Gems of Persian Sufi poetry

फ़ारसी सूफ़ी काव्य का पहला शाइ’र हज़रत अबू सईद अबुल ख़ैर (सन-997-1049 ई.) को माना जाता है। इन्हों ने ही फ़ारसी काव्य में सबसे पहले ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यंजना की.इनके विचार बड़े गहन हैं। सांसारिक वस्तुओं में उन्हें हक़ीक़ी महबूब के रूप की छटा दृष्टिगोचर होती है। ईश्वर से लौ लग जाने के पश्चात लौकिक प्रेम से आत्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है –

दिल जुज़ रह-ए-इश्क़े तू न  पोयद हरगिज़

जुज़ मेहनत-ओ-दर्द-ए-तू न गोयद हरगिज़

सहरा-ए-दिलम इश्क़-ए-तू शोरिस्ताँ कर्द 

ता मेहर-ए-कसे दीगर न-रोयद हरगिज़

(अर्थात,मेरा ह्रदय इश्क़ की राह के सिवा कोई और राह नहीं ढूंढता,उसे तेरी पीर एवं प्रीत के सिवा कुछ नहीं चाहिए। मेरे ह्रदय के सेहरा को तेरे इश्क़ ने बंजर बना दिया है ताकि किसी और का स्नेह (बीज) उस में अंकुरित न हो।)

शैख़ अबुल ख़ैर, तस्लीम(परमात्मा की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करना) और रिज़ा (ईश्वर की आज्ञा में संतुष्ट रहना ) पर अपने भाव इस तरह व्यक्त करते हैं –

गर कार-ए-तू नेक अस्त ब-तदबीर-ए-तू नीस्त

ज़ाँकि  बद अस्त हम ज़े तक़्सीर-ए-तू नीस्त

तस्लीम ओ रिज़ा पेश: कुन व शाद बज़ी

चूँ नेक-ओ-बद-ए-जहाँ ब-तक़दीर-ए-तू नीस्त

(अर्थात –अगर तेरे सारे काम सुचारू रूप से संपन्न हो रहे हैं तो यह तेरे कर्मों की वजह से नहीं है और यदि तेरे काम बिगड़ रहे हैं तो इसमें भी तेरा कोई दोष नहीं है.ईश्वर की आज्ञा के सामने सर झुका और उसकी रिज़ा में संतुष्ट रह क्योंकि इस संसार की अच्छाई और बुराई तेरे हाथ में नहीं है। )

सय्यद आबिद अ’ली आ’बिद अपनी किताब तल्मिहात-ए-इक़बाल,हिस्सा-ए- फ़ारसी में फ़रमाते हैं –

“अबू  सईद अबुल ख़ैर पहले शाइर हैं,जिन्होंने तसव्वुफ़ की इस्तलाहात(सूफ़ी शब्दावली) के मा’नी (अर्थ )निश्चित किये और शे’र में ऐसे अ’लाइम व् रुमूज़ (प्रतीक )इस्तेमाल किये जो तसव्वुफ़ से मख़्सूस हैं … अत्तार ने,रूमी ने और हाफ़िज़ ने उन्हीं अ’लाइम और रुमूज़ से काम ले कर वह सर ब-फ़लक(गगन चुंबी)इमारत खड़ी की,जिसकी चोटियाँ बादलों में ग़ाइब होती नज़र आती हैं” ।

हज़रत ख्व़ाजा अब्दुल्लाह अंसारी (सन -1009 ई. – 1079 ई. )

ख्व़ाजा अब्दुल्लाह अंसारी अपनी सरस और सारगर्भित रुबाइयों के लिए प्रसिद्ध हैं।उनकी भाषा में प्रवाह है और कल्पना में रचनात्मकता। सरल किन्तु गहन भावों को रुबाई में सफलतापूर्वक व्यक्त कर के इन्हों ने ऐतिहासिक कार्य किया है। उनकी रुबाई का एक उदाहरण प्रस्तुत है जिसमें शाइर ने ख़ुदी का त्याग करने की बात कही है क्यूंकि ईश्वर से मिलन का यही एकमात्र उपाय है –

ऐ’ब अस्त बुज़ुर्ग बरकशीदन-ए-ख़ुद रा

 वज़ जुमल:-ए- ख़ल्क़ बरगुज़ीदन-ए-ख़ुद रा

अज़ मर्दुमक-ए-दीद: ब-बायद आमोख़्त

दीदन-ए-हम: कस रा व न-दीदन-ए-ख़ुद रा

(अर्थात – अपने आप को ऊँची हवाओं में रखना और पूरे संसार से अपने आप को उत्तम समझना एक बड़ा अवगुण है . हमें आँख की पुतली से सीखना चाहिए जो सबको देखती है लेकिन स्वयं को नहीं देखती।)

ईश्वर की राह में अपना पूर्ण समर्पण ही सूफ़ियों की कुल पूँजी है। सूफ़ी ईश्वर में यक़ीन रखता है और हर हाल में प्रसन्न रहता है। ख्व़ाजा अब्दुल्लाह अंसारी भी अपनी रुबाइयों में इसी निश्चिंतता का वर्णन करते हैं क्योंकि उन्हें यक़ीन है कि मृत्यु के उपरान्त भी उनकी ‘वफ़ा’ अमिट रहेगी।

पैवस्त: दिलम दम अज़ रिज़ा-ए-तू ज़नद

जान दर तन-ए-मन नफ़स बराए तू ज़नद

ग़र बर सर-ए-खाक़-ए-मन गियाहे रोयद

अज़ हर बर्गे बू-ए-वफ़ा-ए-तू ज़नद

(अर्थात – मेरा दिल हमेशा तेरी ‘रिज़ा’ के लिए धड़कता है। मेरी रूह बस तेरे लिए ही जिस्म में सांस लेती है। यदि मेरी क़ब्र पर घास उग जाए तो उसकी हर एक पत्ती से तेरी वफ़ा की महक आएगी।)

हकीम सनाई(1080-1131 ई.)

हकीम सनाई के समय तक फ़ारसी सूफ़ी काव्य तसव्वुफ़ के गूढ़ रहस्यवाद से पूर्णतया परिचित नहीं था। फ़ारसी शाइरी में इस समय तक बस प्रेम के भाव थे जिन में तसव्वुफ़ की झलकियाँ मिलती थी। सनाई ने आत्मा,परमात्मा,जीवन तथा जगत के सम्बन्ध में गहन चिंतन किया और तसव्वुफ़ के कई गूढ़ रहस्यों से पर्दा उठाया। ए लिटरेरी हिस्ट्री ऑफ़ पर्सिया के लेखक प्रो. ब्राउन का विचार है कि ईरान के तीन महानतम मसनवी लेखकों में हकीम सनाई प्रथम थे, द्वितीय शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार और तीसरे मौलाना रूमी थे। मौलाना रूमी फ़रमाते हैं –

अ’त्तार रूह बूद–ओ-सनाई दो चश्म-ए-ऊ

मा अज़ पए सनाई-ओ-अ’त्तार आमदेम

(अर्थात – अ’त्तार रूह थे और सनाई दो आँखें

हम अ’त्तार और सनाई के बाद आए .)

सनाई को कई विद्याओं में महारत हासिल थी इसलिए उन्हें हकीम के लक़ब से प्रसिद्ध हुए। उन्हें आरिफ़ सनाई भी कहते हैं। इनके जीवन के विषय में ज़्यादा नहीं मिलता लेकिन तज़किरों के अध्ययन से यह पता चलता है कि सुल्तान बहराम शाह के दरबार में इनका बड़ा आदर सम्मान था। बहराम शाह की इच्छा थी कि उनकी बहन का ब्याह सनाई से हो जाए परन्तु सनाई ने यह स्वीकार नहीं किया।

सनाई पहले क़सीदे लिखा करते थे,लेकिन बा’द में उन्हें विरक्ति हो गयी और वह सही मा’नों में सूफ़ी हो गए। उनके सूफ़ी बनने के विषय में एक रोचक घटना प्रसिद्द है –

एक बार बादशाह ने सर्दियों में हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का निश्चय किया। सनाई ने उसकी शान में एक क़सीदा लिखा और जिस दिन वह कूच करने वाला था,वह उसे सुनाने जा रहे थे। जब वह शराबखाने के पास से गुज़रे तो उन्हें कुछ गाने की आवाज़ सुनी। जब उन्होंने ध्यान से सुना तो अन्दर कोई दीवाना शराब पी रहा था और नशे में साक़ी से कहता जा रहा था –ला! एक प्याला बादशाह की अंधी आँखों के नाम ! साक़ी उसे झिड़का –अरे बेवक़ूफ़!ऐसे न्यायप्रिय बादशाह के लिए तू ऐसे अपशब्द क्यूँ कहता है ?दीवाने ने जवाब दिया –इसमें झूठ क्या है ?अभी ग़ज़नी तो पूरी तरह संभाल नही पाया है और इस ठण्ड में दुसरे देश को जीतना चाहता है। इस से बढ़ कर मूर्खता क्या होगी। यह कहकर उसने प्याला उठाया और एक सांस में पूरा पी गया। इसके बा’द वह दुबारा साक़ी से कहने लगा –लाओ !अब एक प्याला सनाई की अंधी आँखों के नाम लाओ !

