अमीर ख़ुसरो की सूफ़ियाना शाइ’री-डॉक्टर सफ़्दर अ’ली बेग

सूफ़ियों के अ’क़ीदे में ख़ुदा की ज़ात ही सबसे अहम-तरीन है। जिसके तसव्वुर में इन्सान मुस्तग़रक़ हो जाए उनका कहना है कि ये इन्सानी अ’क़्ल के बस से बाहर है कि वो ख़ुदा को समझ सके और उसकी ता’रीफ़-ओ-तमजीद कर सके।दिमाग़-ए-इन्सानी ज़मान-ओ-मकान में महदूद है इसलिए जो शय ज़मान-ओ-मकान के हुदूद से मावरा हो, उस तक उसकी रसाई कैसे हो सकती है।ख़ुसरो का दा’वा है ज़ेहन-ओ-दिमाग़ से ख़ुदा को समझना ख़ारिज अज़ इम्कान है।

हकीम गुफ़्त-शनासम ब-अ’क़्ल यज़्दाँ रा
ज़हे कमाल-ए-हिमाक़त-ओ-ईं चे गुफ़्तार अस्त।।

फ़ल्सफ़ी ने कहा कि मैं ख़ुदा को अ’क़्ल से पहचानता हूँ क्या कहने उस हिमाक़त के और उस बात के बेतुके-पन के।क्या कहूँ ख़ुदा से मुख़ातब हो कर। दूसरी जगह कहते हैं।

दर न-याई ब-फ़ह्म-ए-आ’लमियाँ।
वर्ना गुंजी बःवह्म-ए-आदमियाँ।।

ऐ ख़ुदा तू दुनिया वालों की अ’क़्ल-ओ-फ़ह्म में नहीं आ सकता  आउर न ही तू इन्सानों के वह्म में महदूद हो सकता है।

आदमी ख़ुद ही एक पुर-असरार मख़्लूक़ है।उसकी रूह और रुहानी ताक़त,बसीरत-ओ-विज्दान, इस्ति’दाद-ओ-सलाहियत,  हक़ीक़त-ए-अबदी से उसका रिश्ता और बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हों ने उसे एक मुअ’म्मा बना रखा है।अ’ब्दुल-करीम जिबिल्ली के अल्फ़ाज़ में इन्सान ख़ुद अपने अंदर एक पुर-असरार दुनिया है।बावजूद आ’ला दिमाग़ी कुव्वतों के जब वो अपने आपको समझने से क़ासिर है तो फिर उसके लिए ख़ुदा का इदराक कैसे मुम्किन है।अमीर ख़ुसरो कहते हैं।

आँ कि ख़ुद रा शनाख़्त न-तवानद।
आफ़रीनन्दः रा कुजा दानद।।

जो इन्सान अपने आपको नहीं समझ सकता वो अपने पैदा करने वाले को कहाँ जान सकता है।
ख़ुद-नुमाई हुस्न का जिबिल्ली तक़ाज़ा है।वो हैरान आँखों, तहसीन-आमेंज़ नज़र, मोहब्बत करने वाले दिल और परस्तिश  करने वाली रूह की तलाश में रहता है और मुसलसल आराइश-ए-जमाल में मसरूफ़ रहता है ताकि अपने आ’शिक़ को हमेशा लुभाता रिझाता रहे।हुस्न-ए-रब्बानी या हुस्न का मुंतहा भी अपने हुस्न की नुमाइश अक्सर और दाइमी तौर पर दिलों को जीतने के लिए करता रहता है।अब अमीर ख़ुसरो  का नज़रिया उनके अश्आ’र में मुलाहिज़ा कीजिए।

जमाल-ए-मुतलक़ आमद जल्वा-ए-आहंग।
मुक़य्यद गशत यक-रंगी ब-सद रंग।।

जब वो जमाल-ए-मुत्लक़ जल्वा-नुमा हुआ तो उसकी वहदत-ए- यक-रंगी सैकड़ों मुतनव्वे’ रंगों में आ गई।

