सय्यद शाह शैख़ अ’ली साँगड़े सुल्तान-ओ-मुश्किल-आसाँ -मोहम्मद अहमद मुहीउद्दीन सई’द सरवरी

है रहमत-ए-ख़ुदा करम-ए-औलिया का नामज़िल्ल-ए-ख़ुदा है साया-ए-दामान-ए-औलिया

नाम,नसब-ओ-पैदाइश:

सय्यद शाह शैख़ अ’ली नाम, साँगड़े सुल्तान-ओ-मुश्किल-आसाँ लक़ब,आठवीं सदी हिज्री के अवाख़िर में सन 770 ता सन 780 ई’स्वी ब-मक़ाम-ए-शहर क़ंधार शरीफ़ ज़िला’ नानदेड़ (दकन) में  पैदा हुए।सिलसिला-ए-नसब चौदहवीं पुश्त में हज़रत सय्यद शैख़ अहमद कबीर रिफ़ाई’ मा’शूक़ुल्लाह से मिलता है। व-हुवा हाज़ाः

सय्यद शाह अ’ली साँगड़े, सुल्तान-मुश्किल आसान, इब्न-ए-सय्यद मोहम्मद इब्न-ए-सयय्द मोहम्मद इब्न-ए-सय्यद अहमद इब्न-ए-सय्यद इब्राहीम इब्न-ए-सयय्द बुर्हानुद्दीन इब्न-ए-सय्यद शरीफ़ मोहम्मद इब्न-ए-सय्यद अहमद इब्न-ए-सय्यद इब्राहीम इब्न-ए-सय्यद मुहज़्ज़बुद्दीन इब्न-ए-सयय्द अहमद कबीर रिफ़ाई’ मा’शूक़ुल्लाह क़ुद्दि-स-सिर्रहुल-अ’ज़ीज़।

आप सादात-ए-हुसैनी हैं और ब-लिहाज़-ए-सिलसिला-ए-नसब हज़रत सयय्द अहमद कबीर रिफ़ाई’ मा’शुल्लाह का सिलसिला-ए-नसब हज़रत सय्यदना इमाम मूसा काज़िम रहमतुल्लाह अ’लैह तक और वाहाँ से हज़रत इमाम-ए-औलिया सय्यदना अ’ली रज़िअल्लाहु अ’न्हु तक जा मिलता है।लिहाज़ा इमाम मूसा काज़िम की इस निस्बत-ओ-तअ’ल्लुक़-ए-ख़ानदानी-ओ-रिश्ता-ए-ख़ूनी से आप काज़िमी सय्यद हैं।

हज़रत का सन-ए-पैदाइश किसी क़दीम तारीख़ी मवाद में नज़र न आ सका।ब-लिहाज़ आपके सन-ए-विसाल के कि जिसका माद्दा-ए-तारीख़ी (मुश्किल कुशा-ए-दीन-दुनिया सन 850 ई’स्वी है) आपकी पैदाइश का सन क़ियासन सन 770 ई’स्वी क़रार पाता है।

जनाब सयय्द अहमद कबीर रिफ़ाई’ मा’शूक़ुल्लाह रहमतुल्लाह अ’लैह की औलाद में एक दूसरे जलीलुल-क़द्र ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग हज़रत हाज़ी सय्याह सरवर मख़दूम ख़्वाजा सयय्द सई’दुद्दीन रिफ़ाई’ रहमतुल्लाह-अ’लैह हैं जो क़ंधार शरीफ़ (दकन) ही में इस्तिराहत फ़रमा हैं ।

ख़ुदा-वंद-ए-क़ुद्दूस के इनआम’-ओ-अल्ताफ़-ए-बे-पायाँ और क़ुदरत-ए-ख़ुदावंदी का ज़बान-ए-अ’ब्द से जितना भी शुक्रिया अदा किया जाए कम है कि एक ही दादा के पोते एक ही सिलसिला-ए-रिफ़ाइ’या के दो चश्म-ओ-चराग़ और एक ही ज़ंजीर की दो नामवर-ओ-मुक़द्दस कड़ियाँ सर-ज़मीन-ए-दकन के तअ’ल्लुक़ा क़ंधार शरीफ़ में रौज़ा-ए-बुज़ुर्ग और रौज़ा-ए-ख़ुर्द की मौसूमा ख़्वाब-गाहों में बरकात-ओ-फ़ुयूज़-ए-रब्बानिया की मज़हर बनी हुई जमीअ’-ए-ख़लाइक़-ओ-अ’वाम को दा’वत-ए-हक़ दे रही हैं और इंशा-अल्लाहु-तआ’ला क़ियामत तक इन दोनों नहरों का आब-ए-रहमत,बर तिश्ना-ए-क़ल्ब के लिए शफ़ाउन-लिन्नास का काम देता रहेगा।अल्लाहम्मा-ज़िद-फ़ज़िदू।

हर्गिज़ न मीरद आँ कि दिलश ज़िंदः शुद ब-इ’श्क़

सब्तस्त बर जरीदः-ए-आ’लम दवाम-ए-मा

इब्तिदाई हालातः-

हज़रत साँगड़े सुल्तान,मुश्किल आसान रहमतुल्लाह-अ’लैह के पर दादा सय्यद इब्राहीम रहमतुल्लाह अ’लैह सिपहसालार-ओ-हज़रत मख़दूम हाजी सय्याह रहमतुल्लाह अ’लैह शहंशाह-ए-देहली मोहम्मद तुग़लक़ की फ़ौज के साथ दकन में तशरीफ़ लाए और हज़रत हाजी सय्याह सरवर मख़दूम रहमतुल्लाह अ’लैह के ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत और उनकी रिफ़ाक़त की वजह से हर दो हज़रात क़ंधार शरीफ़ में मुक़ीम हो गए।

जनाब सय्यद इब्राहीम सिपहसालार रहमतुल्लाह अ’लैह की वफ़ात कल्यानी जागीर ज़िला’ गुलबर्गा शीरफ़ में हुई।वहीं आपकी दरगाह ज़ियारत-गाह-ए-आ’लाम है।

