
कलाम-ए-‘हाफ़िज़’ और फ़ाल-मौलाना मोहम्मद मियाँ साहिब क़मर देहलवी,मस्जिद फ़त्हपुरी देहली

‘हाफ़िज़’ का कलाम जिस तरह रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार के लिए सर-मस्ती और ख़ुश-ऐ’शी का ज़रीआ’ है, उसी तरह हमेशा से अह्ल-ए-बातिन भी उस से इस्तिफ़ादा के क़ाइल रहे हैं। अह्ल-ए-सफ़ा की मज्लिसें हाफ़िज़ के ज़मज़मों से गूँजती रही हैं। उन पर हाफ़िज़ के अशआ’र से वज्द-ए-हाल की कैफ़ियतें तारी होती रही हैं।
एक बहुत बड़ा तबक़ा है जो अपनी मुहिम्मात और पेश आने वाले वाक़िआ’त में ‘हाफ़िज़’ के कलाम से फ़ाल निकाल कर अपने क़ल्ब को मुत्मइन करता रहा है और हाफ़िज़ की सदा को एक ग़ैबी आवाज़ यक़ीन कर के अपने कामों की उसको बुनियाद बनाता रहा है और हाफ़िज़-ओ-कलाम-ए-हाफ़िज़ को लिसानुल-ग़ैब का दर्जा देता रहा है।तैमूरी बादशाह अपनी तमाम मुहिम्मात में दीवान-ए-हाफ़िज़ से राहनुमाई हासिल करते रहे हैं। हुमायूँ, अकबर और जहाँगीर ही नहीं बल्कि आ’लमगीर भी दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल लेकर पेश-क़दमियाँ करता रहा है।
हाफ़िज़ के तज़्किरा-निगारों ने ऐसे सैंकड़ों वाक़िआ’त नक़्ल किए हैं जिनसे फ़ाल निकालने वालों को हाफ़िज़ के कलाम से मुहय्यिरुल-उ’क़ूल इशारे हासिल हुए हैं।हम उनमें के कुछ वाक़िआ’त नक़्ल करते हैं।
तज़्किरा-ए-हुसैनी में मज़्कूर है-
(1) एक शख़्स का लड़का गुम हो गया था तलाश और जुस्तुजू किए गए लेकिन लड़के का कुछ पता न चला।उसने दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाली तो ये शे’र सामने आया:
फ़ाश मी-गोयम-ओ-अज़ गुफ़्त-ए-ख़ुद दिल-शादम
बंदा-ए-इ’श्क़म-ओ-अज़ हर दो-जहाँ आज़ादम
( तर्जुमा:खुल्लम खुल्ला कहता हूँ और अपने कहे पर ख़ुश हूँ, मैं इ’श्क़ का बन्दा हूँ और दोनों जहान से आज़ाद हूँ )
इस शे’र में जो इशारा था वो न समझ सका।कुछ अ’र्सा बा’द उसको उसका लड़का एक ख़ानक़ाह में फ़क़ीराना लिबास में मिला।उसने अपने लड़के से अहवाल दरयाफ़्त किए तो उसने बताया कि मैंने फ़िर्क़ा-ए-आज़ादाँ इख़्तियार कर लिया है और मैं शाह इ’श्क़ुल्लाह का मुरीद हो गया हूँ।उसने शाह-ए-इ’श्क़ुल्लाह से दरख़्वास्त की तो उन्होंने उस लड़के को बाप के हवाले किया।तब उस पर दीवान-ए-हाफ़िज़ के शे’र का मतलब वाज़ेह हुआ।
(2) मौलवी अहमद रज़ा को अपने एक शागिर्द बुनियाद ख़ाँ से बहुत मोहब्बत थी।बुनियाद ख़ाँ की बीमारी पर मौलवी-साहिब ने फ़ाल निकाली तो ये शे’र निकला:
मा कि दादेम दिल-ओ-दीद: ब-तूफ़ान-ए-बला
गो बिया सैल-ए-ग़म-ओ-ख़ाना ज़े-बुनियाद ब-बर
(तर्जुमा: हम ने दिल और आँख को मुसीबत के तूफ़ान के सुपुर्द कर दिया है ,कह दो ग़म का बहाव आए और घर को बुनियाद से उखाड़ ले जाए )
दूसरे ही रोज़ बुनियाद ख़ाँ का इंतिक़ाल हो गया।
(3.) एक शख़्स का भाई क़ैद था उसने दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाली तो ये मिस्रा’ सामने आया:
कि दम-ए-हिम्मत-ए-मा कर्द ज़े-बंद आज़ादस्त
