तरीक़ा-ए-सुहरवर्दी की तहक़ीक़-मीर अंसर अ’ली
ज़ैल में दो आ’लिमाना ख़त तहरीर किए जाते हैं जो जनाब मौलाना मीर अनसर अ’ली चिश्ती निज़ामी अफ़सर-ए-आ’ला महकमा-ए-आबकारी,रियासत-ए-हैदराबाद दकन ने अ’र्सा हुआ इर्साल फ़रमाए थे। मीर मौसूफ़ नए ज़माना के तअस्सुरात के सबब फ़ुक़रा और हज़रात-ए-सूफ़िया-ए-किराम से बिल्कुल बद-अ’क़ीदाथे,मगर आपकी वालिदा मोहतरमा ने ब-वक़्त-ए- रिहलत ऐसी नेक दुआ’ दी कि फ़ौरन हज़रत मख़दूम सय्यिद क़ुबूल शाह चिश्ती निज़ामी की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बैअ’त हासिल की।हलक़ा-ए-इरादत में दाख़िल होते ही आपकी हालत में एक मुफ़ीद इंक़िलाब पैदा हो गया।चुंनाचे माशा-अल्लाह जैसी वाक़फ़िय्यत आपको हज़रात-ए- मशाएख़ के हालात से है ग़ालिबन बहुत कम लोगों को होगी।
पहले ख़त में सुहरवर्दिया ख़ानदान की तहक़ीक़ है और दूसरे में हज़रत सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह के मुफ़स्सल कवाएफ़ दर्याफ़्त किए गए हैं और उनके मक़ाम-ए-दफ़्न की सिहत करनी चाही है।नाज़िरीन-ए-निज़मुल-मशाइख़ अपनी अपनी मा’लूमात के मुवाफ़िक़ इस कार-आमद तहक़ीक़ात में ज़रूर हिस्सा लें।
ब-ख़िदमत-ए-गिरामी जनाब मौलाना ख़्वाजा हसन निज़ामी साहिब दबीरुल-हल्क़ानिज़ामुल-मशाइख़ तसलीम।आपके निज़ामुल-मशाइख़ नंबर रजबुल-मुरज्जब के इब्तिदई मज़्मून ‘‘गलीम-ए-दरवेशी’’ को मैंने निहायत दिल-चस्पी से पढ़ा।उसके हर एक लफ़्ज़-ओ-मा’नी से मुझे पूरा इत्तिफ़ाक़ है।
फ़िल-हक़ीक़त मशाइख़-ए-तरीक़त की हाल की बाहमी ना-इत्तिफ़ाक़ियों का जो आपने ज़िक्र फ़रमाया है और उसके दूर करने और इत्तिहाद-ए-दिली क़ायम करने की जो कोशिश फ़रमाई है,उममें आपको पूरी कामयाबी-ओ-फ़त्ह नसीब होगी। एक ज़माना से मुझ ना-चीज़ को मशाइख़-ए-तरीक़त से मिलने का शौक़ है जहाँ मैंने देखा है मैं कह सकता हूँ कि तरीक़त के बुज़ुर्गों ने इस ज़माना में बिल्कुल इत्तिफ़ाक़-ओ-इत्तिहाद को और अपने मुक़ाबिल की दूसरी शाख़ के सिलसिला के अदब-ओ-ता’ज़ीम को बिल्कुल मिटा दिया है।आपने लिखा है कि आज-कल सुहरवर्दी तरीक़ा की आ’म इशाअ’त नहीं है।लेकिन ना-चीज़ ने जिन बातों को देखा है वो अ’र्ज़ किया जाता है या’नी सुहरवर्दिया ने अपने-आप को क़ादरिया मश्हूर कर रक्खा है।न सिर्फ़ मश्हुर बल्कि शजरा जो दिया जाता है उसमें हज़रत शैख़ुश्शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी रहमतुल्लाहि अ’लैह के इस्म-ए-गिरामी के बा’द हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म महबूब-ए-सुबहानी रज़ी-अल्ल्हु अ’न्हु का नाम-ए-पाक दर्ज किया है।कुतुब में लिखा है कि आप हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म के ज़माना में सिग़र-ए-सिन्न थे। मन्क़ूलात की जानिब तवज्जोह ज़ियादा थी।