हज़रत शैख़ अबुल हसन अ’ली हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैहि

नाम-ओ-नस्बः-

अबुल हसन कुन्नियत और अ’ली नाम है। हुज्वेर और जलाब  ग़ज़नी के दो गाँव हैं। शुरुअ’ में उनका क़ियाम यहीं रहा,इसलिए हुज्वैरी और जलाबी कहलाए।आख़िरी ज़िंदगी में लाहौर आ कर रहे, इसलिए लाहौरी भी मशहूर हुए। साल-ए-वफ़ात सन 400 हिज्री बताया जाता है। पूरा सिल्सिला-ए-नसब ये है। अ’ली बिन सय्यद उ’स्मान बिन सय्यद अ’ली बिन अ’ब्दुर्रहामन बिन शाह शुजाअ’ बिन अबुल हसन अ’ली बिन हसन असग़र इब्न-ए-सय्यद ज़ैद शहीद बिन इमाम हसन बिन अ’ली-ए-मुर्तज़ा।

ता’लीमः-

तहसील-ए-इ’ल्म की तफ़्सील कुछ ज़्यादा मा’लूम नहीं। कश्फ़ुल-महजूब में अपने असातिज़ा में हज़रत अबुल अ’ब्बास बिन मोहम्मद -अल-अशकानी का नाम लिया है, जिनके बारे में लिखते हैं:-

अपने अ’हद के इमाम-ए-यक्ता और अपने तरीक़ में यगाना थे। इ’ल्म-ए-उसूल-ओ-फ़ुरू’ में इमाम, और मआ’नी में बुलंद थे। बहुत से मशाइ’ख़ को देखा था और अकाबिर-ओ-अजिल्ला अहल-ए-तसव्वफ़ में थे।अपनी राह को फ़ना से ता’बीर करते थे।मुग़लक़ इ’बारत उनके साथ मख़्सूस थी। जाहिलों के एक गिरोह ने उनकी इ’बारत की तक़लीद की, लेकिन तक़लीद में जो इ’बारतें लिखी गईं, वो परागंदा होती थीं।मुझको उनसे बड़ा उन्स था, और वो मेरे साथ सच्ची मोहब्बत कते थे। बा’ज़ उ’लूम में वो मेरे उस्ताद थे। जब तक मैं उनके पास रहा किसी को उनसे ज़्यादा शरीअ’त का एहतिराम करते न देखा।तमाम मौजूदात से वो किनारा-कश हो गए थे । इमाम मुहक़्क़िक़ के सिवा उनको किसी से फ़ाइदा न पहुँचा था। इ’ल्म-ए-उसूल में उनकी इ’बारत बहुत दक़ीक़ होती थी। उनकी तबीअ’त हमेशा दुनिया-ओ-उ’क़्बा से मुतनफ़्फ़िर रहती थी,और बराबर शोर करते कि अश्तही अ’दमल-ला-वजू-द-लहु।“या’नी मैं उस अ’दम को चाहता हूँ जिसका वजूद नहीं”,और फ़ारसी में कहतेः

“हर आदमी रा बाइस्त मुहाल बाशद मरा नीज़ बाइस्तनी मुहाल अस्त कि ब-यक़ीन दानम कि आँ न-बाशद “और वो ये है कि ख़ुदावंदा तआ’ला मुझको उस अ’दम की तरफ़ ले जाए, कि जहाँ अ’दम का वजूद न हो। मक़ामात और करामात महज़ हिजाब-ओ-बला हैं। आदमी अपने हिजाब का आ’शिक़ है। दीदार की आरज़ू की नीस्ती हिजाबात के आराम से बेहतर है। सिर्फ़ हक़ जल्ला-शानुहु की हस्ती है कि उसके लिए अ’दम नहीं है। उसके मालिक का क्या नुक़सान अगर मैं नीस्त हो जाऊँ, और उस नीस्त की कोई हस्ती न हो, और यही सेहत-ए-फ़ना का अस्ली क़ुवा है।

हज़रत शैख़ अबुल अ’ब्बास अशकानी का ज़िक्र एक जगह और करते हुऐ तहरीर फ़रमाते हैं, कि एक रोज़ शैख़ के पास आया, तो देखा कि ये कहते हैं, ज़रबल्लाहु मसलन अ’ब्दन म्मलूकन ला यक़्दिरु अ’ला शैइन, या’नी अल्लाह तआ’ला ने मम्लूक ग़ुलाम की मिसाल दी जो किसी चीज़ पर क़ुदरत न रखता हो”, और रोते हैं , और फिर ना’रा लगाते हैं। पूछा कि ऐ शैख़ ये क्या हाल है, तो फ़रमाया कि ग्यारह साल से इस मक़ाम पर हूँ लेकिन आगे नहीं बढ़ता हूँ।

अपने एक और उस्ताद शैख़ अबू जा’फ़र मोहम्मद बिन अल-मिस्बाह अस्सैदलानी का ज़िक्र करते हुए रक़म-तराज़ हैं:-

वो रुउसा-ए-मुतसव्वुफ़ में थे।तहक़ीक़ में उनकी ज़बान अच्छी थी।हुसैन बिन मंसूर से बहुत मोहब्बत करते थे। मैं ने उनकी बा’ज़ तसानीफ़ उन्हीं से पढ़ीं।

शैख़ अबुल क़ासिम अ’ब्दुल करीम बिन हवाज़िन अल-क़ुशैरी से भी इस्तिफ़ादा किया, गो उनके नाम के साथ “उस्ताद” बराबर लिखते हैं, लेकिन वाज़ेह तौर पर कहीं ये ज़ाहिर नहीं किया है कि उनसे शागिर्दी का भी रिश्ता था, मगर उनके इ’ल्म और उनकी तसानीफ़ की ता’रीफ़ की है,और उनके ऐसे अक़्वाल भी नक़ल किए हैं जो उनकी ज़बान से ख़ुद सुने।शैख़ अबुल क़ासिम बिन अ’ली बिन अ’ब्दुल्लाह अल-गुरगानी को भी अपना मुअ’ल्लिम तस्लीम किया है।चुनाँचे उनके ज़िक्र में लिखा है कि उनसे इ’ज्ज़-ओ-नियाज़ की ता’लीम पाई,और ये लिख कर कहते हैं :

मरा वय असरार-ए-बिस्यार बूद, अगर ब-इज़्हार-ए-आयात-ए-वय  मशग़ूल कर्दम अज़ मक़सूद न-मानम”।

