हिन्दुस्तानी तहज़ीब की तश्कील में अमीर ख़ुसरो का हिस्सा- मुनाज़िर आ’शिक़ हरगानवी

जब हम हिन्दुस्तान की तहज़ीब का मुतालिआ’ करते हैं तो देखते हैं कि तरह तरह के इख़्तिलाफ़ के बावजूद अहल-ए-हिंद के ख़याल, एहसास और ज़िंदगी में एक गहरी वहदत मौजूद है जो तरक़्क़ी के दौर में ज़्यादा और तनज़्ज़ुल के दौर में कम होती रहती है।

अमीर ख़ुसरो 653 हिज्री में ब-मक़ाम-ए-पटियाली पैदा हुए और 8 शव्वाल 725 ई’स्वी को बहत्तर साल की उ’म्र पाकर दिल्ली में फ़ौत हुए।उन्होंने ग्यारह बादशाहों या’नी ग़ियासुद्दीन बलबन,  मुइ’ज़ुद्दीन कैक़ुबाद, कियूमर्स अल-मुलक़्क़ब बह-शम्सुद्दीन, जलालुद्दीन फ़िरोज़ शाह ख़िल्जी, रुकनुद्दीन इब्राहीम शाह, अ’लाउद्दीन ख़िल्जी,शहाबुद्दीन, मुबारक शाह, नासिरुद्दीन, ख़ुसरो  ख़ां, ग़ियासुद्दीन, तुग़लक़ शाह और मोहम्मद तुग़लक़  का ज़माना देखा था।मुख़्तलिफ़ दरबारों की गूना-गूं दिल-आवेज़ शाहों के सानिहात-ए-वफ़ात,तख़्त-नशीनी के जश्न,सुल्ह-ओ-जंग,फ़त्ह-ओ-शिकस्त,अ’ज़्ल-ओ-नसब,उ’रूज-ओ-ज़वाल,सफ़र-ओ-हज़र,अम्न-ओ-फ़साद,ऐ’श-ओ-निशात,बख़्शिश-ओ-करम, बुज़-दिली-ओ-सख़ावत,मुल्क-गीरी और मुल्क-दारी देखीं।ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ास मुरीदों और अ’कीदतमंदों में रहे और अपनी शान-ओ-मा’रिफ़त की वजह से अमीर कहलाए।

इस तरह ख़ुसरो ने शाही महलों,बुज़ुर्गों की ख़ानक़ाहों और ग़रीबों के झोंपड़ियों में घूम फिर कर ज़िंदगी की मुख़्तलिफ़ सूरतों और कैफ़ियतों का गहरा मुतालिआ’ किया और अपने वसीअ’ तजरबे  को क़लम-बंद कर के हिन्दुस्तानी तहज़ीब की तश्कील में ज़बरदस्त हिस्सा लिया।उन्होंने हिन्दुस्तान की मोहब्बत,रवादारी,वसीउ’ल-मश्रबी,फ़राख़-दिली कुशादा-ज़ेहनी  और तहज़ीबी यक-जहती की तब्लीग़-ओ-तश्कील,अपनी तसानीफ़ और अपने तर्ज़-ए-अ’मल से की।यही वजह है कि आज इतनी मुद्दत गुज़र जाने के बा’द भी ख़ुसरो के गीत, उनकी मौसीक़ी,उनके अश्आ’र,उनकी क़व्वाली हमारी तहज़ीब का क़ाबिल-ए-फ़ख़्र विर्सा है।तहज़ीबी वहदत की एक बड़ी अ’लामत मुश्तरक ज़बान समझी जाती है।ख़ुसरो नस्ल के लिहाज़ से तुर्क थे।पैदाइश के लिहाज़ से हिन्दुस्तानी थे लेकिन ज़बान के लिहाज़ से जितना ज़ौक़ उनको अ’रबी फ़ारसी और तुर्की ज़बानों से था उतना ही वतन की ज़बान ब्रिज-भाषा से था।ये उनका ही कारनामा था कि पहेलियाँ,दो सुख़ने,किह मुकरनियाँ,दोहा और अश्आ’र में भाषा और फ़ारसी को मिला कर शीर-ओ-शकर किया।