चचा शैख़ अबू नजीब उन्हें हज़रत के पास ले गए और अ’र्ज़ किया कि ये दीनी उ’लूम की जानिब तवज्जोह नहीं करता।आपने तसर्रुफ़ से उस उ’लूम के नुक़ूश को दिल से मिटा दिया और कहा अन्ता –आख़िरुल-मश्हूरीन-फ़िल-इराक़।और बस उसी पर उनको फ़ैज़-याफ़्ता ग़ौस कहा जाता है और क़ादिरया सिलसिला में होना बतलाया जाता है। चूँकि आ’म तौर पर क़ादिरया सिलसिला की बड़ी इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर होती थी और अकसर लोग ख़ुसूसन अर्बाब-ए-दौलत-ओ-अ’ज़्मत,रुउसा-ओ-उमरा इस अम्र के तालिब रहते हैं कि क़ादरिया तरीक़ा में बैअ’त नसीब हो।नीज़ इसके बा’द चिश्तिया तरीक़ में बैअ’त हो तो दूसरे तरीक़ के बुज़ुर्गों ने अपने ख़ास तरीक़ा को क़ादरिया मश्हूर कर रखा है।और शजरा भी उसी उ’नवान का अ’ता किया जाता है।नक़्शबंदिया मुजद्ददिया तरीक़ा में एक शाख़ क़ादरिया की आई है, इसी को ज़ाहिर क्या जाता है।फ़िक्र-ओ-ज़िक्र-ओ-शुग़्ल मुजद्ददी तरीक़ के बतलाए जाते हैं।सबसे ज़ियादा लुत्फ़ की बात ये है कि दो शाखें मशहूर हैं।एक फ़िरदौसिया-ओ मुनीरिया और दूसरी नूर-बख़्शीया।या’नी हज़रत नजमुद्दीन कुब्रा रहमतुल्लाहि अ’लैह के बा’द शैख़ रज़ीउद्दीन अ’ली लाला और उनके बा’द शैख़ अ’लाउद्दौला समनानी रहमतुल्लाहि अ’लैहि, उनके बा’द सय्यिद अ’ली हमदानी कशमीरी अल-मदफ़न रहमतुल्लाहि अ’लैहि, उनके बा’द सय्यिद मोहम्मद नूर बख़्श रहमतुल्लाहि अ’लैहि, उनके बा’द हज़रत मोहम्मद अ’ली बिन यहया लाहजी। नूर-ए-चश्मी जिन्हों ने मस्नवी गुल्शन-ए-राज़ की मशहूर शरह की है चूँकि ब-ज़माना-ए-साबिक़ हिंदुस्तान ,कशमीर, काबुल-ओ-ख़ुरासान के बुज़ुर्ग जो ज़ियारत-ए-हरमैन-ए-शरीफ़ैन के लिए क़स्द फ़रमाते तो अहमदाबाद गुजरात होते हुए शहर-ए-सूरत की बंदर-गाह से जहाज़ पर सवार होते थे।अस्ना-ए-राह में या बा’द वापसी के ब-वजह-ए-दिल-चसपी या और वजह से अकसर बुज़ुर्गों ने सूरत,बड़ोच और अहमदाबाद में रहना इख़्तिया किया।यही वजह है कि अहमदाबाद ,गुजरात में मुतअ’द्दिद औलिया-अल्लाह के मज़ार-ओ-मक़बरा मौजूद हैं।शैख़ मोहम्मद बिन यहया लाहजी नूर बख़्श रहमतुल्लाहि अ’लैह अपने वक़्त के औलिया-ए-कामिलीन में से थे।और शरह-ए-गुलशन-ए-राज़ उनकी अ’ज़्मत,इ’ल्म-ओ-कमाल-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी की बय्यिन दलील है।और ख़ुद भी बहुत आ’ला दर्जा के सूफ़ियाना शाइ’र थे।अफ़्सोस है कि उनका दीवान इस ज़माना में निहायत कमयाब है।तख़ल्लुस असीरी फ़रमाते थे।शाइ’री सिल्सिला में आप असीरी लाहजी के नाम से ज़ियादा मश्हूर हैं।इन बुज़ुर्गवार ने मौलाना हसन मोहम्मद रहमतुल्लाहि अ’लैह से जो शैख़ यहया मदनी क़ुतुबुल-मदीना के दादा थे अहमदाबाद में मुलाक़ात की।उनकी सिग़र-ए-सिन्नी का ज़माना था।मगर चूँकि हर तरह आरास्ता-ओ-पैरास्ता थे उनको बा’द वापसी अज़ हज अपना तरीक़ अ’ता किया।