साक़ी ने उसे फिर टोका – सनाई तो बड़ा शाइ’र है, तू उसकी निंदा क्यूँ करते हो ? दीवाने ने कहा– शाइ’र क्या है !मूर्ख है। झूटी-सच्ची बातें जोड़ कर एक मूर्ख के सामने पढता है। जब ख़ुदा सवाल करेगा तो क्या जवाब देगा ? यह पूरा वार्तालाप सुनकर सनाई के मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह संसार से विरक्त हो गए।

नफ़्हात-उल-उन्स में बहराम शाह की जगह सुल्तान महमूद का उल्लेख आया है। यही कारण है कि तारीख-ए-फ़िरिश्ता में इस घटना से इनकार किया गया है।

शैख़ अबू युसूफ हमदानी उस समय के कामिल दरवेश थे। हकीम सनाई उनके मुरीद हो गए।

हकीम सनाई की प्रतिभा बहुमुखी थी। उन्होंने सात मसनवियां और एक दीवान लिखा है। उनकी मसनवियों में हदीक़तूल-हक़ीक़त सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस मसनवी को सिर्फ़ हदीक़ा भी कहा जाता है। इनके दीवान में क़सीदे,ग़ज़लें, रुबाइयाँ आदि सम्मिलित हैं।

शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार (1145-1220 ई.)

शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने अपनी सूफ़ियाना शाइरी से फ़ारसी सूफ़ी साहित्य को विश्व भर में स्थापित कर दिया। शैख़ फ़रीदुददीन अ’त्तार के समक्ष मौलाना रूमी अपने आप को तुच्छ समझते थे –

हफ़्त शहरे इश्क़ रा अत्तार गश्त

मा हनुज़ अन्दर ख़म-ए-यक कूच:ऐम

(अर्थात – अ’त्तार ने इश्क़-ए-हक़ीक़ी के सातों शहरों का भ्रमण कर लिया है परन्तु हम अभी पहली गली के मोड़ पर खड़े हैं ।)

मौलाना रूमी एक जगह और लिखते हैं –

मन आँ मुल्ला-ए-रूमीअम कि अज़ नुत्क़म शकर रेज़द

 व लेकिन दर सुख़न गुफ़्तन ग़ुलाम-ए-शैख़ अत्तारम

(अर्थात – मैं रूम का वह मुल्ला हूँ ,जिसकी ज़बान से मधुरता टपकती है  लेकिन शे’र कहते समय मैं शैख़ अ’त्तार का दास हूँ !)

शैख़ अ’त्तार का नाम मुहम्मद,लक़ब फ़रीदुद्दीन और ‘फ़रीद’ तथा अ’त्तार उपनाम था। इनका जन्म कदगन नामक गाँव में हुआ था जो निशापुर के समीप स्थित है। इसीलिए इन्हें निशापुरी भी कहा जाता है।

उनके पिता इब्राहीम बिन इसहाक़,अत्तार थे और इत्र तथा दवाइयों का कारोबार करते थे। पिता के देहांत के बा’द शैख़ अ’त्तार ने अपने पिता का काम काज संभाल लिया .उन्होंने ख़ुसरौ नामा में लिखा है –

व दारु ख़ान: पंज सद शख़्स बूदंद

कि दर हर रोज़ नब्ज़म मी नुमूदंद .

(अर्थात – औषधालय में पांच सौ व्यक्ति प्रतिदिन नाड़ी परीक्षा करवाते थे ।)

उनकी विरक्ति के सम्बन्ध में एक घटना प्रसिद्ध है। इस घटना का उल्लेख मौलाना शिब्ली ने शेर-उल-अ’जम में किया है .

एक दिन शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। कहीं से एक फ़क़ीर वहां आ पहुंचा और उनकी दुकान की ठाट बाट  को देर तक देखता रहा। शैख़ ने झल्ला कर उस से कहा –क्यों व्यर्थ अपना समय नष्ट करते हो, जाओ और अपनी राह लो !

फ़क़ीर ने कहा –तुम अपनी चिंता करो ! मेरा जाना कौन सा कठिन कार्य है ? लो ! मैं चला ! यह कह कर वह वहीं लेट गया। शैख़ अ’त्तार ने जब उठकर देखा तो उस के प्राण निकल चुके थे। इस घटना ने शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार के ह्रदय में विरक्ति की लौ लगा दी। उन्होंने खड़े खड़े अपनी दुकान लुटवा दी और फ़क़ीर बन गए।    

 शैख़ अ’त्तार ने कई देशों का भ्रमण किया और अनेक सूफ़ियों से मिले । उन्होंने अपने समय के प्रसिद्ध सूफ़ी शैख़ रुक्नुद्दीन को अपना मुर्शिद बनाया। लताइफ़ु-तवाइफ में मंगोलों द्वारा उनकी हत्या के सम्बन्ध में दो रुबाइयाँ मिलती हैं। मौलाना अ’ली बिन सफ़ी बिन मुल्ला हुसैन वाइज़ काश्फ़ी (मृत्यु सन-1533 ई .) ने लिखा है कि मैंने अपने वालिद से सुना है कि जब निशापुर में हुए क़त्ल-ए-आ’म के समय हलाकू ख़ान के एक सैनिक ने शैख़ को शहीद किया तो उन्होंने यह रुबाई कही –

दर राह-ए-तू रस्म-ए-सरफ़राज़ी ईं अस्त

उश्शाक़-ए-तुरा कमीन:बाज़ी ईं अस्त

बा ईं हम: अज़ लुत्फ़-ए-तू नौमीदनेम

शायद कि तुरा बंद:-नवाज़ी ईं अस्त .

(अर्थात –तेरे पथ में सम्मानित और प्रतिष्ठित होने की यही एक रीति है। यह तो तेरे आशिक़ों का तुच्छ सा बलिदान है। मैं तेरी अनुकम्पा से निराश नहीं हूँ । शायद यही तेरी भक्त वत्सलता है ।)

इसके पश्चात इसी लेखक ने लिखा है कि जब हलाकू ने निशापुर में क़त्ल-ए- आ’म किया तो मंगोल सैनिकों में से एक ने शैख़ अ’त्तार का हाथ पकड़ा हुआ था और क़त्ल करने ले कर जा रहा था। शैख़ उस समय मस्ती की अवस्था में थे। उन्होंने उस सैनिक को निहारा और फ़रमाया –तू ने नमदे का ताज पहना हुआ है और हिन्दुस्तानी तलवार कमर पर बाँधी हुई है। तू समझता है कि मैं तुझे नहीं पहचानता ? यह सुनते ही सैनिक ने  तलवार निकाली और शैख़ को घुटनों के बल बिठाया। शैख़ ने तब यह आख़िरी रुबाई पढ़ी –

दिलदार ब-तेग़ बुर्द दस्त ऐ दिल बीं

बर बंद मियान-ओ-बर सर पा ब-नशीँ

वांग ब-ज़बान-ए-हाल मी-गो कि ब-नोश

जाम अज़ कफ़-ए-यार व शर्बते बाज़-पसीं .

(अर्थात – ऐ दिल ! देख प्रियतम ने अपना हाथ तलवार की तरफ़ बढाया है .तू अपनी कमर बांध ले ! पाँव के बल बैठ जा और फिर हाल की ज़बान से कह कि यार के हाथ से शराब का प्याला ! और आख़िरी वक़्त का शरबत पी !)

