हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर-निसार अहमद फ़ारूक़ी फ़रीदी
हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह जो आ’म तौर पर हज़रत बाबा फ़रीद के नाम से याद किए जाते हैं, हिन्दुस्तान में चिश्तिया सिलसिले के अहम सुतून हैं।उन्होंने हज़रत शैख़ क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी(रहि.)और हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती ग़रीब-नवाज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह से रुहानी फ़ैज़ हासिल किया। हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह से बातिनी ता’लीम हासिल करने वाले बुज़ुर्गों में हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाहि अ’लैह हैं जिन्हें महबूब-ए-इलाही के लक़ब से याद किया जाता है।उन से चिश्ती निज़ामी सिलसिला शुरूअ’ हुआ और दूसरी तरफ़ हज़रत अ’लाउद्दीन मख़दूम साबिर कलयरी रहमतुल्लाहि अ’लैह से सिलसिला-ए-चिश्तिया साबिरया का आग़ाज़ हुआ।तसव्वुफ़ के तमाम ख़ानवादों में सबसे ज़्यदा मक़्बूल यही सिलसिला-ए-चिश्तिया है और इसकी शाख़ें हिन्दुस्तान के गोशे-गोशे में फैली हुई हैं।इस लिहाज़ से देखिए तो हज़रत बाबा फ़रीद की ज़ात-ए-बा-बरकात रूहानियत का सबसे बड़ा सर-चश्मा और अदब की ख़ानक़ाह-ए-रुश्द-ओ-हिदायत का सबसे अहम मरकज़ रही है जिसके फ़ुयूज़-ओ-बरकात आज हिन्दुस्तान ही में नहीं बल्कि आ’लम-ए-इस्लाम के दूर-दराज़ गोशों में भी देखे जा सकते हैं।
हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह आज से ठीक सौ साल पहले ग़ैर-मुंक़सिम पंजाब के एक छोटे से क़स्बे खतवाल में पैदा हुए थे। यही सूबा उनकी इस्लाही सर-गर्मियों का मरकज़ रहा।यहीं से उन्होंने रूहानियत का नूर आ’लम में फैलाया और आज भी वो मुल्तान के क़रीब पाकपट्टन में मह्व-ए-इस्तिराहत हैं।उनकी ता’लीमात का फ़ैज़ आज भी जारी है।सिलसिला-ए-चश्तिया आज भी सर-सब्ज़-ओ-शादाब है।रूहानियत के चश्मे आज भी ख़ुश्क नहीं हुए हैं।बेचैन दिलों को सुकून की दौलत उसी तरह मिल रही है।लेकिन बाबा फ़रीद की शख़्सियत और ता’लीमात के कुछ पहलू ऐसे भी हैं जिनकी अहमियत और मा’नवियत कल उतनी नहीं थी जितनी आज है।एक तो ये कि हज़रत बाबा फ़रीद पंजाबी ज़बान के सबसे क़दीम शाइ’र हैं और उनका आ’रिफ़ाना कलाम उस ज़बान का बेश-क़ीमत सर-माया है।इसे पंजाबी ज़बान-ओ-अदब की तारीख़ में वही अहमियत हासिल है जो अंग्रेज़ी ज़बान में Chauser और फ़ारसी में रुदकी के कलाम की है।दूसरे हज़रत बाबा फ़रीद के ये आ’रिफ़ाना अशआ’र और श्लोक गुरू अर्जुन देव ने सिखों की मुक़द्दस किताब आदि ग्रंथ साहिब में महफ़ूज़ कर दिए हैं और आज दुनिया-भर में लाखों सिख उन अशआ’र को उसी के बानी हज़रत बाबा नानक के कलाम की तिलावत करते हैं।ब-क़ौल प्रोफ़ेसर गुरू बचन सिंह तालिब:
