समाअ’ और आदाब-ए-समाअ’-मुल्ला वाहिदी साहब,देहलवी
आप पत्थर पर लोहे की हथौड़ी मारिए पत्थर से आग निकलेगी इतनी आग कि जंगल के जंगल जला कर भस्म कर दे।यही हाल इन्सान के दिल का है। उस पर भी चोट पड़ती है तो ख़ाली नहीं जाती।इन्सानी दिल पर चोट लगाने वाली चीज़ों में एक बहुत अहम चीज़ ख़ुश-गुलूई और मौज़ूँ-ओ-मुनासिब तरन्नुम है।इन्सानी दिल में आग छुपी होती है वो समाअ’ से भड़कती है या इन्सान का आ’लम-ए-अर्वाह और उसके अ’जाइबात के साथ जो तअ’ल्लुक़ है वो हरकत में आ जाता है। हुस्न-ओ-जमाल और ख़ुश-गुलूई आ’लम-ए-अर्वाह के अ’जाइबात के मुशाबिह हैं।आ’म इन्सान नहीं समझता कि क्या हो रहा है लेकिन अहल-ए-मोहब्बत महसूस कर लेते हैं कि किसी ने फूंक मार कर मोहब्बत की आग भड़का दी।
समाअ’ उनके लिए जिनके दिल में अल्लाह की मोहब्बत न हो बल्कि ग़ैरुल्लाह की मोहब्बत हो ज़हर-ए-क़ातिल है।लेकिन जिनके दिल में अल्लाह की मोहब्बत हो उनके लिए समाअ’ ज़रूरी है ताकि अल्लाह की मोहब्बत तेज़-तर हो जाए।
उ’लमा के एक गिरूह ने समाअ’ को हराम क़रार दिया है।अल्लाह की मोहब्बत के मा’नी उनके नज़दीक इस से ज़्यादा कुछ नहीं हैं कि उसके हुक्म की ता’मील कर दो और बस।उनकी राय है कि मोहब्बत तो इन्सान सिर्फ़ अपनी जिन्स ही से कर सकता है।
दूसरा गिरूह कहता है कि इसका फ़ैसला दिल से करना चाहिए। दिल पर समाअ’ का बुरा असर पड़े तो बे-शक समाअ’ हराम है। लेकिन अच्छा असर पड़े तो सिर्फ़ हलाल नहीं बल्कि बा’ज़ हज़रात के लिए ज़रूरी है। जिनके दिल में अल्लाह की मोहब्बत नहीं है वो गाना हरगिज़ न सुनें और क़तई’ न सुनें। लेकिन अगर गाना किसी को ख़िलाफ़-ए-शरअ’ हरकात करने पर आमादा नहीं करता तो फिर गाना सुनना जाएज़ है।और गाना मुवाफ़िक़-ए-शरअ’ हरकात करने की आमादगी बढ़ाए तो गाना सुनना ज़रूरी है। समाअ’ उस चीज़ को उभारता है जिसका दिल में पहले से मवाद होता है।ग़ैरुल्लाह के इ’श्क़-ओ-मोहब्बत को भड़काने के लिए गाना सुनना दूसरे गिरोह के नज़दीक भी ना-जाएज़ है।
समाअ’ की तीन किस्में हैं।एक समाअ’ तमाशे और खेल के तौर पर सुना जाए। तमाशा और खेल हराम जब है जब उसमें ज़रर का इम्कान हो।नाक ख़ुशबूएँ सूंघ सकती है, ज़बान लज़ीज़ खाने खा सकती है,दिमाग़ अ’क़्ल और हिक्मत की बातें सुन सकता है,आँखें आब-ए-रवाँ और गुल-ओ-शगूफ़ा का नज़ारा कर सकती हैं तो कानों ने कौन सा क़ुसूर किया है जो उन्हें लज़्ज़त से महरुम रखा जाए।
तमाशा और खेल महज़ तफ़रीह की ग़रज़ से देखना और गाना महज़ तफ़रीह की ग़रज़ से सुनना मुबाह है।
