
हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी का पंडोह शरीफ़ से किछौछा शरीफ़ तक का सफ़र-अ’ली अशरफ़ चापदानवी

विलादतः-
अशरफ़-उल-मिल्लत-वद्दीन हज़रत सय्यद अशरफ़ की सन 722 हिज्री में सिमनान में विलादत-ए-बा-सआ’त हुई जो बा’द में अशरफ़-उल-मिल्लत-वद्दीन उ’म्दतुल-इस्लाम,ख़ुलासतुल-अनाम ग़ौस-ए-दाएरा-ए-ज़माँ,क़ुतुब-ए-अ’स्र हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर अल- सिमनानी के नाम से मशहूर हुए।ये मा’नी-आफ़रीं इस्म-ए-मुबारक बारगाह-ए-मुस्तफ़वी सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सलल्लम से तफ़्वीज़ हुआ था।
हसब-ओ-नसबः–
हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी क़ुद्दिस सिर्रहु सादात-ए-नूरिया से हैं। खुलफ़ा के अ’हद में ये ख़ानवादा बहुत मुअ’ज़ज़्ज़ और मुकर्रम तसव्वुर किया जाता था। ख़ुरूज-ए-चंगेज़ ख़ाँ में बे-शुमार सादात-ए-नूरिया क़त्ल हुए।हज़रत इमाम-ए-आ’ज़म अबू हनीफ़ा रज़िअल्लाहु अ’न्हु के रौज़ा-ए-मुकर्रम को भी शदीद नुक़सान पहुँचा। चुनाँचे आपके वालिद सुल्तान इब्राहीम ने उसे अज़ सर-ए-नौ ता’मीर करवाया। जब सुल्तान इब्राहीम 35 साल हुकूमत करने के बा’द रेहलत फ़रमा गए तो सन 745 हिज्री में 13 साल की उ’म्र में जहाँगीर अशरफ़ सिमनानी तख़्त पर मुतमक्किन हुए। आप सिलसिला-ए-सामानिया इब्राहीमिया के छट्ठे बादशाह थे। मुद्दत-ए-सल्तनत बारह साल है।
तर्क-ए-सल्तनतः–
अबुल-अ’ब्बास हज़रत ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम से मुज़्दा-ए-जाँ-फ़ज़ा सुन कर ताज-ओ-तख़्त अपने छोटे भाई आ’रफ़ मुहम्मद नूर बख़्शी को देकर सन 757 हिज्री में आ’ज़िम-ए-हिन्दुस्तान हुए।सिमनान से पंडोह की मसाफ़त दो साल में तय की।
हिन्दुस्तान की तरफ़ कूचः-
अपनी मादर-ए-मेहरबान ख़दीजा बेगम के हुक्म के ब-मूजिब जो अपने वक़्त की राबिआ’ बसरी थीं, हज़रत जहाँगीर अशरफ़ सिमनानी क़ुद्दिस-सिर्रहु मआ’ लश्कर-ओ-अर्कान-ए-दौलत और आ’वान-ए-ममलिकत सिमनान से हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुए। हज़रत शैख़ अ’लाउद्दौला सिमनानी जो सिमनान के रूहानी पेशवा थे,चंद मंज़िल तक आपके हमराह रहे और कुछ पंद-ओ-नसाएह फ़रमा कर आपको रुख़्सत किया।आप मंज़िल-ब-मंज़िल अर्कान-ए-दौलत और अइ’ज़्ज़ा को रुख़्सत करते जाते।जब बराह-ए-समरक़ंद, बुख़ारा पहुँचे तो अपना घोड़ा भी एक फ़क़ीर को मरहमत फ़रमा दिया और ख़ुद तन्हा पैदल मसाफ़त-ए-ब-ई’द तय कर के उछ (मुल्तान) पहुँचे।
हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी के दौरान-ए-सफ़र हज़रत ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम 70 बार हज़रत शैख़ अ’ला-उल-हक़ अ’लैहिर्रहमा की ख़िदमत में हाज़िर हुए और फ़रमाया कि “सिमनान से एक शहबाज़-ए-बुलंद-परवाज़ चला है। जमीअ’-ए-मशाइख़-ए-वक़्त ने अपने दाम फैलाए हैं लेकिन मैं उसको तुम्हारे लिए ला रहा हूँ। ज़िन्हार, ज़िन्हार उसकी तर्बियत में दरेग़ न करना। दौरान-ए-जहानियानी ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम ने हज़रत सय्यद अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी क़ुद्दि-स सिर्रहु को शरफ़-ए-नियाज़ बख़्शा।आप दो साल तक हज़रत ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम की ता’लीम पर अ’मल पैरा रहे।हज़रत ओवैस क़रनी रज़ि-अल्लाहु अ’न्हु की ज़िंदगी और उनके अज़कार से आपको काफ़ी नूर-ओ-सुरूर साहिल हुआ। आपने अज़कार-ए-ओवैसिया की मुदावमत को अपने मशाग़िल का एक ज़रूरी चीज़ बनाए रखा।
उछ जो मुल्तान के क़रीब का इ’लाक़ा है यहाँ उच नाम का शहर अब तक आबाद है। यहाँ हज़रत जहानियाँ जहाँ गश्त सय्यद जलालुद्दीन बुख़ारी (मुतवफ़्फ़ा 785 हिज्री) से शरफ़-ए-नियाज़ हासिल किया। हज़रत मख़दूम जहानियाँ जहाँ गश्त ने सादात-ए-नूर-बख़्शिया से निस्तबत की बिना पर जहाँगीर सय्यद अशरफ़ क़ुद्दि-स सिर्रहु से कमाल-ए-लुत्फ़-ओ-इल्तिफ़ात पेश आए।ऊछ में उनके ज़ेर-ए-साया क़ियाम के बा’द शैख़ रुकनुद्दीन अबुल-फ़त्ह से मा’रिफ़त हासिल की। बा’दहू आप ज़ियारत-ए-हरमैन के क़स्द से निकल खड़े हुए।हिजाज़ पहुँच कर यहाँ के मशहूर मशाइख़ से भी इस्तिफ़ादा किया।मक्का मुअ’ज़्ज़मा में इमाम अ’ब्दुल्लाह याफ़ई’ की सोहबत में रह कर कुछ दिन इ’ल्म-ओ-हिक्मत के मोती जम्अ’ किए।वहाँ से मुख़्तलिफ़ शहरों में सियाहत करते हुए फिर अपने मेहवर सू-ए-हिन्दुस्तान चल पड़े और सुल्तान फीरोज़ शाह तुग़लक़ (मुतवफ़्फ़ा सन 799 हिज्री) के अ’हद में देहली तशरीफ़ लाए।उस ज़माना में देहली में ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के सज्जादा-ए-रुश्द-ओ-हिदायत पर शैख़ नसीरुद्दीन चराग़ देहली मुतमक्किन थे। आपने उनकी ख़िदमत में हाज़िरी दी और पीरान-ए-चिश्त के तरीक़ा-ए-ता’लीम-ओ-तर्बियत से फ़ैज़याब होने की कोशिश की और ये मर्तबा हासिल किया कि उस ख़ानक़ाह में ख़ुद रुश्द-ओ-हिदायत के लिए आने वालों की तर्बियत करने लगे। फिर जलालुद्दीन जहानियाँ जहाँ गश्त से मिलने के लिए उछ का रुख़ किया ताकि दोबारा उनसे रूहानी फ़ुयूज़ हासिल करें। हज़रत जहानियाँ जहाँ गश्त ने सय्यद अशरफ़ का इस्तिक़बाल किया और अपनी रूहानी नुमाइंदगी के मंसब पर फ़ाइज़ किया।
जन्नताबाद (पंडोह) का सफ़रः-
वहाँ कुछ दिन क़ियाम फ़रमाया और मख़दूम जहानियाँ जहाँ गश्त से इजाज़त ले कर देहली होते हुए पंडोह (बंगाल) के लिए आ’ज़िम-ए-सफ़र हुए। पंडोह बंगाल का एक शहर है और देहली से तवील मसाफ़त पर वाक़े’ है। सय्यद अशरफ़ सिमनानी ये तवील सफ़र मंज़िल ब-मंज़िल तय करते हुए पंडोह वारिद हुए। हज़रत शैख़ अ’ला-उल-हक़-वद्दीन ख़ालदी बिन उ’मर अस्अ’दी लाहैरी रहमतुल्लाह अ’लैह (मुतवफ़्फ़ा सन 800 हिज्री) ने बड़ी गर्म-जोशी से अपने मुम्ताज़ अस्हाब के साथ शहर के बाहर इस्तिक़ाल किया और सवारी के लिए वो मुहाफ़ा (सुख-पाल) पेश किया जो आपको अख़ी सिराजुद्दीन से मिला था। हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी को पान के चार बेड़े भी खिलाए। पंडोह में आपकी शैख़ अ’ला-उल-हक़ वद्दीन ने ज़बरद्सत ख़ातिर-मदारत की और इस तरह पेश आए कि उस ग़रीबुल-वतन मुसाफ़िर-ए-हक़ को ग़ुर्बत में वतन का मज़ा याद आ गया।