हिन्दुस्तानी क़व्वाली के विभिन्न प्रकार
हिंदुस्तान में क़व्वाली सिर्फ़ संगीत नहीं है। क़व्वाली इंसान के भीतर एक संकरे मार्ग का निर्माण करती है जिसमे एक तरफ़ खुद को डालने पर दूसरी और ईश्वर मिलता है। क़व्वाली की विविध विधाएं हिंदुस्तान में प्रचलित रही हैं। ये विधाएं क़व्वाली के विभिन्न अंग हैं जो कालान्तर में क्रमित विकास द्वारा स्थापित हुई हैं। हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब और साझी विरासत का एक जीता जगता उदाहरण क़व्वाली है जिसका एक अंग भजन भी है। शाह तुराब अली क़लन्दर के कृष्ण भक्ति पद हों या नवाब हिल्म द्वारा लिखित ‘कन्हैया याद है कुछ भी हमारी’, क़व्वाली अपने हर रूप में हमें परमात्मा से जोड़ने का काम करती है। क़व्वाली की विविध विधाओं पर बहुत कम जानकारी है परन्तु ये विधाएं आज भी अपनी पूरी धज के साथ जिंदा हैं। गुलदस्ता ए क़व्वाली किताब के प्रकाशित होने के बाद क़व्वाली के ऊपर पड़ी धुंध बहुत हद तक दूर हुई है। क़व्वाली की विभिन्न विधाओं के विषय में किताब में विस्तार से बताया गया है। सूफ़ियों ने भारतीय संस्कृति के पैराहन में न सिर्फ़ अपना सूई धागा लगाया बल्कि क़व्वाली के रूप में उसमे जड़ी गोटे भी लगाये. क़व्वाली के विभिन्न रूप यूँ हैं –
- हम्द – हम्द ईश्वर स्तुति को कहते हैं। क़व्वाली की शुरुआ’त हमेशा हम्द से की जाती है।
बेदम शाह वारसी (1876 – 1936)
कौन सा घर है कि ऐ जाँ नहीं काशाना तिरा और जल्वा-ख़ाना तिरा
मय-कदा तेरा है का’बा तिरा बुत-ख़ाना तिरा सब है जानाना तिरा
तू किसी शक्ल में हो मैं तिरा शैदाई हूँ तेरा सौदाई हूँ
तू अगर शम्अ’ है ऐ दोस्त मैं परवाना तिरा या’नी दीवाना तिरा
मुझ को भी जाम कोई पीर-ए-ख़राबात मिले तेरी ख़ैरात मिले
ता-क़यामत यूँही जारी रहे पैमाना तिरा रहे मय-ख़ाना तिरा
तेरे दरवाज़े पे हाज़िर है तिरे दर का फ़क़ीर ऐ अमीरों के अमीर
मुझ पे भी हो कभी अल्ताफ़-ए-करीमाना तिरा लुत्फ़-ए-शाहाना तिरा
सदक़ः मय-ख़ाने का साक़ी मुझे बे-होशी दे ख़ुद-फ़रामोशी दे
यूँ तो सब कहते हैं ‘बेदम’ तिरा मस्ताना तिरा अब हूँ दीवाना तिरा
2. ना’त
ना’त हज़रत मुहम्मद (PBUH) की शान में लिखे गए कलाम को कहते हैं। ना’त को हम्द के बा’द पढ़ा जाता है।
सीमाब अकबराबादी
1880-1951
पयाम लाई है बाद-ए-सबा मदीने से
कि रहमतों की उठी है घटा मदीने से
इलाही कोई तो मिल जाये चारागर ऐसा
हमारे दर्द की लादे दवा मदीने से
हमारे सामने ये नाज़िश-ए-बहार फ़ुज़ूल
बहिश्त ले के गई है फ़िज़ा मदीने से
ना आएं जाके वहां से यही तमन्ना है
मदीने लाके ना लाए ख़ुदा मदीने से
फ़रिश्ते सैंकड़ों आते हैं और जाते हैं
बहुत क़रीब है अ’र्श-ए-ख़ुदा मदीने से
इसी का फ़ैज़ है दुनिया में ये वो चौखट है
जो कुछ किसी को मिला वो मिला मदीने से
हम उस को मरजा’-ए-मक़सूद-ए-इश्क़ कहते हैं
दिल-ए-हज़ीं कहीं खोया मिला मदीने से
3. क़ौल
क़व्वाली अ’रबी के ‘क़ौल’ शब्द से आया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बयान करना’। इसमें हज़रत मुहम्मद (PBUH ) की किसी उक्ति को बार बार पढ़ा जाता है। क़ौल को हम्द, ना’त और मनक़बत के बा’द पढ़ा जाता है।
अमीर ख़ुसरौ