अइम्मा-ए-मुतआख़्ख़िरीन में अबुल अ’ब्बास अहमद बिन मोहम्मद अल-क़स्साब, अ’ब्दुल्लाह मोहम्मद बिन अ’ली अल-मा’रूफ़ ब-ज़िस्तानी अबू सई’द फ़ज़्लुल्लाह बिन मोहम्मद।और अबू अहमद अल-मुज़फ़्फ़र बिन अहमद बिन हमदान उनका ज़िक्र ख़ास तौर पर लुत्फ़-ओ-लज़्ज़त के साथे किया है।उनकी तसानीफ़-ओ-ता’लीमात से मुस्तफ़ीज़ हुए हैं।

ख़्वाजा अबू अहमद अल-मुज़फ़्फ़र की ता’लीमात-ए-फ़ना-ओ-बक़ा और मुजाहदा-ओ-मुशाहदा से मुतअस्सिर थे, और उनकी सोहबत का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, कि एक रोज़ उनके पास सख़्त गर्मी के मौसम में उलझे हुए बालों के काथ पहुंचा। उन्होंने देख कर पूछा क्या चाहते हो? अ’र्ज़ किया समाअ’। उन्होंने फ़ौरन क़व्वाल को बुलाया।जब मज्लिस-ए-समाअ’ शुरू’ हुई तो मुझ पर बे-क़रारी तारी रही और जब मेरा जोश–ओ-ख़रोश ख़त्म हुआ तो तो पूछा कि समाअ’ का क्या मज़ा रहा।अ’र्ज़ किया कि ऐ शैख़ मेरे लिए तो बहुत अच्छा था। फ़रमाया एक वक़्त ऐसा आएगा कि ये समाअ’ और कौवे की आवाज़ तुम्हारे लिए यकसाँ हो जाएगी। समाअ’ में क़ुव्वत उस वक़्त तक है जब तक मुशाहदा नहीं होता और जब मुशाहदा हो जाएगा, शैक़-ए-समाअ’ जाता रहेगा। लेकिन ख़याल रखो कि ये आ’दत जुज़्व-ए-तबीअ’त न बन जाए।

ता’लीम-ए-तरीक़तः-

बातिनी-ओ-रूहानी ता’लीम अबुल फ़ज़्ल मोहम्मद बिन अल हसन ख़तली से पाई, जो जुनैदिया सिलसिला में मुंसलिक थे। उनके हाल में लिखते हैं:-

औताद की ज़ीनत और आ’बिदों के शैख़ थे। मेरी इक़्तिदा-ए-तरीक़त उन्हीं  से हुई। इ’ल्म-ए-तफ़्सीर-ओ-रिवायात के आ’लिम थे,और तसव्वुफ़ में मज़हब–ए-जुनैद के पाबंद और हसरी के मुरीद थे। बीरवानी के दोस्त और अबू उ’मर क़ज़वीनी और अबुल हसन बिन सालबा के मुआ’सिर थे। साठ सात तक गुमनामी की हालत में गोशा-नशीन होकर लोगों से दूर रहे।क़ियाम ज़्यादा तर कोह लगाम में रहता था। अच्छी उ’मर पाई।उनकी विलायत की बहुत सी दलीलें  थीं। लिबास और आसार-ए-ज़ाहिरी मुतस्सविफ़ीन के न थे। ज़ाहिरी रस्म की पाबंदी करने वालों की मुख़ालफ़त शिद्दत से करते थे। उनसे ज़्यादा किसी पर रो’ब नहीं देखा”।

मुर्शिद का विसाल मुरीद के ज़ानू पर हुआ।तहरीर फ़रमाते हैं :

जिस रोज़ आपकी वफ़ात हुई, आप बैतुल-जिन में थे। ये गाँव एक घाटी पर दमिश्क़ और मानियाज़री के दर्मियान है। उस वक़्त आपका सर मेरी गोद में था। मेरे दिल को बड़ी तकलीफ़ हो रही थी।मैं ने इसका इज़हार एक दोस्त से किया, जैसा कि आ’म लोगों की आ’दत होती है। आपने मुझ से कहा ऐ बेटे ऐ’तिक़ाद का मस्अला तुमको बताता हूँ। अगर तुम अपने को उसके मुताबिक़ दुरुस्त कर लो तो तमाम तकलीफ़ों से तुमको रिहाई हो जाए। तुमको मा’लूम होना चाहिए कि ख़ुदा हर जगह और हर वक़्त अच्छों और बुरों को पैदा करता है, मगर उसके फ़े’ल से दुश्मनी करना नहीं चाहिए,और न दिल में किसी तकलीफ़ को जगह देना चाहिए। सिवाए इसके वसियय्यत का सिलसिला दराज़ नहीं किया, और जान ब-हक़ हुए।

सियाहतः-

रूहानी कसब-ए-कमाल के लिए तमाम इस्लामी ममलिक शाम, इ’राक़, बग़दाद, पारस, क़ुहिस्तान, आज़रबाइजान, तब्रिस्तान, ख़ूज़िस्तान, किर्मान, ख़ुरासान, मावरा-अन्नहर और तुर्किस्तान वग़ैरा का सफ़र किया, और वहाँ के औलिया-ए-उ’ज़्ज़ाम और सूफ़िया-ए-किराम की रूह-परवर सोहबतों से मुस्तफ़ीज़ हुए। ख़ुरासान में वो तीन सौ मशाइख़ से मिले जिनमें शैख़ मोहम्मद ज़ई बिन अल-उ’ला, शैख़ अल-क़ासिम सुदसी, शैख़ुश्शुयूख़ अबुल हसन इब्न-ए-सालबा, शैख़ अबू इस्हाक़ बिन शहरयार,शैख़ अबुल हसन अ’ली बिन बकरान, शैख़ अबू अ’ब्दुल्लाह जुनैदी,शैख़ अबू ताहिर मकशूफ़, शैख़ अहमद बिन शैख़ ख़िर्क़ानी, ख़्वाजा अ’ली बिन अल-हुसैन, अस्सीरकानी, शैख़ मुज्तहिद अबुल अ’ब्बास दामग़ानी,ख़्वाजा अबू जा’फ़र मोहम्मद बिन अ’ली अल-जौदीनी, ख़्वाजा रशीद मुज़फ़्फ़र इब्न-ए-शैख़ अबू सई’द, ख़्वाजा शैख़ अहमद जमादी सरख़सी और शैख़ अहमद नज्जार समरक़ंदी से ख़ास तौर पर मुतअस्सिर हुए।

