हज़रत शैख़ सैयद ज़ैनुद्दीन अ’ली अवधी चिश्ती

आप हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी के ख़्वाहर-ज़ादा (भांजा) और आपके ही मुरीद और ख़लीफ़ा भी थे।

आप हज़रत ख़्वाजा कमालुद्दीन अ’ल्लामा चिश्ती के भाई थे।आप अक्सर हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी की ख़िदमत-ए-अक़्दस में हाज़िर रहते थे, और हज़रत मख़दूम साहिब भी आपसे बड़ी शफ़क़त-ओ-इ’नायत से पेश आते थे।आप वली-ए-ज़माना थे।

साहिब-ए-अख़बार-उल-अख़्यार फ़रमाते हैं किः

“आप हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी के भाँजा, ख़लीफ़ा और ख़ादिम थे।”

ख़ैरुल-मजालिस और मल्फ़ूज़ात में आपका ज़िक्र है।

आपके एक मुरीद मुल्ला दाऊद अपनी किताब “चन्दायन” की इब्तिदा में आपकी मद्ह और ता’रीफ़ की है।अनवार-ए-सूफ़िया में है:

“आप हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन महमूद चराग़ देहलवी के भाँजे-ओ-ख़लीफ़ा और ख़ादिम हैं।आपका ज़िक्र शैख़ की मज्लिस और मल्फ़ूज़ात में दर्ज है”।

मौलाना दाऊद मुसन्निफ़-ए-“चन्दायन” आपके मुरीद हैं और उन्होंने इस किताब के आग़ाज़ में आपकी ता’रीफ़ की है।

साहिब-ए-“तारीख़-ए-फ़रिश्ता” मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता हज़रत ज़ैनुद्दीन के मुतअ’ल्लिक़ लिखते हैं:-

“हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन अवधी, अल-मशहूर चराग़ देहलवी के भाँजे हैं, और वो जनाब बहुत साहिब-ए-हाल और अहल-ए-कमाल थे। जिस वक़्त नसीर ख़ान फ़ारूक़ी वाली-ए-ख़ानदेश ने क़िला’ असीर को आसा अहयर से लिया,शैख़ ज़ैनुद्दीन से इस्तिदआ-ए’-क़दम-बोसी की और चूँकि वो इरादत-ए-सादिक़ रखता था, इल्तिमास उसकी क़ुबूल हुई। वो जनाब उस मक़ाम में कि जहाँ क़स्बा ज़ैनाबाद है तशरीफ़ लाए और नसीर ख़ाँ फ़ारूक़ी दरिया के उस तरफ़ उस मौज़े’ में कि बिल-फ़े’ल जहाँ शहर-ए-बुर्हानपुर है, वारिद था।”

शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हो कर अ’र्ज़ की कि वो जनाब क़िला’ असीर को अपने नूर-ए-हुज़ूर से मुनव्वर फ़रमाएं।

हज़रत ने ये अ’र्ज़ क़ुबूल न किया।फ़रमाया कि “मुझे पीर की इजाज़त नहीं हैं कि अब तबली से उ’बूर करूं”।

अल-ग़र्ज़ नसीर ख़ान चंद रोज़ जब तक कि शैख़ वहाँ रौनक़-अफ़रोज़ रहे हर रोज़ सुब्ह की नमाज़ शैख़ के पीछे अदा कर के  दरवेशों की ख़िदमत में तक़्सीर न करता था।

जिस वक़्त शैख़ ने अ’ज़्म-ए-मुराजअ’त किया नसीर ख़ाँ ने उन्हें तकलीफ़-ए-क़ुबूल-ए-क़स्बात और देहात देनी चाही। “आपने जवाब दिया कि फ़क़ीरों को जागीर से क्या निस्बत है?”