शैख़ अ’त्तार को लिखने का नशा था। सूफ़ी कवियों में संभवतः सब से अधिक किताबें शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने लिखी है। इनकी लिखी अनेक किताबों में से अब प्रायः 35 किताबें ही मिलती है। इसका सब से बड़ा कारण यह है कि जब शैख़ अ’त्तार की मृत्यु हुई उस समय चंगेज़ी तूफ़ान ने पूरा ईरान नष्ट भ्रष्ट कर रखा था। जो ग्रन्थ अब मिलते हैं वो वस्तुतः कुछ भले लोगों द्वारा सहेज कर रखने का परिणाम है।

इनकी रचनाओं में कई मसनवियाँ, एक दीवान और एक गद्य ग्रन्थ भी है। तज़किरात-उल-औलिया में इन्हों ने सूफ़ी संतों का जीवन चरित बड़ी रोचक भाषा में लिखा है। दीवान में ग़ज़लें, क़सीदे, क़तआ’त और रुबाइयाँ शामिल हैं।

दूसरे शाइरों की प्रकृति के विपरीत उन्होंने जीवन भर किसी की शान में कुछ नहीं लिखा। वह स्वयं फ़रमाते हैं – मैंने जीवन भर किसी की ता’रीफ़ में कुछ नहीं कहा। मैंने दुनियां के लिए मोती नहीं पिरोए।

इनकी रुबाइयाँ बड़ी उच्च कोटि की हैं –

चूं ज़र्र: ब–ख़ुर्शीद-ए-दरूख्शां पैवस्त

चूं क़तर:-ए- सरगश्त: ब-उम्माँ पैवस्त

जाँ बूद मियान-ए-वै व जानाँ हाएल

फ़िलहाल कि जाँ दाद ब-जानाँ पैवस्त

(अर्थात –वह एक ज़र्रे की भांति चमकते हुए आफ़ताब में मिल गया, एक भटकते हुए बिंदु की तरह समुद्र में लीन हो गया। उस के और महबूब के बीच यह जान एक बाधा थी। जैसे ही उसने अपनी जान न्योछावर की वह महबूब में मिल गया।

शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार की प्रसिद्धि उनकी मसनवियों की वजह से है। इन मसनवियों में कहानियों के द्वारा तसव्वुफ़ के गूढ़ रहस्यों को भी ऐसे समझाया गया है कि नीरस विषय भी रोचक हो जाता है। इनकी मसनवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय ‘मंतिक़ुतत्तैर’ है .

शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार के काल में सूफ़ीवाद का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ। इसका एक बड़ा कारण तातारियों के लगातार हो रहे हमले थे। जगत की क्षणभंगुरता और अस्थिरता, जिसका सूफ़ी बार बार इशारा करते थे, वह प्रत्यक्ष हो गयी। इस परिस्थिति में संसार से विरक्ति और ईश्वर के प्रति आकर्षण स्वाभाविक था। इस समय अपने रचनात्मक, दार्शनिक और रहस्यवादी काव्य से शैख़ अ’त्तार ने फ़ारसी काव्य को इतना समृद्ध कर दिया कि इसकी बुनियाद पर सूफ़ी दर्शन अब मज़बूती के साथ स्थापित हो गया था।

मौलाना जलालुद्दीन रूमी (1207-1273 ई.)

मौलाना रूमी विश्व के सर्वाधिक पढ़े और पसंद किये जाने वाले सूफ़ी शाइर हैं। इनकी शाइरी में रचनात्मक और भावनात्मक रस का प्रवाह इतना बेजोड़ है कि इसकी समता सूफ़ी शाइरी का कोई शाइर न कर पाया। प्रसिद्ध है –

मसनवी–ए-मौलवी-ए-मा’नवी

हस्त क़ुरआन दर ज़बान-ए-पहलवी

(अर्थात –मौलाना रूमी की मसनवी पहलवी भाषा की क़ुरआन है )

इनका नाम मुहम्मद,लक़ब जलालुद्दीन उर्फ़ मौलाना एवं उपनाम रूम था। इनके पिता मुहम्मद बिन हुसैन थे जिनका लक़ब बहाउद्दीन था । उनके दादा दादा शैख़ हुसैन भी सूफ़ी थे। मुहम्मद ख़्वारिज़्म शाह ने अपनी बेटी का ब्याह उनसे किया था और मुहम्मद बहाउद्दीन का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध से सुल्तान ख़्वारिज़्म शाह बहाउद्दीन का मामा और मौलाना रूम का नाना था।

शैख़ बहाउद्दीन का शुमार अपने समय के बड़े सूफ़ियों में होता था और उनके घर सूफ़ी संतों का आना जाना लगा रहता था। उनकी लोकप्रियता जब बहुत बढ़ गयी तो बादशाह को इर्ष्या होने लगी। यह बात जब शैख़ बहाउद्दीन को पता चली तो उन्होंने बल्ख़ शहर का परित्याग कर दिया और सन 1213 ई. में निशापुर तशरीफ़ ले आये। वहां शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार उनके दर्शनार्थ तशरीफ़ लाये। उस समय बालक जलालुद्दीन की आयु 6 वर्ष की थी। शैख़ अ’त्तार ने अपनी मसनवी ‘असरार नामा’ जलालुद्दीन को भेंट की।

शैख़ बहाउद्दीन अपने पुत्र सहित निशापुर से बग़दाद आ गए। बग़दाद से हिजाज़ और शाम होते हुए वह आक़ शहर पहुंचे जहाँ उन्होंने एक साल निवास किया। एक साल बा’द उन्होंने आक़ भी छोड़ दिया और आगे लारंदा शहर में सात वर्षों तक निवास किया।

इस बीच बालक जलालुद्दीन की शिक्षा अनवरत चलती रही। जलालुद्दीन ने अपनी प्रारंभिक  शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। शैख़ बहाउद्दीन के मुरीदों में सय्यद बुरहानुद्दीन बड़े ख़ास थे। पिता के आदेश पर जलालुद्दीन ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ ही समय पश्चात्त उन्हें मौलाना की उपाधि मिल गयी। 18 वर्ष की आयु में मौलाना रूम का विवाह संपन्न हुआ और सन-1226 में  उनके पुत्र सुल्तान वलद का जन्म हुआ।

रूम के बादशाह, कैक़ुबाद की प्रार्थना पर शैख़ बहाउद्दीन पुत्र –पौत्र सहित क़ून्या आ गए। सन 1231 में शैख़ बहाउद्दीन का विसाल हो गया। मौलाना रूमी के जीवन के सबसे उज्ज्वल काल की शुरुआत क़ून्या में उनकी हज़रत शम्स तबरेज़ी से  मुलाक़ात के बा’द होती है। मौलाना हज़रत शम्स के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना मुर्शिद बना लिया। उसके बा’द की ज़िन्दगी ख़ुद एक मिसाल बन गयी .मौलाना ने अपनी रचनाओं में बारहा शम्स का नाम लिया है। सन 1247 ई. में हज़रत शम्स को अचानक खो देने के पश्चात, मौलाना के सच्चे साथी शैख़ सलाहुद्दीन ज़रकोब थे जिन्होंने मौलाना को इस विकट परिस्थिति में संभाला।

शैख़ सलाहुद्दीन ज़रकोब (वरक़ बनाने वाला ) पहले सोने-चांदी के वरक़ कूटा कारते थे। एक दिन मौलाना का गुज़र उनकी दूकान के सामने से हुआ। मौलाना पर हथौड़ी की लयबद्ध आवाज़ ने मस्ती पैदा कर दी। मौलाना वहीं खड़े हो गए और झूमते रहे। शैख़ ने जब यह देखा तो वह भी बिना रुके लगातार वरक़  कूटते रहे। यहाँ तक कि बहुत सारे वरक़ नष्ट हो गए परन्तु उन्होंने हाथ नहीं रोका। आख़िरकार,शैख़ ज़रकोब बाहर आये। उन्होंने खड़े होकर अपनी पूरी दुकान लुटवा दी और मौलाना के संग हो लिए।

शैख़ सलाहुद्दीन ले विसाल के पश्चात मौलाना ने शैख़ हुसामुद्दीन चिल्पी को अपना साथी बनाया। मौलाना रूम की मृत्यु तक यह साथ बराबर बना रहा। शैख़ हुसामुद्दीन सदा उनके साथ रहे और अपने मुर्शिद की देखभाल करते रहे। इन्हीं के आग्रह पर मौलाना ने मसनवी लिखना प्रारंभ किया। जब वह आख़िरी (छठे) दफ़्तर पर पहुंचे तो मौलाना ऐसे रोग –ग्रस्त हुए कि बचने की कोई आशा शेष न रही। उनके ज्येष्ठ पुत्र ने कहा – दफ़्तर अधूरा रह गया है। मौलाना ने फ़रमाया –इसे कोई और पूर्ण करेगा। ईश्वर की कृपा हुई और मौलाना स्वस्थ हो गए। उन्होंने आख़िरी दफ़्तर भी स्वयं पूर्ण किया। मौलाना ने मसनवी शैख़ हुसामुद्दीन चिल्पी को समर्पित की। मसनवी के बाद मौलाना ने अपने ‘दीवान’ को अंतिम रूप दिया और अपने प्रिय मुर्शिद हज़रत शम्स तबरेज़ी को समर्पित करते हुए इस दीवान का नाम ‘दीवान ए शम्स’ रखा।

अपने जीवन के आख़िरी दिनों में मौलाना काफ़ी कमज़ोर और रोग ग्रस्त हो गए। उनके उपचार में कोई कसर न छोड़ी गयी परन्तु विधि के सामने किसी की नहीं चली और सन 1273 ई. में मौलाना रूमी जगती के पालने से कूच कर गए। उनको अपने पिता की कब्र के समीप ही खाक़ के सिपुर्द किया गया। उनके दो पुत्रों में सुल्तान वलद बड़ा शाइर था। मौलाना रूमी के तीन ग्रन्थ मशहूर हैं – मसनवी,दीवान एवं फ़िही मा फ़िही (इसमें मौलाना के उपदेशों का संग्रह है ) । इनकी ख्याति का आधार इनकी मसनवी है जो छः दफ्तरों में है।

