हज़रत गेसू दराज़ का मस्लक-ए-इ’श्क़-ओ-मोहब्बत-जनाब तय्यब अंसारी

हज़रत अबू-बकर सिद्दीक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु ने फ़रमाया था:

परवाने को चराग़ है, बुलबुल को फूल बस

सिद्दीक़ के लिए है ख़ुदा का रसूल बस

रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम अफ़ज़ल हैं या सय्यिद मोहम्मद ? तो उसने हज़रत अबू-बकर सिद्दीक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु की तरह कुछ ऐसा ही जवाब दिया।

“हज़रत मोहम्मद रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम अगर्चे पैग़म्बर-ए-ख़ुदा हैं लेकिन मख़दूम सय्यिद मोहम्मद गेसू दराज़ चीज़ ही और हैं।”

फ़रिश्ता के इस क़ौल को नक़ल करते हुए सय्यिद सबाहुद्दीन अ’ब्दुर्रहमान ने बज़्म-ए-सूफ़िया में लिखा है कि “अगर्चे नक़ल-ए-कुफ़्र, कुफ़्र न-बाशद, लेकिन ये इक़्तिबास इसलिए दिया गया है कि इस से हज़रत गेसू दराज़ (रहि.) की ग़ैर-मा’मूली मक़बूलियत का अंदाज़ा होता है।” पाँच सौ साल से ज़ाइद अ’र्सा बीत गया अलहम्दु लिल्लाह हज़रत गेसू दराज़ की मक़बूलियत में कमी न आई,बल्कि रोज़-रोज़ उसमें इज़ाफ़ा ही होता जाता है। ये इस बात का सुबूत है कि बंदगान-ए-ख़ुदा ही नहीं ख़ुद ख़ुदा भी आपकी ज़ुल्फ़ों का अ’सीर है।

समझता क्या है तू दीवानगान-ए-इ’श्क़ को ज़ाहिद

ये हो जाएंगे जिस जानिब उसी जानिब ख़ुदा होगा

ये इ’श्क़ का अदना करिश्मा है कि ख़ुदा ख़ुद अपने बंदा की मोहब्बत में गिरफ़्तार है। काएनात की तख़्लीक़ मोहब्बत की दलील है।अगर ख़ुदा को अपने महबूब बन्दे से प्यार न होता तो ये काएनात वुजूद में न आती।

हज़रत गेसू दराज़ फ़रमाते हैं, ऐ दोस्त,ऐ बिरादर, ऐ यार अगर इ’श्क़ न होता तो कोई जानवर अपने बच्चे को न पालता। अगर इ’शक़ न होता तो आसमान कभी गर्दिश न करता। अगर इ’श्क़ न होता तो समुंदर में जोश न होता।अगर इ’शक़ न होता तो किसी को भी अल्लाह जल्ला शानुहु जहान में पैदा न करता।शायद इक़बाल ने हुज़ूर बंदा नवाज़ के इन्ही अफ़्क़ार-ए-आ’लिया से ख़ोशा-चीनी की है और तस्ख़ीर-ए-क़ल्ब के बजाय तस्ख़ीर-ए-काएनात के लिए इ’श्क़ का सेहत-मंद तसव्वुर पेश किया है।

मर्द-ए-ख़ुदा का अ’मल इ’श्क़ से साहिब-ए-फ़रोग़

इ’श्क़ है अस्ल-ए-हयात, मौत है उस पर हराम

तुंद ओ सुबुक-सैर है गरचे ज़माने की रौ

इ’श्क़ ख़ुद इक सैल है सैल को लेता है थाम

इ’श्क़ फ़क़ीह-ए-हराम इ’श्क़ अमीर-ए-जुनूद

इश्क़ है इब्नुस-सबील इस के हज़ारों मक़ाम

इ’श्क़ के मिज़राब से नग़्मा-ए-तार-ए-हयात

इ’श्क़ से नूर-ए-हयात इ’श्क़ से नार-ए-हयात

इसलिए वो इ’श्क़ को शर्त-ए-मुसलमानी क़रार देते हैं।

अगर हो इ’श्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी

न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर-ओ-ज़िंदीक़

यही वो मंज़िल है जहाँ इक़बाल की आँखें नम-नाक हो जाती हैं और मौजूदा मुसलमानों का मातम इस तरह करते हैं।