जब नसीर ख़ान हद से ज़्यादा मुसिर्र हुआ कि मेरी सरफ़राज़ी के  वास्ते कुझ क़ुबूल फ़रमाइए। शैख़ ने कहा-

“ये अम्र क़बूल करता हूँ कि जिस मक़ाम में तुम वारिद हुए हो वहाँ पर एक शहर मेरे पीर शैख़ बुर्हानुद्दीन के नाम आबाद करो, और इस मक़ाम में कि जहाँ फ़क़ीर  फ़रोक़श हुआ है,एक क़स्बा इस फ़क़ीर के नाम बना कर आबाद करो”।

ख़ुलासा ये है कि नसीर ख़ान फ़ारूक़ी ने शैख़ के हुज़ूर दोनों मौज़ा’ की बिना डाली।ख़िश्त ज़मीन पर रखी और शैख़ की ज़बान-ए-मुबारक की तासीर से शहर-ए-बुर्हानपुर अ’र्सा-ए-क़लील में इस क़द्र आबाद हुआ कि मिस्र के साथ दा’वा-ए-हमसरी करने लगा।

तोहफ़तुल-अबरार में है :

“आप ख़्वाहर-ज़ादा-ओ-ख़लीफ़ा नसीरुद्दीन महमूद चराग़ देहलवी रहमतुल्लाह अ’लैह के थे और सोहबत-याफ़्ता-ए-हज़रत बुर्हानुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह थे।”

कहते हैं कि नसीर ख़ान फ़ारूक़ी वाली-ए-ख़ानदेश ने क़िला’ असीर को फ़त्ह किया और आपको जागीर देने की तमन्ना की, मगर आपने क़ुबूल नहीं फ़रमाया और फ़रमाया, एक शहर ब-नाम मेरे मुर्शिद बुर्हानुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह के जहाँ तुम फ़रोकश हो आबाद करो और एक शहर ब-नाम मेरे जहाँ मैं मुक़ीम हूँ बनवा दो,चुनाँचे ऐसा ही हुआ।

हज़रत चराग़ देहलवी के ख़ादिम-ए-ख़ास

आप हज़रत चराग़ देहलवी के ख़ादिम-ए-ख़ास थे और हज़रत की ख़ानक़ाह में ही अक्सर रहा करते थे।

जब हज़रत चराग़ देहलवी पर तुराब नामी क़लंदर ने जानलेवा हमला किया और जब ख़ून हुजरे से बाहर निकल कर बहने लगा तो हमलावर को पकड़ने वालों में हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन अ’ली भी थे। लेकिन हज़रत चराग़ देहलवी ने इन हज़रात को बुला कर क़सम दी की क़लंदर को कुछ न कहना और कहा कि “मैं ने  उसे मुआ’फ़ किया”।

हज़रत चराग़ देहलवी से हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन अ’ली की मोहब्बत और क़राबत का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब हज़रत के विसाल का वक़्त क़रीब आया तो मौलाना शैख़ ज़ैनुद्दीन अ’ली ने अ’र्ज़ किया कि आपके अक्सर मुरीद अहल-ए-कलाम हैं, किसी को सज्जादा-नशीन मुक़र्रर फ़रमा दें ताकि सिलसिला जारी रहे।हज़रत ने फ़रमाया “उन दरवेशों के नाम लिख कर लाओ जिनको तुम लाएक़ समझते हो”।

मौलाना ज़ैनुद्दीन ने 3 क़िस्म के दरवेशों का इंतिख़ाब किया- आ’ला, औसत और अदना।

हज़रत ख़्वाजा चराग़ देहलवी ने उनके नामों को देख कर फ़रमाया “ये वो लोग हैं जो अपने दीन (इमान) का ग़म खाएंगे, लेकिन दूसरों का भार नहीं उठा सकेंगें।