लोद फिट्करी मुर्दा संग।।
हल्दी ज़ीरा एक एक संग।।
ऊंची अटरिया पलंग बिछाया।
मैं सोई मेरे सर पर आया।।
खुल गईं अंखियाँ भई आनंद।
ऐ सखी साजन न सखी चंद।।

गोश्त क्यों न खाया डोम क्यों न गाया- गला न था
जूता क्यों न पहना, समोसा क्यों न खाया-तला ना था

सौदा-गर रा चे मी-बायद, बूचे को क्या चाहिए- दूकान
क़ूत-ए-रूह चीस्त, प्यारे को क्या चाहिए -सदा

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।

सखी पिया को जो मैं न पाऊँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

ख़ुसरो ने अपनी तसानीफ़ में अपनी मादरी ज़बान को हिंदवी कहा है।लेकिन अपने अ’ह्द की बारह हिन्दुस्तानी ज़बान का ज़िक्र  किया है।

बारह ज़बानों में देहलवी हिंदवी वही खड़ी बोली है जो उस वक़्त ख़ास तौर पर दिल्ली के मुसलमान और आ’म तौर पर दिल्ली वाले बोलते थे और जिसको अ’वाम से क़रीब करने के लिए ख़ुसरो ने तरह तरह के इख़्तिराअ’ किए।वैसे भी ख़ुसरो  का अ’ह्द शिमाली हिंद की लिसानी तारीख़ में ख़ास अहमिय्यत रखता है।मुसलमानों के आने के बा’द दरबार-ए- दिल्ली के चारों तरफ़ ख़ुसूसियत के साथ और दिल्ली शहर और नवाह-ए-दिल्ली में आ’म तौर पर एक बड़ी ख़ुश-आहँग ज़बान पैदा हो गई थी और उस हम-आहंगी में अमीर ख़ुसरो  की सई’ को ज़्यादा दख़्ल है।इस के अ’लावा पहली बार ख़ुसरो  ने फ़ारसी में हिन्दुस्तान और हिंदूस्तानियों के फ़ज़ाएल का ज़िक्र तफ़्सील से किया है जिससे हिन्दुस्तान की अ’ज़्मत का पता चलता है और हिन्दुस्तानी अश्या को जानने में कामयाबी हुई है।हिन्दुस्तानी तहज़ीब की तश्कील में ये बड़ा कारनामा ख़ुसरो के हिस्से का है।

हिंदूस्तानियों की फ़ज़ीलत-ए-इ’ल्मी पर ख़ुसरो ने दस दलीलें क़ाइम की हैं जिनमें से बा’ज़ ये हैं।
यहाँ तमाम दुनिया से ज़्यादा इ’ल्म ने वुसअ’त हासिल की।

हिन्दुस्तान का आदमी दुनिया की तमाम ज़बानें सीख सकता है लेकिन किसी और मुल्क का आदमी हिंदवी नहीं बोल सकता।यहाँ दुनिया के हर हिस्सा के लोग इ’ल्म की तहसील के लिए आए लेकिन कोई हिन्दुस्तानी तहसील-ए-इ’ल्म के लिए हिंद से बाहर नहीं गया।

इ’ल्म-ए-हिसाब में “सिफ़र” हिन्दुस्तान की ईजाद है जिसे आसा ब्रहमन ने ईजाद किया।
कलीला-ओ-दिमना जिसका तर्जुमा फ़ारसी, तुर्की, अ’रबी वग़ैरा ज़बानों में हुआ हिन्दुस्तान की तस्नीफ़ है।

शतरंज हिन्दुस्तान की ईजाद है।

मौसीक़ी की जो तरक़्क़ी हिन्दुस्तान में हुई और कहीं नहीं हुई।

वो दसवीं दलील में कहते हैं।
मोहब्बत देह आँ कि चू ख़ुसरो ब-सुख़न ।
समर गरे नीस्त ब-चर्ख़-ए-कुहन।।

