अमीर ख़ुसरो के अ’हद की देहली-जनाब हुस्नुद्दीन अहमद
ये बात बड़ी ख़ुश-आइंद है कि सात सौ साल के बा’द हिन्दुस्तान में अमीर ख़ुसरो की बाज़याफ़्त की कोशिश मुनज़्ज़म और वसीअ’ पैमाना पर हो रही है।इस सिलसिले में एक अहम काम अमीर ख़ुसरो के अ’हद के देहली और उसकी ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ ज़्यादा से ज़्यादा मालू’मात फ़राहम करना है।इन मा’लूमात से अगर एक तरफ़ ख़ुसरो और उनके दौर को जानने और उनके कलाम को अच्छी तरह समझने में मदद मिलती है तो दूसरी तरफ़ ये मा’लूमात मुआ’शरती तारीख़ का क़ीमेती ज़ख़ीरा भी हैं।
ज़ैल में अमीर ख़ुसरो के अ’हद के देहली की सिर्फ़ एक झलक दिखलाने की कोशिश की गई है।इस मवाद को किसी तरह मुकम्मल तो नहीं किया जा सकता लेकिन इस सिलसिला में जो काम होना है अगर उसकी निशान-देही भी होती है तो मैं समझता हूँ कि उसका मक़्सद पूरा हो गया।
देहली को अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैहि हज़रत-ए-देहली कहते थे।अमीर ख़ुसरो क़िरानुस्सा’दैन में फ़रमाते हैं।
हज़रत-ए-देहली कनफ़-ए-दीन-ओ-दाद
जन्नत-ए-अ’दनस्त कि आबाद बा’द
मुल्तान के क़याम के दौरान देहली को याद करके दीवान-ए-तुहफ़तुस्सिग़र में लिखते हैं:
” एक ज़माना में मेरा ठिकाना क़िबला-ए-इस्लाम देहली था जो तमाम दुनिया के बादशाहों का क़िबला है।वो देहली जो आसमान की बहन और दुनिया में जन्नत का एक टुकड़ा है उस की ऊँची इ’मारतें आसमान से बातें करती हैं और सूरज पर भी साया डालती हैं’’।
यहाँ दुनिया के बादशाहों का क़िबला वज़ाहत-ए-तलब है।अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैह के अ’हद में ख़ुरासान, ईरान, इ’राक़ आज़रबाईजान वग़ैरा से जो बादशाह और शहज़ादे ब-तौर-ए-पनाह-गुज़ीन हिन्दुस्तान आए थे उनकी ता’दाद कम-ओ-बेश पच्चीस थी।उनकी सल्तनतें मुग़लों के हाथों बर्बाद हुई थीं और ये शाही मेहमान थे।चूँकि हिन्दुस्तान उस वक़्त तक मुग़लों के हमलों का कामयाबी से मुक़ाबला कर रहा था इसलिए उसको महफ़ूज़ और सियासी पनाह के लिए मौज़ूं समझा जाता था।
देहली से मुतअ’ल्लिक़ अमीर ख़ुसरो क़िरानुस्सा’दैन में लिखते हैं:
“इसके अतराफ़ दो मील तक बाग़ात लगे हुए हैं।जमुना से इनकी आबयारी होती है’’।
देहली के बाशिनदों के बारे में कहते हैं:
“सन्अ’त,इ’ल्म-ओ-अदब, आहंग-ओ-साज़,नेज़ा-ओ-पैकाँ और तीर-अंदाज़ी के फ़न में बे-बदल हैं”।