बुझी इ’श्क़ की आँख अंधेर है

मुसलमाँ नहीं ख़ाक का ढेर है

अ’स्र-ए-हाज़िर का सीना-ए-मोहब्बत एहसासत और इ’श्क़ के जज़्बात से ख़ाली है लेकिन ये महरूमी सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं जदीद नस्ल का अलमिय्या है।मताअ’-ए-कारवाँ तो लुट गया।कमाल-ए-महरुमी मुलाहिज़ा हो कि हम में एहसास-ए-ज़ियाँ भी बाक़ी नहीं रहा।ब-क़ौल-ए-शाइ’र ‘इन्सान दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा हुआ है’।उसी दर्द-ए-दिल से महरुमी ने नई नस्ल को सुकून-ओ-राहत से महरुम कर दिया है।हमारा समाज मआ’शी, साइंसी और सियासी ऐ’तबार से जितना ख़ुद मुक्तफ़ी है इससे पहले कभी न था।साइंसी लिहाज़ से तो तस्ख़ीर-ए-क़मर का वाक़िआ’ इन्सानी फ़हम-ओ-इदराक की मे’राज है।ये हमारी ज़िंदगी का बड़ा ही रौशन, ताबनाक और मुसबत पहलू है कि इस वाक़िआ’ से कुरान-ए-हकीम के इस इर्शाद की तस्दीक़ मज़ीद होती है कि ये चांद तारे,ये ज़मीन-ओ-आसमान और ये शजर-ओ-हजर और ये समुंदर सब कुछ अल्लाह ने इन्सान के लिए मुसख़्ख़र कर दिए हैं।हमारे लिए मक़ाम-ए-इ’बरत ये है कि ये कारनामा उन लोगों ने अंजाम दिया है जो रोज़ सुब्ह उठ कर क़ुरआन नहीं पढ़ते,जो क़ुरआन पर ईमान नहीं रखते और जो क़ुरआन को तफ़्सीर-ए-हयात नहीं मानते।उनकी बसीरत, इ’ल्मियत और मोहब्बत ने इन राज़ों को वा किया है।

अलबत्ता उनकी महरुमी ये रही कि वो इन्सान के पैदा किए जाने के बुनियादी मक़्सद से ना-वाक़िफ़ हैं।उनका दिल दर्द से ख़ाली है।वो दर्द जो इन्सान को इन्सान से क़रीब करता है।वो दर्द जो इन्सान के अंदर ख़ुद-आगाही और ख़ुदा-आगाही पैदा कर देता है।और वो दर्द जो इन्सान को ऐसी निगाह अ’ता कर देता है जो आईना-ए-महर-ओ-माह को तोड़ दे।

दिल अगर इस ख़ाक में ज़िंदा-ओ-बेदार हो

तेरी निगाह तोड़ दे आईना-ए-महर-ओ-माह

इस दिल की कमी ने इन्सान को बहका और भटका दिया है।और आज अहल-ए-दिल की बारगाह में हम जम्अ’ हैं तो उम्मीद बंधती है कि दिल के दरवाज़े अभी बंद नहीं हुए हैं।दर-ए-दिल खुला है और वो इक़बाल जिसने कभी मदरसा-ओ-ख़ानक़ाह से उठते हुए कहा था:

उठा मैं मदरसा-ओ-ख़ानकाह से ग़म-नाक

न ज़िंदगी, मोहब्बत, न मा’रिफ़त न निगाह

उसी इक़बाल ने बारगाह-ए-महबूब-ए-इलाही में हाज़िरी दी और कहा:

तेरी लहद की ज़ियारत है ज़िंदगी दिल की

मसीह-ओ-ख़िज़र से ऊँचा मक़ाम है तेरा

 बुज़ुर्गान-ए-दीन ख़ुसूसन मशाइख़ीन-ए-चिश्त की बारगाहें दिल की ज़िंदगी का सामान रखती हैं।उन बुज़ुर्गों का मक़ाम मसीह-ओ-ख़िज़्र से यक़ीनन बुलंद है।बाबा फ़रीद ने तो यहाँ तक फ़रमाया था कि मर्दान-ए-ख़ुदा जहाँ भी हैं वहीं का’बा है।बुज़ुर्गान-ए-दीन को ये जो मर्तबा मिला महज़ इ’बादत-ओ-रियाज़त के नतीजा में ही नहीं मिला बल्कि उस बरताव और सुलूक के नतीजा में मिला जो मोहब्बत का हासिल होता है।बाबा फ़रीद ने हज़रत निज़ामुद्दीन को नसीहत फ़रमाते हुए कहा था,तुम एक ऐसा दरख़्त हो जिसके साया में एक ख़ल्क़-ए-कसीर आसाइश-ओ-राहत से रहे।ये औलिया ऐसा दरख़्त हैं जो साया-दार भी हैं और फलदार भी।उनके आ’माल-ए-हसना नीम का ठंडा साया हैं जो राह-रौ को आसूदगी बख़्शते हैं और सेहत भी।और उनके अक़वाल-ए-ज़र्रीं ऐसा फल हैं जो इन्सान की भूक प्यास बुझा देते हैं और यही फल इन्सान के इस सफ़र में ज़ाद-ए-राह का काम भी देते हैं।वली-ए-कामिल को बाबा फ़रीद ने एक दरख़्त से ता’बीर किया और उस दरख़्त का फल मोहब्बत के सिवा और क्या है।मोहब्बत ही तो है जो इन्सान को आसाइश और राहत पहुँचाती है।और फिर इस पूरे निज़ाम का तज्ज़िया किया जाए तो पता चलेगा कि तसव्वुफ़ की इ’मारत की बुनियाद इ’श्क़-ओ-विज्दान पर खड़ी है।हज़रत ग़रीब नवाज़ के सदक़े हिन्दुस्तान में मोहब्बत आम हुई।जब वो आए तो अपने साथ सालिह, सेहत-मंद और तवाना अक़दार लेकर आए। बीसवीं सदी ई’स्वी का हिन्दुस्तान कटा-फटा हिन्दुस्तान है,इंतिशार का शिकार है।और ख़ौफ़-ओ-हरास के बादलों ने सूरज को निगल लिया है।ये ऐसे ज़माने की कैफ़ियत है जब कि इन्सान ब-ज़ो’म-ए-ख़ुद दाना-ओ-बीना कहलाता है।उसकी अपनी दानिस्त में इ’ल्म की रौशनी फैल रही है और सियासी-ओ-समाजी ऐ’तबार से जम्हूरी और सेकूलर अक़दार को बढ़ावा मिला है तो ग़ौर कीजिए आज से आठ सौ साल पुराने हिन्दुस्तान की कैफ़ियत क्या रही होगी? ऐसे हालात में ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ ने हिन्दुस्तानी बाशिंदों को सुल्ह और आशती का पैग़ाम सुनाया।भाई- चारगी और इन्सानी बिरादरी का दर्स दिया और मोहब्बत की रूह उनके अंदर फूंकी।तब ही तो आर फ़िल्ड ने कहा कि मज़हबी रवादारी की फ़ज़ा सबसे पहले मशाइख़ीन-ए-चिश्त के फ़ैज़ान का नतीजा है।वर्ना वो हिन्दुस्तान जो नस्ली तअ’स्सुबात की वजह से मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों में बँटा हुआ था, इस क़िस्म की ता’लीमात से बिलकुल्लिया तौर पर बे-बहरा था। आगे चल कर वो हिन्दुस्तानी बाशिंदों के बारे में मज़ीद लिखता है, ये लोग मुसलमान हो कर ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी की ज़िंदगी से नजात पाते हैं और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के ज़ीना पर ख़ुद अपनी औलाद के लिए बुलंद-तर पाया हासिल करते हैं।दर अस्ल ये एक रुहानी और समाजी इन्क़िलाब था जो हज़रत ग़रीब नवाज़ ने बरपा कर दिया और उस रुहानी और समाजी इन्क़िलाब से पूरा मुल्क मुतअस्सिर हुआ।हज़रत मसऊ’द गंज शकर ने “नाफ़िउ’स्सालिकीन में लिखा है कि हज़रत क़िबला फ़रमाया करते थे कि हमारे सिलसिला का ये उसूल है कि मुसलमान और हिंदू दोनों से सुल्ह रखनी चाहिए और ये बहुत पढ़ा करते थे:

हाफ़िज़ा गर वस्ल ख़्वाही सुल्ह कुन ब-ख़ास-ओ-आ’म

बा-मुसलमाँ अल्लाह-अल्लाह बा-बरहमन राम-राम

गोया ला-इकरा-ह-फ़िद्दीन की मंज़ूम तफ़्सीर यही है। बाबा फ़रीद का ये ईमान था कि मोहब्बत,हम-दर्दी और रवा-दारी से इन्सानी क़ुलूब को एक रिश्ता-ए-उल्फ़त में जोड़ दें। एक शख़्स ने आपको क़ैंची पेश की। आपने फ़रमाया मुझे तो सूई दो मैं काटता नहीं जोड़ता हूँ। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने हिन्दुओं को बुतों की पूजा करते देखकर अमीर ख़ुसरो से फ़रमाया ‘हर क़ौम रास्त राहे दीने-ओ-क़िबला-गाहे’।हाजी नज्मुद्दीन का इर्शाद होता है

चुप रह निजी बावरे छुपा खोल सत भेद

देख पिया को हर जगह गर है तुझको दीद

हज़रत शरफ़ुद्दीन अहमद मनेरी ने मलिक ख़िज़्र को एक मक्तूब में लिखा है।

“इस तारीक दुनिया में क़लम,ज़बान, माल-ओ-जाह से जहाँ तक मुम्किन हो  मोहताजों को राहत पहुँचाओ। सौम-ओ-सलात-ओ-नवाफ़िल अपनी जगह पर अच्छी ज़रूर हैं लेकिन दिलों को राहत पहुँचाने से ज़्यादा सूद-मंद नहीं।”

हज़रत गेसू-दराज़ ने अपने उन मोहतरम पेश-रओं की तक़लीद में इसी मोहब्बत वो विज्दान के मस्लक को आ’म किया और अपने मुरीदों को इसी मस्लक पर चलने की तल्क़ीन-ओ-हिदायत भी फ़रमाई है।