हिन्दुस्तानी जानवर और परिंद की ता’रीफ़ में “तोता” का हाल इस तरह बयान करते हैं।
तूती अज़ ईं जास्त यके जानवरे।
हम चू दिगर जानवरां ने शबरे।।
बीं सुख़नश बर सफ़-ए-आदमियाँ।
हर चे शुनीदस्त ब-गोयद ब-बयाँ।।
फ़ातिहा-ओ-इख़्लास-ओ-दुआ’ दर दहनश।
बा-मन-ओ-तू हमचूं मन-ओ-तू सुख़नश।।

तोते के बारे में कहते हैं कि इस मुल्क के तोते आदमी की तरह बोलते हैं। यहाँ के शार्क(मैना) अ’जम-ओ-अ’रब में नहीं पाए जाते और ये भी आदमी की तरह बोल सकते है।कव्वा मुस्तक़बिल की ख़बर देता है। गौरय्या अपनी जुंबिश-ए-परवाज़ और आवाज़ वग़ैरा में अ’जीब-ओ-ग़रीब है।ताऊस में दुल्हन जैसी रा’नाई है।ताऊस के जोड़े जुफ़्ती नहीं करते बल्कि वो माद्दा नर की आँखों से आँसू पी लेती है जिससे वो अंडे देने लगती है।बगुले थोड़ी सी तर्बियत के बा’द अ’जीब-ओ-ग़रीब करतब दिखाने लगते हैं।घोड़े ताल और सुर के साथ टाप मारते हैं और यहाँ के हाथी ब-ज़ाहिर हैवान हैं लेकिन अ’मल में इन्सान हैं।

हिन्दुस्तानी कपड़े की ता’रीफ़ में ख़ुसरो ने एक वाक़िआ’ बयान किया है कि बुग़रा ख़ान जब अवध आकर अपने बेटे कैक़ूबाद से मिला तो दीगर अश्या के साथ उसे तोहफ़े में कपड़ा भी मिला।वो कपड़े इतने बारीक थे कि पहनने पर जिस्म नज़र आता था और बा’ज़ को लपेटने पर उंगलियों के नाख़ुन में आ जाते थे और खोलने पर थान बन जाता था।

जाम:-ए-हिन्दी कि न-दानद नाम।
कज़ तंगी तन ब-नुमायद तमाम।।

मांदः ब-पेचीदः ब-नाख़ुन निहाँ।
बाज़ कुशाइयश ब-पोशद जहाँ।।

हिन्दुस्तानी कपड़े में देवगीरी नामी गपड़े की ता’रीफ़ में कहते हैं कि उसकी ख़ूबी ये है कि ये आफ़्ताब, माहताब या साया मा’लूम होता है।

निको दानंद ख़ूबान-ए-परी-केश।
कि लुत्फ़-ए-देवगेरी अज़ कताँ बेश।।

ज़े-लुत्फ़ आँ जाम: गोई आफ़ताबेस्त।
व या ख़ुद सायाए या माहताबेस्त।।

पान की ता’रीफ़ में कहते हैं।
ख़ुरासानी कि हिन्दी गीरदश गूल।
ख़से बाशद ब-नज़्दश बर्ग–ए-तंबूल।।

शनासद आँ कि मर्द-ए-ज़िंदगानीस्त।
कि ज़ौक़-ए-बर्ग ख़ाली ज़ौक़-ए-जानीस्त।।

ख़रबूज़ा को बहिश्त के तमाम फलों से आ’ला बताया है।इस में क़ंद जैसी मिठास होती है।
ख़रबूज़ः गोई ब-सहरा-ओ-गश्त।
गोइ आँ बुवद अज़ समरात-ए-बहिश्त।।
साख़्तः दर आब कमानश मकीं।
चाश्नी-ओ-आब कमानश ब-बीं।।
आम को इंजीर पर तर्जीह देते हैं।
दिगर कस सू-ए-ख़ुद गर्दद जिहत गीर।
निहद कम नग़ज़क-ए-मावा अज़ इंजीर।।

