
हज़रत सय्यद शाह रफ़ी’उद्दीन क़ादरी मुहद्दिस अकबराबादी
शहर-ए-अकबराबाद के सूफ़िया-ए-किराम में जिन अव्वलीन शख़्सियतों ने ख़ानक़ाही ता’लीमात और तसव्वुफ़ को आ’म किया उनमें हज़रत सय्यद रफ़ी’उद्दीन मुहद्दिस का नाम आगरा की तारीख़ में सफ़हा-ए-अव्वल में आता है।सादात-ए-सफ़विया का तअ’ल्लुक़ हज़रत शाह सफ़ी से है जो एक सय्यद सहीहुन्नसब, आ’बिद, ज़ाहिद परेज़-गार उर्दबेल इ’लाक़ा आज़रबाईजान के थे। उज़लत का गोशा उनकी सब्र-ओ-क़नाअ’त से रौशन था और औसाफ़-ओ-बरकात ने ए’तिक़ाद की गर्मी ख़ास-ओ-आ’म के दिलों में इस तरह दौड़ाई थी जैसे रगों में जुनूनियत की बरकत थी कि जो ज़ाहिर में उनका जाँ-नशीन हुआ, वो मा’नी में दिल-नशीन हुआ।शाहान-ए-वक़्त उन्हें बेटियाँ नज़्र देते थे और सआ’दत समझते थे।(अज़ दरबार-ए-अकबरी मौलाना हुसैन आज़ाद सफ़हा 797)
हज़रत अ’ब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी आपनी मशहूर-ए-ज़माना किताब अख़्बारुल-अख़्यार के सफ़हा 513 में उनका ज़िक्र एहतिमाम से करते हुए तहरीर करते हैं। आप हसब-ओ-नसब में साहिब-ए-फ़ज़ीलत बुज़ुर्ग थे।आपके आबा-ओ-अज्दाद सब के सब आ’लिम, सालिह और मुत्तक़ी थे। तफ़्सीर-ए-मुई’नी के मुसन्निफ़ मीर मुई’नुद्दीन आपके अज्दाद में से थे जो साल-हा-साल तक मदीना मुनव्वरा के मुजाविर रहे हैं और अब तक आपकी औलाद में से बा’ज़ मक्का मुअ’ज़्ज़मा में क़याम-पज़ीर हैं। ये तफ़्सीर-ए-मुई’नी जामे’ ,पाकीज़ा और मुफ़ीद तफ़्सीर है। इसके अ’लावा चंद रसाइल भी सपुर्द-ए-क़लम किए हैं। शैख़ सफ़ी’उद्दीन की तरफ़ निस्बत करने वाले अपने को सादात-ए-सफ़विया बतलाते हैं ये भी आपके अज्दाद में से हैं।ग़ालिबान शैख़ुल-हदीस क़ुद्वतुल-मुहक़्क़िक़ीन मौलाना जलालुद्दीन मोहम्मद दिवानी जिनको सादात-ए-इस्लामी कहते हैं ये भी आपके अज्दाद में से थे।और ये वो बुज़ुर्ग हैं जिनको रौज़ा-ए-सरकार-ए-दो-आ’लम से सलामुम-अलैक का जवाब मिला करता था।ग़र्ज़ कि मीर सय्यद रफ़ी’उद्दीन सफ़वी बड़े दानिश-मंद मुहद्दिस थे। जूद-ओ-सख़ावत, अख़लाक़ और मेहरबानियों के मुजस्समा थे।आप मा’क़ूलात में मौलाना जलालुद्दीन के शागिर्द हैं जो आपके आबा-ओ-अज्दाद की बुजु़र्गी के पेश-ए-नज़र शीराज़ में आपके घर आकर आपको पढ़ाया करते थ। आपको इ’ल्म-ए-हदीस में शैख़ शम्सुद्दीन मोहम्मद इब्न-ए-अ’ब्दुर्रहमान मुहक़्क़िक़-ए-इ’ल्म-ए-हदीस और क़ुद्वतुल-मुतअख़-ख़िरीन से शरफ़-ए-तलम्मुज़ हासिल है।कहते हैं कि शैख़ सख़ावी ने मीर सय्यद रफ़ी’उद्दीन की आमद से क़ब्ल तक़रीबन पच्चास किताबों से रिवायत करने की इजाज़त दी थी जिसके बा’द मीर सय्यद रफ़ी’उद्दीन ने बिल-मुशाफ़हा हदीस पढ़ी और अर्सा-ए-दराज़ तक शागिर्द रहे।
आपका अस्ली वतन शीराज़ था और पैदाइश भी शीराज़ में हुई। उसके बा’द अपने वालिदैन के साथ हरमैन-ए-शरीफ़ैन में सुकूनत-पज़ीर हो गए। फिर सुल्तान सिकन्दर के ज़माने में गुजरात से दिल्ली रवाना हुए। सुल्तान सिकन्दर को आपसे बे-हद अ’क़ीदत थी अगर्चे आपको माल-ओ-दौलत बहुत मिलता था लेकिन सबको अल्लाह के रास्ता में लुटा देते थे।आख़िर में सुल्तान सिकन्दर के इसरार से आगरा में मुक़ीम हो गए।