उस ख़ानदान में ये सिलसिला क़ादरिया के नाम से मश्हूर है और शजरा में शैख़ अबुल-ख़ुबैब अ’ब्दुल क़ादिर सुहरवर्दी रहमतुल्लाहि अ’लैह के बा’द हज़रत महबूब-ए-सुबहानी ग़ौसुस्समदानी रहमतुल्लाहि अ’लैह का नाम दर्ज करते हैं।हालाँकि उनको शैख़ अहमद ग़ज़ाली रहमतुल्लाहि अ’लैह और शैख़ नस्साज रहमतुल्लाहि अ’लैह से तअ’ल्लुक़ था। बयान ये किया जाता है कि हज़रत महबूब-ए-सुबहानी से आपने फ़ैज़ हासिल किया है।सवानिह-उ’म्री,हज़रत ग़ौस-ए-अ’ज़म में जो मिस्र के किसी ज़ी-इ’ल्म बुज़ुर्ग ने कुतुब-ए-क़दीम-ए-अ’रबी से मुरत्तब की है ब-सराहत दर्ज है की शैख़ अ’ब्दुल क़ादिर सुहरवर्दी जिनसे कि सिलसिला–ए-सुहरवार्दिया मश्हूर हुआ और जो कि सुहरवर्दिया के इमामुत्तरीक़ हैं हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म की महफ़िलों में शरीक हुए।वा’ज़ सुना और फ़ैज़-ए-सोहबत हासिल किया।आपको सुहरवर्दी का शैख़ कहना बजा है।ये ज़ाहिर है कि बुज़ुर्गों ने किसी सिलसिला में इरादतन बैअ’त की और तकमील-ए-कार सय्याही की और मुतअ’द्दिद बुज़ुर्गों की सोहबत से फ़ैज़ हासिल किया है।इसलिए ये लाज़िम नहीं आता कि सिलसिला-ए-बैअ’त में कोई तफ़रका पैदा किया जाए।हज़रत महबूब-ए-पाक ने शैख़ अबू सई’द मुबारक अल-मक़रूमी के हाथ पर बैअ’त की।शजरा में उसी बुज़ुर्ग के नाम को दर्ज करना पसंद फ़रमाया।हालाँकि आपको शैख़ हम्माद तासी और दीगर और बुज़ुर्गों की सोहबत मय्यसर आई और फ़ैज़-ए-सोहबत हासिल किया है।जिस बात को ख़ुद ग़ौस-ए-आ’ज़म पसंद न फ़रमाएं उसको हाल के बुज़ुर्गों ने महज़ इस ग़रज़ से रिवाज दिया है कि क़ादरिया तरीक़ न कहा जाए तो इज़्ज़त-ओ-हुर्मत में फ़र्क़ आता है।जिस तरह हज़रत ने फ़ैज़-ए-सोहबत हासिल किया है उसी तरह हज़रत शैख़ अबू-यूसुफ़ हमदानी इमामुत्तरीक़ा ख़ानदान-ए-नक़श्बंदिया ने भी हज़रत ग़ौस-ए-पाक रहमतुल्लाहि अ’लैह कि ब-मरातिब-ए-मुतअ’द्दिद तसदीक़ की और फ़ैज़-ए-सोहबत हासिल किया है।दुरुस्त सिलसिला दर्ज होने से फ़ैज़-ए-सोहबत का इंकार नहीं होता बल्कि कुतुब-ए-क़दीमी इन वाक़िआ’त से भरी पड़ी हैं। आज कोई उन्हें पोशीदा नहीं रख सकता और न उस से अ’ज़्मत-ओ-शान-ए-ग़ौस-ए-आ’ज़म रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु में कोई फ़र्क़ आता है।हज़रत ने ‘क़दमी-हाज़िही-अ’ला- रक़बती-कुल्लि-औलियाइल्लाह’ फ़रमाया तो उनके ज़माना के तमाम बुज़ुर्गों ने सर-ए-इ’ताअत ख़म किया और ता’ज़ीम-ओ-तकरीम से पेश आए।इस तरह फ़रमान-ए-साबरी तहरीर फ़रमा के आपने इसकी कोशिश फ़रमाई है कि मजालिस-ओ-महाफ़िल-ओ-आ’रास-ए-साबरिया में जो उमूर मकरूह हैं रिवाज पाए थे वो दूर किए जाएँ।इसी तरह शजरों औऱ सिलसिलों की ग़लतियों पर भी आप नज़र ड़ालें और उनकी इस्लाह की कोशिश फ़रमाएं तो निहायत मुनासिब होगा।