मौलाना शिब्ली के शब्दों में –

“मसनवी को जिस क़द्र मक़बूलियत और शोहरत हासिल हुई, फ़ारसी की किसी किताब को आज तक नहीं हुई। साहिब-ए-मजमऊल-फ़ुसहा ने लिखा है कि ईरान में चार किताबें जिस क़द्र मशहूर हुईं, उस क़द्र और कोई किताब नहीं हुई। शाहनामा, गुलिस्ताँ, मसनवी-ए-मौलाना रूम और दीवान-ए-हाफ़िज़ – इन चारो किताबों का मुवाज़ना किया जाए तो मक़बूलियत के लिहाज़ से मसनवी को तरजीह होगी। मक़बूलियत की एक बड़ी दलील यह है कि उलमा व फुज़ला ने मसनवी के साथ जिस क़द्र ए’तिना किया, और किसी किताब के साथ नहीं किया” ।

मौलाना रूमी की मसनवी उनके विसाल के एक साल बाद हिंदुस्तान आई। यहाँ भी सूफ़ी संतों के बीच यह किताब जल्द ही प्रचलित हो गयी और इसकी कई शरहें और अनुवाद मिलते हैं। हिंदुस्तान में शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी, ख्व़ाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी आदि सूफ़ी संत मौलाना रूमी के समकालीन थे। तेरहवीं सदी के उत्ररार्ध मे तुर्की से विद्वानों का आना जाना लगा रहता था और दिल्ली के सुल्तान रूमी की लोकप्रियता से भली भँति परिचित थे। मौलाना रूमी की मृत्यु के उपरांत ‘मौलविया’ सिलसिले की स्थापना हुई परंतु यह सिलसिला भारत में प्रचलित नहीं हो पाया।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया तक आते-आते मसनवी हिंदुस्तान में पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी।

अकबर का काल (1556-1605) हिंदुस्तान में फ़ारसी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। अकबर के काल से पहले मसनवी की व्याख्या हसन-अल-अ’रबी के वहदतुल वजूद के आधार पर की जाती थी। अकबर के शासनकाल में ही शैख़ अहमद सरहिंदी ने वहदतुश शुहूद का सिद्धांत दिया। इस से मसनवी के पठन पाठन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। अबुल फ़ज़ल ने एक जगह शिक़ायत की है कि रूमी की मसनवी अब दुर्लभ हो गई है।

अब्दुल लतीफ़ अब्दामी ने शाह जहाँ (1628-1658) के शासनकाल के दौरान अपना पूरा जीवन लगाकर मसनवी का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने मसनवी का प्रामणिक पाठ तैयार किया। उनकी किताब लताईफ़-ए-मानवी मसनवी के कठिन पदों की व्याख्या करती है। उन्होंने मसनवी के कठिन शब्दों का एक कोष भी तैयार किया जिसका नाम लताईफ़ुल-लुग़ात है।

औरंगज़ेब (1660-1707) के शासन काल में भी मसनवी को बड़ी ख्याति मिली। आक़िल ख़ान राज़ी और उनके दामाद शुक्रउल्लाह ख़ान ख़ाकसार इस काल के प्रसिद्ध लेखको में से थे जिन्हों ने मसनवी की शरह लिखी।

इस समय के कुछ प्रसिद्ध लेखक जिन्होंने मसनवी पर कार्य किया हैं इस प्रकार हैं –

मुहम्मद आ’बिद

शाह अफ़ज़ल इलाहाबादी

इस समय के प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे शाह इमदादुल्लाह। उर्दू में मसनवी पर उनके प्रवचन बड़े प्रसिद्ध थे। लोग सैकड़ों की संख्याँ में उनके उपदेश सुनने थाना भवन में एकत्रित होते थे। मसनवी की उनकी व्याख्या सरल और रोचक थी। उनकी किताब शरह-ए-मसनवी मौलाना रूमी अपनी तरह की पहली किताब है। हाजी इमदादुल्लाह स्वतंत्रता सेनानी थे। अंग्रेज़ों के आतंक की वजह से यहाँ इस किताब पर कार्य करना मुश्किल हो रहा था। उन्होंने कुछ महीनों तक मक्के में रहने का निश्चय किया और वहीं यह किताब पूर्ण की।

मध्यकालीन भारत में रूमी पर अध्ययन का आख़िरी सिरा अब्दुल अ’ली मुहम्मद इब्न निज़ामुद्दीन से जुड़ता है वो लखनऊ के थे। उनकी किताब ‘बह्र-उल-उलूम’ को मसनवी का सबसे प्रमाणित अनुवाद माना जाता है। उनका देहांत सन 1819 ई० में हुआ।

अँग्रेज़ी शासनकाल के दौरान रूमी पर दो प्रमुख कार्य हुए जिनमें पहला हज़रत शिबली नोमानी और दूसरा मौलाना अशरफ़ थानवी का है। अशरफ़ थानवी ने मसनवी की शरह छह भागों में प्रकार्शित की।

मौजूदा दौर में संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान श्री बलराम शुक्ल का कार्य उल्लेखनीय है जिन्होंने रूमी की सौ ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद निःशब्द नुपुर के नाम से किया है।

शैख़ सा’दी शीराज़ी (1210-1291 ई.)

शैख़ सा’दी को ग़ज़ल का पैग़ंबर कहा जाता है। गुलिस्तान और बोस्तान जैसी अमर कृतियों के प्रणेता शैख़ सा’दी के जीवन को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता  है-

  1. अध्ययन काल :

शैख़ सा’दी के पिता का देहांत बाल्यावस्था में ही हो गया था। इस का संकेत ‘बोस्तान’ के पद्यांश से मिलता है-

मन आँगाह सर-ए-ताजवर दाश्तम…,

कि सर बर किनार-ए-पिदर दाश्तम ।।

मरा बाशद अज़ हाल-ए-तिफ़्लां ख़बर

कि दर तिफ़्ली अज़ सर ब-रफ़्तम पिदर॥

(अर्थात-जिस समय मैं अपना सर पिता की गोद में रखता था,उस समय मैं बादशाह था। मैं उन बच्चों की पीड़ा समझता हूँ, जिनके पिता बचपन में चल बसे हों।)

शैख़ सा’दी के जीवन के प्रांरभिक बीस-तीस साल शिक्षा ग्रहण करने में व्यतीत हुए इस समय का अधिकांश भाग बग़दाद में व्यतीत हुआ।

  • यात्रा काल :

इस काल में उन्होंने देश-विदेश का ख़ूब भ्रमण किया। बीस-तीस वर्ष के प्रवास के दौरान कई सूफ़ी संतों से मुलाक़ात की और ज्ञान अर्जित किया। कुछ विद्वानों का मत है कि शैख़ सा’दी भारत भी आए थे और कुछ वक़्त उन्होंने सोमनाथ के मंदिर में भी बिताया,लेकिन इतिहास इसकी पुष्टि नहीं करता।

  • रचनाकाल :

इन वर्षों में इन्होंने अपने ग्रंथों की रचना की और प्रायः अपनी जन्म भूमि शीराज़ में ही रहे।

शैख़ सा’दी के 18 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है जिसमें गुलिस्तान और बोस्तान अपने सूफ़ियाना रंग की वजह से अप्रतीम हैं। शैख़ सा’दी को ग़ज़ल का पैग़ंबर कहा गया है-

दर शे’र सेह तन पयंबर अंद

हर चंद कि ला नबी-य बा’दी

अबयात-ओ-क़सीद:-ओ-ग़ज़ल रा

फ़िरदौसी-ओ-अनवरी-ओ-सा’दी

(अर्थात-हालाँकि हज़रत मुहम्मद (PBUH) के बा’द कोई नबी नहीं हुआ, परंतु काव्य के तीन पैग़ंबर हुए हैं-मसनवी,क़सीदा और ग़ज़ल के क्रमशः- फ़िरदौसी, अनवरी और सा’दी नबी हैं।)

शैख़ सा’दी पहले फ़ारसी शाइर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को अपनी रचनात्मक लेखनी से बुलंदी पर पहुँचाया। तसव्वुफ़ के गूढ़ भावों,जीवन दर्शन आदि का निरूपण ग़ज़लों में सबसे पहले शैख़ सा’दी ने ही किया और ऐसे तत्व आज भी ग़ज़लों के प्राण हैं। सूफ़ी दर्शन की ही तरह आत्म-त्याग का भाव इनकी ग़ज़लों में विशेष स्थान रखता है।

औहदुद्दीन किरमानी या अबू हामिद औहदुद्दीन किरमानी

इनके जन्म के विषय में जानकारी नहीं मिलती है परंतु इनका विसाल सन् 1298 ई० में हुआ। शैख़ को औहदी किरमानी भी कहा जाता है। वे अधिकतर रूबाइयाँ कहते थे। इनकी किताब मिस्बाहुल-अरवाह में आत्मा के उसी विछोह का वर्णन है जिसमें निमग्न होकर वह अपने महबूब को ढूंढ़ती है। उसी महबूब का सौंदर्य इस पूरे संसार में व्याप्त है।

शैख़ ‘इराक़ी’ हमदानी (1213 – 1289 ई.)

