत की पताका फहराई और तुकाराम महाराज ने अपने अभंगों की रचना कर इस के ऊपर कलश स्थापना किया। तुकाराम की शिष्या बहिणाबाई ने अपने निम्नलिखित अभगों में इसी बात को कितने सरल शब्दों में कहा है——–
संत कृपा झाली।
इमारत फला आली।।1।।
ज्ञानदेवें रचिला पाया।
रचियेलें देवालया।।2।।
नामा तथा चा किंकर।
तेणें केला हा विस्तार।।3।।
जनार्दन एकनाथ।
ध्वज उभारिला भागवत।।4।।
भजन करा सावकाश।
तुका झाला से कलश।।5।।
जब इतने बड़े सिद्ध पुरुषों ने अपना चित्त लगा कर इस भक्ति-मंदिर का निर्माण किया है तथा उसे अलंकृत किया है, तब उस की महिमा कैसे बतलाई जा सकती है? धन्य है वह देश जहां ऐसे सिद्ध पुरुष जनमे, और धन्य है वे महात्मा-गण जिन्होंने सहज भाषा में भागवत् की प्राप्ति का सुगम और सुलभ मार्ग कर जन-साधारण का कल्पनातीत उपकार किया। अंत में शंकराचार्य के पाडुरगाष्टक से विट्ठलनाथ की स्तुति में एक पद्य तथा ज्ञानेश्वरी से कुछ ओवियां उद्धृत कर यह लेख समाप्त किया जाता है——–
महायोग पीठे तटे भीमरथ्यां
वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः।
समागत्व तिष्ठन्तमानन्दकन्दं
परब्रह्म लिङ्गं भजे पाण्डुरङ्गम।।
जय जय देव निर्मल। निजजनाखिलमंगल।
जन्म जरा अदल जाल
जय जय देव प्रबल। विदलितामगलकुल।
निगमागम द्रुमफल। फलप्रद।।2।।
जय जय देव निश्चल। चलित चित्तपान तुन्दिल।
जगदुन्मीलनाविरल। केलिप्रिय।।3।।
जय जय देव निष्फल। स्फुरदमन्दानन्द बहल।
नित्यनिरस्ताखिलमल। मूलभूत।।4।।
नोट – यह लेख हिंदुस्तानी पत्रिका के वर्ष 1938 के तीसरे खंड में छपा था । अपने सुधी पाठकों के लिए हम यह लेख ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं ।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
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