“हज़रत बाबा फ़रीद का पंजाबी कलाम आदि गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज है जिसके मुतालेऐ’ से उनकी जिद्दत-ए-तबअ’ और क़ुदरत-ए-इदराक का अंदाज़ा ब-ख़ूबी होता है।इन्सानी रूह के तजरिबात और अ’मीक़ एहसासात से वो बहुत हद तक मुतअस्सिर हुए हैं।उन्हें इस बात का दुख होता है कि इन्सान की उ’म्र-ए-बे-बहा का बहुत सा हिस्सा माल-ओ-दौलत के हुसूल और दुनियावी कार-ओ-बार में राएगाँ जाता है।मौत सर पे मंडला रही है लेकिन इन्सान ग़फ़लत में वक़्त ज़ाए’ करता है।उन्हें इन्सानी रंज-ओ-अंदोह का भी गहरा एहसास है।वो इन्सान को तहम्मुल,बुर्द-बारी,सब्र-ओ-तवक्कुल,हिल्म-ओ-इन्किसारी की ता’लीम-ओ-तल्क़ीन करते हैं।वो बार-बार इन्सान को तंबीह करते हैं कि वो मक्र-ओ-रिया से बचे।किसी के दिल को ई’ज़ा न पहुँचाए।उनका अ’क़ीदा है कि ‘दिल ब-दस्त-आवर कि हज्ज-ए-अकबर अस्त”।तमाम इन्सान ख़ुदावन्द-तआ’ला की मख़्लूक़ हैं।उनके कलाम में बेहद शीरीनी है।तमाम श्लोक गहरे जज़्बात से भरपूर हैं।वो हुनर-ओ-फ़न और शे’र-ओ-सुख़न का आ’ला नमूना हैं।ये कलाम मुल्तानी ज़बान का बेश-बहा ख़ज़ाना और पंजाबी का क़ीमती असासा है।उसके तशबीहात-ओ-इस्तिआ’रात पंजाब की ज़िंदगी से लिए गए हैं।”
इसी लिए पंजाब के ज़िंदा-दिल सपूतों ने आगे बढ़कर रूहानियत के उस अ’ज़ीम पेशवा का आठ सौ साला जश्न-ए-विलादत बड़ी आन बान और तुज़्क-ओ-एहतिशाम से मनाने का अ’ज़्म किया।बाबा फ़रीद मेमोरियल सोसाइटी पंजाब में क़ाएम हुई जिसका सद्र दफ़्तर पंजाबी यूनीवर्सिटी पटियाला में है।इस सुसाइटी की तरफ़ से एक बैनुल-अक़वामी सेमिनार मुनअ’क़िद हुआ।पंजाबी यूनीवर्सिटी पटियाला में इस्लामी तसव्वुफ़ के मुतालिए’ के लिए एक Chair क़ाएम हुआ।
इसी तरह गुरू नानक यूनीवर्सिटी अमृतसर ने तसव्वुफ़ की अहम किताबों को फ़ारसी से पंजाबी में तर्जुमा करने का मन्सूबा बनाया। पंजाब यूनीवर्सिटी चंडीगढ़ ने क़दीम पंजाबी ज़बान-ओ-अदब में रिसर्च के लिए अ’लाहिदा शो’बा क़ाएम कर दिया है और ख़ुद बाबा फ़रीद मेमोरियल सुसाइटी के सामने ठोस ता’मीरी मंसूबे हैं।
हिन्दुस्तान में उस अ’ज़ीम सूफ़ी और दरवेश का आठ सौ साला जश्न मनाया गया जिसका मिशन टूटे हुए दिलों को जोड़ना था।जो मज़हबी मुनाफ़रत को ख़त्म करने और इन्सान को इन्सान से क़रीब-तर करने के लिए ज़िंदा रहा।जिसे एक बार किसी अ’क़ीदत-मंद ने एक क़ैंची हदिया में दी थी तो उसने कहा था “मुझे क़ैंची नहीं चाहिए।सूई लाओ।मैं काटता नहीं हूँ, जोड़ता हूँ।
जिसकी ख़ानक़ाह में हाजत-मंदों, ग़रीबों,बे-कसों और दर्द-मंदों का हुजूम रहता था।जिसके आस्ताने पर बादशाहान-ए-उलुल-अ’ज़्म सर झुकाते थे और जहाँ हर मज़हब-ओ-मिल्लत के दर्द-मंद अपने दुख-दर्द की दवा पाते थे।
