मकनपुर शरीफ़ चित्रावली

मकनपुर कानपुर शहर से 66 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक सुन्दर गाँव है जहाँ हज़रत सय्यद बदीउद्दीन ज़िन्दा शाह मदार की दरगाह स्थित है. अप्रैल 2011 में मेरा मकनपुर जाना हुआ था. मैं मलंगों से सम्बंधित अपने निजी शोध के लिए वहां गया था और 3 दिन रहा. उस दौरान बहुत सी तस्वीरें भी ली गई. हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ. के विषय में विस्तार से बाद में लिखूंगा. कुछ दिनों पहले जब वह तस्वीरें देखी तो लगा कि यह तस्वीरें स्वयं एक चित्रमय यात्रा हैं .यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं –

मदार गेट (मकनपुर का प्रवेश द्वार )

मदारी सूफ़ी कुछ प्रतीक चिन्हों को अपने साथ रखते है  जिनमे से माही ओ मरातिब सबसे प्रमुख है. मदारी फ़क़ीर माही ओ मरातिब को अपना सबसे निकटतम सहयोगी मानते है और कभी मछली नहीं खाते. ऐसा कहा जाता है कि एक बार पैगम्बर यूनुस को एक बड़ी मछली ने निगल लिया था लेकिन वो उसके पेट से सही सलामत निकल आये थे. यही कारण हैं कि मदारी सूफ़ी यह मानते है कि मछली की आलौकिक शक्ति उनकी रक्षा करेगी.

सज्जादानशीन हज़रत सय्यद महज़र अ’ली साहब

दरगाह हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ

हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ

हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ के हज़ारों मुरीद थे लेकिन उन्होंने अपना खलीफ़ा सैयद अबू मुहम्मद अरगुन को बनाया और उन्हें अपना ख़िर्क़ा सौपा. शाह मदार ने सैयद अबू मोहम्मद अरगुन , सैयद अबू तुराब ख़्वाजा फ़सूर और सैयद अबुल हसन तैफ़ूर को गोद लिया था . दो और लोगों की तरबियत शाह मदार की देख-रेख में हुई, वो थे सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन और उनके छोटे भाई सैयद अहमद . ये दोनों प्रसिद्द क़ादरी संत हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी ग़ौस उल आज़म के भांजे थे .

मलंगों ने सिर्फ अपने आप को ज़िक्र और इबादत तक ही महदूद नहीं रखा वरन उन्होंने हिंदुस्तान के समाज के निर्माण में भी अपना सक्रिय योगदान दिया है. आज़ादी की पहली लड़ाई में एक डंडी सन्यासियों के साथ मजनू शाह जैसे मलंगों ने भी 1776 के सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन में अपना मुखर योगदान दिया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब का एहसास मलंगों ने ही करवाया. इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मलंग दीवानगान ए आतिशी से बावस्ता थे . कहा जाता है की मशहूर फ़क़ीर मजनू शाह मलंग जो अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दहशत का सबब बना हुआ था, लड़ाई पर जाने से पूर्व कुछ रहस्यमयी अग्नि क्रियाएं करता था .यह आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुश्किल कई कारणों से था. पहला कारण तो यह था कि इन फ़क़ीरों के बीच सूचना का आदान प्रदान बड़ी ही तीव्र गति से होता था . दूसरा कारण था इन फ़क़ीरों के पास अपना कोई ठिकाना नहीं था इसलिए इन्हें ढूंढना बड़ा मुश्किल था . इन फ़क़ीरों और सन्यासियों की जनता में भी बहुत इज़्ज़त थी और इनका डर भी व्याप्त था इसलिए इनके बारे में मालूमात हासिल करना ख़ासा मुश्किल था .मजनू शाह के मुरीदों ने आगे चलकर एक आंदोलन को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने “पागलपंथी” रखा . इस आंदोलन का नेतृत्व टीपू शाह कर रहा था . बहुत जल्द ही यह ज़ुल्मी ज़मींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ एक मशहूर आंदोलन की शक्ल में उभर का सामने आया .इस आंदोलन में मजनू शाह मलंग के मुरीदों में करीम शाह प्रसिद्द हुए . करीम  शाह अपने सहयोगियों को भाईसाहब के नाम से संबोधित करते थे ताकि बड़े छोटे और ऊंच नीच का भेद समाप्त हो.बाद में  1813 में उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्र टीपू  शाह ने इस आंदोलन की कमान संभाली .करीम शाह की पत्नी चाँदी बीबी का भी इस आंदोलन में सक्रिय योगदान था और उन्हें पीर माता कह कर संबोधित किया जाता था .1852 में टीपू शाह के देहांत के पश्चात जनकु और दोबराज पाथोर ने आंदोलन की कमान सम्हाली. बर्मा में अंग्रेजों की लड़ाई के बाद उत्पन्न स्थितियों के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ था जो अंग्रेजों और ज़मींदारों द्वारा लगाए गए करों के विरोध में था. आखिरकार यह आंदोलन मज़दूरों और अंग्रेजों के बीच बातचीत और करों की वापसी के समझौते के पश्चात ख़त्म हुआ .