(तर्जुमा: जिसने भी हमारा क़स्द किया वो क़ैद से आज़ाद हो गया)
उसी रोज़ उसका भाई क़ैद से रिहाई पा कर घर आ गया।
(4) हुमायूँ बादशाह ने जब ईरानी फ़ौज लेकर हिन्दुस्तान पर हमला का इरादा किया तो दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाली। ये शे’र सामने आया:
अ’ज़ीज़-ए-मिस्र बर ग़म-ए-बिरादरान-ए-ग़यूर
ज़े-क़ा’र-ए-चाह बर-आमद बर औज-ए-माह रसीद
(तर्जुमा:मिस्र का अ’ज़ीज़ अपने भाइयों के न चाहते हुए भी कुंएं की गहराई से बाहर आया और चाँद की बुलंदी पर पहुँच गया )
तारीख़-दाँ साहिबान जानते हैं कि उस हमला में सब भाईयों को शिकस्त देकर वो हिंदुस्तान पर क़ाबिज़ हुआ।
(5) जहाँगीर बंगाल की मुहिम पर जा रहा था।दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाली तो ये शे’र सामने आया:
ख़ुर्दःअम तीर-ए-नज़र बादः ब-देह ता-सर-मस्त
दस्त दर बन्द-ए-कमर तर्कश-ए-जूज़ा फ़कुनम
(तर्जुमा मैं ने आसमान का तीर खाया है मस्त हो कर शराब लाओ, ताकि मैं बंजर ज़मीन के तरकश के कमरबन्द पर गिरह लगा दूँ )
उस मुहिम में उ’स्मान जो कि बिल-मक़ाबिल था, की पेशानी पर तीर लगा और वो मर गया और जहाँगीर बंगाल पर क़ाबिज़ हो गया।
(6) जहाँगीर, अकबर की नाराज़गी की वजह से इलाहाबाद में मुक़ीम था और आगरा का सफ़र करने में मुतरद्दिद था।दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल ली तो ये ग़ज़ल बरामद हुई:
इ’राक़-ओ-पार्स गिरफ़्ती ब-शे’र-ए-ख़ुश ‘हाफ़िज़’
बिया कि नौबत-ए-बग़्दाद-ओ-वक़्त-ए-तबरेज़ अस्त
(तर्जुमा:ऐ हाफ़िज़ तु ने इ’राक़ और ईरान पर अपने शे’र के द्वारा क़ब्ज़ा कर लिया है , आओ अब बग़दाद और तबरेज़ की बारी है )
तारीख़ शाहिद है कि शाह अ’ब्बास ने उस मुहिम में तबरेज़ को फ़त्ह कर लिया।
(8) इस सिलसिला में हाफ़िज़ की नमाज़-ए-जनाज़ा और तद्फ़ीन का भी दिलचस्प वाक़िआ’ है।‘हाफ़िज़’ के इंतिक़ाल के बा’द उनके मुख़ालिफ़ीन ने कुछ शोर-ओ-ग़ौग़ा किया।नमाज़-ए-जनाज़ा और मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न की मुख़ालिफ़त शुरूअ’ कर दी। इस्लामी अ’क़ाइद के सिलसिला में उनका कलाम ज़ेर-ए-बह्स आया तो सबसे पहले ये शे’र सामने आया:
क़दम दरेग़ म-दार अज़ जनाज़ा-ए-‘हाफ़िज़’
कि गर्चे ग़र्क़-ए-गुनाह अस्त मी-रवद ब-बहिश्त
(तर्जुमा:हाफ़िज़ के जनाज़े से क़दम पीछे मत हटाओ ,अगरचे वो गुनाहों में डूबा हुआ है लेकिन वो जन्नत में जाएगा)
इस पर ब-इत्तिफ़ाक़-ए-राए नमाज़-ए-जनाज़ा हुई और जनाज़ा ख़ाक-ए-मुस्सला के सुपुर्द कर दिया गया।
(9) सल्तनत-ए-सफ़विया का बानी शाह इस्माई’ल, जिसने शीई’यत को ईरान का मज़हब क़रार दे दिया था और सुन्नी बुज़ुर्गों के मक़्बरों को ढाने का भी हुक्म जारी कर दिया था। एक रोज़ एक शीआ’ आ’लिम मुल्ला मगस के साथ ख़्वाजा हाफ़िज़ के मज़ार के पास से गुज़रा।मुल्ला मगस ने ख़्वाजा ‘हाफ़िज़’ के मज़ार को मिस्मार करने का मश्वरा दिया तो शाह इस्माई’ल ने दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाला तो ये शे’र निकला:
जूज़ा सहर निहाद हमाइल बराबरम
या’नी ग़ुलाम–ए-शाहम-ओ-सौगंद मी-ख़ुरम
(तर्जुमा:बंजर ज़मीन हमारे सामने सर-निगों हो गई या’नी मैं बादशाह का गलाम हूँ और क़समें खा रहा हूँ)
शाह इस्माई’ल ने इस शे’र का मतलब ये लिया कि ‘हाफ़िज़’ उसका ताबे’ और फ़रमा-बर्दार है।मुल्ला मगस के मज़ीद इस्रार पर उसने दुबारा फ़ाल निकाली तो हस्ब-ए-ज़ैल शे’र बरामद हुआ। 28
ऐ मगस हज़रत-ए-सीमुर्ग़ न जौलानगह-ए-तुस्त
अ’र्ज़-ए-ख़ुद मी-बरी-ओ-ज़हमत-ए-मा नमी-दारी
( ऐ मगस शुतुरमुर्ग़ तुम्हारी जौलानगाह नहीं है अपना मुद्दआ लिए फिर रहे हो और मुझ से गुरेज़ कर रहे हो)
(10) फ़त्ह अ’ली सुल्तान एक निहायत हसीन-ओ-जमील था। ख़्वाजा ‘हाफ़िज़’ के मज़ार के पास पहुँचा और फ़ाल निकाली तो ये शे’र निकला।
सर-मस्त बा-क़बाए ज़र-अफ़शाँ चू ब-गुज़री
यक बोसः नज़्र-ए-हाफ़िज़-ए-पश्मीनः-पोश कुन
(तर्जुमा:अपने सुनहरे लिबास में मस्त हो कर घूमते फिरते हो, पशश्मीना-पोश हाफ़िज़ को भी एक बोसा दे दो)
फ़त्ह अ’ली ने कहा कि एक-बार नहीं बल्कि दो बार बोसा दूँगा लेकिन बोसा न दिया और वापस हो गया।अगले हफ़्ते फिर मज़ार पर पहुँचा और फ़ाल निकाली तो ये शे’र बरामद हुआ:
गुफ़्त:-बुदी कि शवम मस्त-ओ-दो बोसत ब-देहम
वा’दः अज़ हद ब-शुद मा नः दो दीदेम-ओ-न यक
(तर्जूमा: तुम ने कहा था कि मैं मस्त हो लूँ तो दो बोसा दूँगा, वा’दा की हद हो गई हमें न तो एक बोसा मिला और नहीं दो)
फ़त्ह अ’ली ने फिर कहा कि मैं दो बोसे नहीं बल्कि तीन बोसे दूँगा फिर ब-ग़ैर बोसे दिए चला गया।तीसरी बार जब ख़्वाजा साहिब के मज़ार पर पहुँचा और फ़ाल निकाली तो ये शे’र बरामद हुआ:
सिह बोसः कज़ दो लबत कर्द:-इ-वज़ीफ़ा-ए-मन
अगर अदा न-कुनी वामदार-ए-मन बाशी
(तर्जूमा: तुम ने अपने दो होठों से दो बोसे का वा’दा किया था,अगर तुम नहीं दोगे तो हमारे क़र्ज़-दार होगे)
फ़त्ह अ’ली अपनी जगह से उठा और बे-इख़्तियार पै-दर-पै मज़ार को बोसे दिए।

दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकालने के मुख़्तलिफ़ तरीक़े राइज रहे हैं। बा’ज़ साहिबान बिस्मिल्लाह पढ़ कर दीवान-ए-हाफ़िज़ खोलते हैं और फिर किसी शे’र पर उंगली रखकर उस शे’र के मतलब से फ़ाल निकालते हैं।
बा’ज़ साहिबान ने फ़ाल निकालने की हस्ब-ए-ज़ैल जद्वलें तज्वीज़ की हैं। इनसे फ़ाल निकालने का तरीक़ा ये है।
फ़ाल निकालने का तरीक़ा
जब फ़ाल निकालने का इरादा हो पहले मा’लूम करें कि दिन या रात के चार पहरों में से कौनसा पहर है (रात और दिन के आठों पहरों की जद्वलें अलग-अलग दिखती हैं)।फिर उस पहर की जद्वल निकाल कर पहले बा-वुज़ू सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़ कर ख़्वाजा हाफ़िज़ की रूह के लिए ईसाल-ए-सवाब करें। फिर सूरा-ए-फ़ातिहा एक-बार क़ुल हु-वल्लाह तीन बार अव़्वल-ओ-आख़िर दुरूद शरीफ़ सात-सात बार पढ़ें और अपने मक़्सद का ख़याल कर के उस जद्वल के किसी ख़ाना में उंगली रख दें और उस ख़ाना में जो हर्फ़ हो उसको अलग काग़ज़ पर लिख लें।