इब्न-ए-बतूता अमीर ख़ुसरो के इंतिक़ाल के सिर्फ़ नौ साल बा’द 1334 ई’स्वी में देहली आए थे।उनके शोहरा-आफ़ाक़ सफ़र-नामा के ब-मोजिब उस वक़्त का देहली एक अ’ज़ीमुश्शान शहर था। मशरिक़ में कोई शहर ख़्वाह इस्लामी हो या ग़ैर-इस्लामी इसकी अ’ज़मत का नहीं था।इस की इ’मारतों में ख़ूबसूरती और मज़बूती दोनों पाई जाती थीं।इसकी फ़सील ऐसी मज़बूत थी कि दुनिया-भर में इसकी नज़ीर न थी।इस फ़सील की चौड़ाई ग्यारह हाथ थी और इस में कोठरियाँ और मकानात बने हुए थे जिनमें चौकीदार और दरवाज़ों के मुहाफ़िज़ रहते थे।इस फ़सील के अट्ठाईस दरवाज़े थे जिनमें चंद ये थे।
बदायूँ दरवाज़ा, मंदवी दरवाज़ा (जिसके बाहर खेत थे), गुल दरवाज़ा (जिसके बाहर बाग़ थे), नौबत बजने के बा’द कोई शख़्स बाहर नहीं निकल सकता था और न शहर में दाख़िल हो सकता था।
अमीर ख़ुसरो के ज़माना में देहली मुख़्तलिफ़ शहरों पर मुश्तमिल था जो एक दूसरे से मुत्तसिल वाक़िअ’ थे।देहली जो क़दीम शहर था और अमीर ख़ुसरो की पैदाइश से सिर्फ़ बासठ साल क़ब्ल 1191 ई’स्वी में सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी ने फ़त्ह किया था। जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी ने दरिया-ए-जमुना से क़रीब किलोखड़ी के पास नया शहर आबाद किया था।कीलोखड़ी एक गाँव था।अव्वलन सुल्तान मुई’ज़ुद्दीन कैक़ुबाद ने 1286 ई’स्वी में क़िला’ बनवाया था अब हुमायूँ का मक़बरा उस क़िला’ के इहाता में है। सुल्तान जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी शहर के रईसों से मुत्मइन न थे।इसीलिए कीलोखड़ी में रिहाइश इख़्तियार की और उसकी ना-मुकम्मल इ’मारतों को पूरा किया।दरिया के किनारे बाग़ लगवाया। गच और पत्थर से हिसार ता’मीर करवाया। मस्जिद और बाज़ार बना कर शहर आबाद किया और उसका नाम नया शहर रखा। ये नाम अमीर ख़ुसरो ने तज्वीज़ किया।बादशाह ने अमीर ख़ुसरो से फ़रमाइश की कि क़स्र का नाम ऐसा तज्वीज़ किया जाए जिसमें उसकी बादशाही का और ख़ुद उसका ज़िक्र भी हो और ख़ुदा का नाम भी आ जाए और हिन्दुस्तानी रिआ’या भी समझ सके।अमीर ख़ुसरो ने “कीलोकहरी” तज्वीज़ किया।के कैक़ुबाद का मुख़फ़्फ़फ़ है,लोक या’नी अ’वाम,हरी ब-मा’नी ख़ुदा।अमीर ख़ुसरो ने इस क़िला’ की ता’मीर पर क़िरानुस्सा’दैन में लिखा है-
क़स्र न-गोयम कि बहिश्ते फ़राख़
एक शहर सीरी था।उसको दारुल-ख़िलाफ़ा भी कहते थे।सुल्तान अ’लाउद्दीन और क़ुतबुद्दीन मुबारक शाह उसी शहर में रहते थे।एक शहर तुग़लक़ाबाद था।उस क़िला और शहर को ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ ने 1321 ई’स्वी में या’नी अमीर ख़ुसरो के आख़िरी दौर में बनाना शुरूअ’ किया था।अमीर ख़ुसरो की ज़िंदगी ही में या’नी उनकी वफ़ात से दो साल क़ब्ल ही क़िला’ और शहर बिल्कुल तैयार हो गया था।
इमारतें
1-जामा मस्जिद