अव्वल तो मशाइख़-ए-तरीक़ा और साहिबान-ए-सज्जादा अकसर मक़ामात के जाहिल-ओ-बे-इ’ल्म हैं और जब यही सूरत रही तो आइंदा क्या उम्मीद है कि ग़लतियों की इस्लाह हो सके। देखिए हिंदुस्तान में शत्तारिया सिलसिसिला भी जारी है। हिंदुस्तान में शैख़ क़ाज़िन रहमतुल्लाहि अ’लैह ने इसको रिवाज दिया और शैख़ मोहम्मद गवालियरी रहमतुल्लाहि अ’लैह से उसकी शोहरत हुई।उनके दो बड़े ख़ुलफ़ा हिंदुस्तान में आसूदा हैं। हज़रत उस्ताद आ’लम सय्यिद वजीहुद्दीन गुजराती रहमतुल्लाहि अ’लैह जो रिसाला-ए-हक़ीक़त-ए-मोहम्मद-ए- अ’रबी के मुसन्निफ़ हैं और हज़रत क़ादिर औलिया जो नाकूर नागपट्टन वाक़िअ’ जुनूबी हिस्सा क़लमरौ-ए-मदरास में आसूदा हैं।उस ज़माना में या तो नाम-ए-शत्तारिया मफ़्क़ूद हो गया या ये कि उसको तरीक़-ए-क़ादरिया की एक शाख़ मश्हूर कर रखा है।आपको अगर ये मा’लूम है कि मोहम्मद ग़ौस गवालियरी रहमतुल्लाहि अ’लैह-ओ-सय्यिद वजीहुद्दीन गुजराती रहमतुल्लाहि अ’लैह का सिलसिला ऊपर जाकर बैअ’त-ए-इरादत-ए-हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म से मिलता है तो इत्तिलाअ’ दीजिए।वस्सलाम। अल्लाह तआ’ला जज़ा-ए-ख़ैर दे।आमीन
हज़रत सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी कहाँ दफ़्न हैं
एक बुज़ुर्ग के हालात ऐसे हैं कि उनकी निस्बत तहक़ीक़ात की जाए तो मुनासिब है।उम्मीद है कि देहली में बावजूद-ए-तबाही भी इ’ल्मी ज़ख़ीरा ऐसा है कि उससे मदद मिल सकती है। और अगर दकन में कोई ज़ख़ीरा हो ताकि जिससे ये उमूर दर्याफ़्त किए जाते तो मैं बावजूद-ए-मशाग़िल-ए-सरकारी ख़िदमत गुज़ारी के लिए तैयार था।मुल्ला अ’ब्दुल क़य्यूम मरहूम एक बड़े ज़ी-इ’ल्म और तारीख़-दोस्त थे।उनका कुतुब-ख़ाना गुज़िश्ता साल की तुग़्यानी में तमाम-ओ-कमाल तबाह-ओ-ताराज हो गया।ख़्वाजा गेसूदराज़ के आस्ताना पर एक क़दीम कुतुब-ख़ाना मौजूद है।मगर सज्जादा-ए-दरगाह कोई किताब नहीं दिखलाते।ख़्वाजा साहिब मौसूफ़ के रुक़आ’त-ए- सूफ़िया का एक ज़ख़ीरा सज्जाद साहिब के पास मौजूद है। क़ाबिल-ए-क़द्र रुक़आ’त हैं मगर वो नहीं देते।बहर-हाल जिन बुज़ुर्ग-वार के हालात वाज़िह तौर पर मा’लूम नहीं हुए हैं उनका नाम सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह से कुतुब-ए-सियर-ए-चिश्तिया-ओ-मल्फ़ूज़ात-ए-चिश्तिया में उनके हालात ब-कसरत दर्ज है।हज़रत शैख़ अबू सई’द तबरेज़ी के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे।अब मा’लूम नहीं कि ये शैख़ अबू सई’द अबुल-ख़ैर सरख़सी हैं या और कोई।बहर-हाल बा’द इन्तिक़ाल के अपने शैख़ के शैख़ुश्शुयूख शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में रहकर सात बरस तक ख़िदमत की।