क़व्वाली का माज़ी और मुस्तक़बिल
हज़रत ख़ाजा-ए-ख़्वाज-गान के वक़्त से आज तक हिन्दुस्तान में क़व्वाली की मक़्बूलियत कभी कम नहीं हुई बल्कि इसमें दिन-ब-दिन इज़ाफ़ा होता रहा।आज-कल तो ये कहना ग़लत नहीं होगा कि मौसीक़ी की कोई भी फ़ार्म क़व्वाली के बराबर अ’वाम-ओ-ख़्वास में मक़्बूल नहीं है।लेकिन क़व्वाली के दाएरे को जो वुस्अ’त मौजूदा दौर में मिली है उसका एक अफ़्सोसनाक पहलू भी है और वो ये कि उसकी शक्ल रोज़ ब-रोज़ मस्ख़ होती जाती है।और ये अंदेशा हो गया है कि कहीं क़व्वाली अपनी इन्फ़िरादियत और अ’लाहिदा वजूद ही को न खो बैठे।
इसी ख़तरे के पेश-ए-नज़र जमाअ’त-ए-निज़ामिया की तरफ़ से राइजुल-वक़्त क़व्वाली की इस्लाह और उसकी असलियत को बरक़रार रखने की मुनज़्ज़म कोशिशें हो रही हैं। चुनांचे पिछले साल इंडियन कांफ्रेंस ऑफ़ सोशल वर्क का ग्यारहवां क़व्वाली इज्लास ब-मक़ाम-ए-हैदराबाद मुन्अ’क़िद हुआ और उसके कल्चरल प्रोग्रामों में अ’ज़ीज़ अहमद ख़ां की क़व्वाली भी रखी गई तो दकन में सिलसिले के नाज़िम मौलवी फ़य्याज़ुद्दीन बहज़ाद दकन निज़ामी ने दा’वत-नामे के साथ अपना एक मुख़्तसर अंग्रेज़ी मज़मून भी शोरका को भिजवाया जिसमें असली क़व्वाली का तआ’रुफ़ कराया गया था।इस मज़मून में बहज़ाद दकन निज़ामी ने लिखा था
“क़व्वाली सूफ़ियों के नज़दीक रूह की ग़िज़ा और मालिक-ए-हक़ीक़ी की बारगाह में तज़र्रुअ’-ओ-ज़ारी का एक ज़रिआ’ है। हिन्दुस्तान में इसकी शुरूआ’त आठ सौ साल पहले अजमेर के मक़ाम पर हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाहि अ’लैह ने फ़रमाई।उसके बा’द उनके बे-शुमार जांनशीनों के ज़रिआ’ ये हिन्दुस्तान के कोने कोने में पहुंच गई।और आज भी इसकी मक़बूलियत रोज़-अफ़्ज़ूँ है।सोशल इज्तिमआ’त और मज़हबी हल्क़े इसकी रुहानी अपील से यकसाँ मुस्तफ़ीद होते हैं।क़व्वाली में मौसीक़ी के ज़रिऐ’ बड़े बड़े सूफ़ियों के मंजूम ख़यालात पेश किए जाते हैं जो ता’लीमात-ए-तसव्वुफ़ या’नी तौहीद की फ़िलासफ़ी और औलिया-अल्लाह की मंक़बत तक महदूद होते हैं।क़व्वाली में फ़िल्मी गानों और सस्ते ग़ैर मे’यारी अश्आ’र की कोई गुंजाइश नहीं है।अल्फ़ाज़ में उसकी हक़ीक़त यूँ बयान की जा सकती है कि क़व्वाली ख़ुदा और बंदे के दरमियान मोहब्बत का एक रिश्ता है।एक तअ’ल्लुक़ है जिसे ख़ुदा के महबूब और मक़्बूल बंदों के दरमियान क़ाएम किया जाता है।क़व्वाली की कैफ़ियत और रूहानी तजुरबे से हर शख़्स बिला तख़्सीस फ़ाएदा उठा सकता है।और यही इसके मोजिदों का मक़्सद भी था कि क़व्वाली को तंग-नज़री और दक़यानूसियत की जकड़-बन्दी से अ’लाहिदा अ’लाहिदा रुहानी सत्ह पर रखा जाए जहाँ हक़ की तलाश आसान हो।”