इसके बा’द वसिय्यत फ़रमाई कि दफ़्न करते वक़्त हज़रत महबूब-ए-इलाही क़ुद्दि-स सिर्रहु का ख़िर्क़ा-ए-मुबारक मेरे सीने पर,उनका अ’सा मेरे पहलू में, उनकी तस्बीह मेरी शहादत की उँगली में, उनका कासा मेरे सर के नीचे और उनकी चोबें, ना’लैन मेरे बग़ल में रख दी जाए”। चुनाँचे ऐसा ही किया गया।हज़रत ख़्वाजा सय्यद मोहम्मद गेसू दराज़ ने ग़ुस्ल दिया।

मज़कूरा बातों से ये साबित होता है कि हज़रत ख़्वाजा शैख़ सय्यद ज़ैनुद्दीन अ’ली,बारगाह-ए-चराग़ देहलवी में किस क़दर क़ुबूल-ओ-मक़बूल थे।

हज़रत के मल्फ़ूज़ात “ख़ैरुल-मजालिस” में हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन अ’ली का अक्सर तज़्किरा है।

मौलाना दाऊद की तसनीफ़ चन्दायन में हज़रत का ज़िक्र:

तमाम तारीख़ी दस्तावेज़ों में ये ज़िक्र है कि मौलाना दाऊद, हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन अ’ली के मुरीद थे और उनसे बहुत अ’क़ीदत रखते थे।उनकी किताब चंदायन हिंदी प्रेम गाथा काव्य श्रृंखला की पहली किताब मानी जाती है. यहाँ से ही हिंदी प्रेम गाथा काव्य की शुरुआत हुई जिसे मालिक मुहम्मद जायसी, कुतबन, मंझन, नूर मुहम्मद जैसे सूफ़ी कवियों ने और भी समृद्ध किया.मुल्ला दाऊद ने अपनी किताब चन्दायन में एक पूरी नज़्म हज़रत के बारे में लिखी है,जो यूँ है:

सेख जुनैदीं हौं पत्थ लावा

धर्म पत्थ जीहि पाप गवावा

शैख़ ज़ैनुद्दीन ने मुझे राह पर लगाया

मज़हब की उस राह पर जिस पर गुनाह दूर हो गए।

पाप दीन्ह मैं गंग बहाई

धर्म नाव हौं लेन्ह चराई

मुझे गुनाह की कमज़ोरी ने दरिया में बहा दिया था

मज़हब की नाव में मुझे उन्होंने बचा लिया

उघरा नैन हिए उज्यारे

पायो लिख नव अख्खर कारे

बातिन रौशन हुआ, निगाहें खुल गईं

मैं ने नए काले हरफ़ लिखे हुए पाए

पुन मैं अख्खर की सुद्ध पाई

तुर्की लिख हिंदू की गाई

फिर मैं ने इन लफ़्ज़ों की हक़ीक़त पा ली

तुर्की (फ़ारसी) में लिख लिख कर मैं ने हिंदवी को गाया

लै पए याई सीख पसारा

पाप गए तसी कर मारा

अगर शैख़ की इ’नायत इस तरह हासिल हो जाए

गुनाह दूर हों, (नफ़्स का) राहज़न मार दिया जाए

तेहो का घरो निर मरा, जिह चत रहा लुभाई

उनका घराना पाकीज़ा है इसलिए दिल को वो पसंद आ गया है

सेख जुनैदी सेवता पाप निरंतर बह जाई

शैख़ ज़ैनुद्दीन की ख़िदमत करने से गुनाह फ़ौरन दूर होते हैं।

किताबियातः-

1.    अख़बारुल-अख़्यार

2.    तोहफ़तुल-अबरार

3.    तारीख़-ए-फ़रिश्ता

4.    अनवार-ए-सूफ़िया

5.    चन्दायन, मुसन्निफ़ मौलाना दाऊद

6.    बज़्म-ए-सूफ़िया, मुरत्तबा- डॉ. मोहम्मद अनसारुल्लाह

7.    ख़ानदानी ब्याज़, सय्यद रिज़वानुल्लाह वाहिदी।

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