फिर निकले हुए हर्फ़ के अ’लावा (बाएं से दाएं) जितने हुरूफ़ छोड़ने के लिए उस जद्वल के ऊपर लिखा हो इतने हुरूफ़ गिन कर अगला हर्फ़ भी उसी काग़ज़ पर पहले लिखे हुए हर्फ़ की बराबर दाएं तरफ़ लिख लें।जब सतर मुकम्मल हो जाए तो उस से ऊपर वाली सतर में बाएं से दाएं यही अ’मल करें जहाँ तक कि सबसे ऊपर वाली (पहली) सतर पर पहुँच जाएं। अगर उस सतर में कुछ ख़ाने ऐसे बच जाएं जो हिसाब में न आते हों तो उन्हें छोड़ दें।
फिर उसके बा’द (जिस हर्फ़ पर उंगली रखी थी) उस से आगे दाएं से बाएं उसी तरह हुरूफ़ गिन-गिन कर, काग़ज़ पर लिखे हुए हुरूफ़ की सतर में बाएं तरफ़ लिखते जाएं जब सतर ख़त्म हो जाए तो उससे अगली नीचे वाली सतरों में से गिनते और काग़ज़ पर लिखते जाएं यहाँ तक कि सबसे नीचे वाली आख़िरी सतर पर पहुँच जाएं। अगर उस सतर में कुछ हुरूफ़ ज़ाइद बच जाएं जो हिसाब में न आएं तो उन्हें भी छोड़ दें।
अब उन हुरूफ़ को जो मज़्कूरा तरीक़ा से काग़ज़ पर जम्अ’ किए हैं मिलाकर देखें तो ज़रूर ग़ज़ल से किसी ग़ज़ल के मतला’ का पहला मिस्रा’ बन गया होगा। फिर उस मिस्रा’ को दीवन-ए-हाफ़िज़ में तलाश कर के उसके मफ़्हूम से अपना मतलब निकालें।
मिसाल
रात की जद्वलों में से पहले पहर की जद्वल में हर्फ़ ज पर उंगली रखें जो ऊपर से नीचे सातवें सतर में है, उस ज को अलग काग़ज़ पर लिख लिया। फिर उस जद्वल के ऊपर लिखी हुई हिदायत के मुताबिक़ ज की तरह ऊपर वाली सतरों में से बाएं से दाएं सात-सात हुरूफ़ छोड़कर अगला हर्फ़ काग़ज़ पर दाहिनी तरफ़ बढ़ाते रहे यहाँ तक कि सबसे ऊपर वाली सतर में ब तक पहुँच गए। बाक़ी चार हर्फ़ चूँकि हिसाब में नहीं आते इसलिए उन्हें छोड़ दिया।
फिर उसी तरह उस ज से आगे जिस पर उंगली रखी थी दाएं से बाएं सात-सात हुरूफ़ छोड़कर अगला हर्फ़, काग़ज़ पर लिखे हुए हुरूफ़ की बाएं तरफ़ बढ़ाते रहे यहाँ तक कि सबसे नीचे वाली सतर में पहले श तक पहुँच गए। जिसके बा’द तीन हुरूफ़ बचे जो हिसाब में न आने की वजह से छोड़ दिए ,तो कुल हुरूफ़ हस्ब-ए-ज़ैल हुए।
ब अ ग़ ब अ न ग द न ज रोज़ी साद ब त ग ल ब अ य श द जिनसे ये मिस्रा’ बन गया।
बाग़बाँ गर पँज रोज़े सोहबत-ए-गुल बायदश
(नोट)
वो वक़्त जिसमें रात और दिन मिलते हैं और उस वक़्त को न दिन कह सकते हैं न रात। ऐसे वक़्त की जद्वल भी अ’लाहिदा है जो रात और दिन की आठों जद्वलों के बा’द दर्ज की गई है।
इस इ’ल्म में चूँकि हम्ज़ा-ए-इज़ाफ़त को मुस्तक़िल हर्फ़ तस्लीम नहीं किया गया है इसलिए जो मिस्रा’ बरामद होगा उस में हम्ज़ा-ए- इज़ाफ़त नहीं होगा लेकिन पढ़ने में अगर ऐसा हमज़ा अदा नहीं किया गया तो न सिर्फ़ वज़्न-ए-शे’र ग़लत होगा बल्कि शे’र के सही मफ़्हूम तक रसाई भी मुश्किल हो जाएगी। नीज़ अलिफ़-ए-मक़्सूरा य की सूरत में बरामद होगा
Guest Authors
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