मुंदर्जा बाला सुतूर में बहज़ाद दकन निज़ामी ने ऐसे इशारे किए हैं जिन पर संजीदगी से ग़ौर करने और तफ़्सील से रौशनी डालने की ज़रूरत है।
क़व्वाली को हमारे बुज़ुर्गों ने इस्ति’माल किया तो उसकी बुनियादी वुजूह दो थीं।एक ये कि मौसीक़ी इन्सान को मुतअस्सिर करने की ऐसी क़ुव्वत अपने अंदर रखती है जिसकी मिसाल नहीं मिल सकती।ये एक ऐसा जादू है कि जब सर चढ़ता है तो शरीफ़ आदमी भी ख़ुद अपने मुँह से कहने लगता है कि मैं आवारा हूँ हालाँकि कोई दूसरा आदमी मौसीक़ी के वास्ते के बग़ैर उन्हें आवारा कहे तो लड़ने मरने को तैयार हो जाए।दूसरी वजह ये है कि इस ख़ित्ता-ए-अर्ज़ में जिसका नाम हिन्दुस्तान है मौसीक़ी का रिवाज बहुत ज़्यादा था।लिहाज़ा चिश्ती बुज़ुर्गों ने अपने पैग़ाम को पहुंचाने के लिए मौसीक़ी की एक ख़ास शक्ल को अपना लिया और उस ख़ास शक्ल का नाम क़व्वाली पड़ गया।
मौसीक़ी एक ग़ैर मा’मूली ताक़त है जिसको अच्छे बुरे मुख़्तलिफ़ मक़ासिद के लिए इस्ति’माल किया जा सकता है। ये आदमी में जंगी वलवला और लड़ने का जोश भी पैदा कर सकती है।ऐ’श कोशी और बहीमियत पर भी राग़िब कर सकती है।नशे की तरह सुला भी सकती है और आदमी के अंदर सोज़-ओ-गुदाज़ को भी जगा सकती है।मौसीक़ी जब तक अल्फ़ाज़ का जामा न पहने उसका असर महज़ उन अंदुरूनी जज़्बात को जगाने तक महदूद रहता है जिनको हम कोई नाम नहीं दे सकते।लेकिन जब अल्फ़ाज़ मौसीक़ी का लिबास पहन लेते हैं तो फिर जज़्बात भी वाज़िह तौर पर उन्हीं अल्फ़ाज़ के मफ़्हूम के ताबे’ हो जाते हैं।इसीलिए सूफ़ियों ने मौसीक़ी की जिस शक्ल को समाअ’ कह कर अपनाया उसमें अल्फ़ाज़ की पाबंदी ज़रूरी थी कि कलाम अच्छा हो जिससे क़ल्ब की गुदाज़गी बढ़े और तबीअ’त नेकी की तरफ़ माएल हो।लेकिन बा’ज़ औक़ात अल्फ़ाज़ का मफ़्हूम भी ग़लत लिया जाता है और शाइ’री में तो ख़ास कर जब मुशाहदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू बादा-ओ-साग़र और ज़ुल्फ़-ओ-रुख़्सार की तश्बीहात और इस्तिआ’रों में होती है तो कम समझ लोग ग़लत-फ़हमी में मुब्तला हो सकते हैं।इसलिए क़व्वाली के लिए सिर्फ़ अच्छे कलाम ही को काफ़ी नहीं समझा गया बल्कि दूसरी क़ुयूद भी आ’इद की गईं।मसलन निय्यत और अ’क़ीदे पर ज़ोर दिया गया कि सुनने वाले जो कुछ सुनें उसे अपने पीर और ख़ुदा से मुतअ’ल्लिक़ समझें।