बादशाह सिकन्दर लोधी आपकी बे-हद ता’ज़ीम-ओ-तकरीम करता था और हमेशा हज़रत मुक़द्दस कह कर मुख़ातब किया करता था। अपने ज़माने में आप सबसे मुम्ताज़ मशाइख़ में शुमार होते थे।मुस्लमान और हिंदुओं के दिलों पर आपका नेक असर था।बादशाह-ए-वक़्त भी आपसे फ़तवे तलब करते और हमेशा उमूरात-ए-सल्तनत में आपके नेक मश्वरों पर कार-बंद होते थे।उसकी वजह आपका इ’ल्म में कमाल और इख़्लास था।सई’द अहमद मारहरवी अपनी किताब ‘बोसतान-ए-अख़्यार’ में लिखते हैं ” सिकन्दर इब्राहीम, बाबर, हुमायूँ, शेर शाह, सलीम शाह 6 छः बादशाह आपके के ज़माने में गुज़रे। तरह-तरह के फ़ित्ना-ओ-फ़साद और मुल्की इन्क़िलाब उस अ’र्सा में ज़ुहूर में आए।बा’ज़ उ’लमा मशाइख़ीन एक अ’ह्द में मक़्बूल और दूसरे ज़माने में ग़ैर-मक़्बूल हो कर दुश्मन-ए-हुकूमत समझे गए मगर आपका तर्ज़-ए-अ’मल ऐसा मक़्बूल और पसंदीदा था कि जुमला सलातीन आपके मुतीअ’-ओ-फ़रमा-बरदार रहे।”
आपकी ख़ानक़ाह-ओ-मुसाफ़िर-खाना आ’म और आपका दस्तर-ख़्वान दस्तर-ख़्वान-ए-ख़लील था।हज़ारों उ’लमा,फुज़ला ग़ोरबा,उमरा दूर-दराज़ मुल्कों से आकर आपकी ख़ानक़ाह में फ़रोकश होते और आपकी सख़ावत-ओ-दरिया-दिली से अक्सर आप ही के मोहल्ला में आबाद हो जाते थे। अगर्चे आप दुनियावी कारो-ओ-बार में दिलचस्पी नहीं रखते थे मगर जो कुछ हासिल होता था सब मसारिफ़-ए-ख़ैर ख़ुसूसन मुसाफ़िरों,ग़रीबों और तालिब-इ’ल्मों की परवरिश में सर्फ़ कर देते थे। तमाम उ’म्र ख़ानक़ाह में दर्स-ओ-तदरीस ख़ुसूसन इ’ल्म-ए-हदीस का चर्चा रहा ।आपके हज़ारों शागिर्द दर्जा-ए-कमाल को पहुँचे।
शैख़ मुबारक वालिद-ए-अबुल-फ़ज़ल-ओ-फ़ैज़ी जब मुसाफ़िराना तौर पर आगरा में वारिद हुए तो अव्वल आप ही की ख़ानक़ाह में ठहरे थे। फिर आपके ही मोहल्ले में आबाद हुए।आप हमेशा नाज़ुक हालात में उनकी मदद फ़रमाते रहे।
शम्सुल-उ’लमा मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद अपनी तस्नीफ़ दरबार-ए-अकबरी में लिखते हैं – शैख़ अबुल-फ़ज़ल उनकाहाल इस तरह लिखते हैं कि मीर मौसूफ़ हसनी हुसैनी सय्यद हैं । क़र्या उनका शीराज़ था मगर मुद्दत तक अ’रब में सय्याही करते रहे।हिंद में आते थे, तो आगरा में रहते थे। अ’रब में जाते थे तो मक्का और मदीना मुनव्वरा में सफ़र करते रहते थे और दर्स-ओ-तदरीस से लोगों को फ़ैज़ पहुँचाते थे। माक़ूल-ओ-मंक़ूल अपने बुज़ुर्गों से हासिल किए थे।मौलाना जालालुद्दीन दिवानी की शागिर्दी से नई रौशनी पाई थी।शैख़ सख़ावी कि जो शैख़ इब्न-ए-हजर अ’स्क़लानी के शागिर्द थे, सय्यद मौसूफ़ ने उनसे उ’लूम-ए-अ’क़्ली हासिल किए थे।