ज़ियाउद्दीन बर्नी की ज़बानी हज़रत महबूब-ए-इलाही का हाल- ख़्वाजा हसन सानी निज़ामी

शैख़ुल-इस्लाम निज़ामुद्दीन (रहि.)ने बैअ’त-ए-आ’म का दरवाज़ा खोल रखा था। गुनहगार लोग उनके सामने अपने गुनाहों का इक़्बाल करते और उनसे तौबा करते और वो उनको अपने हल्क़ा-ए-इरादत में शामिल कर लेते। ख़्वास-ओ-अ’वाम, मालदार-ओ-मुफ़्लिस, अमीर-ओ-फ़क़ीर, आ’लिम-ओ-जाहिल, शरीफ़-ओ-रज़ील, शहरी-ओ-दहक़ानी,ग़ाज़ी-ओ-मुजाहिद, आज़ाद-ओ-ग़ुलाम, उन सबसे वो तौबा कराते और उनको ताक़िया और मिस्वाक सफ़ाई के लिए देते। उन लोगों में से कसीर ता’दाद (जमाहीर) जो ख़ुद को शैख़ के मुरीदों में शुमार करती थी बहुत से उन कामों से परहेज़ करने लगती थी जो करने के लाएक़ नहीं होते। अगर शैख़ की ख़ानक़ाह में हाज़िर होने वालों में से किसी से कोई लग़्ज़िश होती  तो उसको तज्दीद-ए-बैअ’त करना पड़ती और शैख़ अज़ सर-ए-नौ उससे इक़्बाल-ए-गुनाह और तौबा कराते। शैख़ से मुरीद होने की शर्म लोगों को बहुत से गुनाहों (मुन्करात)से ज़ाहिर और मख़्फ़ी तौर पर बाज़ रखती। चुनांचे आ’म लोग या दूसरों की तक़लीद में ख़ुद अपने ए’तिक़ाद की बुनियाद पर इ’बादत और और बंदगी की तरफ़ राग़िब हो गए थे। और मर्द और औ’रतें , बूढ़े और जवान, सौदा-गर और आ’म लोग, ग़ुलाम और नौकर और कम उ’म्र बच्चे, सब नमाज़ पढ़ने लगे थे।

उनके इरादत-मंदों की अक्सरियत नमाज़-ए-चाश्त-ओ-इश्राक़ की पाबंद हो गई थी। मुख़य्यर और मेहरबानियाँ करने वाले लोगों ने शहर से ग़यासपुर तक मोतअ’द्दिद मक़ामात पर लकड़ियों के चबूतरे बंधवा दिए थे, या छप्पर डाल दिए थे और कुँएं खुदवा दिए थे और मठ और पानी के घड़े और मिट्टी के लोटे तैयार रहते थे और छप्परों में बोरिए बिछे रहते थे। उन चबूतरों और छप्परों में हाफ़िज़ और ख़ुद्दाम मुक़र्रर कर दिए जाते थे ताकि शैख़ के मुरीदों और ताइबों को और दूसरे नेक लोगों को उनके आस्ताने पर आते और जाते वक़्त वुज़ू करने और वक़्त पर नमाज़ अदा करने में कोई दिक़्क़त न हो। उन चबूतरों और छप्परों में से हर एक में नफ़्ल नमाज़ अदा करने वालों का हुजूम रहता था।

गुनाहों के इर्तिकाब और उनके मुतअ’ल्लिक़ लोगों में बहुत कम बात-चीत होती थी। उनमें अक्सर-ओ-बेश्तर जो गुफ़्तुगू होती वो नमाज़-ए-चाश्त-ओ-इश्राक़ के मुतअ’ल्लिक़ होती और ये लोग यही दर्याफ़्त करते रहते कि ज़वाल, अव्वाबीन और तहज्जुद की नमाज़ में कितनी रकअ’तें पढ़ी जाती हैं और हर रकअ’त में क़ुरआन की कौन सी सूरत पढ़नी चाहिए।और ये कि पाँचों वक़्त की नमाज़ में नफ़्लों के बा’द कौनसी दुआ’एं आती हैं। आस्ताना-ए-शैख़ में नए आने वाले,शैख़ के पुराने मुरीदों से दर्याफ़्त करते कि रात के वक़्त शैख़ कितनी रकअ’तें पढ़ते हैं और हर रकअ’त में क्या पढ़ते हैं। इ’शा की नमाज़ के बा’द मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की रूह-ए-पाक पर वो कितनी मर्तबा दुरूद भेजते। शैख़ फ़रीद (रहि.) और शैख़ बख़्तियार (रहि.) दिन-रात में कितनी बार दुरूद भेजते और कितनी बार सूरा-ए-क़ुल हू-वल्लाह पढ़ते थे।