इस मस्जिद का नाम मस्जिद क़ुव्वतुल-इस्लाम था जिसको सुल्तान क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने 1191 ई’स्वी और 1192 ई’स्वी के दरमियान बनाया था। इब्तिदाअन ये पाँच दर की थी।1230 ई’स्वी में या’नी अमीर ख़ुसरो की पैदाइश से 23 साल क़ब्ल उसकी तौसीअ’ की। सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने 1300 ई’स्वी में मशरिक़ी जानिब तौसी’अ की और दरवाज़ा ता’मीर करवाया जो अ’लाई दरवाज़ा कहलाता है।अमीर ख़ुसरो ने क़िरानुस्स’दैन में इस तअ’ल्लुक़ से लिखा है:
मस्जिद-ए-ऊ जामे-ए-’फ़ैज़-ए-इलाह
ज़मज़मः ख़ुत्बः-ए-ऊ ता ब-माह
2۔ क़ुतुब साहिब की लाठ (क़ुतुबमीनार)
ये मीनार मस्जिद क़ुव्वतुल इस्लाम के जुनूब मशरिक़ी गोशा में जुमआ’ की अज़ान के लिए बनाया गया था।इसको क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने बनाना शुरूअ’ किया था।सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश ने 626 हिज्री में उस की तकमील की।
3۔ मक़बरा सुलतान शम्सुद्दीन अल्तमिश
क़ुतुब साहिब की लाठ के पास ये मक़बरा है।ये मक़बरा ग़ालिबन सुल्ताना रज़िया ने बनवाया था।इस मक़बरा की इ’मारत बाहर से संग-ए-ख़ारा की है और अंदर से संग-ए-सुर्ख़ की।कहीं कहीं संग-ए-मरमर भी लगा था।तमाम दीवारों पर आयात-ए-क़ुरआनी कंदा थे।
4.हौज़-ए-शमसी
क़ुतुब साहिब के नवाह में सुल्तान शस्मसुद्दीन अल्तमिश ने 1229 ई’स्वी में हौज़ बनाया।ये हौज़ संग-ए-सुर्ख़ का बना हुआ था।इसका तूल दो मील और अ’र्ज़ एक मील था।
इस में बारिश का पानी जम्अ’ होता था और अहल-ए-शहर उसका पानी पीते थे।शहर की ई’दगाह भी इसके क़रीब थी।जब हौज़ के किनारे सूख जाते तो उनमें नेशकर,ककड़ी, तरबूज़ और ख़रबूज़े बो देते थे।
5۔ हौज़-ए-ख़ास
ये हौज़ सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने बनवाया था।ये हौज़ हौज़-ए-शमसी से भी बड़ा था। इसके गिर्द अहल-ए-तरब रहते थे।
6۔ पुराना क़िला’
राजा अनंग पाल ने जो 674 ई’स्वी में गद्दी नशीन हुआ।इस क़िला’ की ता’मीर की।इस क़िला’ के दरवाज़े पर पत्थर के दो शेर बने हुए थे जिनके पहलू में काँसा के घंटे लटकाए गए थे।जो भी फ़रियादी रास्त राजा तक अपनी फ़रियाद ले जाना चाहता उन घंटों को बजाता।ये शेर अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैहि के अ’हद में मौजूद थे।ये क़िला’ क़ुतुबमीनार के नवाह में था।इसको लाल कोट कहते थे।आज हम जिस क़िला’ को पुराना क़िला’ कहते हैं,ये शेर शाह सूरी का बनाया हुआ है और अमीर ख़ुसरो के अ’हद में मौजूद न था।
7۔ क़िला’ राय पिथौरा
राय पिथौरा ने 1143 ई’स्वी या’नी अमीर ख़ुसरो की पैदाइश से एक सौ दस साल क़ब्ल ये क़िला’ ता’मीर किया।ये क़ुतुब-मीनार के नवाह में था।ये क़िला’ एक अ’र्सा तक बादशाहों का दारुल-ख़िलाफ़ा रहा।सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमिश इसी क़िला’ में रहते थे।कीलोखड़ी के पास नया शहर आबाद हुआ तो ये क़िला’ पुरानी देहली के नाम से मशहूर हुआ।