चूँ जमालत आयत-ए-रहमत शुद अंदर शान-ए-ख़ल्क़।
आख़िर ईं चंदीं ज़े-बहर-ए-कुश्तनम तावील चीस्त।।

जब ख़ल्क़ में तेरा जमाल रहमत की निशानी है तो फिर जो मैं ताब-ए-नज़्ज़ारा न ला के क़त्ल हो गया इसका सबब क्या  है।

मुनादी कर्द हुस्न-ए-जलवः मुश्ताक़।
कि ऐ कि दर्द-ए-मा कू जान आ’शिक़।।

वो हुस्न जो जल्वा-नुमाई के लिए बे-ताब था उसने मुनादी करा दी है कि मैं बस उसी आ’शिक़ का मुश्ताक़ हूँ जो जान का नज़राना दे।रब्बानी हुस्न इन्सान की तिश्नगी को बढ़ाता है इसका सबब ख़ुद उसका मैलान-ए-ज़ुहूर है मगर वो कभी ख़ुद को मुकम्मल आशकार नहीं करता।ख़ुसरो शिकायत करते हैं।

रुख़ चे पोशी चूँ हदीस-ए-हुस्न-ए-तू पिनहाँ न-मांद।
गुल ब-सद पर्दः दराद अज़ बू-ए-ख़ुद मस्तूर नीस्त।।

ऐ ख़ुदा जब तेरे हुस्न का चर्चा गली गली है तो तेरे मुँह छुपाने से फ़ायदा? फूल हज़ार पर्दों में निहाँ रहे मगर अपनी महक की वजह से छुप नहीं सकता।
हुस्न-ए-हक़ीक़ी न तो ख़ुद को पोशीदा ही रख सकता है न मुकम्मल बे-हिजाब हो सकता है क्योंकि अगर आशकार हो जाए तो हर सांस सीने में रुक जाए और हर आँख हमेशा के लिए फटी की फटी रह जाए।हज़रत अमीर ख़ुसरो कहते हैं।

चे पोशी पर्दः बर रुए कि आँ पिनहाँ नमी-मानद।
व गर बे-पर्दः मी-दारी तने रा जां नमी-मानद।।

ख़ुदाया वो चेहरा जो छुप नहीं सकता उस पर पर्दा डालने से हासिल? मगर तू बिल्कुल बे-पर्दा भी तो हो नहीं सकता क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो सबकी रूह तन से निकल जाएगी।
हाँ अगर ख़ुदा अपने हुस्न-ए-बे-पायाँ को बे-हिजाब कर दे तो पैग़ंबर भी ग़श खा के गिर पड़ें और जान से हाथ धो बैठें। अमीर ख़ुसरो फ़रमाते हैं।

मसीह-ओ-ख़िज़्र रा आँ रूए नुमाई।
ब-कुश जानम मरा गर ज़िंदा मानद।।

अमीर ख़ुसरो का इ’श्क़

काएनात का हुस्न हर फ़र्द-ए-बशर को मस्हूर कर लेता है और उसका दिल मोह लेता है और हर कस-ओ-नाकस उसकी चाह-ओ-उल्फ़त में फंस जाता है।सादा-ओ-पुर-कार,आ’क़िल-ओ-दाना, ज़ीरक-ओ-बे-वक़ूफ़ भी उसके आ’शिक़ हैं।ता-हम अहल-ए-बसीरत जानते हैं कि न तो उसका हुस्न दाइमी है न उसकी ये कशिश-ओ-जाज़बिय्यत ही मुस्तक़िल है।माद्दी शय मसरूर- कुन तो होती है मगर लम्हाती तौर पर बल्कि ये अक्सर दुख, रंज-ओ-मेहन  और मायूसी का सबब होती है।ता-हम सूफ़िया कहते हैं कि पहले आदमी को फ़ितरत की इस आनी जानी हुस्न से और फ़ानी इन्सान से मोहब्बत करना सीखना चाहिए क्योंकि काएनात का हुस्न और उसकी मोहब्बत ही हुस्न की काएनात-ए-कुल (ख़ुदा) की मोहब्बत की सम्त क़दम उठाती है।अ’ब्दुर्रहमान जामी कहते हैं।

