Qawwalon ke Qisse -13. Hamid Ali Bela ka Qissa

हज़रत शाह हुसैन (1538 -1599) पंजाब के अलबेले सूफ़ी थे. उनके पिता शेख़ उस्मान ढड्डे जुलाहे का काम करते थे। उन का जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ और उन्हें पंजाबी काफ़ी का जनक भी कहा जाता है । उन के कलाम लोगों में बहुत ही हरमन प्यारे रहे हैं । उन की दरगाह बाग़बानपुरे में शालीमार बाग़ के नज़दीक है। हर साल उन का उर्स ‘मेला चिराग़ां’ के नाम से मनाया जाता है। पंजाबी के सबसे पहले सूफ़ी शायर के रूप में उन्हें आज लोग जानते हैं और उनके कलाम क़व्वाल बड़े शौक़ से पढ़ते हैं पर एक समय था जब हज़रत शाह हुसैन के कलाम लोगों के बीच प्रचलित नहीं थे और उनकी दरगाह पर नशेड़ियों का जमावरा हुआ करता था और लोग उस तरफ जाने से गुरेज करते थे . उसी समय एक युवा क़व्वाल ने हज़रत शाह हुसैन का एक कलाम पढ़ा –

माएं नीं मैं कैनूं आखां,

दरदु विछोड़े दा हालि ।।

धूंआं धुखे मेरे मुरशदि वाला,

जां फोलां तां लाल ।।

सूलां मार दिवानी कीती,

बिरहुं पया साडे ख़्याल ।।

दुखां दी रोटी सूलां दा सालणु,

आहीं दा बालनु बालि ।।

जंगलि बेले फिरां ढूंढेंदी,

अजे न पाययो लाल ।।

कहै हुसैन फ़कीर निमाणा,

शहु मिले तां थीवां नेहालि ।।

उस क़व्वाल की आवाज़ में इतना दर्द था कि कुछ लोगों ने कहा – तेरी आवाज़ में इतना दर्द है तू अपना तख़ल्लुस ‘बेला’ क्यों नहीं रख लेता और हामिद अ’ली  नाम के उस क़व्वाल को उस दिन से ‘हामिद अ’ली बेला’ पुकारा जाने लगा. उसके कलाम को सुनकर लोगों को लग गया कि इस लड़के में कुछ ख़ास बात है .कुछ लोगों ने उसे रेडिओ पाकिस्तान पहुँचा दिया और वहां से उसकी आवाज़ के बहुत लोग मुरीद हो गए जिनमे कुछ नाम मल्लिका पुखराज और फ़रीदा ख़ानम भी थे .

हामिद अ’ली बेला के कलाम प्रचलित होने के बाद ही सही अर्थों में हज़रत शाह हुसैन पर गंभीर साहित्यिक शोध होने शुरू हुए और उनका साहित्यिक पक्ष उजागर हुआ. हज़रत शाह हुसैन के कलाम में जो परमात्मा के विरह की पीड़ा है, वही पीड़ा विरासत में वारिस शाह को हीर के लिए मिली और वही पीड़ा उन्होंने अपने आने वाले सूफ़ी संतों के लिए रख छोड़ी. यही विरह स्वयं का विकास करता हुआ ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद और मियां मुहम्मद बख्श तक पहुंचा जिन्होंने अपनी शायरी और भाषा के खूबसूरत पैराहन पहनाकर इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए तैयार कर दिया .

हामिद अ’ली बेला की आवाज़ में ग़ज़ब का सम्मोहन था . क़व्वाली की प्रचलित विधा के विपरीत उनका गायन भजन के ज़्यादा करीब था. वह हज़रत शाह हुसैन को अपना मुर्शिद मानते थे और उनके कलाम जब पढ़ते थे तब लगता था कि आत्मा संसार के गर्भ में परमात्मा के मिलन को तड़प रही है . उनकी यह तड़प उनके ह्रदय से उनकी आवाज़ में आती थी और वह आवाज़ अपनी हद तक अनहद की रेखा खीच देती थी .

हामिद अ’ली बेला के कई गीत बड़े प्रसिद्ध हुए परन्तु उनके गानों की रिकॉर्डिंग बहुत कम मिलती है. सन 2001 में हामिद अ’ली बेला जगती के पालने से कूच कर गए पर हज़रत शाह हुसैन के साथ जिस तरह माधो लाल का नाम अलग नहीं किया जा सकता उसी तरह हामिद अ’ली बेला का नाम भी हज़रत शाह हुसैन के साथ-साथ युगों तक अमर रहेगा.  

-सुमन मिश्र

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