हज़रत सय्यद इब्राहीम के फ़रज़न्द हज़रत सय्यद अहमद  (मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहु के दादा) को जनाब सरवर मख़दूम सय्यद सई’दुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह बहुत चाहते थे और उनके ज़ोहद, तक़्वा-ओ-इ’बादत की वजह से अक्सर शैख़ ज़करिया के लक़ब से याद फ़रमाते,इसलिए सयय्द अहमद ज़करिया के नाम से मशहूर-ए-अ’वाम हुए और उनके फ़रज़न्द सय्यद मोहम्मद ज़करिया (हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह-अ’लैह के वालिद-ए-बुज़ुर्ग-वार) को भी हज़रत मख़दूम ज़ाकिर-ओ-शाग़िल होने की वजह से बहुत दोस्त रखते थे और उनको भी शैख़ ज़करिया के लक़ब से पुकारते थे।हज़रत मख़दूम का अ’ता किया हुआ ये ख़िताब ऐसा मक़्बूल हुआ कि हज़रत सयय्द मोहम्मद और उनके वालिद सय्यद अहमद रहमतुल्लाह अ’लैह के नामों के साथ “ज़करिया” लफ़्ज़ शरीक हो गया।हज़रत सय्यद मोहम्मद-ओ-सय्यद अहमद रहमतुल्लाह अ’लैह ने क़ंधार शरीफ़ ही में विसाल फ़रमाया और दरगाह शरीफ़ ही के क़रीब आपके मज़ार-पुर अनवार हैं।

हज़रत हाजी सय्याह सरवर मख़दूम क़ुद्दि-स सिर्रहु और हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के जद्द-ए-बुज़ुर्ग-वार सय्यद इब्राहीम रहमतुल्लाह अ’लैह देहली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही की कीमिया-असर से फ़ैज़याब हो कर हज़रत महबूब-ए-इलाही रहमतुल्लाह अ’लैह की वफ़ात के बा’द दोनों एक साथ देहली से निकले थे।इन दोनों बुज़ुर्गों में बाहमी ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत जिस तरह मज़बूत-ओ-पाएदार थी अल्लाह अल्लाह  इस दुनिया से पर्दा-पोशी के बा’द भी एक ने दूसरे का साथ न छोड़ा और उस दुनिया में भी इन दोनों हज़रात की रिफ़ाक़त-ए-रूहानी अब भी उसी तरह मुस्तहकम नज़र आती है, यहाँ तक कि इन हर दो बुज़ुर्गवारों ने क़ंधार शरीफ़ ही को अपने लिए मुंतख़ब फ़रमा कर हश्र तक आसूदगी इख़्तियार फ़रमाई। हज़रत मख़दूम मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के ज़माना में कम-ओ-बेश 80-90 साल से ज़्यादा ताख़ीर-ओ-तक़दीम नज़र नहीं आती एक ही सिलसिला के इन दो बुज़ुर्ग,आ’ली मर्तबत हस्तियों के वजूद पर क़ंधार शरीफ़ जिस क़द्र भी फ़ख़्र-ओ-नाज़ करे कम और बहुत कम है। तरीक़त-ओ-मा’रिफ़त के इन दो आफ़्ताब-ओ-माहताब की ज़िया-पाशियों की निस्बत-ओ-इ’ज़्ज़त जैसी सर ज़मीन क़ंधार को हासिल है वो आप अपनी यगाना-ए-नज़ीर है। ऐसी मिसाल शाज़-शाज़ ही नज़र आती है।

“शैख़”-ओ-साँग़ड़े सुल्तान की वज्ह-ए-तस्मियाः-

साँगड़े सुल्तान आपका लक़ब है।अस्ल नाम सय्यद शाह शैख़ अ’ली रहमतुल्लाह-अ’लैह है।आपके नाम के साथ “साँगड़े सुल्तान” का लक़ब जुज़्व-ए-ला-यंफ़क बन कर आपके अस्ल नाम से ज़्यादा ज़बान-ज़द हो गया।यहाँ तक की यही लक़ब (साँग़ड़े सुल्तान) आपका अस्ली नाम समझा जाने लगा।हज़रत के जद्द-ए-अमजद जनाब सय्यद इब्राहीम रहमतुल्लाह अ’लैह सिपहसालार को दरबार-ए-महबूबी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही रहमतुल्लाह अ’लैह से ब-कमाल-ए-शफ़्क़त “शैख़” का लक़ब अ’ता होने पर आपने ता’ज़ीमन-ओ-एहतिरामन अपने नाम के साथ “शैख़” का लफ़्ज़ शामिल कर लिया।“शैख़” का यही तसल्सुल हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ तक पहुँच कर आपने भी जद्द-ए-अमजद की इत्तिबाअ’ में अपने नाम के साथ “शैख़” को मर्बूत-ओ-मुंसलिक रखा।साँगड़े सुल्तान रहमतुल्लाह- अ’लैह के मुतअ’ल्लिक़ कई रिवायात मुख़्तलिफ़ ता’बीरात की हामिल हैं।एक ये कि “साँगड़” “दराँगड़” वग़ैरा के नाम के कई जरगे-ओ-क़बीले हिन्दुस्तान के जानिब-ए-शिमाल मग़रिब सरहद में पाए जाते थे।जब हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह सियाहत करते हुए सूबा-ए-सिंध के उस इ’लाक़ा में पहुँचे ते यहाँ के क़बीले या बाशिंदे आपके हल्क़ा-ए-इरादत-ओ-ए’तिक़ाद में शामिल या मुतअस्सिर होकर हज़रत सय्यद शाह शैख़ अ’ली रहमतुल्लाह अ’लैह को अपने क़बीले या नाम की रिआ’यत से  आपको सुल्तान या पेशवा-ए-तरीक़त तसव्वुर करते हुए “साँगड़े सुल्तान कह कर पुकारते थे।अ’वाम में ये लक़ब नाम की तरह शोहरत पाता गया।