शैख़ अ’लाउद्दीन ने आपको अपने हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल फ़रमाया। असरार-ए-वहदत से आगाह किया और अपनी ख़ानक़ाह के पाकीज़ा और शख़्सियत-साज़ माहौल में उन्हें जगह दी।
शैख़ अ’लाउद्दीन गंज नबातः-
शैख़ अ’लाउद्दीन गंज नबात एक आ’ली मक़ाम बुज़ुर्ग थे जिन्हों ने बंगाल के गोशे गोशे में तसव्वुफ़ की शम्अ’ जलाई थी। अपनी जवानी में वो बंगाल के हाकिम के वज़ीर-ए-आ’ज़म थे लेकिन उन्होंने हज़रत सय्यद मुहम्मद अशरफ़ सिमनानी की तरह कुर्सी-ए-इक़्तिदार पर गलीम-ए-फ़क़्र को तर्जीह दी और अपना सारा आराम-ओ-राहत इसी मिशन के लिए ख़ैर-बाद कर दिया था कि सूफ़िया की ता’लीमात बंगाल के एक अतराफ़-ओ-जवानिब में फैला।
उन्होंने रियज़त-ओ-मुजाहदा और ज़ोहद-ओ-तक़्वा और ख़ल्क़ुल्लाह की ख़िदमत और दर्द-ए-इंसानियत की आतिश में ख़ुद को मुद्दतों तपाया था चुनाँचे हर तरफ़ आपके बे-मिसाल इख़्लास और बे-बदल तक़्वा की धूम थी। हज़ारों तालिबीन-ए-हक़ रोज़ाना ख़ानक़ाह में आते थे और उनकी हर तरह तवाज़ो’ की जाती थी और तज़्किया-ओ-तर्बियत और दा’वत इल्लाह का काम पूरी सरगर्मी से जारी था। शैख़ अ’लाउद्दीन अपने हल्क़ा-ए-इरादत के लोगों को रियाज़त-ओ-मशक़्क़त का सख़्त आ’दी बनाते थे और इ’बादात-ओ-अफ़्कार के अ’लावा हर तरह का छोटा-बड़ा जिस्मानी काम करने और मेहनत-ओ-मशक़्क़त के तमाम कामों को ख़ुद अंज़ाम देने की मश्क़ करते थे ताकि ख़ुदा की इस वसीअ’-ओ-अ’रीज़ काइनात में अपनी किश्त-ज़ार-ए-अ’मल को सर-सब्ज़-ओ-शादाब बनाएं और ख़ल्क़ुल्लाह की ख़िदमत के लिए कमर बस्ता रहें। आपकी ख़ानक़ाह का अव्वलीन सबक़ अगर मा’रिफ़त-ए-हक़ था, तो उनकी दर्स-गाह-ए-ज़ोहद-ए-अ’मल का दूसरा सबक़ ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ और हमदर्द-ए-बनी-नौ-ए’-इंसान था।
पंडोह में सय्यद अशरफ़ क़ुद्दि-स सिर्रहु के क़ियाम-ए-अव्वल की मुद्दत चार साल है और मज्मूई’ मुद्दत-ए-क़ियाम बारह साल है। अपने चार साला क़ियाम के दौरान हज़रत अशरफ़ ने पूरा फ़ाइदा उठाया शैख़ अ’लाउद्दीन ने आपको “जहाँगीर” का लक़ब इ’नायत फ़रमाया।मुर्शिद की इस इ’नायत-ए-ख़ास पर आपने ये क़ितआ’ इर्शाद फ़रमायाः
मरा अज़ हज़रत-ए-पीर-ए-जहाँ-बख़्श
ख़िताब आमद कि ऐ अशरफ़ जहाँगीर
कुनूँ गीरम जहान-ए-मा’नवी रा
कि फ़रमाँ आमद अज़ शाहम जहाँगीर
तर्जुमाः
मुझको अपने पीर जहाँ बख़्श की जानिब से ये ख़िताब “जहाँगीर” अ’ता हुआ।मैं अब जहान-ए-मा’नवी की बाग-डोर अपने हाथों लेता हूँ इसलिए कि मेरे बादशाह का फ़रमान है कि जहाँगीर बनूँ।