मंज़िल-ए-सुलूक के तय करने में जो मुजाहदे किए उनमें एक अ’जीब-ओ-ग़रीब वाक़िआ’ ख़ुद ही ये बयान किया है, कि मैं एक मर्तबा शैख़ अबू यज़ीद रहमतुल्लाह अ’लैह के मज़ार पर तीन महीने तक हाज़िर रहा।हर रोज़ ग़ुस्ल और वज़ू कर के बैठता था, मगर वो कश्फ़ हासिल न हुआ, जो एक बार वहीं हासिल हो चुका था। आख़िर में वहाँ से उठ कर ख़ुरासान की तरफ़ चला गया।एक गाँव में पहुँचा तो एक ख़ानक़ाह में मुतसव्विफ़ीन की एक जमाअ’त नज़र आई। मैं उस जमाअ’त की नज़र में बहुत ही हक़ीर मा’लूम हुआ। उन में से कुछ लोग कहने लगे कि ये हम में से नहीं है, और वाक़ई’ मैं उन में से न था। उन्होंने मुझको ठहरने के लिए एक कोठा दिया, और वो ख़ुद ऊँचे कोठे पर ठहरे। खाने के वक़्त मुझको तो सूखी रोटी दी, और ख़ुद अच्छा खाना खाया। खाने के बा’द तमस्ख़ुर से ख़र्बूज़ा के छिलके मेरे सर पर फेंकते थे, और तंज़ की बातें करते थे। मगर वो जितना ज़्यादा तंज़ करते थे उतना ही मेरा दिल उनसे ख़ुश होता था, यहाँ तक ज़िल्लत उठाते उठाते वो कश्फ़ हासिल हो गया,जो इससे पहले न हुआ था। उस वक़त मुझको मा’लूम हुआ कि मशाइख़ जाहिलों को अपने यहाँ क्यूँ जगह देते हैं।

एक और मौक़ा’ पर तहरीर फ़रमाते हैं कि एक मर्तबा शाम में हज़रत बिलाल मुअ’ज़्ज़िन के रौज़ा के सिरहाने सो रहा था कि ख़्वाब में देखा कि मक्का मुअ’ज़्ज़मा में हूँ और पैग़म्बर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम बाबुन-नबी से अंदर दाख़िल हो रहे हैं और एक बूढ़े आदमी को गोद में लिए हुए हैं, जैसे कोई किसी बच्चा को लिए हुए हो। मैने आगे बढ़ के क़दम चूमे और हैरान था कि गोद में ये बूढ़ा शख़्स कौन है? आपको मेरे दिल का हाल मा’लूम हो गया, और फ़रमाया कि ये तेरा और तेरे दयार वालों का इमाम है ,या’नी अबू हनीफ़ा। इस ख़्वाब से मुझ पर ये ज़ाहिर हुआ कि इमाम अबू हनीफ़ा जिस्मानी तौर से फ़ानी हो चुके हैं, मगर अहकाम-ए-शरई’ के लिए बाक़ी और क़ाएम हैं, और उनके हामिल पैग़म्बर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम हैं।

इ’राक़ में थे तो ख़ुद उनका क़ौल है कि दुनिया हासिल कर के लुटा रहे थे। जिस किसी को कोई ज़रूरत होती, उनकी तरफ़ रुजूअ’ करता। ऐसे लोगों की ख़्वाहिश पूरी करने में मक़रूज़ हो गए। एक शैख़ ने उनको लिख भेजा कि ऐ फ़रज़न्द , कहीं इस क़िस्म की मशग़ूलियत में ख़ुदा की मशग़ूलियत से दूर न हो जाओ, और ये मशग़ूलियत हवा-ए-नफ़्स है। अगर कोई ऐसा शख़्स हो जिसका दिल तुम से बेहतर हो, तो ऐसे दिल की तुम ख़ातिर कर सकते हो। तमाम लोगों के लिए दिल परेशान न रखो, क्यूँकि अल्लाह ख़ुद ही अपने बंदों के लिए काफ़ी है। इस पंद-ओ-मौइ’ज़त से उनको क़ल्बी सूकून हासिल हुआ, और ख़ुद अपनी किताब कश्फ़ुल-महजूब में भी इसकी ता’लीम दी है।चुनाँचे फ़रमाते हैं कि मख़्लूक़ से क़त्अ’-ए- तअ’ल्लुक़ करना गोया बला से छूट जाना है। एक इंसान के लिए ज़रूरी है कि वो किसी की तरफ़ न देखे ताकि उसकी तरफ़ भी कोई न देखे।

मख़्लूक़ से इंक़िता-ए’-तअ’ल्लुक़ के बावजूद उनका बयान है कि वो चालीस साल तक मुसलसल सफ़र में रहे, लेकिन कभी जमाअ’त की नमाज़ नाग़ा नहीं की, और हर जुमआ’ को नमाज़ के लिए किसी क़स्बा में कियाम फ़रमाया।

अपने मुर्शिद ही की तरह सूफ़ियों के ज़ाहिरी रुसूम से नफ़रत करते थे। इन ज़ाहरी रुसूम को मा’सियत-ओ-रिया कहते हैं और उनकी सोहबत को तोहमत का मक़ाम क़रार देते थे।चुनाँचे इस हदीस (मन का-न-मिंकुम यूमिनु बिल्लाहि वल-यौमिल-आख़िरि- फ़ला-यक़िफ़ मवाफ़िक़त-तोहम) को लिख कर ख़ुदावंद तआ’ला से अपने लिए इसी की तौफ़ीक़ अ’ता करने की दु’आ की है।या’नी जब कोई अल्लाह और क़ियामत पर ईमान रखता हो तो उसको मक़ाम-ए-तोहमत में खड़ा न होना चाहिए।

अज़दवाजी ज़िंदगीः-

तआ’ल्लुक़ात-ए-ज़ना शवी से पाक रहे।कश्फ़ुल-महजूब में लिखते हैं कि एक साल तक किसी से ग़ाइबाना इ’श्क़ रहा, मगर जब उसमें ग़ुलू पैदा होने लगा और क़रीब था कि उनका दीन तबाह हो जाए तो अल्लाह तआ’ला ने अपने कमाल-ए-लुत्फ़ से उस इ’श्क़-ए-मजाज़ी के फ़ित्ना से उनको बचा लिया।

वुरूद-ए-लाहौरः-

फ़ाइदुल-फ़ुवाद (सफ़हा 35) में हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया फ़रमाते हैं –

“शैख़ हुसैन ज़नजानी और शैख़ अ’ली हुज्वेरी दोनों एक ही पीर के मुरीद थे, और उनके पीर अपने अ’हद के क़ुतुब थे।हुसैन ज़नजानी अ’र्सा से लहावर (लाहौर) में सुकूनत-पज़ीर थे।

कुछ दिनों के बा’द उनके पीर ने ख़्वाजा अ’ली हुज्वेरी से कहा कि लाहौर में जाकर क़ियाम करो।शैख़ अ’ली हुज्वेरी ने अ’र्ज़ किया कि वहाँ शैख़ ज़नज़ानी मौजूद हैं। लेकिन फ़िर फ़रमाया कि तुम जाओ। जब अ’ली हुज्वेरी हुक्म की ता’मील में लहावर आए तो रात थी। सुब्ह को शैख़ हुसैन का जनाज़ा बाहर लाया गया”।