शैख़ फ़ख़रूद्दीन ईराक़ी फ़ारसी सूफ़ी परंपरा के मूर्धन्य शाइरों में से एक हैं। इनकी शाइरी भाव, रचनात्मकता और भाषा हर लिहाज़ से परिपूर्ण है। इनकी शैली बड़ी ही आकर्षक है। ये एक क़लंदर थे जिनका मज़हब इश्क़ था और संसार के ज़र्रे-ज़र्रे में इनहें इश्क़ ही दृष्टिगोचर होता था। सत्रह वर्ष की आयु में वह क़लंदरों के एक गिरोह के साथ हिंदुस्तान आए और मुल्तान में सिलसिला सोहरावर्दिया के प्रसिद्ध सूफ़ी शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के मुरीद बन गए। यहीं उन्होंने अपनी प्रसिद्ध ग़ज़ल कही जिसका लोकप्रिय शे’र है-

ब-गेती हर कुजा दर्द-ए-दिले बूद

बहम कर्दन्द  व इश्क़श नाम कर्दन्द ॥

(अर्थात-संसार में जहाँ कहीं भी दिल का दर्द था उसे एकत्रित किया गया और उसका नाम इश्क़ रखा गया।

शैख़ बहाउद्दीन यह ग़ज़ल सुनते ही झूम उठे। उन्होंने अपना ख़िरक़ा उतार कर शैख़ इराक़ी को पहना दिया। कुछ ही समय पश्चात मुर्शिद ने अपनी पुत्री का ब्याह भी उनसे कर दिया।

शैख़ फ़ख़रूद्दीन इसकी ने 25 वर्ष अपने मुर्शिद की सेवा की और हिंदुस्तान में ही रहे। शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी ने अपने विसाल से पूर्व शैख़ इराक़ी को अपना ख़लीफ़ा नियुक्त किया। शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के दूसरे मुरीदों ने इसका कट्टर विरोध किया और अख़िरकार विवश होकर उन्होंने हिंदुस्तान छोड़ दिया और यहाँ से वह मक्का और मदीना चले गए। वहाँ से वह एशिया-ए-कोचक (एशिया माइनर) पहुँचे। अंततः सन 1289 ई० में 78 वर्ष की अवस्था में उनका विसाल दमिश्क़ में हुआ।

शैख़ इराक़ी की ग़ज़लों में भाव पक्ष इतना प्रबल है कि सुनने वाले को क़लंदरी तबीयत का पता सहज ही लग जाता है-

रुख़-ए-तू दर ख़ौर-ए-चश्म-ए-मन अस्त लेक चे सूद

कि पर्द: अज़ रूख़-ए-तू बर नमी तवाँ अन्दाख़्त॥

(अर्थात-तेरा चेहरा इस क़ाबिल तो अवश्य है कि मेरी आँख तुझे देखे, लेकिन इस से  क्या हासिल जबकि तेरे चेहरे से पर्दा ही न उठाया जा सकता हो!)

शैख़ इराक़ी ने एक मसनवी ‘उश्शाक़नामा’ लिखी जिसमें तसव्वुफ़ के मसाइल पर चर्चा की है।

दीवान और मसनवी के अ’लावा शैख़ इराक़ी ने एक चम्पू काव्य भी लिखा जो लमआ’त के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी शरह बाद में मौलाना जामी ने लिखी है।

शैख़ महमूद शबिस्तरी (1288–1340 ई.)

इराक़ी के पश्चात सूफ़ी शाइर शैख़ महमूद शबिस्तरी ने सूफ़ी काव्य परंपरा को आगे बढ़ाया। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘गुलशन-ए-राज़’ में इन्होंने प्रश्नोत्तर के माध्यम से तसव्वुफ़ की गुत्थियों को सुलझाया है।

इनका जन्म शबिस्त्र गाँव में हुआ था, जो तबरेज़ से सात मील की दूरी पर स्थित है। शैख़ शबिस्तरी सूफ़ी पहले थे और शाइर बा’द में। उन्होंने जो भी लिखा है वह एक शुद्ध दृदय की प्रतिध्वनि हैं। सूफ़ी कवि जामी ने अपनी किताबों मे मसनवी गुलशन-ए-राज़ के विषय में कई बार लिखा है और अपनी किताब लवाइह में इसकी बड़ी ता’रीफ़ की है। इसके अ’लावा रिसाला-ए-शाहिद भी इनकी रचना है। इसका विषय भी तसव्वुफ़ है।

शैख़ शबिस्तरी ने सन 1320 ई० में इस नश्वर संसार को अलविदा’ कहा। इनकी मज़ार शबिस्त्र में है।

औहदी मराग़ी इस्फ़हानी (1271–1338 ई.)

शैख़ औहदी मराग़ी का शुमार फ़ारसी के शुमार फ़ारसी के चार सबसे  बड़े मसनवी निगारों में होता है। इनका  जन्म मराग़ा में हुआ और यहीं उनका विसाल हुआ।

इन्होंने अपनी प्रसिद्ध मसनवी ‘जाम-ए-जम’ सन 1332 ई. में बग़दाद में पूर्ण की। इसे पूर्ण होने में एक साल का समय लगा।‘जाम-ए-जम’ के ही एक शे’र से यह विदित होता है कि जब इस मसनवी की रचना हुई, उस समय ‘औहदी’ की उम्र साठ साल थी।

औहदी शस्त साल सख़्ती दीद

ता शबे रू-ए-नेक-बख़्ती दीद॥

अर्थात−औहदी ने साठ साल कष्ट उठाए,अख़िरकार उसने नेक-बख़्ती(सौभाग्य) का मुँह देखा।

औहदी ने मराग़ा में शिक्षा प्राप्त की। किरमान पहुँच कर वह प्रसिद्ध सूफ़ी संत औहदुद्दीन किरमानी के मुरीद बन गए और इसके बा’द उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘औहदी’ रख लिया। कहते हैं कि शुरूआ’त में यह ‘सूफ़ी’ तख़ल्लुस करते थे।

शैख़ औहदी की प्रसिद्धि का आधार उनकी दो मसनवियाँ-जाम-ए-जम व दिहनामा या ‘मन्तिक़ुल-उश्शाक़’ और एक दीवान है।

जाम-ए-जम में लगभग 5000 शे`र हैं और यह शैख़ ओहदी का शाहकार (श्रेष्ठतम काव्य) माना जाता हो यह मसनवी हकीम सनाई द्वारा रचित हदीक़ा की बह्र, बह्र- ए-ख़क़ीफ़ में लिखी गई है और इस की शैली भी हदीक़ा से मेल खाती है लेकिन इसमें हदीक़ा से अधिक सरसता और सरलता है।

शैख़ औहदी ने जामे जम में सूफ़ीवाद के सांकेतिक शब्दों का प्रयोग बहुलता से किया है। सृष्टि के संबंध में औहदी लिखते हैं-

मा हम: साय:ऐम-ओ-नूर यके अस्त

(अर्थात-हम सब साया है, प्रकाश केवल एक है।

जाम-ए-जम सूफ़ीवाद की सबसे सरल मसनवी मानी जाती है। इनके दीवान में लगभग 6000 शे`र है। इसमें ग़ज़लें, क़सीदे आदि सम्मिलित हैं। ग़ज़लें प्रायः इश्क़-ए- हक़ीक़ी के रंग में डूबी हुई हैं-

ख़ाकसारान-ए-जहाँ रा ब-हिक़ारत म-निगर

तू चे दानी कि दरीं गर्द सवारे बाशद॥

(अर्थात-संसार के ख़ाकसारों को घृणा की दृष्टि से मत देख! तुझे क्या पता कि इस गर्द में सवार (कामिल महबूब) हो।

शैख़ औहदी ने प्रतीकों द्वारा सूफ़ियाना रहस्यों का उद्घाटन किया है। अपनी “मय-नोशी” (मदिरा-पान) की व्याख्या वह यूँ करते हैं-

पुर्सीद:ई कि बाद: ख़ुरद ‘औहदी’ बले

ख़ुर्दस्ताबाद: लेक ज़े जाम-ए-अलस्त-ए-इश्क़॥

(अर्थात-तू ने पूछा है कि औहदी शराब पीता है? हाँ! वह शराब पीता है मगर दिव्य प्रेम के प्याले से!)