सन 762 ता 65 हिज्री कामिल चार साल क़ियाम के बा’द शैख़ अ’लाउद्दीन ने अपने मुरीद को बड़े तुज़्क-ओ-एहतिशाम के साथ रुख़्सत करने से पहले हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का वो ख़िर्क़ा भी अ’ता फ़रमाया जो उन्हें अपने मुर्शिद अख़ी अ’लाउद्दीन अ’लैहिर्रहमा से हासिल हुआ था।
जन्नताबाद (पंडोह) को सय्यद अशरफ़ सिमनानी ने ख़ैराबाद कहा और जौनपुर के लिऐ रवाना हो गए। क़स्बा मुहम्मदाबाद गहना में आ कर नुज़ूल फ़रमाया फिर आप ज़फ़राबाद तशरीफ़ लाए और मस्जिद ज़फ़र ख़ाँ में फ़रोकश हुए। मुसन्निफ़ीन का ख़याल है कि उस सफ़र में हज़रत अशरफ़ ज़फ़राबाद से कर्मीनी होते हुए भडोड तशरीफ़ ले गए और किछौछा का नाम रूहाबाद रख कर अपने ख़ानक़ाह और मरकज़ के लिए मुंतख़ब फ़रमाया लेकिन ये ख़याल सहीह नहीं है बिल्कि ज़फ़राबाद से वस्त-ए-एशिया के सफ़र पर रवाना हो गए।
इ’राक़, हिजाज़ और यमन का सफ़रः-
हिन्दुस्तान से आप सब से पहले इ’राक़ तशरीफ़ ले गए।वहाँ बसरा, नजफ़-ए-अशरफ़, बग़दाद, जीलान वग़ैरा गए।उस सफ़र-ए-जीलान सन 764 हिज्री में आपकी मुलाक़ात अपने एक रिश्ता-दार सय्यद हुसैन अ’ब्दुल ग़फ़ूर से हुई जिनके निकाह में हज़रत अशरफ़ की ख़ाला-ज़ाद बहन थीं। उनके साहिब-ज़ादा सय्यद अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ को आपसे बड़ा लगाव था। अभी उनकी उ’म्र फ़क़त 12 साल थी कि वालिदैन की इजाज़त और इसरार पर आपने स्ययद अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ को अपनी फ़र्ज़न्दी में क़ुबूल किया।बा’द में उन्होंने आपके फ़ैज़-ए-तर्बियत और नूर-ए-अख़्लाक़ से मुन्व्वर हो कर नूरुल-ऐ’न का ख़िताब पाया और आपके विसाल के बा’द आपके जा-नशीन हुए।
यहीं पर सय्यद अ’ली हमदानी से भी मुलाक़ात हुई।उनकी सोहबत में कुछ दिन गुज़ारे। उन्हीं के साथ आप मिस्र में जबलुल-फ़त्ह तक गए।वहाँ दरवेशों की एक जमाअ’त से मुलाक़ात की जो उस पहाड़ पर तवक्कुल के साथ ग़ुज़र-औक़ात कर रही थी। आख़िर में आप यमन गए। आपने ख़ल्क़ुल्लाह पर आए हुए मसाएब को रफ़्अ’ करने की कोशिश की और उसी ग़म में आपका रू-ए-अनवर ज़र्द पड़ गया। बिल-आख़िर लोगों को आफ़ात से नजात मिली।यहीं पर शैख़ निज़ामुद्दीन यमनी भी आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए।यमन से रख़्त-ए-सफ़र बांध कर आप हिन्दुस्तान आए और सीधे पंडोह (जन्नताबाद) बारगाह-ए-मुर्शिद में हाज़िर हुए और कुछ दिन मुर्शिद की ख़िदमत में गुज़ारे। हज़रत अशरफ़ जब भी पंडोह रहे (मज्मूई’) तौर पर 12 साल) शहर-ए-पंड़ोह में बौल-ओ-बराज़ नहीं किया। कुछ मुद्दत पंडोह में कियाम के बा’द रख़्त-ए-सफ़र फिर बंध गया और अवध की तरफ़ चल पड़े और रूहाबाद (किछौछा शरीफ़) तशरीफ़ ले गए और मुस्तक़िल तौर पर यहाँ रह कर रुश्द-ओ-हिदायत का काम जारी किया और बे-शुमार ख़ल्क़-ए-ख़ुदा आपकी ज़ात से मुस्तफ़ीज़ हुई।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
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