दूसरी रिवायत ये कही जती है कि सूबा-ए-सिंध के मज़ाफ़ात में एक क़स्बा “सँगड़” या “साँगड़” था।ब-अस्ना-ए-सियाहत आप का गुज़र जब उस गाँव पर हुआ तो यहाँ के लोग भी आपके इ’ल्म-ओ-कमाल के हल्क़ा-ब-गोश हो कर आपको अपने गाँव “सँगड़” या साँगड़ की रिआ’यत से साँगड़े सुल्तान के नाम से याद करना अपने लिए बाइ’स-ए-इ’ज़्ज़त-ओ-फ़ख़्र समझने लगे।

क़िला’ दौलताबाद (दकन) या उसके क़ुर्ब-ओ-जवार में किसी मक़ाम पर एक शख़्स “संगड़” नामी रहता था जिसने सिफ़्ली इ’ल्मियात या इस्तिदराजी शो’बदों से अक्सर अश्ख़ास के अ’क़ाइद-ए-इस्लामिया में तज़लज़ुल बरपा कर रखा था।आपके इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल-ओ-रूहानी फ़ुयूज़ के बरकात से मुतअस्सिर हो कर उस शख़्स ने आपकी इताअ’त-केशी-ओ-फ़रमाँबर्दारी इख़्तियार की और उस शख़्स की इताअ’त-केशी का शोहरा जब आ’म हुआ तो साँगड़े सुल्तान का लक़ब अ’वाम में फैलता गया।चुनाँचे क़िला’ दौलताबाद में हज़रत मुश्किल आसान के चिल्ला नाम से एक इ’मारत मशहूर है।

एक और रिवायत ये बयान की जाती है जिसको क़ियास-ए-वसूक़ और ख़याल-ए-यक़ीन के दर्जा तक पहुँचता है वो ये कि आप फ़ुनून-ए-सिपह-गरी मस्लन तीर-अंदाज़ी बिनोट फेंक, पट्टा-ओ-नेज़ा-बाज़ी वग़ैरा में महारत-ए-ताम्मा बल्कि यद-ए-तूला रखते थे।साँग या साँगड़े (जो एक क़िस्म का बर्छा नुमा लाँबा हथियार होता है) से अक्सर-ओ-बेशतर औक़ात वर्ज़िश फ़रमाते और उसके तर्ज़-ए-इस्ति’माल को जिस ख़ूबी से जानते उसी तरह इस्ति’माल भी करते थे ।इस सांग या साँगड़ से काफ़ी दिल-चस्पी-ओ-शग़फ़ के बाइ’स आप रहमतुल्लाह अ’लैह अक्सर-ओ-बेश्तर बल्कि हर वक़्त इसे अपने हाथ में ब-तौर-ए-अ’सा-ए-मूसा रखते। इसी वजह से साँग-ए-सुल्तान या इम्तिदाद-ए-ज़माना-ओ-ब-ज़बान-ए-अ’वाम अदा-ए-तलफ़्फ़ुज़ में सौती कम-ओ-बेशी के बाइ’स साँगड़े सुल्तान का लक़ब वजूद में आकर शोहरत-पज़ीर होता गया।ये दोनों साँग अब तक हज़रत के मज़ार के पास मौजूद हैं।

इस तफ़्सीली बह्स से हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के नाम-ओ-लक़ब का काफ़ी इज़हार होता है।नाम-ओ-लक़ब की इस तवील तशरीह से दूसरा ये नतीजा भी बर-आमद होता है जिसको अ’र्ज़-ए-मुद्दआ’ या ग़ायत-ए-अस्ली कहिए और वो ये कि “अल्लाह वाले” या “अहलुल्लाह” दुनिया को सिर्फ़ ब-क़द्र-ए-ज़रूरत-ओ-महज़ हक़ीक़ी एहतियाज तक ही इस्ति’माल करते हैं।उनके ज़िक्र-ओ-शुग़्ल और याद-ए-ख़ुदा में कोई चीज़ अज़ क़िस्म-ए-दुनिया ख़्वाह माल-ओ-औलाद ही कियूँ न हो किसी वक़्त हाइल या माने’ हो जाए तो उसको क़ल्ब से बाहर कर देना वो अपना अव्वलीन फ़रीज़ा तसव्वुर करते हैं।इसी सबब से ख़ुदा की याद वाली ज़िंदगी उनका हर वक़्त नसबुल-ऐ’न रहता और रहा है। इस हक़ीक़ी ज़ौक़-ए-इ’र्फ़ान की ब-दौलत उनके ख़ुदा-दाना क़ल्ब-ए-मुसफ़्फ़ा में कोई दूसरी मोहब्बत आ ही नहीं सकती।इसी ख़याल के तहत दुनिया और दुनियावी अग़राज़ से मुनाफ़रत का तसव्वुर उनकी हक़-बीं निगाहों में हर वक़्त जमा रहता और रहा है। दुनयवी जाह-ओ-हश्मत और कर्र-ओ-फ़र्र उन्हें कभी नहीं भाता। तर्क-ए-अस्बाब-ओ-तर्क-ए-अ’लाइक़-ए-दुनिया को वो मा’रिफ़त की पहली मंज़िल समझते हैं और न सिर्फ़ इसी क़द्र बल्कि नाम-ओ-नुमूद-ओ-नुमाइश और शोहरत को वो अपनी लिल्लाही-तबीअ’त के ख़िलाफ़ समझ कर उससे कोसों दूर रहना चाहते हैं।उन्हें कभी भी इसकी ख़्वहिश-ओ-परवाह नहीं रही और नहीं रहती कि उन्हें कोई उनके अस्ली नाम से पुकारे, या कोई किसी लक़ब से याद करे। उनकी नज़र ज़बान की सादगी अल्फ़ाज़ की ख़ूबसूरती और शान-ओ-शौकत से बहुत ज़्यादा दिल की हक़ीक़ी तड़प और सिद्क़-तलबी पर रहती है। मुत्तबिई’न-ओ-मो’तक़िदीन-ओ-दुनिया के अ’वामुन्नास ने जिस किसी अल्लाह वाले के जिन जिन मुख़्तलिफ़ मदारिज पर अपने अपने ख़याल के मुवाफ़िक़ मुतअ’द्दिद नुक़ात-ए-नज़र से देखा, प्यार-ओ-मोहब्बत, अ’क़ीदत-ओ-शेफ़्तगी के जिस अंदाज़ में चाहा, अपनी राइजुल-वक़्त ज़बान में आक़ा, मुर्शिद, मशाइख़, मज्ज़ूब, फ़क़ीर, सूफ़ी वग़ैरा वग़ैरा, कह कर अल्लाह वालों को पुकार लिया।पुकारने वालों का मक़्सूद नाम के भड़कीले अल्फ़ाज़ से नहीं बल्कि इज़हार-ए-मोहब्बत-ओ-ख़ुलूस के लिए होता है।इसी तरह सुनने वालों का ख़याल भी पुकारने वाले के ज़बान-ओ-अल्फ़ाज़ से ज़्यादा पुकारने वाले के क़ल्ब पर हता है।यंज़ुर-इला क़ुलूबिकुम -व-ला-यंज़र-इला-सुवरिकुम का इर्शाद-ए-इलाही किसी से मख़्फ़ी नहीं।