हज़रत-ए-आ’इशा सिद्दीक़ा रज़ी-अल्लाहु अ’न्हा फ़रमाती हैं कि ई’द के दिन मेरे घर के सामने हब्शी खेल तमाशे दिखा रहे थे।हुज़ूर सरवर-ए-काएनात सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ने पूछा तुम देखना चाहती हो।मैंने अ’र्ज़ किया हाँ। हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम दरवाज़े के पास खड़े हो गए और मेरे साथ ख़ुद भी सब कुछ देखते रहे।मुझसे बार-बार पूछते ज़रूर थे कि देख चुकी या और देखोगी।मैंने जब तक देखा कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ने मज्बूर नहीं किया कि मत देखो।लिहाज़ा हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम की सुन्नत ये हुई कि ख़्वाह-म-ख़्वाह की परहेज़-गारी न जताई जाए और बीवी बच्चों की ख़ातिर इन्सान अपने मक़ाम से ज़रा नीचे उतर आए।
हज़रत-ए-आ’इशा स्दिदीक़ा रज़ी-अल्लाहु अ’न्हा की एक और रिवायत है कि ई’द के दिन दो कनीज़ें मेरे यहाँ दफ़ बजा रही थीं और गा रही थीं।हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम तशरीफ़ लाए और कनीज़ों की तरफ़ पुश्त कर के लेट गए।इतने में हज़रत अबू बकर रज़ी-अल्लाह अ’न्हु भी आ पहुंचे।उन्होंने कनीज़ों को डाँटा कि रसूलुल्लाह के घर में ये क्या किया।हुज़ूर ने फ़रमाया अबू बकर इनसे तअ’र्रुज़ न करो।आज ई’द है या’नी ख़ुशी के मवाक़े’ पर गाना बजाना कर लिया जाए तो मुज़ाइक़ा नहीं है।गाने बजाने की तरफ़ हुज़ूर मुतवज्जिह नहीं थे मगर गाने बजाने की आवाज़ हुज़ूर के कानों में बहर-हाल जा रही थी।और हब्शियों के खेल तमाशे और गाने बजाने के वक़्त हुज़ूर की आँखें भी उधर थीं।अलबत्ता खेल तमाशे के तौर पर गाने बजाने को ओढ़ना बिछौना बना लेने का जवाज़ कहीं नहीं मिलता।
दूसरी क़िस्म समा’अ की निहायत मज़मूम है और वो ये है कि किसी औ’रत या लड़के से मोहब्बत हो और उसकी मौजूदगी में ईज़दियाद-ए-लुत्फ़ की नीयत से समाअ’ सुना जाए।या महबूब मौजूद न हो महबूब की याद को दो-बाला करने के लिए समाअ’ सुना जाए।अश्आ’र में ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल-ओ-जमाल के अज़कार हों और सुनने वाला महबूब का तसव्वुर बाँधे तो ऐसा समाअ वाक़ई’ हराम है।मोहब्बत-ए-बातिल की आग को तो बुझाना फ़र्ज़ है न कि उसे और मुश्तइ’ल किया जाए।हाँ बीवी से मोहब्बत हो और बीवी की मोहब्बत समाअ’ से तरक़्क़ी करे तो मुबाह है जैसे दुनिया की और बेशुमार चीज़ों से मुतमत्ते’ हुआ जाता है एक ये भी सही।