8۔ क़स्र-ए-सफ़ेद
क़िला’ राय पिथौरा में सुल्तान क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने एक महल बनाया और उसका नाम क़स्र-ए-सफ़ेद रखा।इसी क़स्र में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद तख़्त-नशीन हुए।1220 ई’स्वी में जबकि ख़ुसरो की उ’म्र सात साल की थी हलाकू ख़ान के सफ़ीर ने भी इसी क़स्र में मुंअ’क़िदा एक दरबार में शिर्कत की।इस दरबार के मुतअ’ल्लिक़ कहा जाता है कि इतना बड़ा दरबार चश्म-ए-फ़लक ने भी न देखा होगा।सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन भी इसी क़स्र में तख़्त-नशीन हुए।
9۔मस्जिद-ए-सेरी
सुल्तान क़ुतुबुद्दीन मुबारक शाह ने मस्जिद-ए-सेरी ता’मीर की।उ’लमा और मशाइख़ को उन्होंने दा’वत दी कि जुमआ’ की नमाज़ यहाँ पढ़ें।शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाहि अ’लैह जो कीलोखड़ी की मस्जिद में नमाज़-ए-जुमआ’ के लिए जाया करते थे,ये जवाब दिया कि वो मस्जिद जो मेरी जगह से क़रीब है मुझ पर ज़्यादा हक़ रखती है।
10۔ कोशक-ए-लाल
सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन ने बादशाह होने से पहले बनाया था।बादशाह होने के बा’द इसी कोशक के पास क़िला’ ग़ियासपुर बनाया जो क़िला’-ए-मरज़ग़न से मशहूर हुआ।ये उसी नवाह में था जहाँ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का मज़ार है।जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी को कीलोखड़ी से लाकर पुरानी देहली के तख़्त पर बिठाया गया।वो वहाँ से कोशक-ए-लाल और सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन को याद करके उसके दरवाज़ा पर से पयादापा हुए।जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी अक्सर इसी कोशक में रहते थे।सुल्तान अ’लाउ’द्दीन ख़िलजी कोशक-ए-सेरी बनाने से क़ब्ल इसी कोशक में रहते थे।
11۔ कोशक–ए-लाल (नया शहर)
दूसरा कोशक-ए-लाल सुल्तान फ़ीरोज़ ख़िलजी का बनाया हुआ है जो कीलोखड़ी में था।अमीर ख़ुसरो ने अपने कलाम में इस कोशक की ता’रीफ़ की है।
12۔ कोशक-ए-सब्ज़
जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी ने कोशक-ए-लाल से क़रीब एक और महल कोशक-ए-सब्ज़ बनाया था।जब उनको क़त्ल किया गया तो उनके फ़र्ज़न्द रुकनुद्दीन इब्राहीम शाह को उसी कोशक में तख़्त पर बिठाया गया।
13۔ क़िला’–ए-अ’लाई (कोशक-ए-हुमैरी)
ये क़िला’ सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई’स्वी में बनवाया।
14۔ क़स्र-ए-हज़ार-सुतून
इसे अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई’स्वी में बनवाया जब सुल्तान ग़ियासुद्दीन तुललक़ ने ख़ुसरो ख़ान पर फ़त्ह पाई तो इस क़स्र में आ कर सुल्तान क़ुतुबुद्दीन और उसके भाइयों की ता’ज़ियत अदा की।