शैख़ के नए मुरीद उनके क़दीम मुरीदों से इसी क़िस्म के सवाल दर्याफ़्त करते और रोज़ों, नफ़्लों और कम खाने के मुतअ’ल्लिक़ मा’लूम करते रहते थे।उस नेक ज़माने में कसरत से लोग क़ुरआन याद करने का एहतिमाम करते थे। नए मुरीद शैख़ के क़दीम मुरीदों की सोहबत में रहते और क़दीम मुरीदों को बंदगी-ओ-इ’बादत, तर्क-ओ-तज्रीद, सुलूक की किताबें पढ़ने और मशाइख़ और बुज़ुर्गों के हालात और वाक़िआ’त का ज़िक्र करने के अ’लावा और कोई काम न था। नऊ’ज़ु-बिल्लाह ये लोग दुनिया और दुनिया-दारों का ज़िक्र अपनी ज़बान पर लाते, या दुनिया के कारख़ाना की तरफ़ नज़र करते, या दुनिया और अहल-ए-दुनिया के क़िस्से सुनते। इन सब चीज़ों को वो मा’यूब बल्कि मआ’सी में शुमार करते थे। उस बा-बरकत ज़माने में लोगों का कसरत से नफ़्ल पढ़ना और उसको क़ाएम रखना इस हद तक पहुंच गया था कि सुल्तानी दरबार से मुंसलिक उमरा सलाह-दारों, मुहर्रिरों(नवीसंद-गान) सिपाहियों और बादशाह के ग़ुलामों में से बहुत से लोग जो शैख़ के मुरीद थे, चाश्त और इश्राक़ की नमाज़ अदा करते थे और अय्याम-ए-बीज़ और अ’शरा-ए-ज़िल्हज्जा के रोज़े रखते थे।

कोई मोहल्ला ऐसा ना था जहाँ पर महीना बीस रोज़ के बा’द नेक लोगों की मज्लिस न होती और सूफ़िया का समाअ’ न होता और उसमें गिर्या और रिक़्क़त न होते। शैख़ के कई मुरीद ऐसे थे जो मस्जिद में या घरों पर नमाज़-ए-तरवीह में ख़त्म(क़ुरआन) कराते, और उन लोगों में से जो (इ’बादात वग़ैरा) में मुस्तक़ीमुल-हाल थे, अक्सर-ओ-बेश्तर रमज़ान में और जुमआ’ और मवासिम की रातों में क़याम करते थे।सुब्ह तक जागते और पलक पर पलक नहीं मारते थे। उन बुज़ुर्गों में से बहुत से हज़रात ऐसे थे, जो दो तिहाई या तीन चौथाई रात तमाम साल क़ियामुल्लैल में गुज़ारते और बा’ज़ इ’बादत-गुज़ार तो इ’शा की नमाज़ के वुज़ू से फ़ज्र की नमाज़ अदा करते थे।

शैख़ के मुरीदों में से चंद को तो मैं जानता हूँ जो शैख़ की नज़र-ए-करम की बदौलत साहिब-ए-कश्फ़-ओ-करामात हो गए थे। शैख़ के मुबारक वजूद, उनके मुबारक अन्फ़ास की बरकत और उनकी मक़्बूल दुआ’ओं की वजह से इस इ’लाक़े के अक्सर मुसलमान इ’बादात, तसव्वुफ़ और तर्क-ओ-तज्रीद की तरफ़ माइल और शैख़ से मुरीद होने के ख़्वाहिश-मंद हो गए थे।