तीसरी क़िस्म समाअ’ की वही है जिससे मुवाफ़िक़-ए- शरअ’ हरकात करने की आमादगी बढ़ती है और नेक औसाफ़ तरक़्क़ी पाते हैं।इस तीसरी क़िस्म के समाअ’ के चार दर्जे बताए गए हैं।(1) हाजी हज के रास्ते में, या हज को चलते वक़्त, या ख़ाना-ए-का’बा पहुंचते वक़्त ज़ौक़-ओ-शौक़ में अश्आ’र गाए या कोई शख़्स हज करने न जा सके और बेताब हो कर ख़ाना-ए-का’बा की याद कर के रजज़िया अश्आ’र गाए या जिहाद के वक़्त मुजाहिद अश्आ’र ख़ुश-इलहानी से पढ़े।(2)रिक़्क़त और गिर्या लाने के लिए अश्आ’र गाए जाएं। गुनाहों के ख़याल से और अल्लाह-रसूल की मोहब्बत में रोना ने’मत है।अ’ज़ीज़ों और दोस्तों के मरने पर रोना और रुलाने वाले अश्आ’र पढ़ना मन्अ’ है।अल्लाह तआ’ला का इर्शाद है ‘लिकैला तासव अ’ला मा- फ़ातकुम’। जो मर गया उसपर नौहा मत करो। क़ज़ा-ए-इलाही से अंदोहगीं होना ख़राब बात है।(3) मस्नून तक़रीबात में समाअ’ सुना जा सकता है।जैसे शादी ब्याह है,वलीमा है, अ’क़ीक़ा है,ख़त्ना है, बच्चे की पैदाइश है,सफ़र से वापसी की ख़ुशी है।हुज़ूर सरवर-ए-काएनात सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम मक्के से हिजरत कर के मदीने में दाख़िल हुए तो मदीने के लोगों ने हुज़ूर का इस्तिक़बाल इस तरह किया कि हुज़ूर के आगे आगे दफ़ बजाते और ये अश्आ’र गाते चल रहे थे।
‘त-लअ’ल बद्रु अ’लैना’ (अलख़)
ई’द के दिन का गाना पहले बयान किया जा चुका है। दो दोस्त मिलकर बैठें खाना खाएं और एक दूसरे को ख़ुश करना चाहें तो समाअ’ रवा है।चौथी क़िस्म का समाअ’ महज़ मुबाह नहीं ज़रूरी है।जिसके दिल में अल्लाह की मोहब्बत घर कर लिया हो तो उसे गाना ज़रूर सुनना चाहिए।हर वो बात जिससे अल्लाह की मोहब्बत भड़के इख़्तियार करनी चाहिए।सूफ़िया-ए-किराम का समाअ’ यही चौथी क़िस्म का था।दिल मोहब्बत-ए-इलाही से ख़ाली हो और शक्ल सूफ़ियों की सी बना ली जाए तो उसके हक़ीक़ी सूफ़ी ज़िम्मेदार नहीं हैं।समाअ’ अच्छाई को भी उभारता है और बुराई को भी उभारता है।जो जैसी निय्य्त से समाअ’ सुनेगा उसे वैसा फल मिलेगा।सूफ़िया में ऐसे बुज़ुर्ग गुज़रे हैं कि हालत-ए-समाअ’ में उन्हें वो कुछ मिल जाता था जो ब-ग़ैर समाअ’ के उनके ख़्वाब-ओ-ख़याल में नहीं आता था। समाअ’ में सूफ़िया को मुकाशफ़े होते थे और अ’जीब-ओ-ग़रीब कैफ़ हासिल होता था।उनके वज्द की कैफ़ियत का अ’वाम तसव्वुर नहीं कर सकते।जिस तरह चाँदी आग में डालने से निखर जाती है उसी तरह समाअ’ से सूफ़िया के क़ुलूब मुसफ़्फ़ा हो जाते थे।दिल की तमाम कुदूरतें धुल जाती थीं।बड़ी बड़ी रियाज़तें समाअ’ का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं।जैसा कि शुरूअ’ मज़मून में है कि रूह-ए-इन्सानी को आ’लम-ए-अर्वाह से सिर्री मुनासिबत है।समाअ’ उस मुनासिबत को हरकत में लाता है।हत्ता कि बा’ज़-औक़ात रूह इस आ’लम से बिल्कुल बे-ख़बर हो जाती है।उसे इस आ’लम की मुतलक़ ख़बर नहीं रहती।