मुख़्तसर आँ कि ब-जिंसिहि यही हाल मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के नाम-ओ-लक़ब का है।ब-अस्ना-ए-सियाहत-ओ-तब्लीग़-ए-दकन या हिंद में जहाँ आपका गुज़र हुआ कहीं तो “शैख़ुल-इस्लाम” कहलाए और किसी ने आ’शिक़-ए-बे-रिया के नाम से याद किया।कहीं मुश्किल आसान, मशहूर हुए तो किसी जगह “साँगड़े सुल्तान” लक़ब पाए।मुख़्तलिफ़ ज़बान-ओ-ख़ित्ता-ए-मुल्क के रहने बस्ने वाले अ’क़ीदत-मंद लोग हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु को अपने जोश-ए-मोहब्बत-ओ-हुस्न-ए-अ’क़ीदत से तरह तरह के नामों से याद फ़रमाया करते थे।और ये अम्र इक़्ता-ए’-दकन-ओ-हिन्द  में हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहु की शख़्सियत-ओ-बुलंद -मर्तबत का अपने ज़माना-ओ-वक़्त में हर-दिल-अ’ज़ीज़-ओ-मक़्बूल-ए-ख़लाइक़-ओ-आ’म्मतुन्नास होने का एक ज़िंदा हक़ीक़ी सुबूत है।चुनाँचे साँगड़े सुल्तान, मुश्किल आसान, सय्यद शाह अ’ली रहमतुल्लाह अ’लैह, ख़ुद मियाँ वग़ैरा वग़ैरा एक ही नाम के मुख़्तलिफ़ तस्व्वुरात और एक ही रौशनी के मुख़्तलिफ़ रँग हैं।

फ़ज़ाइल-ए-इ’ल्मियाः-

आपकी पैदाइश से हुसूल-ए-ता’लीम के ज़माना तक हालात पर पर्दा पड़ा हुआ है।ज़ाहिर नहीं होता कि आपने किन-किन सिनीन में किन-किन असातिज़ा के सामने अ’रबी,फ़ारसी,शे’र-गोई, तसव्वुफ़-ओ-फ़ुनून-ए-सिपह-गरी-ओ-वर्ज़िशी की तक्मील-ओ-हुसूल-ए-ता’लीम के लिए ज़ानू-ए-अदब तय किया।तफ़्सीली तौर पर बचपन से ता-हुसूल-ए-ता’लीम वाक़िआ’त का इज़हार वक़्त-तल्ब ज़रूर है और न इस मुख़्तसर सी सवानेह-हयात में इस वक़्त इसका कोई मौक़ा’ हो सकता है।मज़ीद बर आँ इस ख़ुसूस में ये दुश्वारी और भी पेचीदा हो जाती है कि हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के ज़माना के ख़ुद उनके या किसी और के लिखे हुए कुतुब-ए-सावानेह वग़ैरा इम्तिदाद-ए-ज़माना की ब-दौलत महफ़ूज़ रहे, न उस वक़्त तक पहुँच सके ताकि ज़्यादा से ज़्यादा और ब-सेहत-ए-वाक़िआ’त पेश किए जा सकें।इन मुतज़क्करा ज़राए’-ओ-वसाएल की अ’दम-ए-दस्तियाबी या अ’दम-ए-मौजूदगी की वजह से हमें हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह ही के “कलिमात”,“मल्फ़ूज़ात-ओ-मक्तूबात” की जानिब रुजूअ’ करना पड़ता है।और ये भी अ’जीब बात है कि हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के कलिमात-ओ-मक्तूबात या इर्शादात वग़ैरा (जो भी कह लीजिए) पूरी तरह मुकम्मल हैसियत से अब तक मंज़र-ए-आ’म पर आ न सके, ता हम हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के मंसूबा जिस क़द्र भी कलिमात, इर्शादात या मक्तूबात मा’लूम हो सके उन पर एक ताएराना-ओ-सरसरी नज़र डालने से हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि –स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ की इ’ल्मी क़ाबिलय्यत,तसव्वुफ़-ओ-इ’रफ़ान-ए-इलाही के मर्द-ए-मैदां  होने का अंदाज़ा हर क़ल्ब-ओ-नज़र में क़ाएम हो जाता है और जिस से आपकी शे’र-गोई-ओ-मौज़ूनी-ए-तब्अ’ का भी पता चलता है।हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के इर्शादात-ए-गिरामी बिला-शक-ओ-शुबहा दरिया-ए-तसव्वुफ़-ओ-तौहीद के न सिर्फ़ अनमोल मोती हैं बल्कि ख़ुदा के तालिबों और अहल-ए-सुलूक के लिए शम्अ’-ए-हिदायत-ओ-रहनुमा-ए-मंज़िल-ए-मा’रिफ़त भी हैं।हज़रत के मक्तूबात की रौशनी में अंदाज़ा क़ाएम किया जा सकता है कि आप अपने वक़्त के एक जय्यद आ’लिम,फ़ाज़िल मुजाहिद-ओ-ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग होने के अ’लावा मुतअ’द्दिद अ’रबी-ओ-फ़ारसी कुतुब के मुसन्निफ़ भी थे।फ़ुनून-ए-सिपह-गरी में ब-लिहाज़-ए-तअ’ल्लुक़-ए-सिपह-सालारी-ए-ख़ानदानी आपको जो मर्तबा-ए-कमाल हासिल था और दुनयवी हैसियत में आप जिस आ’ला किर्दार के हामिल-ओ-बुलंद अख़्लाक़ की एक बेहतरीन मिसाल थे बिल्कुल उसी तरह आप शरीअ’त-ए-ग़र्रा-ए-मोहम्मदी सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम के बे-इंतिहा पाबंद,तब्लीग़ के आ’मिल, अल-फ़क़्रु-फ़ख़री के मज़हर, हक़ीक़त-ओ-मा’रिफ़त का दरख़्शाँ सितारा नज़र आते हैं।ख़ानदानी सिपह-सालारी-ओ-इमारत के बा-वजूद आपने अहल-ए-दुनिया और दुनिया के रू-ब-रू अपनी दुनयवी ज़िंदगी का भी क़ाबिल-ए-तक़्लीद नमूना-ओ-रौशन पहलू पेशा किया जहाँ आपने दुनिया को ब-हैसियत-ए-मज़रा-ए’-आख़िरत इस्ति’माल फ़रमाया।इसी तरह अल्लाह के तलब-गारों,तौहीद के परस्तारों-ओ-मा’रिफ़त के साइलों और हक़ीक़त के प्यासों को भी अपने नसबी-ओ-जद्दी सुलूक-ओ-उ’लूम-ए-रूहानी से बा-फ़ैज़,बा-मुराद,कामयाब-ओ-ख़ुदा-रसीदा करना आपकी निगाह का एक करिश्मा था।आपके सिर्फ़ एक मक्तूब या मल्फ़ूज़ का छोटा सा जुज़्व नाज़िरीन की वाक़फ़ियत-ओ-आगाही के लिए दर्ज किया जाता है।नाज़िरीन अपने अपने ज़ौक़-ए-नज़र से ख़ुद अंदाज़ा फ़रमा सकते हैं।

हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के मक्तूबात या मल्फ़ूज़ात को हज़रत के भाँजे सय्यद शाह ज़ियाउद्दीन अ’ब्दुल-करीम बयाबानी रहमतुल्लाह अ’लैह ने (जिनका मज़ार-ए-पुर-अनवार तअ’ल्लुक़ा-ए-अं’बर ज़िला’ औरंगाबाद में वाक़े’ है और उन्हीं के सिलसिला के मशहूर बुज़ुर्ग हज़रत सय्यद शाह अफ़ज़ल बयाबानी रहमतुल्लाह अ’लैह हैं जिनका मज़ार क़ाज़ी-पीठ वरंगल में ज़ियारत-गाह-ए-आम है) अपनी किताब मत्लूबुत्तालिबीन में जम्अ’ फ़रमाया है।अ’लावा अज़ीं मौलाना शाह रफ़ी’उद्दीन क़ंधारी रहमतुल्लाह अ’लैह ने भी अपनी किताब “अनवारुल-क़ंधार” मुवल्लफ़ा सन 1313 हिज्री में मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्हुल-अ’ज़ीज़ के हलात तहरीर फ़रमाते हुए एक जगह रक़म-तराज़ हैं :

“आ’लिम बूदः ब-उ’लूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी, तसानीफ़-ए-नेको दाश्त चूँ ऐ’नुल-जमाल वग़ैरा”

“अम्मा दर ताराजी-ओ-वीरानी-ए-क़स्बा मफ़क़ूद गश्तः”

“मज़ार-ए-ईशां बिस्यार ग़नीमत अस्त कि नुज़ूल-ए-बरकात-ओ-इस्तिजाबत-ए-दु’आ अस्त”।

इससे ज़ाहिर है कि हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल अ’ज़ीज़ एक बुलंद-पाया आ’लिम फ़ाज़िल होने के अ’लावा साहिब-ए-तसानीफ़ भी ज़रूर थे। लेकिन अफ़्सोस कि ताराजी-ओ-वीरानी की वजह से हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु की तसानीफ़ मफ़्क़ूद हो गईं। मा’लूम होता है कि मौलाना शाह रफ़ीउ’द्दीन क़ंधारी रहमतुल्लाह अ’लैह ने मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह की मुसन्नफ़ा किताब ऐ’नुल-जमाल का हवाला जो ज़ेब-ए-रक़म फ़रमाया है वो मौलाना की नज़र से गुज़री है।अगर्चे इस मुख़्तसर से रिसाला में तफ़्सीली तहक़ीक़ का मौ’क़ा नहीं न इस वक़्त कोई क़दीम मवाद पेश-ए-नज़र है ता हम हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु, का मुह्व्वला बाला मल्फ़ूज़ का एक छोटा सा हिस्सा दर्ज-ज़ैल हैः

“पीर-ए-ईं दरवेश-ए-ज़ई’फ़ शैख़ुल-इस्लाम- वल-मुस्लिमीन मुहिब्बुल-अंबिया वल-मुर्सलीन ख़त्मुल-आ’शिक़ीन हज़रत शैख़ अ’ली शाह आ’शिक़ बर्या अल-मा’रूफ़ साँगड़े सुल्तान मुश्किल आसान रिफ़ाई’ क़ुद्दि-स सिर्रहु फ़रमूद कि