हिन्दुस्तानी फूलों में सोसन, समन, बनफ़्शा,कबूद, बेला, गुल-ए-ज़रीं, गुल-ए-सुर्ख़,रैहान, गुल-ए-कूज़ा, गुल-ए-लाला,गुल-ए-सफ़ेद,सद-बर्ग, नस्तरन, दूना, यासमीन, नीलोफ़र,ढाक,चम्पा, जूही,केवड़ा, सेवती,गुलाब, मोंसरी वग़ैरा का ज़िक्र करते हैं।इनमें बनफ़्शा, नस्तरन और यासमीन तो ईरान से लाए गए,बक़िया तमाम फूल हिन्दुस्तानी हैं।बेला के मुतअ’ल्लिक़ लिखते हैं कि इसकी पेशानी बड़ी कुशादा होती है और एक फूल में सात फूल होते हैं।

अज़ीं सू बेल पेशानी कुशाद:।
ब-यक गुल हफ़्त गुल बरहम निहादः।।

हिन्दुस्तान की औ’रतों के हुस्न का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि यहाँ कि औ’रतें मिस्र,रुम, क़ंधार,समरक़ंद, ख़ता , खुतन,ख़ल्ख़ और तमाम हसीनान-ए-आ’लम पर अपने हुस्न की सिफ़ात में फ़ाइक़ हैं।यग़्मार और ख़ल्ख़ का हुस्न भी हिन्दुस्तान के हुस्न के बराबर नहीं।

ख़ुसरो हिन्दुस्तान की आब-ओ-हवा को ख़ुरासान और दूसरे ममालिक की आब-ओ-हवा से बेहतर बताते हैं और दस अस्बाब पेश करते हैं।

यहाँ की सर्दी नुक़्सानदेह नहीं है।
यहाँ गर्मी ख़ुरासान की सर्दी से बेहतर है।

सर्द हवा के ख़ौफ़ से यहाँ के ग़रीब अ’वाम को सर्दी के ज़्यादा सामान की ज़रूरत नहीं होती।
साल भर तक यहाँ गुल-ओ-मुल की बहार रहती है।यहाँ के फूल गुल-ए-बाबूना की तरह ख़ुश-रंग होते हैं।यहाँ के फूल सूख जाने पर भी ख़ुश्बू देते हैं।वो ये भी कहते हैं कि-
हफ़्तुमश आँ काँ तरफ़ अज़ मेवः तर।
नीस्त चू अमरूद-ओ-चू अंगूर दिगर।।

यहाँ आम, केला, इलायची, काफ़ूर और लौंग जैसी चीज़ें होती हैं।

ख़ुरासान के बहुत से मेवे इस मुल्क में पाए जाते हैं, इसके बरख़िलाफ़ यहाँ के मेवे ख़ुरासान में नहीं होते।

यहाँ के नादिर तोहफ़े पान और केला हैं। पान जैसा दुनिया में दूसरा कोई मेवा नहीं।

हुज्जत निहम आँ कि दरीं किश्वर-ए-ख़ुश।
हस्त दो तोहफ़: कि बुवद नादिरः वश।।

मेव:-ए-बे ख़स्तःकि न-बुवद ब-जहाँ।
बर्ग कि चूँ मेवः ख़ुरद  मेहमाँ।।

मोज़ हमाँ मेवा-ए-बे-ख़स्त निगर।
बर्ग ज़े-तंबूल निगर नाएब-ए-ख़ूर।।

उ’लूम-ओ-फ़ुनून के ज़िक्र में ख़ुसरो कहते हैं कि यहाँ मंतिक़ भी है और नुजूम भी और इ’ल्म-ए-कलाम भी।अलबत्ता हिन्दुस्तान फ़िक़्ह से वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन वो तबक़ात, रियाज़ियात,मंतिक़ और हैअत के माहिर हैं।मा-बा’दत्तबीआ’ती इ’ल्म में हिन्दुओं ने सीधा रास्ता तर्क कर दिया है लेकिन मुसलमानों के अ’लावा दूसरी क़ौमें भी इस इ’ल्म से ना-बलद हैं हालाँकि वो हमारे मज़हब की पैरवी नहीं करते हैं ता-हम उनके बहुत से अ’क़ाइद हमसे मुशाबीह हैं।