मा’लूम होता है कि लाहौर आ कर फिर अपने मुर्शिद क पास वापस गए, क्यूँकि ऊपर बयान किया जा चुका है कि वो मुर्शिद के विसाल के वक़्त उनके पास मौजूद थे। मुम्किन है कि वफ़ात के बा’द फिर लाहौर आए हों, लेकिन बहर-हाल लाहौर के क़ियाम से ख़ुश नहीं थे। एक जगह रक़म-तराज़ हैं-

“कुतुब-ए-मन ब-हज़रत-ए-ग़ज़नैन मांदः-बूद, मन अंदर दयार-ए-हिंद दर बल्दा-ए-लाहौर कि अज़ मज़ाफ़ात-ए-मुल्तान अस्तू दर्मियान-ए- ना-जिंसान गिरफ़्तार शुदः-बूदम”।

हिंदुस्तान के सफ़र में एक शख़्स को देखा जो इ’ल्म-ए-तफ़्सीर-ओ-तज़्कीर का मुद्दई’ था।मक़म-ए-फ़ना और बक़ा में उसने मुझसे मुबाहसा किया ।उसकी तक़रीर से मुझको फ़ौरन मा’लूम हो गया कि वो फ़ना और बक़ा से बिलकुल ना-आशना है, बल्कि उसको हादिस और क़दीम का भी फ़र्क़ नहीं मा’लूम था”।(ज़िक्र-ए-बक़ा-ओ-फ़ना)

वफ़ातः-

आख़िरी ज़िंदगी तक लाहौर ही में क़ियाम-पज़ीर रहे, और यहीं अबदी नींद सो रहे हैं।साल-ए-वफ़ात सन 465 हिज्री है। इंतिक़ाल के बा’द मज़ार ज़ियारत-गाह बन गया। हज़रत ख़्वजा मुई’नुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अ’लैह ने उनकी क़ब्र पर चिल्ला किया, और जब मुद्दत ख़त्म कर के रुख़्सत होने लगे तो ये शे’र पढ़ा:

गंज-बख़्श-ए-हर दो-आ’लम मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा

कामिलाँ रा हुनर-ए-कामिल नाक़िसाँ रा राहनुमा

तज़्किरा-निगारों का बयान है कि गंज-बख़्श के नाम से शोहरत का सबब यही है।अ’वाम दाता बख़्श कहतें हैं। हज़रत फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाह अ’लैह ने भी उनके मज़ार पर चिल्ला-कशी की थी, जो उनके आ’ला रूहानी कमाल की दलील है। उनका मज़ार हर ज़माना में मर्जा’-ए-ख़लाइक़ रहा है। दाराशिकोह अपने ज़माना का हाल लिखता हैः-

“ख़ल्क़े अंबोह बर शब-ए-जुमआ’ ब-ज़ियारत-ए-आँ रौज़ा-ए-मुनव्वरा मुशर्रफ़ मी-गर्दंद-ओ-मशहूर अस्त कि हर कि चहल शब-ए-जुमआ’ या चहल रोज़ पैहम तवाफ़-ए-रौज़ः-ए-शरीफ़ः-ए-ईशां ब-कुनद, हर हाजते कि दाश्तः बशद हुसूल मी-इंजामद, फ़क़ीर नीज़ ब-ज़ियारत-ए-रौज़ः-ए-मुनव्वरः-ए-ईशां-ओ-वालिदैन-ओ-ख़ाल-ए-ईशां मुशर्रफ़ गश्तः”।

तसानीफ़ः-

कश्फ़ुल-महजूब के अ’लावा उनकी तस्नीफ़ात में से हसब-ए-ज़ैल किताबों के नाम मिलते हैं-

1.    मिन्हाजुद्दीन: इसमें अहल-ए-सुफ़्फ़ा के मनाक़िब लिखे थे। बक़िया और किताबों के मज़ामीन उनके नाम से ज़ाहिर हैं।

2.    कितबुल-फ़ना-वल-बक़ा

3.    असरारुल-ख़िरक़-वल-मऊनात

4.    किताबुल-बयान लि-अहलिल-अ’यान

5.    बहरुल-क़ुलूब

6.    अर्रिआ’या लि-हुक़ूक़िल्लाह

शे’र-ओ-शाइ’री से भी ज़ौक़ रखते थे।कश्फ़ुल-महजूब में अपने एक दीवान का भी ज़िक्र किया है।उनकी तहरीर से उनकी दो और किताबों का भी पता चलता है।

“पेश अज़ीं अंदर शर्ह-ए-कलाम-ए-वय (मंसूर हल्लाज) किताबे-साख़तःअम”

“मन अंदर बयान-ए-ईं (ईमान)किताबे कर्दः जुदागानः”|

लेकिन उन किताबों में से अब किसी का भी पता नहीं हैं।हम तक उनकी सिर्फ़ कश्फ़ुल-महजूब पहुँची है, जो हर ज़माना में अपनी नौइ’य्यत के लिहाज़ से बे-मिस्ल समझी गई है। फ़ारसी ज़बान में तसव्वुफ़ की ये पहली किताब है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का इर्शाद है कि जिसका कोई मुर्शिद न हो, उसको कश्फ़ुल-महजूब के मुतालिआ’ की बरकत से मिल जाएगा। हज़रत शरफ़ुद्दीन यहया  मनेरी रहमतुल्लाह अ’लैह अपने मक्तूबात में इस किताब का जा-बजा ज़िक्र फ़रमाते हैं। हज़रत जहाँगीर अशरफ़ सिमनानी के मलफ़ूज़ात लताइफ़-ए-अशरफ़ी में इसका हवाला ब-कसरत मौजूद है। मुल्ला जामी रक़म-तराज़ हैं –

कश्फ़ुल-महजूब अज़ कुतुब-ए-मो’तबर: मशहूर दर ईं फ़न्न अस्त-ओ-लताइफ़-ओ-हक़ाइक़ दर आँ तिताब जम्अ’ कर्दः अस्त”।

दारा शिकोह लिखता हैः-

हज़रत अ’ली हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह रा तस्नीफ़ बिस्यार अस्त अम्मा कश्फ़ुल-महजूब मशहूर-ओ-मा’रूफ़ अस्त-ओ-हेच कस बर-आँ  सुख़न नीस्त-ओ-मुर्शिदी अस्त कामिल, दर कुतुब-ए-तसव्वुफ़ ब-ख़ूबी आँ दर ज़बान-ए-फ़ारसी किताबे तस्नीफ़ न-शुद”।