चुनाँचे शैख़ ने अपनी तस्नीफ़ात में भी उनका कुछ-कुछ हाल लिखा है। फ़िक़्ह-ए-हिंद की जिल्द सेउम में सफ़हा 179 में मुहम्मद इस्हाक़ भट्टी ने भी अख़्बारुल-अख़्यार के हवाला से आपका वही ज़िक्र लिखा है जो ऊपर गुज़र चुका है। राक़िम के जद्द-ए-अमजद सय्य्दी-ओ-मौलाई हज़रत सय्यद मुहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी रहमतुल्लाहि अ’लैहि ने अपनी तस्नीफ़ आगरा और आगरा वाले के मज़मून “नज़ीर और ज़िंदगानी-ए-बे-नज़ीर में नज़ीर के उस्ताद सय्यद शाह ग़ुलाम रसूल रहमतुल्लाहि अ’लैहि का ज़िक्र करते हुए लिखा है ‘शाह ग़ुलाम रसूल हमशीरा हज़रत सय्यद असग़र से मंसूब थीं और शाह ग़ुलाम रसूल साहिब की साहिबज़ादी सय्यद मुनव्वर अ’ली शाह साहिब को ब्याही थीं जो सय्यद अमजद अ’ली शाह साहिब असग़र अकबराबादी के साहिबज़ादे थे। सय्यद ग़ुलाम रसूल हज़रत सय्यद रफ़ी’उद्दीन सफ़वी की औलाद हैं जिनका मज़ार बेलनगंज आगरा में है। शैख़ अ’ब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी ने उनका ज़िक्र अख़्बारुल-अख़्यार में बड़ी अ’ज़मत से किया है। लिखा है कि उनके ख़ानदान की अ’ज़मत-ओ-तौक़ीर की वजह से शीराज़ में शैख़ जलालुद्दीन दिवानी उनके मकान पर उन्हें पढ़ाने आते थे। उस ज़माने की मुआ’शरत के ऐ’तबार से ये बहुत ही अ’जीब बात है कि इतना बड़ा अ’ल्लामा किसी के घर पढ़ाने के लिए जाए। सय्यद रफ़ी’द्दीन साहिब हदीस में अ’ल्लामा सख़ावी के शागिर्द हैं जो मशहूर मुहद्दिसीन में हैं। ये सुल्तान सिकन्दर के ज़माने में दिल्ली तशरीफ़ लाए और फिर सुल्तान ही की दरख़्वास्त पर आगरे में क़याम फ़रमाया। सय्यद मुजाहिदुद्दीन उनकी औलाद थे।वो उनके साहिबज़ादे सय्यद मुबारिज़ुद्दीन और सय्यद मोहम्मद काज़िम साहिब ये सब मुल्को गली आगरा में रहते थे और वहीं मस्जिद के पीछे दफ़्न हैं। सय्यद ग़ुलाम रसूल साहिब सय्यद मोहम्मद काज़िम साहिब के साहिबज़ादे थे। सय्यद अमजद अ’ली शाह साहिब रहि· ने कई दस्तावेज़ तहरीर फ़रमाए हैं। इसलिए इस बारे में किसे शक की गुंजाइश नहीं है कि ग़ुलाम रसूल और सय्यद मोहम्मद मुअ’ज़्ज़म एक ही शख़्स नहीं हैं। (सफ़हा आगरा और आगरा वाले)

954 हिज्री को आगरा में ख़ानक़ाह में ही विसाल हुआ। वहीं तद्फ़ीन हुई। तारीख़-ए-वफ़ात ज़ैल के क़िता’ से बार आमद होता है ।
मज़्हर-ए-ख़ालिक़-ए-ज़मान-ओ-ज़मीन
शाह-ए-दुनिया-ओ-दीं रफ़ी’उद्दीन
सफ़वी बूद आँ ख़ुदा-आगाह
तय्यबुल्लाह रूहु-ओ-सराह
साल-ए-विसालश चू दर शुमार आमद
नोह सद-ओ-पँजाह-ओ-चहार आमद
उ’र्स 12 रबीउ’स्सानी को होता है

जिस जगह ये दरगाह है वो अब बेलनगंज कहलाती है जो “बेलोन” नाम के एक अंग्रेज़ अफ़्सर के नाम से अंग्रेज़ों के दौर में नाम की तब्दीली के साथ बदल दी गई थी ।इस लफ़्ज़ का ग़लतुल-अ’वाम ‘बेलनगँज’ हो गया। पहले इस जगह का नाम मोहल्ला शाह रफ़ी’ था। आसिफ़ ख़ान के दौर में एक बहुत बड़ी हवेली बनी जिसमें बावन 52 चौक 56 फाटक थे जिसके आसार अब भी कुछ-कुछ बाक़ी हैं।
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