हज़रत गेसू दराज़ की ज़ात सरापा इ’श्क़ थी।आपकी हैसिय्यत दोहरी है और युहिब्बुहुम व-युहिब्बूनहु(वो उन्हें चाहता है और वो उसे चाहते हैं)की ज़िंदा तफ़्सीर थी। वो आ’शिक़ भी हैं और मा’शूक़ भी। ख़ल्क़ुल्लाह से मोहब्बत का सुबूत देने का वक़्त आया तो एक बादशाह-ए-वक़्त से टकरा गए और शराब के ख़िलाफ़ तहरीक चल पड़ी। मख़्लूक़-ए-ख़ुदा आज भी उसी अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत से चाहती है। जैसे परवाना शम्अ’ पर जान देता है लोग आज भी परवाना-वार आपके मज़ार-ए-मुबारक का तवाफ़ कर रहे हैं। अहल-ए-ख़ानदान और अहबाब में भी आपकी चाहत का यही आ’लम था।आपके पीर भाई और हम-दम-ए-देरीना हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन अंसारी की मोहब्बत का तो ये आ’लम था कि जब आप आराम फ़रमाते तो हज़रत अ’लाउद्दीन अंसारी अपना मुँह आपके तलवों से भिड़ा कर सोया करते थे।अल्लाह अल्लाह छः सौ साल गुज़रने के बा’द अंसार-ज़ादे,सय्यिद-ज़ादे में ऐसी बे-मिसाल मोहब्बत थी कि जिसे देखकर हैरत होती है और उन बुज़ुर्गों को गुज़रे आज सात सौ साल से ज़्यादा अ’र्सा बीता। जब भी बारगाह-ए-बंदा-नवाज़ में हाज़िर होता हूँ तो प्यार मोहब्बत की वही बारिश होती है और हज़रत सज्जादा-नशीं साहिब क़िब्ला ने 6 जुलाई सन 1970 ई’स्वी को मेरे जद्द-ए-आ’ला की गुंबद-ए-नौ का संग-ए-बुनियाद रखा तो उसी तअ’ल्लुक़-ए-ख़ातिर का ज़िक्र फ़रमाया। वो मंज़र अब भी मेरी आँखों में घूम रहा है। लगता था जैसे मक्का मदीना की पेशानी को चूम रहा है।दुआ’ है अल्लाह तबारक तआ’ला अंसार-ओ-सय्यिद-ज़ादों में अबदुल-आबाद तक इसी मोहब्बत को क़ाएम-ओ-दाएम रखे (आमीन सुम्मा आमीन)

हज़रत सय्यद मोहम्मद अगर गेसू दराज़ कहलाए तो ये मोहब्बत-ए-पीर का नतीजा था। फ़वाइद और ख़ातमा में पीर के एहतिराम से मुतअ’ल्लिक़ बेशुमार बातें लिखी हैं लेकिन इन्सान के क़ौल पर उसके अ’मल को हमेशा ही से फ़ौक़ियत हासिल रही है और अ’मल भी ऐसा कि पीर पालकी से नीचे उतर पड़े। देख लिया है कि मुरीद के सर से ख़ून बह रहा है। लंबे-लंबे बाल पालकी के पाया में उलझ गए हैं। तकलीफ़ हो रही है लेकिन मुर्शिद के इ’श्क़-ओ-मोहब्बत में ख़ामोश हैं।और ग़ाएत-ए-ताज़ीम में बाल को पालकी के पाया से न निकाल सके। मुरीद की इस मोहब्बत और अ’क़ीदत से बहुत ख़ुश हुए और उसी वक़्त ये शे’र पढ़ा:

हर कि मुरीद-ए-सय्यिद-ए-गेसू दराज़ शुद

वल्लाह ख़िलाफ़ नीस्त कि ऊ इ’श्क़-बाज़ शुद

अख़बारुल-अख़्यार में लिखा है उसी के बा’द से गेसू दराज़ मशहूर हुए। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। बात बढ़ गई और मुरीद की मोहब्बत पीर बे-बदल (रहि.) को ख़तीरा शेर ख़ान ले गई। जहाँ हज़रत गेसू-दराज़ हुज्रा में क़याम फ़रमाते थे  नज़्र पेश की। इस वाक़िआ’ के बड़े चर्चे हुए। बा-कमाल सूफ़िया ने कहा कि उस शख़्स को जवानी में मक़ाम-ए-पीरान-ए-वासिल-ओ-मुतक़द्दिमान-ए-कामिल का दर्जा हासिल है।ख़ुद हज़रत चिराग़ देहलवी (रहि.) ने फ़रमाया सत्तर बरस के बा’द एक लड़के ने फिर मुझमें शोरीदगी पैदा कर दी है और पहले ज़माने के वाक़िआ’त मुझे याद दिलाए हैं।