कश्फ़ुल-महजूब की तस्नीफ़ का सबब अबू हुज्वेरी का एक इस्तिफ़सार है, जो तसव्वुफ़ के रुमूज़-ओ-इशारात को हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह से समझना चाहते हैं,उसी के जवाब में शैख़ ने तसव्वुफ़ के तमाम पहलुवों पर रौशनी ड़ाली है, जिस से कश्फ़ुल-महजूब क़ाबिल-ए-क़द्र किताब बन गई है। इसके ज़रिआ’ गोया पहली मर्तबा इस्लामी तसव्वुफ़ को हिंदुस्तान में पेश किया गया है इसलिए इसके मबाहिस नाज़िरीन के सामने ज़्यादा तफ़्सील से पेश किय जाते हैं।

इ’ल्मः-

किताब का पहला बाब इ’ल्म की बहस से शुरुअ’ होता है।इस बाब में पाँच फ़स्लें हैं। शुरुअ’ में कलाम-ए-मजीद और अहादीस-ए-नबवी की रौशनी में इ’ल्म की अहमियत दिखा कर ये बताया है कि इ’ल्म ही के ज़रिआ’ एक सालिक मरातिब और दरजात के हुसूल के क़ाबिल होता है।और ये उसी वक़्त मुमकिन है जब वो अपने इ’ल्म पर भी अ’मल करता हो।फिर इ’ल्म की दो क़िस्में बताई हैं।

1. इ’ल्म-ए-ख़ुदावंद-तआ’ला 2. इल्म-ए-ख़ल्क़।

और उनकी तसरीह इस तरह की है कि अल्लाह तआ’ला के इ’ल्म के नज़दीक उसके बंदों का इ’ल्म बिलकुल हेच है।वो तमाम मौजूदात और मा’दूमात को जानता है।बंदों का इ’ल्म ऐसा होना चाहिए कि ज़ाहिर-ओ-बातिन में नफ़अ’-बख़्श हो। इसकी दो क़िस्में हैं। 1. उसूली या’नी ज़ाहिर में कलिमा-ए-शहादत पढ़ना, और बातिन में मा’रिफ़त की तहक़ीक़ करना 2. फ़ुरोई’ या’नी ज़ाहिर में मुआ’मला करना और बातिन में उसके लिए सहीह निय्यत रखना।

हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक ज़ाहिर ब-ग़ैर बातिन के मुनाफ़क़त है, और बातिन बग़ैर ज़ाहिर के ज़िंदक़ा।इ’ल्म-ए-बातिन हक़ीक़त और इ’ल्म-ए-ज़ाहिर शरीअ’त है।इ’ल्म-ए-हक़ीक़त के तीन अरकान हैं 1. ख़ुदावंद तआ’ला की ज़ात का इ’ल्म, या’नी वो हमेशा से है, और हमेशा रहेगा।वो न किसी मकान में है न जिहत में।उसका कोई मिस्ल नहीं 2. ख़ुदावंद तआ’ला के सिफ़ात का इ’ल्म या’नी वो आ’लिम है, और हर चीज़ को जानता है, देखता है, और सुनता है।3 ख़ुदावंद तआ’ला के अफ़्आ’ल का इ’ल्म, वो तमाम ख़लाइक़ का पैदा करने वाला है।

इ’ल्म-ए-शरीअ’त के भी तीन अरकान हैं 1. किताब 2. सुन्नत 3. इज्माअ’-ए-उम्मत।

पहला इ’ल्म गोया ख़ुदा का इ’ल्म है, और दूसरा ख़ुदा की तरफ़ से बंदा को अ’ता किया हुआ इ’ल्म।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने सूफ़िया-ए-किराम के अक़्वाल और अपने दलाइल से ये साबित करने की कोशिश की है कि जिस शख़्स को ख़ुदा का इ’ल्म या’नी इ’ल्म-ए-हक़ीक़त नहीं,उसका दिल जिहालत के सबब से मुर्दा है।और जिस शख़्स को उसका इ’नायत किया हुआ या’नी इ’ल्म-ए-शरीअ’त नहीं, उसका दिल नादानी के मरज़ में गिरफ़्तार है। शैख़ ने दोनों इ’ल्मों को लाज़िम-मल्ज़ूम क़रार दिया है, और हज़रत अबू बकर दर्राक़ तिर्मिज़ी के उस क़ौल की ताईद की है कि जिस शख़्स ने सिर्फ़ इ’ल्म-ए-तौहीद पर इक्तिफ़ा की वो ज़िंदीक़ है।

फ़क़्रः-

दूसरा बाब फ़क़्र से शुरुअ’ होता है।इस में तीन फ़स्लें हैं।

पहली फ़स्ल में कलाम-ए-मजीद और अहादीस की रौशनी में दिखाया है कि फ़क़्र का मर्तबा ख़ुदा के नज़्दीक बहुत बड़ा और अफ़ज़ल है।और फ़क़ीर की ता’रीफ़ ये है कि उसके पास कुछ न हो। उसकी किसी चीज़ में ख़लल न आए, न दुनियावी साज़-ओ-सामान होने से मालदार हो जाए और न उसके न होने से मोहताज हो जाए।या’नी उस का होना और न होना उसके नज़दीक बराबर हो बल्कि न होने से और भी ज़्यादा ख़ुश हो।क्यूँकि फ़क़ीर जितना तंग-दस्त होगा उसी क़द्र उस पर हाल ज़्यादा कुशादा होगा, और असरार मुंकशिफ़ होंगे।वो जिस क़द्र दुनिया के माल-ओ-मताअ’ से बे-नियाज़ हो जाता है, उतना ही उसकी ज़िंदगी अलताफ़-ए-ख़फ़ी और असरार-ए-रौशन से वाबस्ता होती जाती है, और रज़ा-ए-इलाही की ख़ातिर वो दुनिया की तमाम चीज़ों को नज़र-अंदाज़ कर देता है।एक फ़क़ीर का कमाल-ए-फ़क़्र ये है कि अगर दोनों जहान उसके फ़क़्र के तराज़ू के पलड़े में रखे जाएं तो वो एक मच्छर के पर के बराबर भी न हों, और उसकी एक साँस दोनों आ’लम में न समाए।

दूसरी फ़स्ल में सूफ़ियाना नुक़्ता-ए-नज़र से फ़क़्र-ओ-इ’नायत पर बह्स की है। बा’ज़ सूफ़िया-ए-किराम का ख़याल है कि ग़िना, फ़क़्र से अफ़ज़ल है। उनकी दलील है कि ग़िना ख़ुदावंद तआ’ला की सिफ़त है।फ़क़्र की निस्बत उसकी जानिब जाइज़ नहीं।और दोस्ती में ऐसी सिफ़त जो ख़ुदा और बंदा के दर्मियान मुश्तरक हो, ज़रूर पाई जाएगी, और ये उस सिफ़त या’नी फ़क़्र से बेहतर है जिसको ख़ुदावंद तआ’ला की जानिब मंसूब करना रवा नहीं।

हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इस मंतिक़ाना दलील को मंतिक़ाना दलाइल ही से रद्द किया है।मस्लन ख़ुदा की सिफ़ात में मुमासिल की कोशिश आपस में बराबर होने की दलील है, मगर ख़ुदा तआ’ला की सिफ़त क़दीम है, और ख़ल्क़ की सिफ़त हादिस है, इसलिए दोनों में मुमासलत मुमकिन नहीं।ग़नी ख़ुदा के मिम-जुमला और नामों के एक नाम है।ये उसी के लिए ज़ेबा है। बंदा इस नाम का मुस्तहिक़ नहीं हो सकता।बंदा के ग़िना का कोई सबब होता है, मगर ख़ुदा का ग़िना सब से बे-नियाज़ है।ख़ल्क़ के ग़िना में हुदूस-ओ-तग़य्युरात होते हैं।ख़ालिक़ का ग़िना इस से मावरा है। उसकी क़ुदरत का कोई माने’ नहीं।वुजूद-ए-बशरी को हाजत लाज़िम है, क्यूँकि हुदूस की अ’लामत एहतियाज है, और जब एहतियाज पैदा होती है तो फिर ग़िना क्यूँ कर बाक़ी रह सकता है? इस तशरीह-ओ-तफ़सील के बा’द हज़रत शैख़ हुज्वेरी ने ग़िना को अल्लाह तबारक-ओ-तआ’ला की सिफ़त क़रार दिया है, जो एक बंदा के लिए किसी तरह सज़ावार नहीं।

मगर हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक बंदा का ग़नी होना मुहाल भी नहीं।अल-ग़नीयु मन अग़नाहुल्लाहु, या’नी ग़नी वो है जिसको ख़ुदा ग़नी कर दे, इसलिए ग़नी बिल्लाह फ़ाइ’ल है, और “मन अग़नाहुल्लाहु” मफ़ऊ’ल है।फ़ाइ’ल ब-ज़ात-ए-ख़ुद क़ाइम है, और मफ़ऊ’ल फ़ाइ’ल की वजह से क़ाइम होता है।अगर बंदा ग़िना से सरफ़राज़ किया जाता है, तो ये उसके लिए ने’मत-ए- ज़रूरी है, मगर उस ने’मत में ग़फ़्लत उसी तरह आफ़त है जिस तरह फ़क़्र में हिर्स।इसलिए बंदा अगर ग़नी हो तो उसको ग़ाफ़िल न होना चाहिए और अगर फ़क़्र रखता हो तो उसको हरीस न होना चाहिए।हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक ग़िना में दिल के ग़ैर से मशग़ूल रहने का एहतिमाल बाक़ी रहता है, और फ़क़्र में दिल अल्लाह तआ’ला के सिवा हर चीज़ से जुदा रहता है, इसलिए फ़क़्र ग़िना से बेहतर है।और जब एक तालिब ख़ुदा के सिवा दुनिया की तमाम चीज़ों से मुस्तग़ना हो जाता है तो फ़क़्र-ओ-ग़िना के दोनों नाम उसके लिए बे-मा’नी हो जाते हैं।

तीसरी फ़स्ल में फ़क़्र-ओ-फ़क़ीर से मुतअ’ल्लिक़ मशाइख़-ए-उ’ज़ाम के जो अक़्वाल हैं , उनकी तश्रीह और तफ़्सील की है।मस्लन हज़रत रदेम बिन मोहम्मद फ़रमाते हैं कि फ़क़ीर की ता’रीफ़ ये है कि अपने भेदों को महफ़ूज़ रखे, और उसका नफ़्स आफ़त से मस्ऊन हो, और वो फ़राइज़ का पाबंद हो।शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इनकी तश्रीह ये की है कि जो कुछ फ़क़ीर के दिल पर गुज़रे उसको ज़ाहिर न करे, और जिसका ज़ुहूर हो जाए उसको छुपाए नहीं, और न असरार के ग़ालिब होने से ऐसा मग़लूब हो जाए कि शरीअ’त के अहकाम अदा न कर सके।या मस्लन हज़रत अबुल हसन नूरी रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते हैं कि फ़क़ीर की सिफ़त ये है कि न होने की सूरत में सुकूनत करे, और होने के वक़्त ख़र्च करे, और ख़र्च के लिए बे-चैन हो।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने दो तरह से इसकी तफ़्सीर की है।एक ये कि न होने के वक़्त सुकून  गोया ख़ुदावंद तआ’ला की रज़ा की दलील है, और अगर उसके पास कुछ हो गया तो गोया उसको ख़ुदावंद तआ’ला की जानिब से ख़िलअ’त अ’ता हुआ, मगर फ़ुर्क़त की निशानी है, क्यूँकि मुहिब्ब ख़िलअ’त क़ुबूल नहीं करता, इसलिए जो कुछ फ़क़ीर को मिलता है, उसको वो दूसरों को दे कर जल्द अपने से जुदा कर देता है।दूसरी तफ़्सीर ये है कि फ़क़ीर को सुकून उसी वक़्त हासिल होता है जब वो कीसी चीज़ का मुंतज़िर नहीं रहा, और जब कोई चीज़ हासिल हो जाती है तो वो उसको अपने से ग़ैर पाता है।और ग़ैर के साथ उसको आराम नहीं मिलता, इसलिए उसको तर्क कर देता है।

सूफ़ी की अस्लियत:-

तीसरे बाब में सूफ़ी की अस्लियत से मुहक़्क़िक़ाना बह्स की है। इस में भी तीन फ़स्लें हैं।

लफ़्ज़-ए-सूफ़ी की अस्लियत हमेशा से मुख़तलफ़-फ़ीह रही है। एक गिरोह कहता है कि सूफ़ी सूफ़ का कपड़ा पहनता है, इसलिए इस नाम से मंसूब हुआ।दूसरा गिरोह कहता है कि वो सफ़-ए-अव्वल में रहता है इसलिए इस नाम से पुकारा जाता है।तीसरे का ख़याल ये  है कि सूफ़ी इस वजह से कहते हैं कि वो असहाब-ए-सुफ़्फ़ा के साथ दोस्ती रखता है।और चौथे की राय ये है कि ये इस्म-ए-सफ़ा से मुश्तक़ है ।इसी तरह और तौजीहात हैं, मगर हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इन में से हर एक को ग़लत क़रार दिया है। फ़रमाते हैं, कि सूफ़ी इसलिए कहते हैं कि वो अपने अख़लाक़-ओ-मुआ’मलात को मुहज़्ज़ब कर लेता है, और तबीअ’त की आफ़तों से पाक-ओ-साफ़ हो जाता है।और हक़ीक़त में सूफ़ी वो है जिसका दिल कुदूरत से पाक और साफ़ हो, क्यूँकि तसव्वुफ़ बाब-ए-तफ़ाउ’ल से है जिसाका ख़ास्सा तकल्लुफ़ है, या’नी सूफ़ी अपने नफ़्स पर तक्लीफ़ उठाता है, और यही तसव्वुफ़ के अस्ली मा’नी हैं।