1253 – 1325
मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अ’लीयुन मौला
दा-रा-दिल-दा-रा-दिल दर-दानी
हम-तुम त-ना-ना-ना ना-ना-रे
यला ली यलाली यलाली-यलाली या ला ली
मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अ’लीयुन मौला
4. मनक़बत
मनक़बत किसी सूफ़ी बुज़ुर्ग की शान में लिखी गयी शायरी को कहते हैं। हम्द और ना’त के बा’द अक्सर क़व्वाल जिस सूफ़ी बुज़ुर्ग के उर्स पर क़व्वाली पढ़ते हैं उनकी शान में मनक़बत पढ़ी जाती है।
मुज़्तर ख़ैराबादी
1856 – 1927
दिल में भरा हुआ है जोश-ए-वला-ए-वारिस
कोई मकीं नहीं है इस का सिवाए वारिस
क्या जाने क्या कहा था क्या जाने क्या सुना था
कानों में आ रही है अब तक सदा-ए-वारिस
देखूँ तो किस को देखूँ चाहूँ तो किस को चाहूँ
आँखें हैं महव-ए-वारिस दिल मुब्तला-ए-वारिस
ये रंग ज़िंदगी का रखे ख़ुदा हमेशा
दिल में हो दर्द-ए-वारिस सर में हवा-ए-वारिस
मेरा निशान-ए-मदफ़न बर्बाद हो रहा है
इस की भी कुछ ख़बर ले ऐ ख़ाक-ए-पा-ए-वारिस
‘मुज़्तर’ का ये तड़पना बा’द-ए-फ़ना तो कम हो
तुर्बत पे आ के जम जा ऐ नक़्श-ए-पा-ए-वारिस
5. रंग
अमीर ख़ुसरो ने रंग को महा रंग भी कहा है। रंग इंसानी चेतना के महाचेतना और अचेतन के महाचेतन में विलय के उत्सव का प्रतीक है। उ’र्स के दौरान क़व्वाली को हमेशा रंग पर ही ख़त्म किया जाता है।
अमीर ख़ुसरौ
1253 – 1325
आज रंग है ऐ महा-रंग है री
आज रंग है ऐ महा-रंग है री
मेरे महबूब के घर रंग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया अलाउद्दीन औलिया
अलाउद्दीन औलिया फरीदुद्दीन औलिया
फरीदुद्दीन औलिया कुत्बुद्दीन औलिया
कुत्बुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया
मुइनुद्दीन औलिया मुहिउद्दीन औलिया
आ मुहिउद्दीन औलिया मुहिउद्दीन औलिया
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो
जग उजियारो जगत उजियारो।
वो तो मुँह माँगे बर संग है री
मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखियो सखी री
मैं तो ऐसी रंग देस-बिदेस में ढूँड फिरी हूँ
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन
मुँह माँगे बर संग है री
सजन मिलावरा इस आँगन मा
सजन सजन तन सजन मिलाव रा
इस आँगन में उस आँगन में
अरे इस आँगन में वो तो उस आँगन में
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
आज रंग है ऐ महा-रंग है री
6. ग़ज़ल
ग़ज़ल उर्दू और फ़ारसी शाइरी की सबसे लोकप्रिय विधा है।सूफ़ियों ने न सिर्फ़ शाइरी की है बल्कि ज़्यादातर सूफ़ी बुज़ुर्ग साहिब -ए-दीवान थे।सूफ़ी ख़ानक़ाहों पर ये ग़ज़लें ख़ूब पढ़ी जाती है।
अमीर ख़ुसरौ
1253 – 1325
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न-दारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़-ओ-रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
यकायक अज़ दिल दो चश्म-ए-जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ
चूँ शम्अ’-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़े-मेहर-ए-आँ-मह ब-गश्तम आख़िर
न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ
ब-हक़्क़-ए-आँ-मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मा रा फ़रेब ‘ख़ुसरव’
सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ
7. सेहरा
सेहरा अक्सर फूलों का या सुनहरी तारों का होता है जो दुल्हे के सर पर बाँधा जाता है। उसकी लटकनें दुल्हे के चेहरे पर लटकती रहती हैं और उन से दुल्हे का चेहरा छुपा होता है। सूफ़ी ख़ानक़ाहों में जब किसी सज्जादानशीन या साहिब ए सज्जादा की शादी होती है तब क़व्वाल सेहरा पढ़ते हैं।
बेदम शाह वारसी
1876 – 1936
है रुख़ का पहलू-नशीं सेहरा
न हो ये क्यूँ मह-जबीं सेहरा
क़िरान-ए-सा’दैन सामने है
हसीं दूल्हा हसीं सेहरा
जबीं सेहरे को चूमती है
कि चूमता है जबीं सेहरा
हवा से लड़ियाँ लचक रही हैं
है किस क़दर नाज़नीं सेहरा
ये उलझा कंगने से इसलिए है
कि चूम ले आस्तीं सेहरा
छुपा है मिक़्ना’ में किस अदा से
बना है पर्दा-नशीं सेहरा
नज़र में खप जाए सब की ‘बेदम’
हर इक के हो दिल-नशीं सेहरा
8. गागर
गागर के रस्म की शुरुआत हज़रत शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपुरी की ख़ानक़ाह से मानी जाती है। कहते हैं कि अपने पीर के उर्स पर एक बार वह गागर में पानी भरने गए। साथ-साथ उनके मुरीदों ने भी अपने सर पर गागर उठा ली। सब लोग गागर लेकर चल रहे थे और क़व्वाल कलाम पढ़ रहे थे। यह शैख़ को बड़ा भाया और उस दिन से वहां गागर की रस्म चल पडी। खैराबाद में हजरत शैख़ सा’दुद्दीन खैराबादी की दरगाह पर भी गागर की रस्म मनाई जाती है जिसमे क़व्वाल गागर पढ़ते हैं।
शाह मुहम्मद नई’म अता
कोऊ आई सुघर पनिहार
कुआं नाँ उमड़ चला !
के तुम गोरी सांचे की डोरी
के तुम्ही गढ़ा रे सोनार
कुआं नाँ उमड़ चला !
ना हम गोरी सांचे की डोरी
ना हमीं गढ़ा रे सोनार
कुआं नाँ उमड़ चला !
माई बाप ने जनम दियो है
रूप दियो करतार
कुआं नाँ उमड़ चला !
दास नईम दरसन का दासी
बेड़ा लगा दो पार
कुआं नाँ उमड़ चला !
9. सावन
सावन का महीना आदिकाल से ही कवियों का प्रिय विषय रहा है। महाकवि कालीदास ने तो इस पर महाकाव्य ही रच दिया था। कवि ह्रदय सूफ़ियों के लिए भी सावन का आगमन ईश्वर कृपा का प्रतीक है। औरतें इस महीने में अपने प्रियतम की याद में विरह के गीत गाती हैं और झूले डालती हैं। इसी को प्रतीक मानकर सूफ़ी अपने गुरु की याद और विरह में गीत, ठुमरी और दादरा लिखते हैं और इन्हें इस्तेलाह में सावन कहते हैं।
नादिम शाह वारसी
नन्हीं नन्हीं बूँदें मेघवा हो
बरसन लागे झर लाई
भर भए झील ताल उँमड चले
नदियन जल ना समाई
उठे लहर मानो परलो
लख लख जीयरा डराई
‘नादिम’ नय्या बिन पीया वारिस
मांझ भंवर परी आई
नन्ही नन्ही बूँदें मेघवा हो
10. सलाम
यह एक विधा है जिसमे पीर,पैग़म्बर और बुजुर्गों पर सलाम भेजा जाता है। यह एक दुआ होती है। सलाम का अर्थ सलामती है।सलाम एक दुआ है कि सब सूफ़ी सुख और अमन बाटें।
हड़बड़ शाह वारसी
ऐ मेरे वारिस मेरे आक़ा सलाम
ऐ मेरे मालिक मेरे मौला सलाम
अस्सलाम ऐ मेह्र-ए-इरफ़ाँ अस्सलाम
अस्सलाम ऐ सैय्यद-ए-आ’लम-मक़ाम
अस्सलाम ऐ हक़ के प्यारे अस्सलाम
और मोहम्मद के दुलारे अस्सलाम
अस्सलाम ऐ फ़ातिमा के लाडले
अस्सलाम ऐ राहत-ए-ख़स्ता-दिले
हाल-ए-दिल सुन लीजिए बहर-ए-खु़दा
कीजिए मक़्बूल मेरी इल्तिजा