बाज़ार
देहली के बाज़ार बड़े बा-रौनक़ थे।अमीर ख़ुसरो तुहफ़तुस्सिग़र में कहते हैं:
“इस बाज़ार में आदमियों का इतना हुजूम रहता है कि मर्दुम-ए-चश्म को भी देखने वाले की आँख में जगह नहीं मिलती”
बाज़ारों में बैरून-ए-ममालिक का सामान भी मिलता था और दूर-दूर से ताजिर सामान-ए-तिजारत ले कर यहाँ आते थे।सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने मुल्तानी सौदागरों की एक कंपनी या कार्पोशन बनाई थी और क़ीमती कपड़े लाने का काम मुल्तानी सौदागरों के सुपुर्द था।उनको सल्तनत से तिजारत के लिए एक मा’क़ूल रक़म भी मिलती थी।उनको सोने के टंके भी दिए जाते थे क्योंकि उनको सल्तनत-ए-देहली के बाहर से सामान लाना पड़ता था।ख़ुरासान से किशमिश और बादाम भी उस ज़माना में दर-आमद होते थे।
हिन्दुस्तान में रुपया का इस्ति’माल शेर शाह के वक़्त से हुआ। हिन्दुस्तान का क़दीम सिक्का टंका था। अमीर ख़ुसरो के अ’हद में टंका-ए- सुर्ख़, टंका-ए-सफ़ेद, जीतल राइज था।टंका-ए-सुर्ख़ ख़ालिस सोने का सिक्का था जो सौ रत्ती और बा’ज़ औक़ात एक सौ बारह रत्ती का होता था । टंका-ए-सुर्ख़ का इस्ति’माल बैरूनी ताजिर करते थे। टंका-ए-सफ़ेद ख़ालिस चाँदी का सिक्का था जो अस्सी रत्ती और सौ रत्ती का होता था।बाज़ार में ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त में जीतल इस्ति’माल होता था।एक टंका–ए-सफ़ेद के चौंसठ जीतल होते थे।शशगानी और हश्तगानी सिक्के भी राइज थे जो अ’लत्तर्तीब छः जीतल और आठ जीतल के होते थे।
उस ज़माना का मन साढ़े चौदह सेर का होता था।लेकिन फ़रिश्ता के मुताबिक़ अ’लाउद्दीन ख़िलजी के अ’हद में ‘मन आँ वक़्त चेहल सेर बूद-ओ-हर सेर बीस्त-ओ-चहार तोला’।अगर अस्सी तोला का सेर क़रार दिया जाए तो बारह सेर का मन हुआ।
अमीर-ए-ख़ुर्द के मुताबिक़ सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन के अ’हद में दो जीतल का एक मन ख़रबूज़ा और एक जीतल के दो सेर मैदे की रोटी बिकती थी।
अ’लाउद्दीन ख़िलजी ने अज्नास की हस्ब-ए-ज़ैल क़ीमतें मुक़र्रर की थीं।
गेहूँ 7½ जीतल फ़ी मन
जौ 4 जीतल फ़ी मन
माश 5 जीतल फ़ी मन
नख़ूद 5 जीतल फ़ी मन
मूठ 3 जीतल फ़ी मन
शकर-ए-तरी 1½ जीतल फ़ी मन
शकर–ए-सुर्ख़ ½ जीतल फ़ी मन
घी ½ जीतल फ़ी मन
रोग़न-ए-कुंजेद 1/3 जीतल फ़ी मन
नमक 1/5 जीतल फ़ी मन
अहल-ए-देहली की ज़बान खड़ी बोली थी जो सिर्फ़ बोल-चाल की ज़बान थी और लिखी नहीं जाती थी।नव वारिद मुसलमानों ने उसको अपनी ज़बान बना लिया था।उसको और दूसरी इ’लाक़ाई ज़बानों को अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैह के अ’हद में हिंदवी कहते थे।
अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैह के नाना,उनकी वालिदा और सारा नानिहाल देहली की शाइस्ता हिंदवी बोलता था।अमीर ख़ुसरो के अ’हद में इस बोली पर फ़ारसी का असर पड़ चुका था।
अमीर ख़ुसरो (रहि.) के अ’हद में शरीफ़ औ’रतें डोलियों (पालकियों) में आती जाती थीं और मर्द ब-लिहाज़-ए-ज़रूरत पालकियों को इस्ति’माल करते थे। आठ आदमी बारी बारी उसको उठाते थे। चार आदमी उठाते और चार आदमी साथ साथ चलते। जिनके पास नौकर होते तो वो डोली उठाते वर्ना ऐसे आदमी जिनकी रोज़ी का इन्हिसार उसपर था उजरत पर ये काम करते और बाज़ारों या बादशाह के महल के आस-पास या उमरा के दरवाज़ों पर खड़े रहते।
मेवे और ग़ल्ले
अमीर ख़ुसरो ने हिन्दुस्तान के जिन मेवों का ज़िक्र किया है उनमें आम को मक़्बूलियत हासिल है।यहाँ ये बात ज़ेहन नशीन रखनी चाहिए कि आज तुख़्मनी और पैवंदी दो क़िस्म के आम पाए जाते हैं।पैवंदी आम मुग़लों की देन है और बा’द में पुर्तगालियों ने इस फ़न को मज़ीद तरक़्क़ी दी।अमीर ख़ुसरो के अ’हद में सिर्फ़ तुख़्मी आम होते थे।उन्होंने आम के बारे में लिखा है:
‘नग़्ज़-तरीन मेवा-ए-हिंदुस्ताँ’
उस ज़माने में कच्चे आम का अचार बनाने का भी रिवाज था।दूसरे मेवों में कटहल, जामुन, संगतरा, अनार, अंगूर और ख़रबूज़े भी देहली में होते थे।ख़रबूज़े की ता’रीफ़ अमीर ख़ुसरो ने की है।
अमीर ख़ुसरो ने पान को भी हिन्दुस्तान के मेवों में शुमार किया है और उसका अपने कलाम में जा-ब-जा ज़िक्र किया है।
जहाँ तक अनाज का तअ’ल्लुक़ है तो ख़रीफ़ की फ़स्ल में कद्दू, माश, लोबिया,मूठ और रबीअ’ की फ़स्ल में गेहू, चना, जौ बोते चावल, तिल और नेशकर की काश्त भी की जाती थी।
खाने
सात सौ साल के तवील अ’र्से में पकवान के तरीक़े और नाम बदल गए हैं और उनमें काफ़ी तब्दीलियाँ अ’मल में आइ हैं लेकिन चंद पकवान इस वक़्त भी पाए जाते हैं।मसलन खिचड़ी, समोसा और आचार मुरव्वज थे।आचार से मुतअ’ल्लिक़ अमीर ख़ुसरो का मिस्रा’ है:
‘लुक़मः न-रवद ज़ेर गर आचार न-याबी’
रुसूम
इंतिक़ाल के तीसरे दिन सुब्ह ही सुब्ह मय्यत की क़ब्र पर जाते और क़ब्र के गिर्दा गिर्द रेशमी कपड़े बिछाते और क़ब्र पर फूल रखते।रिश्ते-दार और अहबाब अपने अपने कलामुल्लाह लाते और वहाँ तिलावत करते।जब ख़त्म कर चुकते तो लोगों को गुलाब पिलाया जाता और उनपर गुलाब छिड़का जाता और पान भी दिए जाते।
ई’द