हज़रत बाबा फ़रीद की ख़ानक़ाह में जोगी भी आते थे।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाहि अ’लैह महबूब-ए-इलाही ने एक दिन अपनी मज्लिस में बयान किया कि-
एक-बार मैं हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में हाज़िर था कि एक जोगी आया।मैंने उस से पूछा तुम्हारा मसलक क्या है और तुम्हारे यहाँ अस्ल मक़्सूद क्या है? उसने कहा
“हमारे शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य की आत्मा के दो छत्र हैं। पहला छत्र सर से नाफ़ तक और दूसरा नाफ़ से पैरों तक।हमारी कोशिश ये होती है कि ऊपर के भाग में सत् गुण और पुण्य की भावनाएं रहें और नीचे के छत्र में ब्रह्मचर्य, पवित्रता और पाकी रहे।”
हज़रत निज़ामुद्दीन ने फ़रमाया कि मुझे उस जोगी की ये बातें बहुत पसंद आईं।हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह अपने मुरीदों और अ’कीदत-मंदों को ताकीद करते थे कि दुश्मनों के साथ भी नेकी का सुलूक करना चाहिए।फ़वाएदुल-फ़वाएद में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मल्फ़ूज़ात-ए-मुबारक हैं।
“मैं जब शैख़ुल इस्लाम फ़रीदुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में पहुँचा और उनसे बैअ’त की तो आपने चंद मर्तबा फ़रमाया कि दुश्मनों को ख़ुश करना चाहिए।और हक़-दारों का हक़ अदा कर के उन्हें राज़ी करने पर बहुत ज़ोर दिया।मुझे याद आया कि मुझ पर बीस जीतल का क़र्ज़ा वाजिब है और एक शख़्स से मैंने पढ़ने को एक किताब ली थी उसे वापस करना है मगर वो किताब मेरे पास से खो गई थी।मैंने दिल में तय कर लिया कि दिल्ली पहुँच कर सबसे पहले उन दोनों हक़-दारों के हुक़ूक़ अदा करूँगा।जब अजोधन से दिल्ली आया तो जिस बज़ाज़ के बीस जीतल देने थे उसके पास गया और उस से कहा मुझे तुम्हारे बीस जीतल देना है मगर मेरे पास ब-यक-वक़्त इतनी रक़म नहीं हो सकती इसलिए सिर्फ़ दस जीतल लाया हूँ।ये तुम लो और मैं वा’दा करता हूँ कि बाक़ी दस जीतल भी जल्द ही अदा कर दूँगा।उसने मेरी बातें सुनकर कहा अच्छा।तुम शैख़ फ़रीद के पास से आ रहे हो? जाओ बाक़ी रक़म मैंने मुआ’फ़ की।उसी तरह जब मैं उस शख़्स के पास गया जिसकी एक किताब मुझ से खो गई थी। मैं ने उससे कहा कि कहीं से नक़ल कराकर तुम्हें दे दूँगा तो उसने भी यही कहा कि जिस मुक़द्दस ख़ानक़ाह से तुम आ रहे हो उसकी तासीर ही ऐसी होती है।“वो किताब मुझे बख़्श दी।”
जिस नज़र-ए-कीमिया-असर का ये फ़ैज़ान था वो कैसी ज़िंदगी गुज़ारता था? उसके घर कई फ़ाक़े हो जाते थे।मुरीद जंगल से जाकर करेल के फूल लाते थे और उन्हें पानी में उबाल कर के सब खाते थे।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.)का बयान है कि जिस दिन करेल के उबाले हुए फूलों में नमक की एक डली भी पड़ जाती थी वो गोया ई’द का दिन होता था। बिस्तर का हाल हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.) ने यूँ बयान फ़रमाया:
“एक दिन शैख़ फ़रीद के सोने के वक़्त मैं हाज़िर था।मैंने देखा कि एक खाट बिछाया गया।वो कम्बल जिसको आप दिन में ओढ़ते थे उसको खाट के ऊपर बिछाया।कम्बल खाट के आख़िर तक नहीं पहुँता था।जहाँ आपके पैर होते थे,एक कपड़े का टुकड़ा पावनती को बिछा दिया गया। अगर उस टुकड़े को आप अपने ऊपर खींच लेते तो पैर की जगह ख़ाली रहती थी।एक अ’सा था जो आपको शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने दिया था।उस को लाते और खाट पर सिरहाने रख देते। शैख़ फ़रीद उस अ’सा पर तकिया लगा कर आराम करते। उस पर हाथ फेर फेर कर चूमते थे।”
एक तरफ़ ये फ़क़्र और बे-सर-ओ-सामानी थी दूसरी तरफ़ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का इतना हुजूम था कि ख़ानक़ाह के दरवाज़े आधी रात के बा’द बंद होते थे।आने जाने वालों को उ’मूमन खाना खिलाया जाता था। नक़्द और जिन्स के तोहफ़े दिए जाते थे।सुल्तान नासिरुद्दीन एक-बार मुल्तान जाते हुए अजोधन से गुज़रा तो अपने सारे लश्कर के साथ हज़रत बाबा फ़रीद की ज़ियारत करने आया।उसके आने की ख़बर सुनकर हज़रत किसी दूसरी जगह मुंतक़िल हो गए और लश्कर के रास्ते पर आपका कुर्ता लटका दिया गया जिसे हज़ारों लश्करी बोसा देकर गुज़रते जाते थे हत्ता कि वो कुर्ता तार-तार हो कर फट गया।
सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन उस ज़माने में उलुग़ ख़ाँ कहलाता था और मुल्तान का गवर्नर था।वो हज़रत शैख़ फ़रीद की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो कुछ नक़्द रुपया और चार गावों की मुआ’फ़ी के काग़ज़ात पेश किए।बाबा साहिब ने नक़्दी क़ुबूल फ़रमा ली और उसी वक़्त अपनी ख़ानक़ाह के दरवेशों में तक़्सीम कर दी मगर जागीर लेने से इंकार कर दिया और फ़रमाया कि ये दस्तावेज़ें उठा लो।उनके तलब-गार दूसरे बहुत से हैं।
इस इख़्तियारी फ़क्र-ओ-फ़ाक़ा के साथ ग़िना-ए-क़ल्बी का आ’लम और दिल-ओ-दिमाग़ की कैफ़ियत जो हमा-वक़्त इ’श्क़-ए-ख़ुदावंदी से सरशार और इन्सानियत के दर्द से दुखी रहते थे उनका हाल हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी (रहि.) की ज़बान-ए-मुबारक से सुनिए। ख़ैरुल-मजालिस में है:
अजोधन में दो भाई थे।दोनों सरकारी मुलाज़िम थे।एक भाई पर दरवेशी और तर्क-ए-दुनिया का ग़लबा हुआ और उसने मुलाज़मत तर्क कर दी। उस के बीवी बच्चों की किफ़ालत दूसरे भाई ने अपनी ज़िम्मे ले रखी थी।क़ज़ा-रा वो सख़्त बीमारा हुआ और उसके बचने की उम्मीद न रही।उस का भाई जो हज़रत बाबा फ़रीद (रहि.) की ख़ानक़ाह में रह कर याद-ए-इलाही में मसरुफ़ रहता था एक दिन बहुत सरासीमा-ओ-परागंदा हज़रत शैख़ फ़रीद की ख़िदमत में आया।आपने उस से पूछा
मोहम्मद शाह आज तुम बहुत ग़मगीन और परेशान हो। क्या मुआ’मला है ?