औहदी के क़सीदों में प्रायः उपदेश मिलते हैं। इनमें किसी बादशाह की ता’रीफ़ नहीं की गई।

ख़्वाजा हाफ़िज़ शीराज़ी ने अपनी शाइरी में औहदी को पीर-ए-तरीक़त कहा है।

नसीहत कुनमत याद गीर-ओ-दर अ’मल आर

कि ईं हदीस ज़े पीर-ए-तरीक़तम याद अस्त

मजौ दुरस्ती-ए-अह्द अज़ जहान-ए-सुस्त निहाद

कि ईं अ’जूज़ा अ’रूस-ए-हज़ार दामाद अस्त॥

(अर्थात-मैं तुम्हें एक सीख देता हूँ! इसे याद रख और इस पर अ’मल कर। पीर-ए-तरीक़त की नसीहत मुझे याद है कि इस झूठी बुनियाद रखने वाली दुनिया से वा’दा पूरा करने की चाह न रख, क्योंकि यह बुढ़िया हज़ारों की दुल्हन है।)

ख़्वाजा हाफ़िज़ के इन दो बैतों का चौथा मिसरा शैख़ औहदी का है। उन्होंने अपने एक क़सीदे में यह शे`र यूँ कहा है-

मदेह ब-शाहिद-ए-दुनियाँ इमान-ए-दिल ज़िनहार

कि ईं अ’जूज़ा अ’रूस-ए-हज़ार दामाद अस्त॥

अर्थात- यह दुनियाँ दिल लगाने की जगह नहीं है क्योंकि यह बुढ़िया हज़ारों की दुल्हन है।)

ख़्वाजा शम्सुद्दीन मुहम्मद ‘हाफ़िज़’ शीराज़ी (1315-1390 ई.)

लिसानु-ग़ैब(‘अज्ञात का स्वर’या स्वीगिर्क रहस्यों के व्याख्याता) ख़्वाजा शमसुद्दीन मुहम्मद हाफ़िज़ ने आठवीं सदी हिजरों में अपनी ग़ज़लों से तसव्वुफ़ के एक बिल्कुल नए रहस्यमयी संसार का दरवाज़ा सबके लिए खोल दिया।

हाफ़िज़ के जीवन के संबंध में बहुत कम जानकारी मिलती है। उनके समकालीन लोगों ने भी उनके विषय में कम ही लिखा है। उनके विषय में जो थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वह उनकी स्वयं के विषय में कही गयी उक्तियों पर ही आधारित हैं-

आँ कस कि गुफ़्त क़िस्स:-ए-मा ज़े मा शनीद

(अर्थात-जिसने भी हमारी जीवन कथा सुनाई, वह हमीं से सुनी।)

हाफ़िज़ का जन्म सन 1320 ई० के आस पास शीराज़ में हुआ। इनके पिता पहले इस्फ़हान में रहते थे। सलग़री अताबकों के समय वह शीराज़ आए और यहीं बस गए। शीराज़ के विषय में हाफ़िज़ ने अपने ‘दीवान’ में ख़ूब लिखा है। प्रसिद्ध है कि यहाँ की जलवायु की शाइरी से ओत-प्रोत है। यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति या तो शाइर होता है या काव्य-प्रेमी।

ख़्वाजा हाफ़िज़ के पिता ख़्वाजा बहाउद्दीन एक सफल व्यापारी थे। हाफ़िज़ की बाल्यावस्था में ही उनके सर से पिता का साया उठ गया। ख़्वाजा हाफ़िज़ के अन्य दो भाई व्यापार में कुशल नहीं थे। धीरे-धीरे व्यापार घटने लगा और पिता की संचित पूंजी समाप्त हो गयी। भुखमरी की हालत आ गई। घर की परेशानी देखकर हाफ़िज़ ने ख़मीर बनाने का व्यवसाय शुरू किया। घर के पास ही एक मदरसा था। हाफ़िज़ ने वहीं दाख़िला ले लिया। ख़मीर के व्यवसाय से जो धन उन्हें प्राप्त होता था उसमें से एक तिहाई अपनी माता को, एक तिहाई अपने  अध्यापक को और बाक़ी ग़रीबों को दान कर देते थे।

ख़्वाजा हाफ़िज़ ने अपने समय के बड़े-बड़े आ’लिमो से ता’लीम हासिल की। उनमें से शैख़ क़िवामुद्दीन अब्दुल्लाह (मृ० सन 772 हिजरी) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

हाफ़िज़ ने क़ुरआन का अध्ययन किया और उसे कंठस्थ किया इसी वजह से उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘हाफ़िज़’ रखा। उनके हाफ़िज़ होने का प्रमाण उनके ही एक शे`र में मिलता है-

न-दीदम ख़ुशतर अज़ शे’र-ए-तू हाफ़िज़

ब-क़ुरआने कि अन्दर सीन: दारी॥

(अर्थात-हाफ़िज़ तुझे क़ुरआन की क़सम जो तूने कंठस्थ किया है! मैंने तेरे शे’र से बढ़िया शे’र नहीं देखा!)

शीराज़ में वह समय शाइ’री के उत्थान का समय था। हर दूसरा व्यक्ति शाइ’री में हाथ आज़मा रहा था। ख़्वाज़ा हाफ़िज़ ने भी कुछ शे’र कहे,जिन्हें बेतुका कह कर खिल्ली उड़ाई गई। दो सालों तक यही हाल रहा। एक दिन जब दुख बर्दाश्त के बाहर हो गया तो कोही-बाबा की मज़ार पर ख़ूब फूट-फूट कर रोए।रात को ख़्वाब में देखा कि एक बुज़ुर्ग उन्हें खाने का एक कौर खिलाते हुए फ़रमा रहे हैं- जा! अब से सारी विधाओं के द्वार तुम्हारे लिए खुल गए।नाम पूछा तो मा’लूम पड़ा कि बुज़ुर्ग पैग़म्बर ख़िज़्र हैं।सुब्ह उठकर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध ग़ज़ल कही जिसका पहला शे’र था।

दोश वक़्त-ए-सहर अज़ ग़ुस्स: नजातम दादन्द

वंदर आँ ज़ुल्मत-ए-शब आब-ए-हयातम दादन्द॥

अर्थात-कल सुब्ह मुझे पीड़ा से मुक्ति दी गई और रात्रि के इस घने अन्धकार में मुझे आब-ए-हयात (अमृत) प्रदान किया गया।

कुछ विद्वान इस घटना में हज़रत ख़िज्र की जगह हज़रत अ’ली का नाम लिखते हैं .

जो भी हो,यह स्पष्ट है कि शीराज़ के लोगों ने शुरूअ’ में उनका उचित सम्मान नहीं किया।एक स्थान पर हाफ़िज़ कहते है-

सुख़न-दानी-ओ-ख़ुश-ख़्वानी नमीं-वरज़ंद दर शीराज़

बया हाफ़िज़ कि मा ख़ुद रा ब-मुल्क-ए-दीगर अन्दाज़ेम॥

(अर्थात-अच्छी शाइरी और सुंदर रचना शीराज़ में आदर नहीं पाते। हाफ़िज़ चल! किसी और देश को चलें!)

अनेकों कष्ट सहने के पश्चात भी अपनी मातृभूमि के अनुराग ने हाफ़िज़ को कहीं और नहीं जाने दिया। हाफ़िज़ को शीराज़ की आब-ओ-हवा और प्रकृति से एक पल का भी विछोह बर्दाश्त नहीं था।

ख़ुशा शीराज़-ओ-वज़्अ-ए-बे-मिसालश

खुदावन्दा!निगहदार अज़ ज़वालश॥

अर्थात-शीराज़ कैसा सुन्दर शहर है और उसका रूप कैसा अद्वितीय है। हे ईश्वर! इसे पतन से सुरक्षित रखना!

प्रसिद्ध है कि हिंदुस्तान के दो  बादशाहों ने उनकी प्रसिद्धि सुनकर उन्हें यहाँ आमंत्रित किया था, मगर वह हिंदुस्तान न आ सके!