म-ताब अज़ इ’श्क़ रु गर्चे मजाज़ अस्त।
कि आँ बहर-ए-हक़ीक़ी कारसाज़ अस्त।।

इ’श्क़-ए-मजाज़ी से न कतराओ कि यही मजाज़ी इ’श्क़ तो इश्क़-ए-हक़ीक़ी का ज़ीना है।मोहब्बत में लौ लगाना ना-गुज़ीर है और जब कोई ग़ैर मरई हुस्न को हासिल करने के लिए तजरबा-कार हो जाता है तो मुशाहदा में आने वाली शय की मोहब्बत ही हुस्न-ए-ना-दीदा की मोहब्बत का रास्ता हमवार करती है।मगर ये जभी मुम्किन होगा कि इन्सान इस फ़ानी हुस्न की मोहब्बत को वसीला-ओ-ज़रिया’ ही क़रार दे न कि मंज़िल-ए-आख़िर या ख़ात्मा।ख़ुसरो का दा’वा है कि फ़ानी हुस्न की मोहब्बत के तवस्सुल से आदमी की रसाई हुस्न-ए-अज़ल तक हो सकती है ब-शर्तेकि उसकी मोहब्बत ख़ालिस पाक-ओ-पुर-ख़ुलूस हो।

आँ कि ज़े-हक़ पाकी-ए-चश्मश अ’तास्त।
मन्अ’ ज़े-रुख़्सार-ए-बुतानश ख़तास्त।।

जिस किसी को मिन-जानिबिल्लाह नज़र की पार्साई अ’ता हो गई हो उसे मा’शूक़ों के रुख़्सार को चूमने से मन्अ’ करना गुनाह है।इसके अ’लावा एक दूसरी हक़ीक़त ये भी है कि हुस्न-ए-मजाज़ी के इ’श्क़ में ना-कामयाब हो जाने वाला आ’शिक़ अक्सर हुस्न-ए-हक़ीक़ी की तरफ़ लपकता है।हुस्न-ए-अज़ल उस मायूस-ओ-नाउम्मीद रूह को जो हुस्न-ए-मजाज़ की मोहब्बत में दीवाना हो गया है तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी देता है और उसे दाइमी मसर्रत और इंतिहाई ख़ुशी की तरफ़ खींच लाता है।अफ़्लातून के क़ौल के मुताबिक़ हुस्न-ए-मुत्लक़ के आ’शिक़ को नई और दरख़्शाँ ज़िंदगी बतौर-ए-इन्आ’म मिलती है जिसमें वो माद्दी ज़िंदगी के दर्द-ओ-अलम को भूल कर नज़ारा-ए-हुस्न-ए-मुत्लक़ का लुतफ़ उठाता है और ऐसी ख़ुशी पाता है जो हर ख़ुशी से आ’ला-ओ-अर्फ़ा’ होती है।ख़ुसरो ख़ुदा से कहते हैं।

ता तू नमूदी जमाल-ए-नक़्श-ए-हमः नेकवाँ।
रफ़्त बरुँ अज़ दिलम नक़्श-ए-तू अज़ जाँ न रफ़्त।।

जब तू जल्वा-नुमा हुआ तो तमाम हसीनों के नुक़ूश-ए-जमाल मेरे दिल से मा’दूम हो गए मगर तेरा नक़्श-ए-दिल-फ़रेब मेरी जान में जम कर रह गया।
हुस्न मोहब्बत का जन्म-दाता और मोहब्बत, ज़िंदगी का हुस्न है चाहे वो हसीन ख़यालात हों या अ’मल-ओ-किरदार।ब-क़ौल अफ़्लातून मोहब्बत एक मुल्हिमाना दीवानगी और ख़ुदा की एक ख़ूबसूरत बख़्शिश है जो इन्सानियत के लिए बरकत-ओ-सआ’दत और अख़्लाक़ियात का सर-चश्मा है।एक शख़्स की ख़ुदा तक रसाई सिर्फ़ मोहब्बत ही के ज़रिया हो सकती है। मोहब्बत करने वाले ख़ुदा की बारगाह में एक आ’ला रुत्बा रखते हैं।ख़्वाजा बंदा-नवाज़ के अ’क़ीदे के ब-मोजिब दो-आ’लम पर मोहब्बत की हुक्मरानी है।यही मोहब्बत काएनात की रूह है और वो सिवाए ख़ुदा के कुछ और नहीं।