“इ’ल्म रौशन कुनंदः-ए-दिल-ओ-अ’क़्ल अफ़्ज़ाइंदः हस्त अज़ तुफ़ैल-ए-इ’ल्म हम दुनिया ब-दस्त आयद व-हम उ’क़्बा रूए-नुमायद।

अम्मा दुनिया चे चीज़े अस्त कि नज़दीक-ए-मुहक़्क़िक़ान ब-पर-ए-पश्श: नमी-आरद।

व- इ’ल्म शय-ए-नफ़ीस-ओ-गौहर-ए-बे-बहा अस्त या’नी हर हाजते-ओ-अस्बाब राहते बाशद अज़ ख़ुद फ़ना पज़ीरद।

अम्मा इ’ल्म हासिल कर्दः ब-दस्त आवुर्दः बाशद हर्गिज़ ख़ुद फ़ना न-पज़ीरद।

चे ख़ुश फ़रमूदःअस्त”।

अल-इ’ल्मु ज़य्यनुर्रिजालि व-ग़ैरहुम

वल-इ’ल्मु अफ़ज़लु मिनल-कुनूज़िल-जवाहिरि

व-तग़्निल-कुनूज़ु-अ’लज़्ज़मानिल-मर्रति

वल-इ’ल्मु यब्क़ा-बाक़ियातिल-अ’स्रि

चूँ इ’ल्म कुजा यार-ए-मुवाफ़िक़ याबी

हर जा कि रवी बा-तू बुवद बेताबी

हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के एक इर्शाद बिल-मल्फ़ूज़ का मुख़्तसरन इक़्तिबास मुंदर्जा बाला मुश्ते नमूना अज़ ख़रवारे है जिससे हज़रत के इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल का पता चलता है।अ’श्आ’र-ए-मुन्दर्जा बाला भी हज़रत की ज़बान-ए-फ़ैज़-तर्जुमान से निकलने का पता देते हैं।इस लिहाज़ से आपको शे’र-गोई-ओ-नस्र-निगारी पर क़ुदरत ने ख़ास्सा ऊ’बूर-ओ-क़ादिरुल-कलामी अ’ता फ़रमाई थी।गो आपका तख़ल्लुस मा’लूम न हो सका न कोई दीवान नज़र से गुज़रा ताहम इक़्तिबास-ए-मक्तूब-ए-मर्क़ूम-ए-बाला से आपकी आ’ला क़ाबिलिय्यत का एक हलका तसव्वुर पैदा होता है।लेकिन मेरे नज़दीक हक़ीक़त ये है कि बुज़ुर्गान-ए-दीन या अल्लाह वालों का इ’ल्म जब वो हमा तन “अल्लाह” के बन जाते हैं तो न सिर्फ़ इ’ल्म बल्कि उनका दिल, दिमाग़, रूह,क़ौल-ओ-फ़े’ल तक सब कुछ अल्लाह का हो जाता है और ‘हर चीज़ कि दर कान-ए-नमक रफ़्त नमक शुद’ का पूरा पूरा मिस्दाक़ इस ख़याल से बी-युब्सिरू-ओ-बी-यस्मउ’-व-बी-यंतिक़ु की तशरीह-ओ-तौज़ीह के लिए वही ज़बान और क़लम मौज़ूँ है जिसके नतीजा-ए-फ़िक्र या रशहात-ए-क़लम से ख़ुदा-परस्ती टपके और जो इसमें का शानावर न हो वो अल्लाह वालों के इ’ल्म की (जब्कि उनका इ’ल्म भी अल्लाह में गुम हो जाता है) किस तरह तौज़ीह और कैसी तशरीह कर सके।

इ’ल्म-ए-हक़ दर इ’ल्म-ए-सूफ़ी गुम शवद

ईं सुख़न के बावर-ए-मर्दुम शवद

हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल-ओ-हक़ाइक़-ए-तसव्वुफ़ का एक निहायत ही मुख़्तसर सा मुरक़्क़ा’ ऊपर पेशा किया गया है।इंशा-अल्लाहु तआ’ला इ’न्दज़्ज़रुरत-ओ-मौक़ा’ हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के तफ़्सीली हालात ब-तहक़ीक़-ए-मुम्किना-ओ-बा’द-ए-दस्तियाबी आईंदा हदिया-ए-नाज़िरीन किए जाएंगे।

हज़रत का विसाल

हज़रत का सन-ए-पैदाइश भी जैसा कि क़ब्ल अज़ीं अ’र्ज़ किया जा चुका है सहीह तौर पर मा’लूम न हो सका।इसी तरह हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के हालात,ता’लीमात,वाक़िआ’त-ए-कश्फ़-ओ-करामात वग़ैरा भी पर्दा-ए-इख़्फ़ा में मस्तूर हैं।अ’ला हाज़ा हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के सन-ए-विसाल में भी कुछ थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ मा’लूम होता है।कहा जाता है कि हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़िज़ का सन-ए-विसाल सन 846 हिज्री है। और सन-ए-विसाल का माद्दा-ए-तारीख़ी “मुश्किल कुशा-ए-दीन दुनिया” बतलाया जाता है।इस माद्दा-ए-तारीख़ी के अब्जदी हिसाब से जो आ’दाद बर-आमद होते हैं उससे सन 856 हिज्री का सन-ए-विसाल बर-आमद होता है।इस माद्दा-ए-तारीख़ी(ये मा’लूम न हो सका कि किस अ’क़ीदत-मंद का है)पर अगर भरोसा किया जाए तो मानना पड़ता है कि हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु का सन-ए-विसाल सन 856 हिज्री है।ब-लिहाज़-ए-आ’दाद-ए-माद्दा-ए-तारीख़ी सन 856 हिज्री और ब-लिहाज़-ए-सन-ए-मुतज़क्करा सन 846 हिज्री दस साल का तफ़ाउत ज़माना-ए-विसाल में होता है जो चंदाँ क़ाबिल-ए-लिहाज़ या महल्ल-ए-ए’तिराज़ नहीं हो सकता।अंदरीं हालात आपका साल-ए-पैदाइश सन 770 हिज्री क़रार दिया जाए तो ब-लिहाज़-ए-माद्दा-ए-तारीख़-ए-मज़्कूरा (मुश्किल-कुशा-ए-दीन-दुनिया सन 856 हिज्री) छियासी साल की उ’म्र में आप ब-तारीख़ 8 सफ़रुल-मुज़फ़्फ़र सन 856 हिज्री इस दुनिया से ज़ाहिरन पर्दा फ़रमाते हुए रफ़ीक़-ए-आ’ला से जा मिले और ब-मक़ाम-ए-शहर-ए- क़ंधार शरीफ़ मदफ़ून हुए।जहाँ आपका मज़ार-ए-पुर-अनवार रौज़ा-ए-ख़ुर्द के नाम से मौसूम-ओ-ज़ियारत-गाह-ए-आ’म्मतुन्नास है। आठवीं सफ़र को आपका उ’र्स तुज़्क-ओ-एहतिशाम से हुआ करता है।अतराफ़-ओ-अकनाफ़ के हज़ारहा ख़लाइक़ का मज्मा’ रहता है।