व आँ कि दरीं अ’र्सः पोशीदः दरूँ।
दानिश-ओ-मा’नीस्त ज़े-अंदाज़ः बुरुँ।।

गर्चे ब-हिक्मत सुख़न  अज़ रूम शुदः।
फ़ल्सफ़ः ज़े-आँ जा हमः मा’लूम शुदः।।

लेक न हिंदस्त अज़ाँ माया-ए-हस्ती।
हस्त दरू यक यक अज़ अंदेशः तिही।।

मंतिक़-ओ-तंजीम-ओ-कलामस्त दरू।
हर चे कि जुज़ फ़िक़्ह तमामस्त दरू।।

फ़िक़्ह चू श: मर्कज़-ए-दीन-ए-हुदा।
नायद अज़ीं ताइफ़ः ज़ां गूनः मज़ा।
इ’ल्म-ए-दिगर हर चे ज़े-मा’क़ूल-ए-सुख़न।
बेशतरे हस्त बर आईन-ए-कुहन
व आँ चे तबई’-ओ-रियाज़ियत हमः।
हैआत-ए-मुस्तक़बिल-ओ-माज़ियत-ए-हमः।।

हिन्दुस्तान के लोगों की एक और ख़ुसूसियत बयान करते हुए कहते हैं कि यहाँ के मुर्दों को ज़िंदा किया जाता है और साँप के काटे हुए मुर्दों को छः महीना के बा’द यहाँ के लोग ज़िंदा कर सकते हैं।यहाँ के जोगी हिसस-ए-दम की मश्क़ कर के सौ बल्कि दो सौ साल तक ज़िंदा रख सकते हैं।यहाँ एक आदमी की रूह दूसरे में मुंतक़िल की जा सकती है और यहाँ अब्र में बारिश रोकी जा सकती है।

यहाँ के हिंदू मर्द और औ’रत की वफ़ादारी के बारे में कहते हैं कि हिंदू अपनी वफ़ादारी में तल्वार और आग से खेल सकता है और हिंदू औ’रत अपने शौहर की मोहब्बत और वफ़ादारी में उसकी चिता में जल कर भस्म हो जाती है।एक हिंदू मर्द अपने देवता और आक़ा के लिए भी अपनी जान भेंट चढ़ा देता है।

ग़र्ज़ ख़ुसरो अपने मुल्क के कल्चर, इसकी ज़बान,इसके अ’वाम और इसके मौसमों का बे-पनाह मोहब्बत से ज़िक्र करते हैं जिससे हिन्दुस्तान की सक़ाफ़त और तहज़ीब का पता चलता है।
तहज़ीब की तश्कील में अपने कलाम के अ’लावा ख़ुसरो ने  और कई ज़रिआ’ से हिस्सा लिया है।मौसीक़ी को उन्होंने आ’म फ़हम बनाया और इसमें कई तरह के तजरबे किए।उनके ईजाद कर्दा राग दर्ज ज़ैल हैं।

मजीरः ग़ार और एक फ़ारसी राग से मुरक्कब है।
साज़-गरीःपूरबी,गोरा,गंगली और एक फ़ारसी राग
एमनः हिंडोल और नैरेज़
उ’श्शाक़ः सारंग, बंसत और नवा
मुवाफ़िक़ः तोड़ी-ओ-मालरी,दूरगाह-ओ-हुसैनी
ग़नमःपूरबी में तग़य्युर कर दिया है
ज़ेलफ़ःखट राग में सत्ता नाज़ को मिलाया है
फ़र्ग़ानाः गंगली और गोरा
सरपर्दाः सारंग, पलावल और रास्त को तरकीब दिया है
बाख़रूःरसीकार में एक फ़ारसी राग मिला दिया है
फ़र्दोस्तः कांहट्रा, गौरी, पूरबी और एक फ़ारसी राग से मुरक्कब है
श्यामः कुल्लियात और एक फ़ारसी राग
सनमः कल्लयान में एक फ़ारसी राग शामिल किया है

इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दुस्तान की तहज़ीब-ओ-मुआ’शरत और उ’लूम-ओ-फ़ुनून की नश्रर-ओ-इशाअ’त नीज़ तश्कील में अमीर ख़ुसरो का बहुत बड़ा हिस्सा है।

साभार – फ़रोग़-ए-उर्दू (अमीर ख़ुसरौ नम्बर)

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