अहल-ए-तसव्वुफ़ की तीन क़िस्में हैं-

1.    सूफ़ी, जो अपनी ज़ात को फ़ना कर के ख़ुदा की ज़ात में बक़ा हासिल करता है, और अपनी तबीअ’त से आज़ाद हो कर हक़ीक़त की तरफ़ मुतवज्जिह होता है।

2.    मुतसव्विफ़ जो सूफ़ी के दर्जा को मुजाहदा से तलाश करता है, और उस तलाश में अपनी ज़ात की इस्लाह करता है।

3.    मुस्तस्व्विफ़ जो महज़ माल-ओ-मनाल और जाह-ओ-हश्मत के लिए अपने को मिस्ल-ए-सूफ़ी के बना लेता है।

पस सूफ़ी साहिब-ए-वुसूल (या’नी वस्ल हासिल करने वाला) मुतसव्विफ़ साहिब-ए-उसूल (या’नी सूफ़ी के उसूल पर चलने वाला) और मुस्तस्व्विफ़ साहिब-ए-फ़ज़्ल होता है।

दूसरी फ़स्ल में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने मशाइख़-ए-किबार के अक़्वाल नक़ल किए हैं, जिनसे उनके मज़्कूरा बाला ख़यालात की ताईद होती है।मस्लन हज़रत हसन नूरी रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते हैं कि तसव्वुफ़ तमाम ख़ुतूत-ए-नफ़्सानी के तर्क कने का नाम है, और सूफ़ी वो लोग हैं जिनका ज़िक्र बशरियत की कुदूरत से आज़ाद हो गया हो और नफ़्सानी आफ़तों से साफ़ हो कर इख़्लास से मिल गया हो,यहाँ तक कि ग़ैर-ए-ख़ुदा से बरी होकर वो सफ़-ए-अव्वल और दर्जा-ए-ऊला में पहुँच जाते हैं।

हज़रत हसरी का क़ौल है कि तसव्वुफ़ दिल और भेद की सफ़ाई और कुदूरत की मुखालफ़त का नाम है। हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इसकी तसरीह ये की है कि फ़क़ीर अपने दिल को ख़ुदा की मुख़ालफ़त के मैल से पाक रखता है, क्यूँकि दोस्ती में सिर्फ़ मुवाफ़क़त होती है, और मुवाफ़क़त मुख़ालफ़त की ज़िद है, और जब मुराद एक होती है, तो मुख़ालफ़त नहीं होती, इस लिए दोस्त को दोस्त के हुक्म की ता’मील के सिवा और कुछ नहीं चाहिए।

हज़रत शिब्ली रहमतुल्लाह अ’लैह का क़ौल है कि सूफ़ी वो है कि दोनों जहान में ख़ुदा अ’ज़्ज़ा-ओ-जल्ल के यहाँ कोई चीज़ न देखे।  हज़रत हुज्वेरी ने इसकी तश्रीह कर के बताया है कि बंदा जब ग़ैर को न देखेगा, तो अपनी ज़ात को न देखेगा, इस तरह अपनी ज़ात की नफ़ी और इस्बात से फ़ारिग़ हो जाएगा।

तसव्वुफ़ः-

इस बह्स में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने हज़रत जुनैद रहमतुल्लाह अ’लैह के उस क़ौल की ताईद की है कि तसव्वुफ़ की बुनियाद आठ ख़स्लतों पर है जिन से आठ पैग़म्बरों की पैरवी होती है।या’नी तसव्वुफ़ में सख़ावत हज़रत इब्राहीम की हो, रज़ा हज़रत इस्माई’ल की हो, सब्र हज़रत अय्यूब का हो, इर्शादात हज़रत ज़क्रिया के हों ग़ुर्बत हज़रत यहया की हो, सियाहत हज़रत ई’सा की हो, लिबास हज़रत मूसा का हो, और फ़क़्र हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम का हो।

तीसरी फ़स्ल में हज़रत हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के मबाहिस का ख़ुलासा ये है कि तसव्वुफ़ महज़ उ’लूम-ओ-रुसूम का नाम नहीं, बल्कि ये एक ख़ास अख़लाक़ का नाम है।उ’लूम होता तो ता’लीम से हासिल होता, रुसूम होता तो मुजाहदा से हासिल होता, मगर ये न ता’लीम से हासिल होता है, और न सिर्फ़ मुजाहदा से। इस अख़लाक़ की तीन क़िस्में हैं।

1.    ख़ुदा के अहकाम को रिया से पाक हो कर पूरा करना।

2.    बड़ों की इ’ज़्ज़त करना और छोटों के साथ इ’ज़्ज़त से पेश आना और किसी से इंसाफ़ और इ’वज़ न चाहना।

3.    नफ़्सानी ख़्वाहिशों का इत्तबाअ’ न करना।

सूफ़ी का लिबासः-

चौथे बाब में सूफ़ियों के लिबास पर तीन फ़स्लों में बह्स की है। सूफ़ी सुन्नत-ए-रसूल की पैरवी में कम्मल या गुदड़ी लिबास के तौर पर इस्ति’माल करता है, जो उसके फ़क़्र-ओ-रियाज़त की दलील है। मगर गुदड़ी पहनने के लिए शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने बहुत सी शर्तें मुक़र्र की हैं।गुदड़ी पहनने वालों को तारिकुद्दुनिया या अल्लाह का आ’शिक़ होना चाहिए। इसके बावजूद वो ख़ुद गुदगड़ी उसी वक़्त पहन सकता है, जब कि उसको मशाइख़ पहनाएं।इसके लिए ज़रूरी है कि मुअख़्ख़रुज़्ज़िक्र अव्वलुज़्ज़िक्र करे एक साल ख़ल्क़ की ख़िदमत और एक साल ख़ुदा की ख़िदमत लें, और एक साल उसके दिल की रिआ’यत हासिल करें।ख़ल्क़ की ख़िदमत ये है कि वो सबको बिला तमीज़ अपने से बेहतर जानता हो, और उनकी ख़िदमत अपने लिए वाजिब समझता हो, मगर अपनी ख़िदमत की फ़ज़ीलत का गुमान मुतलक़ न करता हो।ख़ुदा की ख़िदमत ये है कि दुनिया और उ’क़्बा के मज़े तर्क कर देता हो, और जो काम करता हो सिर्फ़ ख़ुदा की ख़ातिर करता हो।दिल की रिआ’यत ये है कि उसमें हिम्मत हो, उससे तामम ग़म दूर हों, और सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जिह हो।जब ये तीनों शर्तें पूरी हो जाएं तो शैख़ अपने मुरीद को गुदड़ी पहना सकता है।गुदड़ी पहनना गोया कफ़न का पहनना है, जिसके बा’द ज़िंदगी की तमाम लज़्ज़तों और आसाइशों से किनारा-कश होकर सिर्फ़ ख़ुदा का होकर रहना पड़ता है।