मशाइख़ीन-ए-चिश्त को हुब्बुल्लाह में इत्तिबाअ’-ए-सुन्नत का हर हाल में ख़याल रहता था।फ़रमाते थे ‘बा-ख़ुदा दीवाना बाश,बा-शरीअ’त होश्यार।’

बा-शरअ’ बा-होश-बाश-ओ-बा-ख़ुदा दीवान:

बा-इ’श्क़ आश्ना बाश-ओ-बा-अ’क़्ल बे-गान:

इ’श्क़-ए-रसूल बंदा को ख़ुदा की मोहब्बत से बे-नियाज़ कर देता है कि ख़ुदा ख़ुद मोहम्मद-ए-अ’रबी की मोहब्बत में गिरफ़्तार है। शरीआ’त, तरीक़त और हक़ीक़त के सारे किनारे यहीं आकर मिलते हैं।मेरे नज़दीक ख़ुदा से मोहब्बत करना सिर्फ़ ख़ुदा से मोहब्बत करना है जबकि मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम से मोहब्बत करना मोहमद्द से सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मोहब्बत करना भी है और ख़ुदा से भी।इसलिए मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम से मोहब्बत करने वाला होश्यार है।वैसे भी ख़ुदा मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम से और मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ख़ुदा से जुदा भी तो नहीं हैं।ख़ुद बंदा एक मक़ाम पर पहुंच कर अपने वजूद को मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम की ज़ात में और फिर इस तरह बिल-आख़िर ख़ुदा की ज़ात में फ़ना कर देता है।ये वो मंज़िल और मक़ाम है जहाँ पानी में नमक घुल जाता है।इक़बाल ने अपने अंदाज़ में बंदा को मौला-सिफ़ात कहा है और बंदा के हाथ को अल्लाह का हाथ।इसलिए औलिया की सोहबत और उनके दस्त-ए-मुबारक पर बैअ’त करना बिद्अ’त है न शिर्क,बल्कि दर्जात के तय करने का आसान और सही तरीक़ा है।और जो इस तरीक़ा पर चलते हैं वही अहल-ए-तरीक़त हैं। हक़ीक़त,तरीक़त और शरीअ’त ये मदारिज हैं।मक़ामात हैं एक ही मंज़िल के। इनमें तज़ाद है न दुई।बाबा फ़रीद ने “राहतुल-क़ुलूब में इन दर्जात की तौज़ीह इस तरह फ़रमाई है। शरीअ’त की ज़कात तो ये है कि जब दो सौ दिरहम हों तो पाँच दिरहम ज़कात निकाले लेकिन तरीक़त की ज़कात ये है कि दो सौ दिरहम में पाँच दिरहम तो अपने लिए रखे  और एक सौ पंचानवे राह-ए-ख़ुदा में दे दे।और हक़ीक़त की ज़कात ये है कि दो सौ दिरहम में एक हब्बा भी अपने लिए न रखे।

हज़रत गेसू दराज़ ने आगे चल कर दिरहम दो दिरहम के तसव्वुर को भी बाक़ी न रखा।उन्होंने अपने वजूद को नमक का कंकर क़रार दिया जो ख़ुदाई समुंदर में घुल जाता है।अपने वुजूद को फ़ना कर देता है।इक़बाल ने किस क़दर सही कहा है।