वहदत-ए-वजूद का अ’क़ीदा रखने वालों के लिए क़व्वाली में भटकने की गुंजाइश नहीं रहती।इसके अ’लावा ये शर्त भी लगाई गई कि गाने वाला ऐसा हो जिसका वजूद बुरे ख़यालात पैदा करने का बाइ’स न बने।माहौल अच्छा हो। या’नी मुनासिब वक़्त,मुनासिब जगह,हम-ख़्याल लोग पाक साफ़ हो कर बैठें और फ़िर क़व्वाली सुनें।इन शराएत के साथ मौसीक़ी की ग़ैर-मा’मूली क़ुव्वत से इस तरह फ़ाएदा उठाया जा सकता था कि बुराई किसी तरह भी ज़ाहिर न हो सके। और यही हुआ भी कि क़व्वाली ने ऐसा ज़बरदस्त काम अंजाम दिया जिसकी मिसाल नहीं मिल सकती।
लेकिन ज़माना एक हाल पर सदा नहीं रहा करता।वक़्त बदला।शराएत को लोगों ने नज़र-अंदाज़ किया।मौसीक़ी की बदलती हुई शक्लें और नज़्म के नए रुजहानात क़व्वाली को भी मुतअस्सिर करने लगे।सबसे ज़्यादा ख़राबी फ़िल्म और नई शाइ’री ने पैदा की।आज नौबत ये आ गई कि पुर-ख़ुलूस ख़ानक़ाह-नशीनों को भी क़व्वाली से फ़ाएदे के बजाय ख़तरात नज़र आने लगे।क़व्वाली के सिलसिले में बा’ज़ लोगों ने मज़ामीर और बाजे की बहस ख़्वाह-मख़ाह छेड़ दी है।उन्होंने क़व्वाली की रूह और असर को नज़र-अंदाज कर दिया है और ला-हासिल फ़िक़्ही मू-शगाफ़ियों में मसरूफ़ हैं।बिल्कुल ऐसे ही जैसे क़ुरआन और इस्लाम की रूह और असली-ओ-बुनियादी ता’लीमात को छोड़कर लोग शरई’ पाजामे की बहस किया करते हैं।क़व्वाली में ख़राबी का तअ’ल्लुक़ मज़ामीर के होने न होने से नहीं है।बल्कि बुराई ना-मुनासिब ग़ज़्लों, ख़राब अ’क़ीदों, बे-हया गाने वालों और गंदे माहौल से पैदा होती है। लेकिन इनकी तरफ़ कोई तवज्जा नहीं करता और सबकी कोशिशें मज़ामीर को जाएज़ और ना-जाएज़ क़रार देने में सर्फ़ हो रही हैं।मौलाना रुम को भी ग़ालिबन ऐसे ही लोग से वास्ता पड़ा होगा जो उन्होंने कहा था कि क़ुरआन से मग़्ज़ ले लिया है और हड्डियां कुत्तों के आगे डाल दी हैं।
तसव्वुफ़ के मिज़ाज में क़दामत-पसंदी तो है लेकिन रज्अ’त- पसंदी नहीं है।नई चीज़ से भागने वाले हम कभी भी नहीं रहे। हमने वक़्त की मुनासिबत मौसीक़ी को इतने बड़े पैमाने पर अपनाया।अ’वाम से राब्ते की ख़ातिर उर्दू ज़बान के मोजिद और सर-परस्त रहे।मुख़ालफ़त के बा-वजूद क़ुरआन का फ़ारसी में तर्जुमा कर डाला।लेकिन तरक़्क़ी-पसंदी का मतलब हमने ये कभी नहीं लिया कि अ’वामी बे-राह-रवी और भीड़ चाल पर सादिर दिया जाए।तसव्वुफ़ ने अक़ल्लियत में होने को बे-हक़ होने की अ’लामत कभी नहीं समझा।जहाँ मुनासिब था हम ज़माने के धारे के साथ बहते रहे और जहाँ ना-मुनासिब था वहाँ हमने धारे के साथ बहने के बजाए उसका रुख़ मोड़ देने को भी मुनासिब समझा।