ई’द के दिन ख़तीब हाथी पर सवार होता।हाथी की पुश्त पर एक चीज़ तख़्त के मुशाबिह बिछाई जाती और चार अ’लम उसके चार कोनों पर लगाए जाते।ख़तीब सियाह लिबास पहने होता।मुअज़्ज़िन हाथियों पर सवार ख़तीब के आगे-आगे तकबीर पढ़ते जाते।शहर के मौलवी और क़ाजी भी साथ होते।उनमें से हर एक के साथ सदक़ा आता जो वो ई’द-गाह के रास्ते में तक़्सीम करता जाता।ई’द-गाह पर कपड़े का साएबान लगाया जाता और फ़र्श बिछाया जाता।जब सब नमाज़ी जम्अ हो जाते तो ख़तीब नमाज़ पढ़ाते और ख़ुतबा पढ़ते।नमाज़ के बा’द अहल-ए-दरबार और मुअज़्ज़िज़ीन बादशाह के महल जाते जहाँ सबको खाना खिलाया जाता।
शादी ब्याह के रुसूम
अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैह के अ’हद तक नव-वारिद मुसलमानों ने हिन्दोस्तान में मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार कर ली थी और मक़ामी आबादी से उनका मेल-जोल काफ़ी बढ़ गया था।इसके नतीजे के तौर पर हिंदूओं और मुसलमानों ने एक दूसरे की तहज़ीब के अ’नासिर को अपनाना शुरूअ’ कर दिया थ।मुसलमानों ने शादी-ब्याह के रुसूम बिल-ख़ुसूस अपनाए थे।मस्नवी दुवल-रानी ख़िज़्र ख़ान में अमीर ख़ुसरो ने जो तफ़्सीलात पेश की हैं उनसे मा’लूम होता है कि निकाह के अ’लावा सारे रुसूम हिन्दुस्तानी थे।
इंतिज़ाम-ए-सलतनत
अमीर ख़ुसरो (रहि.) के अ’हद में सुल्तान इक़्तिदार-ए-आ’ला का मालिक था।वही क़ानून का मंबा था।मुक़द्दमात के आख़िरी मवाक़ेए’ वही समाअ’त करता और वही फ़ौज का चीफ़ कमांडर होता।अल्बत्ता सुल्तान मज़हबी उमूर में उ’लमा से मशवरा करता क्योंकि उस ज़माने में शरीअ’त के अहकाम की पाबंदी ज़रूरी थी।उमूर-ए-सल्तनत में सुल्तान मज्लिस-ए-वुज़रा(मज्लिस-ए-हुकूमत)से मशवरा करता।ऐसा मशवरा सुल्तान के लिए लाज़िमी न था लेकिन अक्सर सुल्तान मशवरा ज़रूर करते।सुल्तान उ’मूमन तीन चार मुख़तस उमरा से मशवरा करता।वही शिर्कत करते जिन्हें सुल्तान तलब करता।कोई हक़ की बिना पर शिर्कत का इद्दआ’ नहीं कर सकता था।उस ज़माना में सल्तनत की तश्कील में अ’रब-ओ-ईरान के अंदाज़ का इम्तिज़ाज था और फ़ौज की तरतीब तुर्क-ओ-मंगोल तर्ज़ पर थी।तरीक़ा-ए-माल-गुज़ारी हिन्दुस्तानी था।उस ज़माना में दरबार दो क़िस्म के थे।दरबार-ए-आ’म और दरबार-ए-ख़ास। दरबार-ए-ख़ास में ख़ान, मलिक और अमीर शरीक होते।दरबार-ए-आ’म में हर कोई शरीक हो सकता था।दरबार-ए-आ’म का इंतिज़ाम अमीर-ए-जमाअ’त के ज़िम्मा होता।वो उनसे दरख़्वास्तें वसूल करता और सुल्तान को पेश करता।नाएब हाजिब और हाजिब उसको फ़राइज़ की तकमीकल में मदद देते।जब कोई शख़्स दरबार में जाता तो हाजिब उसको आदाब-ए-दरबार से वाक़िफ़ करवाते और उसको हाथ पकड़ कर एक ख़ास मक़ाम पर ले जाते कि वहाँ से ता’ज़ीम बजा लाए।
बारबक LORD CHAEMBER LAI के मुमासिल ओ’हदा था।दरबार में मुख़्तलिफ़ दर्जा के लोगों के मक़ाम का तअ’य्युन करना उसके फ़राइज़ में दाख़िल था।
चंद ओ’हदों के नाम ये थे:
वज़ीर, सुल्तान की अ’दम-ए-मौजूदगी में कार-ओ-बार-ए-सल्तनत अंजाम देता।उस ज़माना में महकमों को दीवान कहते।मसलन दीवान-ए-इशराफ़(महकमा-ए-ऑडिट), महकमा-ए-ज़राअ’त,दीवान-ए-अ’र्ज़ ,महकमा-ए-फ़ौज,दीवान-ए-इंशा,दीवान-ए-इ’मारत, दीवान-ए-वज़ारत,महकमा-ए-माल-गुज़ारी वग़ैरा।और महकमा के सद्र को ममालिक कहते थे।मसलन मुस्तौफ़ी-ए-ममालिक(आडीटर जेनरल),बरीद-ए-ममालिक(वज़ीर-ए-महकमा-ए-ख़ुफ़िया),अ’रीज़-ए-ममालिक(वज़ीर-ए-फ़ौज)।ये सिप्हसालार न होता बल्कि सिपाहियों का तक़र्रुर और तनख़्वाह की तक़्सीम उससे मुतअ’ल्लिक़ थी।क़ाज़ी-ए-ममालिक (चीफ़ जस्टिस) महकमों के अ’लावा वो कारख़ाना-जात भी होते।
क़ाज़ी जिनका काम अस्ल मुक़द्दमों का फ़ैसला करना था।
सद्र-ए-जहाँ (क़ाज़िउल-क़ुज़ात) एक मरकज़ी अफ़्सर था जो अपने नाएबों के ज़रिआ’ मज़हबी मुआ’मलात (उ’लमा की मदद-ए-मआ’श, मसाजिद की ता’मीर, औक़ाफ़ के इंतिज़ाम वग़ैरा)का ज़िम्मेदार होता।
शैख़ुल-इस्लाम सिर्फ़ एक लक़ब था जो बादशाह की तरफ़ से मुल्क के सबसे बुज़ुर्ग शैख़ को दिया जाता था।
कोतवाल शहर में पुलिस का आ’ला ओ’हदा-दार होता था।
ख़रीता-दार:इसके पास बादशाह का क़लम-दान होता था।
महर-दार :बादशाह के इस्ति’माल के पानी और दीगर मशरूबात का मुंतज़िम होता था।सुल्तान बल्बन शराब नहीं पीते थे लेकिन इस ओ’हदा का नाम नहीं बदला।
चाशंगर:दस्तर-ख़्वान पर लाने से पहले हर एक खाने को चखने और अपनी मुहाफ़ज़त में बादशाह के रू-ब-रू लाने का काम उससे मुतअ’ल्लिक़ था।
मीरदाद: ये ओ’हदा-दार क़ाज़ी के साथ बैठता।अगर कोई शख़्स अमीर या बड़े आदमी पर नालिश करता तो वो उसको क़ाज़ी के रू-ब-रू हाज़िर करता।इस ओ’हदा को वकील-ए-सरकार के मुमासिल क़यास किया जा सकता है।
दवात-दार जिसके पास बादशाह की दवात रहती थी।
अमीर ख़ुसरो के अ’हद में सरकारी ख़ज़ाना से रुक़ूमात की अदाएगी ख़त-ए-ख़ुर्द के ज़रिआ’ होती थी।इसी चिठ्ठी में ये दर्ज होता था कि बादशाह का हुक्म है कि ख़ज़ाना से फुलाँ शख़्स को फ़ुलाँ हाजिब की शनाख़्त पर इस क़दर रुपया दे दो।इस चिठ्ठी पर चिठ्ठी लाने वाला और जिसकी शनाख़्त पर रुपया देना लिखा हो हर दो दस्तख़त करते।इसके अ’लावा तीन अमीरों के दस्तख़त होते फिर दीवान-ए-वज़ारत के पास ले जाते।मुतसद्दी उसकी नक़ल ले लेते।फिर परवाना लिखा जाता जिस पर वज़ीर ख़ज़ानची को हुक्म देता।ख़ज़ानची अपने हिसाब में दर्ज करता।हर-रोज़ के परवानों का चिट्ठा बादशाह के सामने पेश करता।जिसके लिए बादशाह का हुक्म होता कि फ़ौरन दे दो उसी वक़्त दे दिया जाता।बा’ज़ दफ़्अ’ दो-दो तीन-तीन महीने बा’द मिलता।उस ज़माना में दस्तूर था कि जिस क़दर इनआ’म का हुक्म दिया जाए उसका दसवाँ हिस्सा या’नी उ’श्र वज़अ’ हो कर बक़िया रक़म ईसाल होती।
साभार – मुनादी पत्रिका
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