11. होली
सूफ़िया के यहाँ ही सुलह-कुली संस्कृति का ताना बाना बुना गया। हिंदुस्तान में कुछ दरगाहों पर होली का त्यौहार मनाया जाता है। यहाँ हज़रत वारिस पाक की दरगाह का नाम उल्लेखनीय है जहाँ होली मनाई जाती है। वारसी सूफ़ियों ने होली पर ख़ूब कलाम लिखे हैं।
नादिम शाह वारसी
देखो जे गवय्याँ फागुन की रुत आई
सय्याँ बिन के संग खेलूँ जाई
रंग के राग सखी सब गावें
घर घर धूम मचाई
रच रच चाचर लागन धमारी
धूल दफ़ झाँझा बजाई
वारिस पिया बिन जिया मोरा ‘नादिम’
हुलस हुलस रह जाई
12. चादर
उर्स के साथ इस रस्म को मनाया जाता है। चादर आदर और सम्मान की अलामत है। मुरीद चादर के चारों कोनों को पकड़ कर खड़े होते हैं और साथ साथ बाकी मुरीद चलते हैं। चारों कोनों से पकड़ कर चादर सर के ऊपर टांग ली जाती है और साथ साथ क़व्वाल चादर पढ़ते हैं। उर्स के अलावा बाकी दिनों में भी चादर-पोशी के दौरान चादर पढ़ी जाती है।
बेदम शाह वारसी
जनाब-ए-वारिस-ए-आल-ए-अ’बा की चादर है
हुज़ूर-ए-ख़्वाजा-ए-गुल्गूँ-क़बा की चादर है
अमीर-ए-शह्र-ए-विलायत करीम इब्न-ए-करीम
तमाम ख़ल्क़ के हाजत-रवा की चादर है
नबी के लाल की मौला अ’ली के जानी की
ये यादगार-ए-शह-ए-कर्बला की चादर है
गदा-नवाज़ सख़ी दस्तगीर-ए-मज़्लूमाँ
ग़रीब-परवर-ओ-मुश्किल-कुशा की चादर है
मिलेगा हुस्न का सदक़ा ग़रीब ‘बेदम’ को
जमील-ए-हुस्न-ओ-जमाल-ए-ख़ुदा की चादर है
13. मुबारक
किसी को खिलाफत अता होने, बै’त होने या नयी ख़ानक़ाह तामीर होने के मौके पर क़व्वाल कलाम पढ़ते हैं जिनके अंत में मुबारक बाशद आता है।
बेदम शाह वारसी
साया-ए-अहमद-ए-मुख़्तार मुबारक बाशद
निस्बत-ए-हैदर-ए-कर्रार मुबारक बाशद
या ख़ुदा तालिब-ए-इक्सीर को इक्सीर मिले
हम को ख़ाक-ए-दर-ए-जानानाँ मुबारक बाशद
तू सलामत रहे जारी तिरा फ़ैज़ान रहे
दीद वालों को हो दीदार मुबारक बाशद
आईना-ख़ाना बना सूरत-ए-वारिस ‘बेदम’
लुत्फ़-ए-नज़्ज़ारा-ए-सरकार मुबारक बाशद
14. गुस्ल
गुस्ल के मौके पर मज़ार को गुलाब जल से धोया जाता है और गुस्ल का कलाम पढ़ा जाता है। हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हर साल गुस्ल मनाया जाता है।
वसीम ख़ैराबादी
ग़ुस्ल-ए-मरक़द को मलक लाए मुसफ़्फ़ा पानी
चाहिए चश्मा-ए-जन्नत को अछूता पानी
उनकी तक़दीर-ए-रसा पर है फ़रिश्तों को भी रश्क
उर्स-ए-मख़दूम में लाया जिन्हें दाना पानी
तू गले मिल के बजा मुजरई बहर-ए-करम
सर से अब चश्म-ए-निदामत को है ऊँचा पानी
क़ब्र-ए-मख़दूम को छूने से जो मह़रूम रहा
इसी ह़सरत से है दरिया में तड़पता पानी
तालिब-ए-फैज़ हूँ मैं पेश-ए-मज़ार-ए-अनवर
जैसे मांगे कोई प्यासा लब-ए-दरिया पानी
धोए जुर्म अहल-ए-मआ’सी के दम-ए-ग़ुस्ल-ए-मज़ार
बहर-ए-अल्ताफ़-ए-इलाही का उबलता पानी
सा’द के दर से मलो दीदा-ए-गिर्याँ को ‘वसीम’
कुछ न वसवास करो पाक है बहता पानी
15. कमली
हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद काली कमली ओढ़ते थे। उसी मुनासिबत से कमली की यह रस्म ख़ानक़ाहों पर मनाई जाती है। समाअ से पहले मुरीद कमली को अपने सरों पर तान लेते हैं और क़व्वाल कमली पढ़ते हैं। धीरे धीरे बढ़ते हुए मुर्शिद को कमली ओढा दी जाती है।
