Qawwalon ke Qisse- 5 Muhammad Siddique Khan Qawwal ka Qissa

मुहम्मद सिद्दीक़ ख़ां अकबराबाद (आगरा) के क़रीब के रहने वाले थे वो सितार लाजवाब बजाते और बिला मिज़्राब बोल काटते और राग बजाते थे। इनका ख़ानदान गवैयों का है ये पहले इस्लाम पूर ज़िला नालंदा में मुलाज़िम थे फिर हज़रत शाह मुहम्मद अकबर अबू उलाई दानापूरी के मुरीद हो गए और बाज़ाबता क़व्वाली भी करने लगे। क़व्वाली में अक्सर अपने पीर-ओ-मुर्शिद के कलाम पढ़ते थे ।

धीरे धीरे इनकी शौहरत में इज़ाफ़ा होता गया और लोग आपके इस अनोखे  अंदाज़ की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ करते गए। जब शोहरत ख़ासी बढ़ गई तो आगरा के फ़क़ीरों से दूर हैदराबाद के निज़ाम के जानिब  माइल हुए। निज़ाम इनसे मुतास्सिर हुआ और अपने यहां रहने की दावत दी लिहाज़ा एक लंबे अर्से तक निज़ाम हैदराबाद के पास रहे और ख़ूब माल कमाया ।

इस दौरान अपने पीर-ओ-मुर्शिद से बहुत दूर हो गए। जब ज़िंदगी ढलने लगी तो आवाज़ भी वक़्त के साथ तबदील होने लगी इस तरह आप आगरा अपने पीर की बारगाह में हाज़िर हुए। हज़रत शाह अकबर दाना पूरी ने आप को देखते ही आगरे की नरम ज़बान में फ़रमाया -अरे मियां सिद्दीक़ कहाँ थे? सुनो! ये ताज़ा ग़ज़ल लिखी है ज़रा इस पर धुन तो बैठाओ! एक अर्से बाद हाज़िर होने पर भी पीर के लहजे में  ज़रा भी दबदबा नहीं था । अपनी धुन में ये हज़रत की यह ग़ज़ल पढ़ने लगे-

तालिब-ए-वस्ल ना हो आप को बेदार ना कर

हौसला हद से ज़्यादा दिल-ए-नाशाद ना कर

ख़ाक जल कर हो पर उफ़ ए दिल-ए-नाशाद ना कर

दम भी घुट कर जो निकल जाए तो फ़र्याद ना कर

जब इस शे’र पर सिद्दीक़ ख़ां क़व्वाल पहूंचे तो रोते हुए अपने पीर के क़दमों को थाम लिया-

आके तुर्बत पे मेरी ग़ैर को याद ना कर

ख़ाक होने पे तो मिट्टी मेरी बर्बाद ना कर

Hazrat Shah Akbar Danapuri

उस के बाद इन्होने अपने पीर के क़दमों में अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी

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