सफ़र-ओ-हज़र का साथ दिया और ख़्वाजा क़ुतुबुद्द्न बख़्तियार ओशी और बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी रहमतुल्लाहि अ’लैह के हमराह इ’राक़ का सफ़र किया है।ये जब देहली तशरीफ़ लाए तो अल्तमश ने बड़े कर्र-ओ-फ़र से उनका इस्तिक़बाल किया जिससे नज्मुद्दीन सोग़रा रहमतुल्लाहि अ’लैह शैख़ुल-इस्लाम को रंज पुहंचा।उन्हों ने इफ़्तिरा किया। मुक़द्दमा के दर्याफ़्त के लिए ज़करिया मुल्तानी रहमतुल्लाहि अ’लैह तलब हुए।मुक़द्दमा झूटा साबित हुआ। ज़करिया मुल्तानी ने उनकी अज़ हद ता’ज़ीम की।नज्मुद्दीन सोग़रा रहमतुल्लाहि अ’लैह शैख़ुल-इस्लामी से मा’ज़ूल हुए। सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी ने अ’र्सा तक बदायूँ में क़याम फ़रमाया।वहाँ एक अहीर पर नज़र पड़ी।वो मुसलमान हुए। बैअ’त की और साहिब-ए-विलायत हुए।नाम उनका अ’ली रखा गया।सिराजुल-मजालिस में उनका ज़िक्र है कि हज़रत सुल्तानुल-मशाईख़ के सर पर दस्तार-ए-फ़ज़ीलत उनहीं अ’ली मौला के हाथ से तबर्रुकन बंधवाई गई।सय्यिद बुज़ुर्ग हांसी भी तशरीफ़ ले गए थे जबकि हज़रत बाबा फ़रीद वहाँ मुक़ीम थे।बाबा साहिब ने भी आपसे फ़ैज़ हासिल किया है।बिल-आख़िर बुज़ुर्ग पूरब की तरफ़ तशरीफ़ ले गए और लिखा है कि पूरब ही में इंतिक़ाल फ़रमाया लेकिन पूरब में आप का मज़ार नहीं है।पूरब में आपके चिल्ला और ख़ानक़ाहें मुतअ’द्दिद मश्हूर हैं।और हज़ारों रक़्बा की जागिरात वक़्फ़ हैं।मुतवल्ली-ए-औक़ाफ़ हज़रत सय्यिद एक ज़ी-इ’ल्म शख़्स हैं।उन्हों ने अज़हारुल-मुस्तफ़ा एक किताब लिखी है जिसमें हज़रत सय्यिद का ज़िक्र है और लिखा है कि पूरब और बंगाल में एक ज़माना तक आपने क़याम फ़रमाया औऱ उस मुल्क को अपने नूर-ए-विलायत से मुनव्वर किया।उनकी करामात-ओ-अ’ज़्मत के कारनामे मश्हूर हैं लेकिन सिवाए चिल्ला शरीफ़ या ख़ानक़ाहों के वहाँ मज़ार शरीफ़ नहीं।मुतवल्ली-ए-औक़ाफ़ से मैं ने मुरासलत की थी।मा’लूम हुआ कि सय्यिद ने उस मुल्क से रवाना हो कर देवबन में इंतिक़ाल फ़रमाया औऱ वहीं उनका मदफ़न है।साहिब-ए-किताब-ओ-मुतवल्ली मौसूफ़ को इसका इ’ल्म नही कि देवबन कहाँ है।सिर्फ़ ये लिख दिया है कि हवाली-ए-गुजरात में है।मगर पता निशान उसका नहीं मिलता।दरयाफ़्त नहीं हो सकता कि देवबन किस मक़ाम का नाम है।मैं ने औरंगाबाद का सफ़र किया था।क़दीम देवगर और मुजिज़ का रौज़ा शरीफ़ दौलताबाद में एक निहायत आ’लीशान गुंबद और मक़बरा आबादी से छः मील के फ़ासला पर बिल्कुल जंगल में बना हुआ है।आसार-ए-करामत-ओ-अ’ज़्मत के मुतअ’द्दिद तज़्किरे मशहूर हैं।औऱ रौज़ा शरीफ़ के तमाम बाशिंदे उस गुंबद को सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह का मज़ार बतलाते हैं।दर्याफ़्त करने पर कहते हैं कि यस्विया ख़ानदान कि जो नक़्शबंदिया के कोई बुज़ुर्ग हैं एक शाख़-ए-उला है। मगर यस्विया ख़ानदान के बुज़ुर्गों में किसी सय्यिद जलाल का ज़िक्र ही नहीं है।जबकि क़दीम कुतुब में रौज़ा शरीफ़ दौलताबाद हालिया को देवगर लिखा गया है तो क्या देवबन से यही मक़ाम मुराद तो नहीं? हवाली-ए-गुजरात लिखा है तो इसकी भी तहक़ीक़ हो सकती है।