चुनाँचे तसव्वुफ़ ने अबू ज़र ग़िफ़ारी बन कर जैसा देस वैसा भेस पर अ’मल करने की जगह जिला-वतनी को पसंद किया।हुसैन रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु बन कर सर कटाया।ग़रीब-नवाज़ की शक्ल में अ’वाम को गले लगाया और महबूब-ए-इलाही हो कर वक़्ती सियासत और दरबार-दारी से मुँह मोड़ लिया।
इसी तरह आज भी हम फ़िल्म से और नई शाइ’री से महज़ इसलिए मुफ़ाहमत नहीं कर सकते कि वो अ’वाम-ओ-ख़्वास में मक़्बूल हैं।फ़िल्म ब-ज़ात-ए-ख़ुद कोई बुरी चीज़ नहीं है लेकिन आज उसकी जो शक्ल और हैसियत है वो सख़्त नुक़सान-रसां है।बुज़ुर्गों ने शराइ’त के ज़रिऐ’ क़व्वाली को जिन बुराइयों से दूर रखना चाहा था वो आज फ़िल्म का लाज़िमी जुज़्व हैं। और यही वजह है क़व्वाली भी फ़िल्मी असरात से बुराइयों में मुलव्विस होती जाती है जिसकी फ़ौरी इस्लाह हमारा फ़र्ज़ है।
क़व्वाली का बुनियादी मक़्सद क़ल्ब में गुदाज़ी पैदा करना था।दिल का दर्द और सोज़ ता’लीम-ए-तसव्वुफ़ में बुनियादी अहमियत रखते हैं।इन्सानियत की ता’मीर उनके बग़ैर ना-मुमकिन है।बे-हिस और सख़्त दिल आदमी न अल्लाह तआ’ला के मतलब का होता है न उसके बंदों के काम आ सकता है। इसीलिए हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर ने हज़रत महबूब-ए-इलाही को दुआ’ दी थी कि अल्लाह तुझे आब-दीदा मर्हमत फ़रमाए।और इसी वजह से क़व्वाली के लिए कलाम और राग इंतिख़ाब करते वक़्त भी ये देखा जाता था कि असर-ओ-गुदाज़ का हामिल हो।लेकिन आज-कल क़व्वालों ने जो फ़िल्मी धुनें अपनाई हैं उनसे ऐसा कोई असर मुरत्तब नहीं होता।हमारी नई फ़िल्मी मौसीक़ी मग़्रिबी मौसीक़ी की छिचोरी नक़्ल है। अव़्वल तो वैसे भी मग़्रिबी मौसीक़ी “आह” के बजाय “वाह” की नुमाइंदा है।दूसरे उसके जो नमूने हमारे फिल्मों में नज़र आते हैं उनको तो “वाह” भी नहीं कहा जा सकता।उस मौसीक़ी को तो “हुड़दंगेपन” का उ’न्वान ही ज़ेब देता है जिसका लताफ़त, ख़ुश-मज़ाक़ी और फ़न से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं है।
हैयत (Form) के ए’तबार से समाअ’ और क़व्वाली की मुख़्तलिफ़ शक्लें रही हैं।हज़रत अमीर ख़ुसरौ के ज़माने तक इसके उसूल-ओ-क़वाएद नहीं बने थे।उस वक़्त मौसीक़ी की जो शक्लें राइज थीं उनको शराएत के साथ समाअ’ का नाम दिया जाता था।लेकिन हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने समाअ’ की एक ख़ास फ़ार्म सूफ़ियों के लिए पसंद या ईजाद की।