अ’क़्ल दर्द-ए-सर अस्त अज़ीं मा’नी।
आ’रिफ़ाँ आ’शिक़-ए-जुनूँ बाशद।।

मा’रिफ़त जुनून से हासिल होती है होश से नहीं।आ’रिफ़ान-ए-इ’श्क़ जुनून के बंदे होते हैं।इस तरह अ’क़्ल फ़क़त दर्द-ए-सर बन के रह जाती है।
इ’श्क़-ए-ख़ुदावंदी रफ़्ता-रफ़्ता इन्सान को फ़ना-फ़ील्लाह कर देता है और वो अपनी जिबिल्लत और उसके तकाज़ों से आज़ाद हो जाते हैं फिर वो ख़ुदा की दरगाह में मिस्ल-ए- आगस्टाइन के यूँ फ़र्यादी होता है।
“ख़ुदाया मेरी हड्डियों को अपनी मोहब्बत में शराबोर कर दे।
जब तूने हमें अपने लिए बनाया है तो फिर हमारे दिलों को तेरे सिवा कोई सुकून नहीं दे सकता।”

इमाम हज़रत ज़ैनुल-आ’बिदीन फ़रमाते हैं:-

“ख़ुदाया मैंने तेरी तमन्ना में सब कुछ तज दिया है और मुझे बस अब तेरी ही चाह है क्योंकि ऐसा नादान कौन होगा जो तेरे इ’श्क़ का लज़्ज़त-आश्ना होने के बा’द मासिवा की मोहब्बत का ख़याल भी करे और तेरे जवार में आ जाने के बा’द कौन है जो दूसरी तरफ़ रुख़ करे।तू उ’श्शाक़ का मुद्दआ’-ओ-मत्लूब मैं तुझी से तेरी मोहब्बत की भीक मांगता हूँ।”

इन मदारिज से गुज़र कर आ’शिक़ अपने महबूब ख़ुदा को शब-ओ-रोज़ और हमा-वक़्त अपने सामने निगराँ-ओ-इस्तादा पाता है जो हर लम्हा उसकी तरफ़ मुस्कुरा मुस्कुरा कर देख रहा हो और बग़ल-गीर होने के लिए बाहें फैलाए हो।

पैग़ंबर, इमाम,सूफ़िया और अहल-ए-बातिन ख़ुदा की मोहब्बत मैं ख़ुद को नफ़्स-कुशी और ईसार का मुजस्समा बना लेते हैं। और जो शख़्स ख़ुद को मिटा देता है वो रज़ा-ओ-तवक्कुल का दर्जा हासिल कर लेता है।तवक्कुल की शिद्दत उसे हर ज़ाती-ओ-निजी मस्एले से दस्त-कश कर देती है और वो ज़िंदगी के हाथों में एक मुर्दा की मिसाल हो जाता है।

अमीर ख़ुसरो ख़ुदा से ख़िताब करते हैं-

असरे न-मांद बाक़ी  ज़े मन अंदर आरज़ूयत।
चे कुनम चू सैर-ए-दीदन न-तवाँ रुख़-ए-निकोयत।।

ख़ुदाया तेरी आरज़ू की शिद्दत ने मेरी अंदर ज़िंदगी का कोई असर बाक़ी ही नहीं रखा।अब और मैं क्या करूँ जबकि तेरे रू-ए-ख़ूब को जी भर के देखना भी मुम्किन नहीं”।

साभार – फ़रोग़-ए-उर्दू ( अमीर ख़ुसरौ नम्बर )

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