अ’ली हल्लाज रहमतुल्लाहि अ’लैह शैख़ अबुल-क़ासिम गोरगानी के मुरीद थे।उन्होंने शैख़ से समाअ’ की इजाज़त मांगी।शैख़ ने कहा तीन दिन मुसलसल फ़ाक़ा करो और चौथे दिन दस्तर-ख़्वान पर उ’म्दा उ’म्दा खाने चुनो मगर खाओ नहीं।दस्तर-ख़्वान से उठ जाओ और समाअ’ में मशग़ूल हो जाओ।अगर ये कर सको तो समाअ’ की तुम्हें इजाज़त है।समाअ’ तुम्हारे लिए हलाल है।लेकिन दिल पर फ़क़त कैफ़ियात की झलकी पड़ गई है और ख़्वाहिशात का बुत टूटा नहीं है तो पीर मुरीद को समाअ’ की इजाज़त नहीं दे सकता।फिर मज़मून के इब्तिदाई फ़िक़रे पर ग़ौर कर लीजिए कि इसका फ़ैसला दिल से कराना चाहिए कि दिल पर समाअ’ का बुरा असर पड़ेगा या अच्छा असर पड़ेगा।
जो साहिबान समाअ’-ओ-वज्द के मुंकिर-ओ-मुख़ालिफ़ हैं उन्हें हम इल्ज़ाम नहीं देते।जिस शय से उन्हें साबिक़ा ही नहीं पड़ा उनके क़ुलूब क्योंकर मान लें।वो मा’सूम बच्चे के मिस्ल हैं जो बुलूग़ के बा’द की बातों का तसव्वुर नहीं कर सकते।किसी कैफ़ियत का तसव्वुर करने के वास्ते उस से थोड़ी बहुत मुनासिबत होनी चाहिए।बच्चा खेल तमाशे के मुक़ाबले में बादशाही को ठुकरा सकता है।मगर ये भी बे-अ’क़्ली है कि अगर मुझे एक चीज़ हासिल नहीं है तो मैं दा’वा कर दूँ कि उसे कोई हासिल नहीं कर सकता।अल्लाह तआ’ला का इर्शाद है:
‘लम-यह्तदू बिही फ़-स-यक़ूलून हाज़ा इफ़कुन क़दीम’
या’नी उसकी जानिब ख़ुद राह ना पाई तो कह दिया कि ये क़दीम ढकोसला है।औ’रतों से और हसीन अमरद लड़कों से गाना सुनना बहर-हाल गुनाह है।एक शख़्स अल्लाह तआ’ला के इ’श्क़ में ग़र्क़ हो तब भी वो औ’रत और हसीन अमरद लड़के का गाना नहीं सुन सकता।औ’रत के लिए हसीन होने की क़ैद नहीं है।ना-महरम औ’रत ख़ूबसूरत हो या बद-सूरत उसे देखान हराम है।नीज़ साज़ों के साथ गाना सुनने की किसी को इजाज़त नहीं है।ब-इस्तिस्ना-ए-तबल-ओ-शाहीन-ओ-दफ़।
ये भी वाज़िह रहे कि सिर्फ़ अच्छे क़िस्म के अश्आ’र सुने जा सकते हैं।बेहूदा,फ़ुहश और हज्विया अश्आ’र सुनने को कोई नहीं कहता।ऐसे अश्आ’र का कहना भी गुनाह और सुनना भी गुनाह।मतलब न समझने के बावजूद इन्सान ख़ुश-लहनी से मुतअस्सिर होता है।इन्सान ही नहीं जानवर तक मुतअस्सिर हो जाते हैं।ऊँट समझता नहीं मगर हुदी उस पर-असर करती है।समाअ’ में इन्सान अगर अश्आ’र को समझे तो अच्छे ही अश्आ’र उसके सामने आने चाहिएँ ।बुरे मज़ामीन के लिखने,पढ़ने और सुनने की इजाज़त न नज़्म में है न नस्र में।