पीर-ओ-मुर्शिद!आप जानते हैं कि मेरा भाई सारे घर-बार को चला रहा है और मैं घर से बे-फ़िक्र हो कर यहाँ ज़िक्र-ओ-इ’बादत में मशग़ूल रहता हूँ। मगर अब वो दुनिया से रुख़्सत हो रहा है।मैं उसे जाँ-कनी के आ’लम में छोड़कर दुआ’ के लिए आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ हूँ।अगर मर गया तो शायद मैं इतनी दिल-जमई’ से इ’बादत भी न कर सकूँगा।
۔۔۔۔ इस वक़्त जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ की हालत है बस मैं ही जानता हूँ।।
” इस वक़्त जो तुम्हारे दिल-ओ-दिमाग की हालत है मैं तो साल-हा-साल से इसी कैफ़ियत में रहता हूँ मगर उसका इज़हार नहीं होता। ।। जाओ तुम्हारा भाई सेहत-याब हो चुका है और इस वक़्त खाना खा रहा है।”
और जब हज़रत शैख़ फ़रीद की ख़ानक़ाह से अपने घर आकर मोहम्मद शाह ग़ौरी ने देखा तो वाक़ई’ उनका भाई पलंग पर बैठा खाना खा रहा था। ये हज़रत बाबा साहिब की ज़बान-ए-मुबारक की तासीर थी।एक हदीस-ए-क़ुदसी है कि बंदा इ’बादत के ज़रिआ’ मेरा क़ुर्ब तलाश करता है तो मैं उसकी आँखें बन जाता हूँ वो मुझसे देखता है, मैं उस के कान बन जाता हूँ वो मुझसे सुनता है, मैं उसकी ज़बान बन जाता हूँ वो मुझसे बोलता है। इसी मज़मून-ए-हदीस को मौलाना रुम ने अपनी मसनवी में यूँ बयान किया है:
गुफ़्त:-ए-ऊ गुफ़्त:-ए-अल्लाह बुवद।
गर्चे अज़ हुल्क़ूम-ए-अ’ब्दुल्लाह बुवद।।
या’नी ख़ासान-ए-ख़ुदा की ज़बान से निकले हुए अल्फ़ाज़ ख़ुदा ही के अल्फ़ाज़ होते हैं,बंदे की ज़बान होती है।
बाबा फ़रीद ने एक दिन फ़रमाया था:
“चालीस साल तक बंदा मसऊ’द ने वही किया जो ख़ुदा चाहता था।अब ख़ुदा वो करता है जो मसऊ’द चाहता है”
ये तो बाबा साहिब की ज़बान-ए-हक़ तर्जुमान की करामत थी।आपके इरादत-मंदों के लिए आपके नाम में भी कितनी बरकत है उसका अंदाज़ा उन रस्मों से और औराद-ओ-आ’माल से होता है जो आज भी चिश्ती सिलसिले में जारी हैं।शिमाली हिन्दुस्तान में आज भी दुल्हन के साज़-ओ-सामान में बाबा फ़रीद का सुहाग शामिल होता है।ज़च्चा को दर्द-ए-ज़िह से नजात देने के लिए आज भी कौरी ठीकरी पर बाबा फ़रीद का टोना लिख कर पेट पर रखा जाता है।रास्ते के अम्न और चोरों से महफ़ूज़ रहने के लिए आज भी ये शे’र ता’वीज़ में लिखा जाता है।
इलाही ब-ख़ाक-ए-शकर गंज शाह
निगह-दार मा रा ज़े दुज़दान-ए-राह
और ये हज़रत बाबा फ़रीद के नाम ही की बरकत थी कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने आपकी डाढ़ी का एक बाल लेकर रख लिया था और जब कोई मुरीद आता था वो बाल ता’वीज़ के तौर पर दिया करते थे और सेहत-याब हो कर वो उसे वापस कर जाता था। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया फ़रमाते थे कि अगर किसी मरीज़ की क़िस्मत में शिफ़ा नहीं होती थी तो लाख तलाश करने पर भी वो बाल नहीं मिलता था।
हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली (रहि.) जो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही के ख़लीफ़ा और हज़रत ख़्वाजा बंदा-नवाज़ गेसू-दराज़ के पीर-ओ-मुर्शिद हैं फ़रमाते हैं:
सरसादा का एक शख़्स कुछ मुआ’फ़ी रखता था। एक बार उसके घर में आग लगी और मुआ’फ़ी के काग़ज़ात जल गए। वो उन दस्तावेज़ों की मुसद्दक़ा नक़ल हासिल करने के लिए सरसादा से दिल्ली आया और यहाँ महकमा वालों की बड़ी ख़ुशामद कर के सख़्त जिद्द-ओ-जहद के बा’द फरमान-ए-मुआ’फ़ी की नक़ल हासिल की। जब उसे मतलूबा दस्तावेज़ मिल गई तो ख़याल हुआ कि अब वतन वापस जाने से पहले कुछ दिल्ली की सैर भी करनी चाहिए।वो काग़ज़ उसने पगड़ी के अंदर रख लिया और दिल्ली में घूमता रहा।रात को जब सराय में वापस पहुंचा तो देखकर उसके पैरों तले की ज़मीन निकल गई कि वो दस्तावेज़ फिर गुम हो चुकी है। वो हवास बाख़्तगी के उसी आ’लम में सारे शहर की ख़ाक छानता रहा और रो-रो कर पुकारता था कि अगर किसी ने मेरा काग़ज़ देखा हो तो दे दो।आख़िर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह में आया और रो-रो कर दुआ’ की दरख़्वास्त की।हज़रत ने फ़रमाया कि
हमारे पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन रहमुल्लाहि अ’लैह की नियाज़ दिलाने को एक जीतल की मिठाई लाओ तो हम दुआ’ करेंगे।
वो शख़्स रात ही को बाज़ार गया। दुकानें बंद हो चुकी थीं। बड़ी तलाश के बा’द एक हलवाई की दुकान खुली हुई देखी और उस से एक जीतल की मिठाई तलब की। हलवाई ने मिठाई तोल कर उसे काग़ज़ में बाँधने के लिए रद्दी के ढ़ेर में से एक बड़ा सा काग़ज़ उठाया तो वही दस्तावेज़ थी जिसकी तलाश में परेशान फिर रहा था। उसने घबरा कर वो काग़ज़ हलवाई के हाथ से उचक लिया और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह में इस शान से वापस आया कि एक हाथ में वो काग़ज़ था और दूसरे हाथ से दामन को सँभाले हुए था जिसमें मिठाई भरी हुई थी। हज़रत ने मुस्कराकर फ़रमाया हमने तो पहले ही कहा था तुम हमारे शैख़ हज़रत बाबा फ़रीद की नियाज़ दिलाओ तो उसकी बरकत से ख़ुदा तुम्हारी परेशानी दूर कर देगा।
हज़रत बाबा फ़रीद की कश्फ़-ओ-करामत के लाखों क़िस्से अ’वामुन्नास की ज़बान पर हैं और उनसे किताबें भी भरी पड़ी हैं।बा’ज़ तो इतने फ़ौक़ुल-फ़ितरत और मुबालग़ा-आमेज़ हैं कि किसी तरह उन्हें अ’क़्ल बावर नहीं कर सकती।लेकिन हज़रत के मल्फ़ूज़ात “फ़वाएदुल फ़वाएद,अमीर-ए-ख़ुर्द किर्मानी की तालीफ़ सियरुल-औलिया और हमीद क़लंदर के जम्अ’ किए हुए हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के मल्फ़ूज़ात ख़ैरुल-मजालिस निहायत मुस्तनद किताबें हैं और उनके मुतालेए’ से हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर की शख़्सियत की जो तस्वीर उभरती है उसे प्रोफ़ेसर ख़लीक़ अहमद निज़ामी ने इन अल्फ़ाज़ में पेश किया है:
“हज़रत शैख़ फ़रीद(रही.)ने 1268 ई’स्वी में इंतिक़ाल फ़रमाया उस वक़्त से अब तक सात सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं और इस अ’र्सा में ये मुल्क कितने ही सियासी इन्क़िलाबात से गुज़रा है,कितने शाहान-ए-ऊलुल-अ’ज़्म आए और चले गए,कितनी सल्तनतें बनीं और बिगड़ गईं,कितनी तहज़ीबें उभरीं और डूब गईं, मगर उन सब हवादिस और तग़य्युरात के बावजूद बाबा फ़रीद का आस्ताना उसी तरह अ’वामुन्नास की अ’क़ीदत और मोहब्बत का मरकज़ और उनकी रुहानी प्यास बुझाने वाला सर-चश्मा बना रहा है।अमीर-ए-तैमूर जैसा सफ़्फ़ाक जंग-जू जिसके रास्ते में जो शहर भी आया वो आग और ख़ून में नहाए ब-ग़ैर न रहा जब अजोधन पहुँचा तो उसने अपनी ख़ून- आशाम तल्वार नियाम में रख ली थी और अपने लाव-ओ-लश्कर समेत बाबा फ़रीद के मज़ार पर फ़ातिहा-ख़्वानी के लिए हाज़िर हुआ था। आने वाली नस्लों ने बाबा साहिब से अपनी अ’क़ीदत और गहरी मोहब्बत को सदियों से ज़िंदा रखा है। हर दौर में हिंदू मुसलमान और सिख यकसाँ तौर पर उनकी याद से अपने दिलों को गरमाते रहे हैं। जब तक बाबा साहिब ब-क़ैद-ए-हयात थे आ’म लोग उन के फ़ुयूज़-ओ-बरकात हासिल करने के लिए दूर-दूर से आते थे।उनमें खुरासान, जुरजान, दिल्ली ओछ, नागौर, मुल्तान, अजमेर, बिहार और लखनौती तक के मुसाफ़िर होते थे। उनमें वज़ीर भी होते थे, ज़मीन-दार भी, सिपाही, सूफ़ी, ताजिर, आ’लिम, पेशा-वर फ़ुक़रा और मेहनत-कश सभी बाबा साहिब के क़दमों में अपना सर झुकाने आते थे।’’
बाबा फ़रीद (रही.)की अ’ज़्मत एक मोहब्बत करने वाले दर्द-मंद दिल की अ’ज़्मत थी।वो शब-ओ-रोज़ मुसीबत-ज़दा और दुखी इन्सानों की फ़रियाद सुनते और उनका मुदावा करते थे।उनके ज़ख़्मों पर अपनी शफ़क़त भरी दुआ’ओं से मरहम रखते थे। उनकी टूटी हुई आस बंधाते थे।उनमें ज़िंदगी गुज़ारने का हौसला और वलवला पैदा करते थे।कितने मुख़्तलिफ़ मसाएल थे जो सुब्ह से शाम तक उनके सामने पेश होते थे।कोई कहता था हुज़ूर मेरी कई लड़कियाँ हैं।वो सियानी हो गई हैं।मुझे उनकी शादी की फ़िक्र है।दुआ’ कीजिए कि मैं उनके फ़र्ज़ से सुबुक-दोश हो जाऊँ।
और कोई यूँ अपनी मुसीबत बयान करता था।
हज़रत मेरा मालिक बहुत ज़ालिम और बे-रहम है।मुझे कोई ऐसा ता’वीज़ दे दीजिए कि उसके ज़ुल्म से महफ़ूज़ रहूँ।
कोई यूँ फ़रियाद करता था:
मालिक मेरे गाँव पर फ़ौज ने यूरिश की थी और मेरी बीवी को क़ैद कर के ले गए।मुझे मेरी बीवी नहीं मिलेगी तो मर जाऊँगा।।। मर जाऊँगा।
और हज़रत बाबा फ़रीद उन सब दुखियारों की बिपता सुनते थे।अपनी ख़ानक़ाह में आने वाले हर शख़्स को कुछ न कुछ खाने के लिए मरहमत फ़रमाते थे। कभी नक़्दी देते थे।फिर उसकी मुश्किल हल करने के लिए कभी किसी बादशाह, अमीर या वज़ीर को सिफ़ारिशी ख़त लिखते। कभी ता’वीज़ देते। कभी ख़ुद उसके लिए दुआ’ करते।कभी कोई वज़ीफ़ा पढ़ने के लिए हुक्म देते थे। बाबा साहिब के आख़िरी ज़माना-ए-उ’म्र में सुल्तान ग़्यासुद्दीन बलबन हुक्मराँ था।