इ’श्क़ दम-ए-जिब्रईल इ’श्क़ दिल-ए-मुस्तफ़ा

इ’श्क़ ख़ुदा का रसूल इ’श्क़ ख़ुदा का कलाम

हज़रत गेसू दराज़ इर्शाद फ़रमाते हैं,तमाम अहल-ए-तहक़ीक़ के सामने ये मुसल्लम है कि तमाम कामों में सबसे बड़ा काम और तमाम मक़्सदों में सबसे अहम मक़्सद मोहब्बत-ए-अल्लाह जल्ला व-अ’ला है।मोहब्बत के उस्लूब के अस्बाब-ओ-मुजिबात तरह तरह के होते हैं। एक अ’क़्ल-मंद आदमी ये सोचता है कि जब कि हर शय फ़ना होने वाली है तो उ’म्र को किस काम में स़र्फ करना चाहिए? सबसे बेहतर और उ’म्दा शय इ’बादत-ए-इलाही है।मगर उसे भी फ़ना है।आज एक आदमी नमाज़ पढ़ता है।बेहतरीन तरीक़े पर तमाम शराएत पूरे-पूरे कर के पढ़ता है।कल क़ियामत के रोज़ उसे इस नेकी का फल मिलेगा।लेकिन नमाज़ कहाँ होगी? सिर्फ़ वर्ता-ए-ख़याल में जन्नत,इन्आ’म-ओ-इकराम की जगह है,मशक़्क़त-ओ-तकलीफ़ की जगह नहीं। वहाँ ये रियाज़तें कहाँ और अगर कोई पढेगा तो जहाँ और बहुत सी लज़ीज़-ओ-मर्ग़ूब अश्या वहाँ होंगी लज़्ज़त लेने के लिए वहाँ एक ये शय भी होगी। या’नी मलज़्ज़ात में उसका भी शुमार होगा मगर नमाज़ न होगी। जब उस का ये हाल होगा तो इस जहाँ की और अश्या या’नी माल-ओ-जाह-ओ-क़ूव्वत-ओ-ऐ’श का क्या ज़िक्र। लेकिन मोहब्बतुल्लाह सुब्हानहु तआ’ला को दवाम है,वो रहेगी।वो अज़ली-ओ-अ’बदी है।जब महबूब ख़ुद अज़ली-ओ-अबदी है तो उसकी दोस्ती भी ऐसी हुई।पस जिसको क़ल्ब-ए-सलीम अ’ता हुआ वो सबको पस-ए-पुश्त डाल कर सिर्फ़ मोहब्बत-ए-इलाही की तरफ़ रुख़ करता है”।

मोहब्बत की इस अबदियत को साबित कर के हज़रत गेसू दराज़ दा’वत दे रहे हैं।फ़रमाते हैं-

ऐ मेरे दोस्तो ज़रा सोचो तो सही कि उन दोनों में से तुम किस जमाअ’त में हो।बाएं तरफ़ जानेवाले ईमान रखते हैं।जज़ा-ए-अ’मल के क़ाबिल हैं।बा’स-ओ-नश्र पर उन्हें इक़रार है लेकिन फिर भी उधर जा रहे हैं,जहाँ निशान-ए-मलामत बनेंगे और ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी में गिरफ़्तार होंगे।शायद ये सब सोच कर सीधे रास्ते पर आ जाऐं।और हवा-परस्ती से बाज़ आ कर ख़ुदा-परस्ती बिल-आख़िर इख़्तियार करें। वो दिन ज़रूर आने वाला है कि उस रोज़ अपने किए हुए पर सब पशेमान होंगे मगर उससे कुछ उस वक़्त हासिल न होगा

पाँच बातों को पाँच के क़ब्ल ग़नीमत समझो। उनमें से एक फ़राग़त भी है जो आज नसीब है।कल मुम्किन है कि न रहे।कोई नबी,वली नहीं है जो मौत के वक़्त पशेमान न रहा हो कि हाय हमने इस ज़िंदगी को ग़नीमत न समझा और इसकी क़द्र न जानी।

जिस हाल में हो रहो, जहाँ हो वहीं रहो मगर इक पाक नफ़्स के साथ याद-ए-ख़ुदा-ए-अ’ज़्ज़ा-ओ-जल्ला में मशग़ूल रहो।अगर ये बात तुम्हें नसीब हो जाएगी तो समझ लो कि तमाम सआ’दत-मंदियाँ और नेक-बख़्तियाँ मिल गईं। हक़ सुब्हानहु तआ’ला ऐसी सआ’दत जिसका मब्दा वही हो और मुन्तहा भी वही, हमें तुम्हें नसीब करे। वस्सलाम।

साभार – मुनादी पत्रिका

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