16. जोड़ा
समाअ से पहले तश्तरी में मुरीद अपने मुर्शिद का जोड़ा लाते हैं। एक तश्तरी में रुमाल, ख़ुशबू, साबुन आदि होते हैं जिन्हें अपने सर पर रखकर मुरीद खड़े होते हैं। जब क़व्वाल कमली पढ़ते हैं तब मुरीद बीच बीच में झूमते हुए अपना हाथ बुलंद करते हैं और फिर मुर्शिद के हुज़ूर जोड़ा पेश किया जाता है। मुर्शिद जोड़े पर एक नज़र डालते हैं और फिर जोड़ा तकसीम कर दिया जाता है । इस रस्म के बाद क़व्वाल जोड़ा पढना बंद करते हैं और आगे कलाम पढ़ते हैं।
17. संदल
गुस्ल के साथ साथ संदल की रस्म भी मनाई जाती है जिसमे मज़ार पर संदल मलते हैं जिसे संदल माली कहते हैं। अवध की दरगाहों में यह रस्म बड़ी प्रचलित है।
दर शा न-ए-मख़्दू म अ’ली फ़क़ीह
धूम से निकला है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
किस क़दर महका है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
वाह क्या निकला है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
अफ़ज़ल-ओ-आ’ला है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
हो रहे हैं देखकर सब तालिबान-ए-दीद मह्व
लुत्फ़ क्या देता है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
क्यों न हासिल हो शिफ़ा उस से हर इक बीमार को
फ़ैज़ का दरिया है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
हर गली कूचा महक उट्ठा है संदल के सबब
क्या ही ये महका है संदल हज़रत-ए-मख़्दूम का
18. फूल
गुलपोशी अर्थात फूल पेश करते समय फूल पढ़ा जाता है ।
फ़ना बुलंदशहरी
-1986
तुम्हारे दर पे जो बाबा चढ़ाए जाते हैं
वो फूल मक्के मदीने से लाए जाते हैं
फ़क़ीर अपना मुक़द्दर बनाए जाते हैं
दर-ए-फ़रीद पे धूनी रमाए जाते हैं
नि गाह-ए-लुत्फ़ जो बाबा उठाए जाते हैं
हर एक ग़रीब की बिगड़ी बनाए जाते हैं
अ’ता हो सदक़ा ऐ ख़्वाजा पिया ग़रीबों को
सदा एँ माँगने वाले लगाए जाते हैं
नमाज़-ए-इ’श्क़ अदा कर रहे हैं दीवाने
दर-ए-फ़रीद पे सर को झुकाए जाते हैं
सिवाए बाब किसी की तलब नहीं है ‘फ़ना’
हम उन के इ’श्क़ में हस्ती मिटाए जाते हैं
19. बसंत
बसंत के संबंध में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से संबंधित एक क़िस्सा प्रसिद्ध है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय भाँजे ख़्वाजा तक़ीउद्दीन नूह की मृत्यु अल्पायु में हो गई थी। इससे व्यथित हो कर हज़रत अक्सर अपनी ख़ानकाह के समीप ही चबूतरा-ए-याराँ में चहलक़दमी किया करते थे। हज़रत के सबसे प्रिय मुरीद अमीर ख़ुसरौ को जब इसका पता चला तो वह हज़रत को ख़ुश करने की जुगत में लगे। बसंत पंचमी का दिन था और दिल्ली के लोग नई फ़स्ल की बालियाँ हाथों में लिए कालका जी मंदिर में अर्पित करने जा रहे थे। अमीर ख़ुसरौ ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि इससे माता प्रसन्न होती हैं। हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने भी सरसों की कुछ बालि याँ उठाईं और चबूतरा-ए-याराँ पहुँचे। उन्होंने ये बालियाँ हज़रत के क़दमों पर रख दी। हज़रत ने उत्सुक्तावश पूछा – चीस्त? (यह क्या है) अमीर ख़ुसरौ ने जवाब दि या- “अरब यार तोरी बसंत मनाई”। यह सुन कर हज़रत के होंठों पर हँसी तैर गई। उस दिन से ही बसंत का उत्सव हर साल चिश्ती ख़ानक़ाहों में मनाया जाने लगा।