साबिक़ में जब कि अहमदाबाद कि रियासत और शाहान-ए-बहरी की रियासत और अ’ली आ’दिल शाहों की रियासत थी उस ज़माना मे उनकी हुकूमत की हुदूद बहुत दूर तक पुहंच गई थी।क्या ये ता’बीर दुरुस्त हो सकती है कि दौलताबाद के क़रीब हुदूद-ए-गुजरात था? या ये कि कोई मक़ाम देवबन नामी गुजरात में इस वक़्त दर अस्ल मौजूद है जहाँ सख़्त कुफ़्रिस्तान था।जहाँ नूर-ए-इस्लाम के फैलाने को सय्यिद तशरीफ़ ले गए थे।सब बुज़ुर्ग हज़रत क़ुतुब साहिब के हमराह थे और आपस में बड़ा मेल-जोल था।ऐसे बुज़ुर्ग का मद्फ़न ना-मा’लूम रहना हैफ़ है।हालाँकि कुतुब-ए-चिश्तिया में उनके हालात ब-कसरत दर्ज हैं जिससे मा’लूम होता है है कि आप को बुज़ुर्गान-ए-ख़ानदान-ए-चिश्तिया से बड़ी मोहब्बत और उन्सियत थी और ज़माना भी सुल्तान अल्तमश का था। अ’जब नहीं कि सय्यिद जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह जो देवगर क़दीम या’नी रौज़ा शरीफ़-ए-आ’लिया में मद्फ़ून हैं वही सय्यिद बुज़ुर्ग हैं जिनकी करामात के कुतुब-ए-चिश्तिया में मुतअ’द्दिद तज़्किरे हैं।चुनांचे रौज़ा शरीफ़ एक क़स्बा मुतअ’ल्लिक़ ब-शहर-ए-दौलताबाद है। इस तमाम नवाह का नाम देवगर था।यहाँ के एलोरा कबूस मश्हूर हैं।बुतों की तस्वीरें पत्थर में तराशी हुई मौजूद हैं जिनको अ’जाएबात-ए-हिंदुस्तान में शुमार किया जाता है और विलायत से जो सय्याह आता है वो एलोरा के बुत-ख़ाना का ज़रूर मुशाहदा करता है।इसी ख़ुसूसियत से इस मक़ाम का नाम देवगर था।रौज़ा में मौलाना बुर्हानुद्दीन ग़रीब,ख़लीफ़ा-ए-हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ आसूदा हैं।नीज़ उनके भाई क़ाज़ी मुंतख़बुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह भी आसूदा हैं।बहुत बड़े मक़बरे,ख़ानक़ाहें,मसाजिद,समाअ’-ख़ाने बने हैं और निज़ाम से जागीरें छूटी हुई हैं।इनके ख़लीफ़ा शैख़ ज़ैनुद्दीन हुसैन रहमतुल्लाहि अ’लैह भी वहीं मद्फ़ून हैं।उन्हीं के पास में बादशाह आ’लमगीर की क़ब्र कच्ची बनी हुई है।यहाँ से जानिब-ए-ग़र्ब दो मील के फ़ासला से जंगल में ख़्वाजा हसन अ’ला संजरी आसूदा हैं।इसी मक़ाम से 6 मील पर लक़-ओ-दक़ जंगल में सय्यिद जलालुद्दीन मनेरी रहमतुल्लाहि अ’लैह का आ’ली-शान गुम्बद बना हुआ है जिस को वहाँ के लोग बिला सुबूत-ओ-शहादत के वस्विया होना बयान करते हैं।वस्सलाम।
साभार – निज़ाम उल मशायख़
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