नमी-देहन्द इजाज़त मरा ब-सैर-ओ-सफ़र

नसीम-ए-ख़ाक़-ए-मुसल्ला-ओ-आब-ए-रूक्नाबाद॥

(अर्थात मुझे मुसल्ला की हवा और रूक्नाबाद का जल यात्रा और सैर की इजाज़त नहीं देते।)

*-मुसल्ला शीराज़ की एक ख़ूबसूरत जगह है। नगर के इस भाग में ख़्वाजा हाफ़िज़ अक्सर बाग़ में चहलक़दमी किया करते थे। मृत्यु के पश्चात उन्हें यहीं दफ़नाया गया।

ख़्वाजा साहब की ज़िंदगी में एक दुखद मोड़ तब आया जब भरी जवानी में उनके लड़के की अकाल मृत्यु हो गयी। शाइ’र की शाइ’री भी शोक में डूब गयी। बड़ी मनौतियों के बा’द उनके घर में कोई चिराग़ जला था परंतु नियति के थपेड़े  ने उस कुल-दीपक को भी बुझा दिया। ख़्वाजा हाफ़िज़ की यह क़ितआ मानो दर्द को रोशनाई में क़लम को डुबोकर लिखी गयी है-

दिला दीदी कि आँ फ़र्ज़ान: फ़र्ज़न्द

चे दीद अन्दर ख़म-ए-आँ ताक़-ए-नीली

बजा-ए-लौह-ए-सीमीं दर कनारश

फ़लक़ बर सर निहादश लौह-ए-संगी॥

(अर्थात ऐ दिल! तूने देखा कि उस मेधावी बेटे ने नीले आसमान के नीचे क्या सुख पाया? गगन ने उसकी गोद मे चाँदी की तख़्ती तो न रखी, बल्कि उसके सिर पर पत्थर रख दिया!)

हाफ़िज़ का विसाल सन 1389 ई० में हुआ और वह अपनी मातृभूमि शीराज़ में ही ख़ाक़ के सुपुर्द किए गये। हाफ़िज़ की दरगाह एक ख़ूबसूरत बाग़ ‘हाफ़िज़िया’ में स्थित है जिसका नामकरण उनके नाम पर किया गया है .तैमूर के पोते अबुल क़ासिम बाबर ने जब शीराज़ फ़त्ह किया तो उसने इस बाग़ का सौन्दर्यीकरण करवाया. बा’द में करीम ख़ान ज़न्द ने मौजूदा कत्बा बनवाया . शीराज़ के लोग इस दरगाह को बड़ा सम्मान देते हैं . दीवान-ए-हाफ़िज़ का प्रयोग लोग फ़ाल निकालने के लिए भी करते हैं . कहते हैं हिन्दुस्तान में भी अकबर दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाला करता था .

जो लोकप्रियता हाफ़िज़ की ग़ज़लों को प्राप्त हुई है वह शायद ही किसी शाइर को प्राप्त हुई हो। उनकी शाइरी में सूफ़ियाना रंग स्पष्ट झलकता है। उन्होंने प्रतीकों द्वारा तसव्वुफ़ के गूढ विषयों को अपनी ग़ज़लों के माध्यम से समझाया है-

ब-सिर्र-ए-जाम-ए-जम आँगाह नज़र तवानी कर्द

कि ख़ाक़-ए-मैकद: कुहल-ए-बसर तवानी कर्द॥

(अर्थात-तू जमशेद के प्याले के रहस्यों पर उसी समय दृष्टि डाल सकता है, जब तू शराबख़ाने की ख़ाक को अपनी आँखों का सुर्मा बना सके)

शैख़ मुहम्मद शीरीं मग़रिबी तब्रेज़ी (मृत्यु-1406 ई.)

ख़्वाजा हाफ़िज़ शीराज़ी के बा’द तब्रेज़ के शैख़ मुहम्मद शीरीं ‘मग़रिबी’ प्रसिद्ध सूफ़ी शाइर हुए है। उनके जीवन के बारे में ज़्यादा नहीं मिलता है। अनुमान है कि उनका विसाल सन (1406-07) में साठ वर्ष की अवस्था में तब्रेज़ में हुआ।

मग़रिबी की शाइरी अद्वैतवादी विचारों से प्रभावित है। अद्वैत का रंग उनकी शाइरी में बार बार और इतनी बार मिलता है कि पाठक को यह दुहराव लगने लगता है। मौलाना शिब्ली अपनी किताब शे’रुल-अज़म (भाग-5) में कहते हैं-

“मग़रिबी का कलाम सर ता पा मस्ला-ए-वहदत का बयान है और चूँकि तख़य्युल (कल्पना) और जिद्दत (ताज़ापन) कम है, इसलिए तबीयत घबरा जाती है।”

मौलाना नूरूद्दीन अब्दुर्रहमान‘जामी’ (1414-1492 ई.)

जामी अपने समय के सर्वश्रेष्ट सूफ़ी शाइर थे। इनका जन्म 1414 ई० में सूबा-इ- ख़ुरासान की विलायत जाम के एक क़स्बा खरगिर्द में हुआ था।इनके वालिद का नाम हज़रत निज़ामुद्दीन दश्ती और दादा का नाम हज़रत शमसुद्दीन दश्ती था। दश्ती का संबंध इस्फ़हान के मोहल्ला दश्त से है, जहाँ परिवार जाम को छोड़कर बस गया था।

जामी बचपन में अपने वालिद के साथ हिरात गए और वहाँ से समरक़न्द पहुँचे। समरक़ंद उस समय इस्लामी और सूफ़ी शिक्षा का केंद्र था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने तसव्वुफ़ को जीवनशैली की चुना। कई प्रसिद्ध सूफ़ी संतों से उनका सत्संग हुआ और धीरे-धेरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गयी।

इसके बा’द जामी ने यात्राएँ शुरू की। हज करने के पश्चात दिमश्क़ होते हुए सन 878 हिजरी में वह हिरात लौट आए।

मौलाना जामी के समकालीन इतिहासकार, दौलतशाह समरकंदी ने लिखा है कि अपने जीवन के आख़िरी सालों में जामी ने शाइरी छोड़ दी थी। उसके बा’द वह मसाइल-ए-तसव्वुफ़ को ही सुलझाने में व्यस्त रहे।

मौलाना जामी का विसाल सन 1492 ई० में हुआ।

जामी नौवीं सदी हिजरी के सर्वश्रेष्ठ सूफ़ी शाइर हैं जिनका नाम सा’दी,मौलाना रूम और ख़्वाजा हाफ़िज़ के साथ लिया जाता है।

मौलाना जामी में पूर्व के क्लासिकल सूफ़ी शाइरों का रंग साफ़ दिखाई पड़ता है। उन्होंने पूर्व के शाइरों से काफ़ी सीखा और उनकी शैली का अनुसरण किया है।

मौलाना जामी को लिखने का नशा था। उन्होंने लगभग 45 ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने शाइरी के हर अंग यथा- मसनवी, क़सीदा,ग़ज़ल आदि पर अपना हाथ आज़माया है .उनका दीवान  फ़ारसी साहित्य में अपनी एक विशेष जगह रखता है। जामी मसनवी में निज़ामी गंजवी को अपना गुरू मानते हैं और उन से प्ररित होकर उन्होंने कई मसनवियों की रचना की। शैख़ सा’दी की महत्वपूर्ण कृति “गुलिस्तान” से प्रेरित होकर इन्होंने ‘बहारिस्तान’ लिखी जो एक चम्पू काव्य है। इसको  उन्होंने गद्य और पद्य दोनो से संवारा है परंतु वह इसमें गुलिस्तान की सी महक पैदा करने में असफल रहे.

मौलाना जामी को कलासिकल सूफ़ी शाइरों के सिलसिले की आख़िरी कड़ी भी कहा जाता है।

इनके कलाम में तसव्वुफ़ के रंग अपनी पूरी धज के साथ दृष्टिगोचर होते हैं-

मक़ाम-ए-कू-ए-तुरा फुसहत हरम तंग अस्त

ज़े का’ब: ता सरे कूयत हज़ार फ़र्संग अस्त॥

अर्थात-तेरी गली तो बड़ी चौड़ी है, हरम (मस्जिद) तंग है। का’ब: से तेरी गली के सिरे तक हज़ारों मीलों की दूरी है।

मौलाना जामी के पश्चात 16 वीं शती ईसवी में सफ़वी शासकों के शासन काल में राजनितिक परिस्थितियाँ बदल गईं और सूफ़ी काव्य का ह्रास होने लगा। यह वह समय था जब हिंदुस्तान तसव्वुफ़ का केंद्र बन गया।

उर्फ़ी शीराज़ी (1556-1590 ई.)