समाअ’ में ऐसा भी होता है कि शे’र का मज़मून कुछ है और सुनने वाले का ज़ेहन उसे कहीं का कहीं ले जा रहा है।तो उस बात को सुनने वाला जाने और उसका अल्लाह जाने।अल-आ’मालु बिन-नियात।ऐसा होना बई’द अज़ क़यास नहीं है कि इन्सान जो सुनना चाहे उसे वही सुनाई देने लगे और जो देखना चाहे उसे वही दिखाई देने लगे।जवान-उ’म्र लोगों को इस वास्ते समाअ’ से बचना ही मुनासिब है क्योंकि वो फ़ितरतन इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी के मज़ामीन को भी इ’श्क़-ए-मजाज़ी का जामा पहनाएंगे।इ’श्क़ के मा’नी जवानी में उ’मूमन इ’श्क़-ए-मजाज़ी ही होते हैं।
हक़ीक़त ये है कि समाअ’ का मुआ’मला बड़ा नाज़ुक है।ना-अहल अहलों में घुस आते हैं और अहलों को भी बद-नाम कर देते हैं।ना-अहलों का अहल हज़रात पर ये ज़ुल्म है।
जो शख़्स समाअ’ का असर ले मगर असर का मुज़ाहरा ना करे और अपने आपको क़ाबू में रखे उसका मर्तबा बे-क़ाबू हो जाने वाले से बुलंद है।
समाअ’ में तीन चीज़ों का ख़याल रहना चाहिए।एक हाज़िरीन-ए-मज्लिस का।हाज़िरीन-ए-मज्लिस हम-रंग ना होंगे तो समाअ’ फ़ाएदा नहीं देगा।
‘सुहबत-ए-तालिह तुरा तालिह कुनद’
दूसरा ख़याल वक़्त का होना चाहिए।मसलन नमाज़ के वक़्त समाअ’ का क्या काम।तीसरा ख़याल मकान का होना चाहिए।समाअ’ के लिए ऐसी जगह न बैठा जाए जहाँ बे इत्मीनानी हो।मसलन गुज़र-गाह के क़रीब की जगह समाअ’ के लिए ठीक नहीं होती।
समाअ’ के वक़्त एक दूसरे से बातें नहीं की जातीं बल्कि एक दूसरे की जानिब नज़र भी नहीं उठाई जाती। गर्दन झुका कर,दो ज़ानू, मुअद्दब बैठते हैं और अल्लाह तआ’ला से लौ लगाते हैं और मुंतज़िर रहते हैं कि अल्लाह की इ’नायत कब हो जाएगी।वज्द के मा’नी “पाया” होता है। समाअ’ में जो वज्द आता है उसे वज्द इसी वजह से कहा जता है कि कोई कैफ़ियत मुन्कशिफ़ होती है और कोई शय मिलती है या पाई जाती है।वज्द आने पर अगर इन्सान मस्ताना-वार खड़ा हो जाए तो हाज़िरीन भी खड़े हो जाते हैं।ये सब बिद्अ’तें हैं।लेकिन ये ऐसी बिद्अ’तें हैं जिनसे शरीअ’त को ठेस नहीं लगती।हुज़ूर सरवर-ए-काएनात सल्लल्लाहु अ’लैहि व-आलिहि वसल्लम का इर्शाद है कि हर शख़्स के साथ उसकी आ’दत और ख़ू के मुताबिक़ ज़िंदगी बसर करो।सहाबा हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-आलिहि वसल्लम की ता’ज़ीम के लिए नहीं उठते थे क्योंकि हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि व-आलिहि व-सल्लम ये ता’ज़ीम नहीं करानी चाहते थे।लेकिन जहाँ खड़े होने से किसी का दिल ख़ुश हो वहाँ खड़ा हो जाना बेहतर है।अ’रब-ओ-अ’जम की आ’दतें एक सी नहीं हैं।जो लोग मुवाफ़क़त से ख़ुश होते हों और अ’दम-ए-मुवाफ़क़त से ना-ख़ुश होते हों उनसे मुवाफ़क़त करनी सुन्नत है।
साभार – मुनादी पत्रिका
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