यह गाँव हमें यह उम्मीद देता है कि जब कभी हिन्दुस्तान की एकता और अखंडता को खतरा होगा तो इन्हीं बच्चों में से कोई एक मजनूँ शाह मलंग की तरह उठ खड़ा होगा और हमारी सांस्कृतिक सद्भावना की डोर थाम लेगा. यही डोर है जो हिन्दुस्तानी संस्कृति की साझी पतंग को ऊँचाइयाँ प्रदान करती है .

यह पेड़ मदार साहब के ज़माने से ही दरगाह परिसर में मौजूद है.

अब हज़रत मुख़्तार अ’ली साहब का विसाल हो चुका है और उनके साहिबज़ादे सय्यद बख्शीश अ’ली साहब दीवान हैं .

मदारिया सिलसिले में ही मलंग होते है. मलंग अपने बाल नहीं कटाते और इनके बालों की लंबाई भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती रहती है. मलंग अपना सम्बन्ध हज़रत सैयद जमालुद्दीन जानेमन जन्नती से जोड़ते है . ये शहर से बाहर अपनी झोपडी बनाते है और ताउम्र अविवाहित रहकर ख़िदमत ए ख़ल्क़ करते है . इनके बाल न कटवाने के पीछे एक मनोरंजक वाक़या है- एक दफा हज़रत शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती हब्स ए दम  ( सूफ़ियों के ध्यान का एक तरीका जिसमे ला इलाहा बोलकर सांस अंदर खींच ली जाती हैं और फिर उसे अंदर ही रोक लिया जाता है और फिर काफी देर बाद इल्ललाह बोलकर सांस बाहर छोड़ी जाती है.) में बैठे थे . सांस अंदर रोकने की वजह से उनकी धमनियों पर असर पड़ा और उनके माथे से खून रिसने लगा . इसी बीच हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ का उनकी कुटिया में आगमन हुआ. शैख़ ने जब देखा कि मुरीद के सर से ख़ून रिस रहा है तो उन्होंने बगल में धूनी में पड़ी राख उठाकर उनके सर पर मल दी जिस से खून का बहाव रुक गया. थोड़ी देर पश्चात जब हज़रत जानेमन जन्नती ने आँखें खोली तो उन्हें बताया गया कि उनके पीर ने उनके सर पर हाथ रखा था. यह सुनकर उन्होंने आह्लादित शब्दों में ऐलान किया कि जिन बालों पर मेरे मुर्शिद ने हाथ लगाया उनको मैं कभी नहीं काटूंगा . तभी से मलंगों में बाल न कटवाने की परम्परा चल निकली जो आज भी कायम है. मलंगों में नए सदस्य के आगमन पर एक पक्षी की क़ुरबानी दी जाती हैं और शाह मदार की दरगाह के पास के ही एक पेड़ की शाखों पर लोहे की कील ठोकी जाती है.

नगारा दो प्रकार का होता था पहला दलमादल और दूसरा कारक बिजली जो क्रमशः ग्वालियर के शहज़ादे और मुग़ल बादशाह शाह जहाँ द्वारा दान में दिया गया था .इनका प्रयोग उर्स के समय होता हैं जब इन्हें बजाया जाता हैं और मलंग इसकी धुन पर धमाल करते हैं.

दरगाह शरीफ़ हज़रत सय्यद बदीउद्दीन क़ुतुबुल मदार र.अ

– सुमन मिश्र

Twitter Feeds

Facebook Feeds