ता’मीर-ए-गुंबद-ओ-मस्जिद वग़ैराः

आपकी मज़ार का गुंबद दरगाह शरीफ़,क़स्बा-ए-क़ंधार की आबादी के जानिब मग़रिब तालाब के किनारे निहायत ही पुर-फ़िज़ा दिलक़श जगह पर वाक़े’ है,और ब-लिहाज़-ए-महल्ल-ए-वुक़ुअ’ अपने अंदर एक रूहानी मक़्नातीसी कशिश के अ’लावा बसीरत की निगाहों में क़ुदरत के ख़ास और पुर-कैफ़ नज़ारा की तासीर रखता है।गुंबद से मुल्हक़ जानिब-ए-शिमाल उसी ज़माना की ता’मीर-शुदा पुख़्ता मस्जिद है।दरगाह शरीफ़ के इहाता में पत्थर के फ़र्श का सहन काफ़ी वसीअ’ है। जानिब-ए-जुनूब ख़ानक़ाह भी है।इहाता में बाहर जुनूब-मशरिक़ में लब-ए-सड़क हज़रत के वालिद दादा साहिब जनाब सय्यद मोहम्मद-ओ-सय्यद अहमद के मज़ारात वाक़े’ हैं जिस पर किसी ज़माना में गुंबद भी था, लेकन अब नहीं।

हज़रत की तासीर-ए-दु’आः-

हज़रत मुश्किल-आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ की गुंबद-ओ-मुल्हक़ा मस्जिद की ता’मीर के सिलसिला में ये रिवायत मशहूर है कि हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु का एक मुरीद-ए-ख़ास मोहम्मद इब्राहीम नामी ताजिर इ’लाक़ा-ए-सिंध या पंजाब का रहने वाला था।और आपसे बे-इंतिहा ख़ुलूस-ओ-अ’क़ीदत रखता था।ब-अस्ना-ए-तिजारत-ओ-सफ़र-ए-बहरी ताजिर-ए-मज़कूर का ज़हाज़ जिसमें वो ख़ुद भी मआ’ सामान-ए-तिजारत सवार था, दरिया के तलातुम-ओ-गिर्दाब में फंस गया।इस मुसीबत-ओ-आ’लम-ए-परेशानी में मोहम्मद इब्राहीम ताजिर अपने हुस्न-ए-  अ’क़ीदत-ओ-इरादत-ए-क़ल्बी के लिहाज़ से फ़ौरन अपने मुर्शिद हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह की जानिब रुजूअ’ हो कर ब-समीम-ए-क़ल्ब इम्तिमदाद-ओ-इआ’नत चाही और मिन्नत मानी कि सेहत-ओ-सलामती के बा’द हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हो कर नज़्र गुज़ारूंगा।इस मुख़्लिस मुरीद ताजिर की परेशानी-ओ-तलातुम-ए-जहाज़ का हाल हज़रत को ब-ज़रिआ’-ए- कश्फ़ मा’लूम हुआ।आपने यहीं से जनाब-ए-इलाही में दु’आ फ़रमाई।मक़बुलियत-ए-दु’आ का असर उसी वक़्त ज़ाहिर हुआ।वो मुख़्लिस मुरीद ताजिर ब-ख़ैर-ओ-आ’फ़ियत मआ’ माल-ओ-अस्बाब अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँच कर हसब-ए-ऐ’तिक़ाद क़ंधार शरीफ़ हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हुआ लेकिन उस वक़्त हज़रत का विसाल हो चुका था।ये मुरीद भी अपनी धुन का पक्का और ऐ’तिक़ाद का सच्चा था ।उसी ने ख़ानक़ाह,मस्जिद-ओ-हज़रत के गुंबद की ता’मीर करवाई,जो अब तक यादगार है।इस ताजिर की संग-बस्ता क़ब्र भी आपकी दरगाह के जानिब-ए-शिमाल लब-ए-तालाब वाक़े’ है।