सफ़वी बादशाहों के शासन काल में हिंदुस्तान में उर्फ़ी शीराज़ी ने बड़ी ख्याति प्राप्त की।

उर्फ़ी शीराज़ी का जन्म शीराज़ में सन 1555 ई० में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा भी शीराज़ में ही पूरी की। चेचक की बीमारी के फलस्वरूप उनके चेहरे पर चेचक के निशान पड़ गए थे।

उस समय ईरान में शाइरी का बाज़ार सर्द पड़ चुका था इसलिए उनका हृदय भी शीराज़ से उचाट हो गया। सन 1580 ई० में समुद्र के रास्ते वह अहमदनगर पहुँचे और वहाँ से फ़तेहपुर सीकरी आए। फ़तेहपुर-सीकरी में शाइर फ़ैज़ी ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया और शरण दी। जल्द ही उनकी शाइरी की तूती बोलने लगी और बात अकबर के दरबार तक पहुँच गयी। इस प्रकार वह अकबर के क़रीब आ गए। 1589 ई० में वह अकबर के साथ कश्मीर गए जिनके विषय में उन्होंने एक क़सीदा भी लिखा है जिसका मत्ला’ यूँ है-

हर सोख़्त: जाने कि बी-कश्मीर दर आयद

गर मुर्गे क़बाबस्त कि बा बाल-ओ-पर आयद॥

(अर्थात-हर टूटे दिल का परिंदा जो कश्मीर जाता है, वहाँ उसके पर दोबारा उग आते हैं।)

उर्फ़ी ने ज़्यादातर वक़्त अर्ब्दुरहीन ख़ानख़ाना के सानिध्य में बिताया और उनके दरबार में मुलाज़िम हो गए। इन्होंने क़सीदे, ग़ज़लें और क़तआ’त लिखे हैं। इनकी शैली का अनेक शायरों ने अनुसरण किया है। हिंद और तुर्किस्तान में उर्फ़ी बड़े लोकप्रिय थे। इनकी रचनाओं में सूफ़ी रंग झलकता है। इनके एक क़सीदे का मत्ला’ है-

ज़े ख़ुद गर दीद: बर-बन्दी चे गोयम काम-ए-जाँ बीनी

हमाँ कज़ इश्तियाक़-ए-दीदनश बादी हमाँ बीनी॥

(अर्थात- यदि तू अपने आप पर आँखें बंद कर ले,तो मैं क्या बताऊँ कि तू अपना आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। जिस आलौकिक रूप के दर्शन की अभिलाषा लेकर तू पैदा हुआ है,उसी को देख सकेगा।)

उर्फ़ी ने निज़ामी गंजवी की तरह पाँच मसनवियाँ(ख़म्सा) लिखनी शुरू की मगर वह मख़ज़नुल-असरार और ख़ुसरो-शीरीं के जवाब मे दो मसनवियों से ज़्यादा न लिख सके।

इन्होंने मसाइल-ए-तसव्वुफ़ पर एक नस्र भी लिखा है।

मौलाना शिब्ली ने शे’र-उल-अजम (भाग-3) में लिखा है-

‘उर्फ़ी के अख़लाक़ व आ’दात में जो चीज़ सबसे ज़्यादा नुमायाँ है, वह फ़ख़्र(गर्व),ग़ुरूर(अभिमान),कम-बीनी(संकीर्णता),ख़ुद-सिताई(आत्म प्रशंसा) है। वह निहायत हाज़िर जवाब और ज़रीफ़ थे’।

उर्फ़ी का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। फ़ारसी साहित्य में नए शब्दों और इस्तिलाहात के प्रयोग के लिए इनकी प्रसिद्धि है।

उर्फ़ी का विसाल सन 1591 ई० में लाहौर में हुआ और वहीं उन्हें ख़ाक़ के सुपुर्द किया गया। कुछ सालों के बा’द उनके शव को नजफ़ भेज दिया गया और वहाँ दोबारा दफ़्न किया गया। इस प्रकार उर्फ़ी की अपने विषय में की गयी भविष्यवाणी सही साबित हुई-

ब काविश-ए-मिज़: अज़ गोर ता नजफ़ बरवम

अगर ब-हिंद हलाकम कुनन्द वर ब-ततार॥

अर्थात-ऐ फ़लक! चाहे तू मुझे हिंदोस्तान में चाहे तुर्किस्तान में मार दे,मैं अपनी क़ब्र को पलकों से खोदता हुआ नजफ़ तक जा पहुचूँगा।

उर्फ़ी सिर्फ़ 36 वर्ष जीवित रहे। इस छोटे से जीवन काल में उन्होंने फ़ारसी साहित्य को जो विपुल साहित्य दिया वह एक मिसाल है।

सरमद शहीद (1590 -1661 ई. )

सरमद अपनी रूबाइयों के लिए तो प्रसिद्ध हैं ही हिंदुस्तान मे वह क़लंदरी के एक प्रतीक माने जाते हैं। उर्फ़ी की तरह सरमद भी इरान से हिंदुस्तान आए थे। सरमद की दरगाह दिल्ली में जामा मस्जिद की सीढ़ियों के समीप है। नास्तिकता के आरोप में औरंगज़ेब के शासनकाल में उनका सर इन्हीं जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर क़लम कर दिया गया था।

हिंदुस्तान में इश्क़-ए-मजाज़ी को इश्क़-ए-हक़ीक़ी का सोपान समझ कर वह एक हिंदू लड़के के प्रेम में पड़े और सांसारिक वस्तुओं से विरक्त होकर मज्ज़ूब बनकर नग्नावस्था में विचरण करने लगे।

मौलाना आज़ाद के शब्दों में- “सरमद ने मुद्दतों सहरा की ख़ाक छानी,सिंध के रेग-ज़ारों (रेगिस्तानों) में तलवे गर्म किए,हिंदुस्तान के गर्म-ओ-सर्द मौसमों को यकसाँ (समान रूप से) उर्यानी (नग्नता) से काट दिया।”

सरमद जब दिल्ली पहुँचे तो उनकी मुलाक़ात शहज़ादा दारा शिकोह से हुई। दोनों सूफ़ी थे इसलिए एक दूसरे के प्रति बड़ा सम्मान था। धीरे-धीरे दोनों में गहरी मित्रता हो गयी। जब सन् 1096 हिजरी में औरंगज़ेब सिंहासन पर बैठा तो दारा को दिल्ली छोड़नी पड़ी। सरमद दिल्ली में ही रह गये। दिल्ली के मुल्लाओं को सरमद का यह क़लंदरी व्यवहार पसंद नहीं था अतः उन्होंने सरमद के ख़िलाफ़ औरंगज़ेब के कान भरने शुरू कर दिए। सरमद की यह रूबाई बहुतों को नागवार गुज़री-

हर कस कि सिर्र-ए-हक़ीक़तश बावर शुद

ऊ पहनतर अज़ सिपिहर-ए-पहनावर शुद

मुल्ला गोयद कि बर फ़लक़ शुद अहमद

‘सरमद’ गोयद फ़लक ब-अहमद दर शुद॥

(अर्थात-प्रत्येक मनुष्य जिसे हक़(सत्य)का ज्ञान हो गया, उसका चेतन-व्यक्तित्व असीम एवं अपार आकाश से भी व्यापक हो गया। मुल्ला कहता है कि हज़रत मुहम्मद (PBUH) आकाश पर गए लेकिन ‘सरमद’ कहता है कि आकाश की व्यापकता हज़रत मुहम्मद (PBUH) के हृदय में समा गयी।)

मुल्लाओं को इस रूबाई पर बड़ा ए’तराज़ था क्योंकि इसमें हज़रत मुहम्मद के ‘मे’राज़’ में सशरीर आसमान में जाने का संकेत नहीं था। मुल्लाओं ने उनके नग्न रहने को भी शरीअ’त का अपमान बताया। इस पूरे घटनाक्रम में औरंगज़ेब को वह बहाना मिल गया जिसका उसे पहले से इंतज़ार था। औरंगज़ेब की नज़रों में सरमद की सबसे बड़ी ख़ता उनकी दारा से नज़दीकी थी। ब-क़ौल मौलाना आज़ाद-‘एशिया में राजनीति सदा मज़हब की आड़ में रही है। हज़ारों क़त्ल जो राजनैतिक कारणों से हुए उन्हें मज़हब की ही चादर ओढ़ा कर छिपाया गया है’। अंततः सन 1659-60 ई० में उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।

सरमद ने ईश्वर और जगत की बड़ी प्रेममय कल्पना की है। जिस प्रकार सफ़र और मेघ के जल में कोई भेद नहीं है,फिर भी मेघ का जल नदी का रूप लेकर सागर के जल से मिलने को आतुर रहता है,उसी तरह भक्त और भगवान में भी कोई भेद नहीं है। शाइर सरमद के अनुसार यह समूची सृष्टि और सृष्टि के तत्व उसी महबूब की रौशनी से प्रकाशित हैं-

कर्दी तू अलम ब-दिल रूबाई ख़ुद रा

हम दर फ़न-ओ-मेह्र-ओ-आशनाई ख़ुद रा

ईं दीद: कि बीनास्त तमाशाई-ए-तुस्त

हर लहज़: बसद रंग नुमाई ख़ुद रा॥

अर्थात-तूने क्या क्या दिलरूबाई(सौंदर्य) न दिखाई और क्या क्या आशनाई न जताई  कि हर देखने वाला तेरा दीदा-ए-बीना है। तूने हर पल अपने आप को विविध रूपों में प्रकट किया है।)

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