सुल्तान अ’लाउद्दीन भी अपने ख़ानदान के लोगों के शैख़ का मो’तक़िद हो गया था।ख़्वास-ओ-अ’वाम के दिल नेकी और नेकोकारी की तरफ़ राग़िब हो गए थे।हाशा व-कल्ला कि अ’हद-ए-अ’लाइ के आख़िरी चंद साल में अक्सर-ओ-बेशतर मुसलमानों में से किसी की भी ज़बान पर शराब-ओ-शाहिद, फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर, क़िमार-बाज़ी, फ़ुह्श हरकात, लिवातत या बच्चा-बाज़ी का ज़िक्र तक भी आता।बड़े जराइम और कबीरा गुनाह लोगों के नज़ीदक ब-मंज़िला-ए-कुफ़्र हो गए थे।मुसलमान एक दूसरे की शर्म से सूद-ख़ोरी और एह्तिकार के मुर्तकिब न होते थे और ख़ौफ़-ओ-हरास की वजह से दुकान-दारों में झूट, कम तौलना, मक्कारी-ओ-दग़ा, धोका-देही और नादानों का रुपया मार लेना, सब क़तई’ तौर पर ख़त्म हो गए थे।

इ’ल्म हासिल करने वाले और अशराफ़-ओ-अकाबिर जो शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे ज़्यादा-तर सुलूक की किताबों और उन सहीफ़ों का मुतालआ’ करते रहते थे जिनमें तरीक़त के अहकाम होते थे। चुनांचे क़ुव्वतुल-क़ुलूब एहयाउल-उ’लूम, एहयाउल-उ’लूम का तर्जुमा अ’वारिफ़,कश्फ़ुल-महजूब, शर्ह-ए-तअ’र्रुफ़, रिसाला-ए-क़ुशैरिया, मिर्सादुल-ई’बाद,मक्तूबात-ए-ऐ’नुल-क़ुज़ा, लवाएह-ओ-लवामिह क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी और फ़वाइदुल-फ़वाइद अमीर हसन के शैख़ के मल्फ़ूज़ात की वजह से  बहुत ज़्यादा ख़रीदार पैदा हो गए थे। लोग किताब-फ़रोशों से ज़्यादा-तर सुलूक और हक़ायक़ पर किताबों के मुतअ’ल्लिक़ दर्याफ़्त करते रहते थे।और कोई रूमाल ऐसा नज़र न आता था जिसमें मिसवाक और कंघा लटका हुआ न होता। सूफ़ियों की ख़रीदारी की ज़्यादती की वजह से लोटे (आफ़्ताबा)और चमड़े की कश्तियाँ (तश्त-ए-चर्मी) महंगी हो गई थीं।

दर-हक़ीक़त अल्लाह तआ’ला ने शैख़ निज़ामुद्दीन क़ो उस आख़िर ज़माने में जुनैद और बायज़ीद की मिस्ल पैदा किया था और अपनी ज़ात के इ’श्क़ से जिसकी कैफ़ियत इन्सानी अ’क़्ल में नहीं आ सकती आरास्ता-ओ-पैरास्ता किया था।शैख़ होने के कमालात की उन पर मुहर लगा दी थी और हिदायत के फ़न को उन पर ख़त्म कर दिया था।

 ज़ीं फ़न म-तलब बुलंद नामी

काँ ख़त्म शुदः अस्त ब-निज़ामी

तर्जुमा:-इस फ़न्न में शोहरत की ख़्वाहिश न कर क्योंकि वो निज़ामी पर ख़त्म हो चुकी है।

पंजुम माह-ए-मुहर्रम को जो शैख़ुल-इस्लाम शैख़ फ़रीदुद्दीन के उ’र्स की तारीख़ है शैख़ के घर (या’नी) ख़ानक़ाह में दिल्ली और ममलिकत के दूसरे अ’लाक़ों से लोग इतनी ज़्यादा ता’दाद में आकर जम्अ’ हो जाते और समाअ’ में शिरकत करते कि उसके बा’द इतनी जमई’यत किसी को याद नहीं कि कभी हुई हो। शैख़ के इन अ’जीब मुआ’मलात की वजह से शैख़ का ज़माना एक अ’जीब ज़माना गुज़रा है।

साभार – मुनादी पत्रिका

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