वो कैसे जलाल-ओ-जबरूत वाला और किस तनतने और दबदबे की हुकूमत करने वाला शहनशाह था उस का हाल तारीख़ के तालिब-ए-इ’ल्म ही जान सकते हैं। उसके दरबार में हज़ारों उमरा में से सिर्फ़ चंद मख़्सूस अमीरों ही को शहनशाह से हम-कलाम होने की इ’जाज़त हासिल थी। बाक़ी सब दरबारी बुत बने खड़े रहते थे।और आदाब-ए-दरबार का उसे इतना ख़याल और पास था कि अपने चहेते बेटे की शहादत की ख़बर सुनकर भी शहनशाह को दरबार में किसी ने मुतहर्रिक होते नहीं देखा। मगर उसी बलबन को एक शख़्स की सिफ़ारिश करते हुए हज़रत बाबा फ़रीद ने ख़त लिखा था:
” शहना-ए-दिल्ली बलबन के नाम। मैंने इस शख़्स का मुआ’मला ख़ुदा के हुज़ूर में पेश किया था और अब ख़ुदा के हुक्म से तेरे सामने पेश करता हूँ।अगर तू इसे कुछ देगा तो दर-हक़ीक़त देना ख़ुदा ही की सिफ़त है मगर तेरा शुक्रिया अदा किया जाएगा।और अगर तू ने इस शख़्स का काम न किया तो दर-अस्ल मानेअ’ ख़ुदा ही की ज़ात है,तुझे मा’ज़ूर समझा जाएगा।”
जिस वक़्त बाबा साहिब का ये रुक़आ’ बलबन को सर-ए-दरबार दिया गया उसने खड़े हो कर दोनों हाथों से लिया, पढ़ा,चूमा,आँखों से लगाया और सर पर रख कर बे-साख़्ता दरबार में रक़्स करना शुरूअ’ कर दिया था क्योंकि बलबन जानता था कि मेरा सिक्का सोने और चाँदी की ठिकरियों पर है मगर उस बे-सर-ओ-सामन फ़क़ीर की हुकूमत दिलों पर है।मेरी हुकूमत चन्द रोज़ा है, मगर उस दरवेश की सल्तनत दवाम-आश्ना है।
हज़रत बाबा फ़रीद ने 664 हिज्री या’नी 1365 ई’स्वी में मुहर्रम की पाँचवीं तारीख़ को इंतिक़ाल फ़रमाया।उस वक़्त आपकी उ’म्र 93 साल हो चुकी थी।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने उनके आख़िरी वक़्त का हाल यूँ बयान किया है:
“मुहर्रम की पाँचवीं तारीख़ को हज़रत शैख़ की बीमारी ग़ालिब आ गई।रात की नमाज़ उन्होंने जमाअ’त से पढ़ी और कुछ देर के बा’द बे-होश हो गए।थोड़ी देर में होश आया तो दर्याफ़्त किया क्या मैंने इ’शा की नमाज़ पढ़ ली है? लोगों ने कहा जी हाँ। फ़रमाया चलो एक-बार फिर पढ़ लें,फिर किसे ख़बर है क्या होगा।दुबारा फिर नमाज़ पढ़ कर बे-होश हो गए। फिर होश में आए तो यही सवाल किया क्या मैंने इ’शा की नमाज़ पढ़ ली है? हाज़िरीन ने कहा जी हाँ। दुबारा पढ़ी है। फ़रमाया ख़ैर एक-बार और पढ़ लें,कल ख़ुदा जाने क्या हो।
तीसरी बार नमाज़ पढ़ कर आपने ब-आवाज़-ए-बुलंद कहा:
या हय्यु या क़य्यूम या हय्यु या क़य्यूम या हय्यु या क़य्यूम और रूह-ए-मुबारक क़फ़स-ए-उं’सुरी से परवाज़ कर गई।
ये ज़िंदगी एक ऐसे दरवेश की है जिसने हर इन्सान के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझा।जिसने इन्सान को इन्सान से मोहब्बत करना सिखाया। जिसने टूटी हुई उम्मीदों को जोड़ा। गिरते हुए लोगों को सहारा दिया। जो ख़ुदा की मोहब्बत में ज़िंदा रहा और उसी के इ’श्क़ में फ़ना हो गया। जिसकी आवाज़ें आज भी पंजाब की फ़ज़ाओं में गूंज रही हैं।
(ऑल इंडिया रेडियो नई दिल्ली से नश्रिया)
साभार – मुनादी पत्रिका
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