हज़रत साँगड़े सुल्तान की औलादः-

हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु की दो बीवियाँ थीं।1. जमाल बीवी साहिबा 2. तारा बीबी साहिबा।महल्ल-ए-अव्वल से तीन साहिबज़ादगानः सय्यद अ’ज़ीमुद्दीन, सय्यद अहमद मंझले चिल्लादार और सय्यद मुई’नुद्दीन हुए।बड़े फ़रज़न्द सय्यद अ’ज़ीमुद्दीन थे जिनका लक़ब “शाह धड़क” मशहूर-ए-अ’वाम है। उन्होंने ए’ज़ाज़-ओ-इमारत-ए-दुनयवी हासिल किया।हुकूमत में वज़ारत का मंसब भी मिला था और वज़ारत की शान-ओ-शौकत-ओ-दुनयवी कर्र-ओ-फ़र्र के साथ जब आप अपने वालिद हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह से मिलने के लिए तशरीफ़ लाए तो अपने फ़रज़न्द की दुनयवी ए’ज़ाज़-ओ-हशमत की ये हैसियत हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु के शायद ना-गवारी-ए-तब्अ’ का बाइ’स हुई।पस हज़रत ने उनके लिए दु’आ फ़रमाई जिसका असर ये हुआ कि आपने भी अपने वालिद-ए-बुज़ुर्ग-वार की तरह अपनी दुनयवी ज़िंदगी, इमारत-ओ-वज़ारत,जाह-ओ-मंसब को छोड़ कर ज़िक्र-ओ-शुग़्ल-ओ-याद-ए-इलाही में मशग़ूल हो गए।आपके लक़ब “शाह धड़क” की तौज़ीह इस तरह की गई है कि आप एक लख़्त अपनी दुनयवी ज़िंदगी के जाह-ओ-हशमत को तर्क करते हुए याद-ए-इलाही में जब मशग़ूल हुए तो आपने क़ल्ब में कुछ धड़कन महसूस फ़रमाई।या ब-तरीक़-ए-दीगर आँकि ज़िक्र-ए-इलाही की कसरत-ओ-मुदावमत से आपका दिल अक्सर वक़्त धड़कता रहता था।

हज़रत के सब से छोटे तीसरे साहिबज़ादे सय्यद मुई’नुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह की तबीअ’त चूँकि जलाली थी इसलिए शाह कड़क मशहूर हुए।उनकी करामात से ये मशहूर है कि उनके हुक्म से दीवार ने जानदार की तरह हरकत की थी।इन हर दो साहिबज़ादगान के मज़ारात क़ंधार की आबादी के जानिब मग़रिब (क़रीब मोहल्ला साबिक़ा ग़ाज़ीपुरा हाल-उफ़्तादा) ज़ियारतगाह-ए-ख़लाइक़ हैं।हज़रत के मँझले साहिबज़ादे सय्यद अहमद रहमतुल्लाह अ’लैह अपने पिदर-ए-बुज़ुर्ग-वार (हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह) के सहीह मा’नों में हक़ीक़ी जानशीन थे।उ’लूम-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन में आपने कामिल उ’बूर हासिल किया था।अज़कार-ओ-अश्ग़ाल-ए-इलाही में अपने वालिद की तरह मुस्तक़िल और ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग साबित हुए।आपका मज़ार अपने वालिद के मज़ार के मुक़ाबिल दरगाह के इहाता ही में जानिब-ए-मशरिक़ गुंबद में है।हज़रत सय्यद शाह अहमद चिल्ला-दार अपने पिदर-ए-आ’ली हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के सहीह जानशीन होने की वजह से हज़रत क़ुद्दि-स सिर्रहु ने मसनद-ए-रुश्द-ओ-हिदायत-ओ-ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त-ओ-इजाज़त आप ही को अ’ता फ़रमाया,और आप ही सज्जादा-नशीन हुए।आपके बा’द आपके फ़रज़न्द सय्यद शाह मुई’नुद्दीन और उनके बा’द उनके फ़रज़न्द-ए-रशीद शाह मीराँ जी यके बा’द दीगरे हज़रत मुश्किल आसान रहमतुल्लाह अ’लैह के ख़लीफ़ा-ओ-सज्जादा-नशीन हुए।शज्रा-ए-मुंसलिका से ब-ख़ूबी इसकी वज़ाहत हो सकती है।

इस वक़्त हज़रत मौलाना सय्यद शाह बुर्हानुल्लाह हुसैनी साहिब रिफ़ाई’ क़ादरी हज़रत मुश्किल आसान क़ुद्दि-स सिर्रहु के औलाद में नसबन पोते और सज्जाद-नशीन हैं।मौजूदा सज्जादा-नशीन के वालिद-ए-बुज़ुर्गवार सय्यद शाह रहमतुल्लाह हुसैनी साहिब रिफ़ाई’ ने शाख़-ए-अव्वुल में ला-वलदी के बा-इ’स ख़िलाफ़त-ओ-सज्जादगी के मंसब-ए-जलीला पर फ़ाइज़ हो कर सिलसिला-ए-रुश्द-ओ-हिदायत आग़ाज़ किया।उनके बा’द मौलाना सय्यद शाह बुर्हानुल्लाह हुसैनी साहिब रिफ़ाई’ क़ादरी मसनद-ए-सज्जादगी पर मुतमक्किन हैं।मौजूदा सज्जादा साहिब अ’रबी-ओ-फ़ारसी के आ’लिम-ओ-फ़ाज़िल हैं।मा’क़ूल-ओ-मंक़ूल में ख़ासा उ’बूर रखते हैं।और मदरसा निज़ामिया सरकार के ता’लीम-याफ़्ता और हज़रत मौलाना अन्वारुल्लाह ख़ान नवाब फ़ज़ीलत जंग रहमतुल्लाह अ’लैह उस्ताद हुज़ूर-ए-पुर-नूर-ए-बंदगान-ए-आ’ली,के ख़ास शागिर्द-ओ-फ़ैज़-ओ-तर्बियत-याफ़्ता हैं।मौलवियाना मशरब और अपनी वज़ा’दारी के पाबंद बुज़ुर्ग हैं।शे’र-गोई में भी अच्छा दख़्ल है।अ’ला तख़ल्लुस है।आपके मुरीद क़ंधार शरीफ़-ओ-अतराफ़-ओ-अकनाफ़ के दीगर मक़ामात में हैं।आपके दो फ़रज़न्द  सय्यद शाह मोहम्मद रहमतुल्लाह हुसैनी कलाँ और ख़ुर्द सय्यद शाह अहमदुल्लाह हुसैनी मौजूद हैं।

ईं सिलसिला अज़ तिला-ए-नाबस्त

ईं ख़ानः तमाम आफ़्ताबस्त

व-आख़िरु-दा’वाना-अनिल-हम्दु-लिल्लाहि रब्बिल-आ’लमीन।

क़ंधार शरीफ़

तहरीर कर्दः 13 मुहर्रम शरीफ़ सन 1359

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