इस काम के लिए उनके बराबर कोई और मौज़ूं भी नहीं हो सकता था क्योंकि वो साहिब-ए-दिल सूफ़ी भी थे,अ’ज़ीम शाइ’र भी और मौसीक़ी के माहिर मोजिद भी।उन्होंने समाअ’ के मक़्सद के मुताबिक़ ऐसी मौसीक़ी तर्तीब दी जो मौज़ूं-तरीन थी।ता’लीमी मक़्सद और क़ौल की मुनासिबत से इस (REFINED) समाअ’ का नाम क़व्वाली क़रार पाया।और ये फ़ार्म इस क़दर मक़्बूल हुई कि मौसीक़ी की बक़िया शक्लों की तरफ़ लोगों की तवज्जोह कम हो गई या बिल्कुल न रही।क़व्वाली में चंद आदमी मिलकर एक ख़ास क़ाएदे और क़रीने से मख़्सूस कलाम-ए-मंज़ूम गाते हैं।और हसब-ए-हाल मुनासिब-ओ-मौज़ूं दूसरे अश्आ’र भी उस ख़ास और असली कलाम की रौनक़ और तासीर बढ़ाने के लिए मिलाते जाते हैं।उस तज़मीन का इस्ति’माल बहुत महदूद पैमाने पर हुआ करता था।
बीसवीं सदी की इब्तिदा में अ’ली बख़्श नामी क़व्वाल ने जो आ’लिम भी थे एक नया तजुर्बा किया।उन्होंने मौसीक़ी और साज़ का इस्ति’माल कम से कम कर दिया।और किसी एक मौज़ू’ पर अ’रबी, फ़ारसी, हिन्दी और उर्दू के बेहतरीन अश्आ’र इंतिख़ाब कर के और बहुत उ’म्दगी से मुरत्तब कर के क़व्वाली के नाम से पेश किए। ये “कॉकटेल” क़व्वाली बहुत पसंद की गई और हज़रत ख़्वाजा हसन निज़ामी की सर-परस्ती में उसका बड़ा रिवाज हुआ। उन्होंने अ’ली बख़्श को वाइ’ज़ के नाम से मश्हूर कर दिया। और वाइ’ज़ के साथ उनके वाइ’ज़ भी ऐसी मक़्बूलियत हासिल की कि हर नया क़व्वाल उनकी नक़ल को कामयाबी की ज़मानत समझने लगा।मगर सब क़व्वाल न अ’ली बख़्श की तरह आ’लिम थे न शे’रों में वा’ज़ कहना जानते थे।इसलिए वो अपनी चाल भी भूल गए और मक़्बूलियत के नए दरवाज़े खटखटाए जाने लगे।
वाइ’ज़ के बा’द का दौर नई तरक़्क़ी-पसंद शाइ’री, फ़िल्म और जासूसी नाविल का दौर था।इसलिए इन तीन चीज़ों का क़व्वाली पर-असर पड़ा।क़व्वालों ने बड़ी आसानी से एक तरफ़ फिल्मों की रेडीमेड मौसीक़ी को अपना लिया और दूसरी तरफ़ जासूसी नाविलों के अंदाज़ पर एक नई क़िस्म की तज़मीन का आग़ाज़ किया।इस तज़मीन में पंद्रह बीस और फिर बा’ज़-औक़ात इससे भी ज़्यादा मिस्रों’ की एक मुसलसल नज़्म पढ़ी जाने लगी जिसका मक़्सद एक इंतिज़ार की कैफ़ियत और (SUSPENSE)पैदा करना होता है।और फिर उस इंतिज़ार और(SUSPENSE)को नुक़्ता-ए-उ’रूज पर पहुँचाकर आख़िरी शे’र से क्लाइमेक्स पैदा कर दिया जाता है।(SUSPENSE) के यक-लख़्त टूट जाने से सुनने वाले ख़ासे मुतअस्सिर हो जाते हैं। इस नए तज्रबे की राह अ’ली बख़्श ही ने दिखाई थी।