अमीर ख़ुसरौ
1253 – 1325
सकल बन फूल रही सरसों
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं करसों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खि लाए
ले गढवा हाथन में आए
निज़ामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आ’शिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों
20. भजन
सूफ़ी संतों ने भजन भी लिखे हैं जो सूफ़ी ख़ानक़ाहों पर ख़ूब गाये जाते हैं . क़ाज़ी अशरफ़ महमूद द्वारा रचित भजन दर्शनोल्लास को पंडित भीमसेन जोशी जी ने अपनी आवाज़ दी थी जो बड़ी प्रसिद्द हुई
क़ाज़ी अशरफ़ महमूद
ठुमुक ठुमुक पग, कुमुक-कुंजमग
चपल चरण हरि आए।
हो हो, चपल चरण हरि आए।
मेरे प्राण भुलावन आए
मेरे नयन लुभावन आए
निमिक-झिमिक-झिम, निमिक झिमिक-झिम
नर्तन-पद-ब्रज आए
हो हो, नर्तन-पद-ब्रज आए
मेरे प्राण भुलावन आए
मेरे नयन लुभावन आए।
हज़रत बाबा फ़रीद के उ’र्स पर कौड़ियाँ फेंकने की भी एक प्रचलित प्रथा है जो शुरुआ’त से ही चली आ रही है। इस प्रथा का उल्लेख ‘अनवार उल फ़रीद’किताब में आता है। कहते हैं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया एक बार हज़रत बाबा फ़रीद से मिलने अजोधन आये। उसी रात वहाँ मज्लिस-ए –समाअ’ का आयोजन किया गया जिसमें प्रसिद्ध सुहरवर्दी मशायख़ शैख़ रुक्नुद्दीन सुहरवर्दी भी मौजूद थे। क़व्वालों ने जब कलाम पढ़ा तो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया वज्द में खड़े हो गए। शैख़ रुक्नुद्दीन ने दो दफ़ा’ उन्हें पकड़ कर बिठा लिया पर तीसरी दफ़ा’ वह उठ कर चले गए। बाद में पूछने पर उन्होंने बताया कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ऐसे आध्यात्मिक मक़ाम पर थे जहाँ से उन्हें पकड़ कर बिठा पाना नामुम्किन था। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने उस मज्लिस में तीन लोगों के कंधों पर हाथ रखा था और उस मज्लिस में हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने उन पर कौड़ियाँ और अशर्फ़ियाँ न्योछावर की थीं। तब से लेकर आज तक यह रस्म चली आ रही है. जिसमें उ’र्स के दौरान रोज़ाना तीन सूफ़ी बनाए जाते हैं और कौड़ियाँ फेंकी जाती है। तीनो सूफ़ियों के लिए अलग अलग कलाम पढ़े जाते है जिनके कुछ
मिसरे यूँ हैं –
मंज़िल-ए-इश्क़ अज़ मक़ाम-ए-दीगर अस्त
मर्द-ए-मा’नी रा निशान-ए-दीगर अस्त
-अहमद जाम
मन नेयम वल्लाह यारा मन नेयम
जान-ए-जानम सिर्र-ए-सिर्रम तन नेयम
-मसूद बक( ख़लीफ़ा हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया)
ब-ख़ुदा ग़ैर-ए-ख़ुदा दर दो जहाँ चीज़े नीस्त
बे-निशाँ अस्त कज़ू नाम-ओ-निशाँ चीज़े नीस्त
-मौलाना जामी
उ’र्स की आख़िरी मज्लिस में हज़रत अमीर ख़ुसरौ का यह कलाम पढ़ा जाता है-
वो गए बालम वो गए नदिया किनार
आपै पार उतर गये हम तो रहे इही पार
– Suman Mishra
Guest Authors
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- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
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