लेकिन अफ़्सोस की उनके पैरो न उनकी तरह आ’लिम थे और न उनके पैरवों को उनकी तरह सुख़्न-फ़ह्म सुनने वाले मिले। आज़ाद शाइ’री (BLANK VERSE) का सिक्का चल रहा था।इस लिए क़व्वाल आसानी से शाइ’र बन गए।ढोलक और हारमोनियम की मदद से नस्र के हर जुम्ले को मिस्रा’ बना लेना अव्वल तो वैसे भी आसान है और फिर नई नज़्म के फ़ैशन ने तो हर पाबंदी से आज़ाद कर दिया था।
बात यहीं तक न रही।नई तज़मीन के शौक़ ने ये शक्ल इख़्तियार की कि क़व्वालों की दो चौकियों के तख़्त आमने-सामने बिछाए जाने लगे और दोनों चौकियों में ऐसी बैत-बाज़ी होने लगी जिस पर अह्ल-ए-ज़ौक़ का जी सर पीटने को चाहने लगा।ये चीज़ किसी तरह भी क़व्वाली न रही।मगर आज उसको क़व्वाली ही कहा जा सकता है।
हक़ीक़त ये है कि क़व्वाली का एक दौर वाइ’ज़ पर ख़त्म हो गया।उसके बा’द जो चीज़ क़व्वाली के नाम से ज़्यादा मश्हूर हुई उसे हम कन्सर्ट या कोई और नाम तो दे सकते हैं लेकिन क़व्वाली हरगिज़ नहीं कह सकते।क्योंकि क़व्वाली का जो मक़्सद था वो इस कन्सर्ट में बिल्कुल फ़ौत हो जाता है।
आज-कल असली क़व्वाली हिन्दुस्तान में मा’दूम नहीं है।और हर जगह नई तज़मीन और फ़िल्मी मौसीक़ी का रिवाज भी नहीं है।सुनने वाले उसको शराएत के साथ सुनते भी हैं। लेकिन कन्सर्ट की नई लुग़त क़व्वाली के नान से इस क़दर रिवाज पा गई है कि नई नस्ल वाले क़व्वाली इसी को समझते हैं।इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि असली क़व्वाली से लोगों को रु-शनास कराया जाए और बताया जाए कि जिस कन्सर्ट को तुम क़व्वाली कहते हो वो क़व्वाली कहलाने की किसी तरह भी मुस्तहिक़ नहीं है।
ये तो ज़ाहिर है कि अब पुरानी क़व्वाली को अपनी असली शक्ल में पहले जैसी मक़्बूलियत नहीं मिल सकेगी क्योंकि ज़माना बदल गया है।किसी न किसी हद तक हमें बा-सलीक़ा तज़मीन को इख़्तियार ज़रूर करना पड़ेगा।अगर हमने मुरव्वजा कन्सर्ट की इस्लाह की कोशिश की तो इसमें कामयाबी की उम्मीद कम है।क्योंकि इस का ज़हर बहुत ज़्यादा सरायत कर चुका है।और हम तुक-बंदों और महफ़िल- फ़रोशों पर कोई पाबंदी भी आ’एद नहीं कर सकते।बेहतर तरीक़ा ये है कि मुरव्वजा क़व्वाली या’नी कन्सर्ट से यकसर क़त्अ’-ए-तअ’ल्लुक़ कर लिया जाए और पुरानी क़व्वाली को अपनी असली शक्ल में पेश किया जाए।रफ़्ता-रफ़्ता इसमें बा-सलीक़ा तज़मीन की गुंजाइश निकल आएगी और उस ज़हर से बच सकेंगे जिस पर क़व्वाली का लेबल लगा दिया गया है।
साभार – मुनादी पत्रिका (1960)
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