मलामतः-

छट्ठा बाब मलामत पर है। हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने ख़ल्क़ की मलामत को ख़ुदा के दोस्तों की ग़िज़ा कहा है, और उसकी तीन क़िस्में बताई हैं –

1.    एक ये कि एक शख़्स अपने मुआ’मलात-ओ-इ’बादात में दुरुस्त हो, फिर भी ख़ल्क़ उसको मलामत करती हो, लेकिन वो उसकी परवा मुतलक़ न करता हो।मस्लन शैख़ अबू ताहिर हरमी एक बार बाज़ार में जा रहे थे।एक शख़्स ने उनसे कहा ऐ पीर-ए-ज़िंदीक़ कहाँ जाता है। उनके एक मुरीद ने उस से झगड़ा करना चाहा, मगर उन्हों ने रोक दिया।और जब घर आए तो मुरीद को बहुत से ख़ुतूत दिखाए, जिन में उनको किसी में शैख़-ए-ज़की, किसी में शैख़-ए-ज़ाहिद, किसी में शैख़ुल इस्लाम और किसी में शैख़ुल-हरमैन कह कर मुख़ातब किया गया था। और फ़रमाया कि हर शख़्स अपन ऐ’तिक़ाद के मुताबिक़ जो चाहता है, मुझको कहता है।मगर ये सब इस्म नहीं हैं, अलक़ाब हैं।कोई मुझको ज़िंदीक़ कहे तो उसके लिए झगड़ा क्यूँ क्या किया जाए।

2.     दूसरी ये कि वो दुनिया की जाह-ओ-हशमत से मुँह मोड़ कर ख़ुदा की जानिब मशग़ूल हो, और ख़ल्क़ की मलामत को रवा रखता हो, कि दुनिया की तरफ़ माएल न होने पाए। मस्लन अबू यज़ीद रमज़ान के महीने में सफ़र-ए-हिजाज़ से अपने शहर में वापस आए तो लोगों ने बहुत ही ऐ’ज़ाज़-ओ-इकराम से उनका इस्तिक़्बाल किया।उस ख़ैर-मक़दम में वो ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल हो गए।उन्होंने उसी वक़्त अपनी आस्तीन से टिकिया निकाल कर खाना शुरुअ’ कर दिया। लोगों ने उनको टिकिया खाते देखा तो उनको मलामत करने लगे, और उनसे बर्गश्ता हो गए।अबू यज़ीद ने क़स्दन ऐसा किया ताकि वो दुनिया और दुनिया वालों की तरफ़ मुतवज्जिह   न होने पाएं ।

3.    तीसरी ये कि वो ज़लालत और गुमराही में मुब्तला हो, और उससे ख़ल्क़ की मलामत के डर से बाज़ आना महज़ निफ़ाक़ और रियाकारी समझता हो, यहाँ तक की शरीअ’त को भी तर्क कर देता हो जो शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक सही नहीं।

हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने उस क़ौल की ताईद की है कि मलामत आ’शिक़ों के लिए एक तर-ओ-ताज़ा बाग़, दोस्तों के लिए माया-ए-तफ़रीह, मुश्ताक़ों के लिए राहत और मुरीदों के लिए सुरूर है।हज़रत इब्राहीम अदहम रहमतुल्लाह अ’लैह से रिवायत है कि एक शख़्स ने उनसे पूछा कि आप कभी अपनी मुराद को भी पहुँचे, तो उन्हों ने कहा का हाँ दो बार।एक मर्तबा मैं कश्ती में बैठा हुआ था।मुझको किसी ने नहीं पहचाना।उस वक़्त मैं पुराने और फटे कपड़े पहने हुए था।सर के बाल पकड़ कर खींचता, और तमस्ख़ुर करता।उस वक़्त मेरी मुराद हासिल हो रीह थी, और मैं उस लिबास में ख़ुश हो रहा था।मगर एक रोज़ ये ख़ुशी ख़त्म हो गई, क्यूँकि उस रोज़ एक मस्ख़रा उठा और उसने मेरे ऊपर पेशाब कर दिया और मुझको वो लिबास उतारना पड़ा।दूसरी बार मेरी मुराद इस तरह पूरी हुई कि एक रोज़ सख़्त बारिश हो रही थी।जाड़े का ज़माना था। एक गाँव में पहुँचा।मेरा जुब्बा भीग गया था। एक मस्जिद में गया। वहाँ किसी ने मुझ को ठहरने नहीं दिया।सर्दी से परेशान हो कर मैं एक हम्माम की भट्ठी में घुस गया और दामन समेट कर आग की तरफ़ बैठ गया।उसके धुवें से मेरे कपड़े और मेरा मुँह काला हो गया।उस वक़्त मैं अपनी मुराद को पहुँचा।

आगे सात बाबों में सूफ़ियाना नुक़्ता-ए-नज़र ने सहाबा-ए-किराम , अहलुल-बैत, अहलुस्सफ़ा, तब्अ’-ताबिई’न, अइम्मा और सूफ़िया से मुतआख़्ख़िरीन तक का ज़िक्र है।

चौदहवाँ बाब निहायत अहम है। इस में सूफ़ियों के मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों के अक़ाइ’द पर नाक़िदाना और मुहक़्क़िक़ाना मबाहिस हैं।तफ़्सील ग़ालिबन, मुनासिब न होगी।

रज़ाः-

पहला फ़िर्क़ा मुहासबिया है जो अ’ब्दुल्लाह बिन हारिस बिन असद अल-मुहासिबी की जानिब मंसूब।है हारिस मुहासिबी का अ’क़ीदा था कि रज़ा मक़ामात में से नहीं, बल्कि अहवाल में से है।हज़रत हुज्वेरी ने रज़ा और मक़ामात की तश्रीह कर के हारिस की मुदाफ़िअ’त की है, और रज़ा की दो क़िस्में बताई हैं। 1. ख़ुदावंद तआ’ला की रज़ा बंदा से 2. बंदा की रज़ा ख़ुदावंद तआ’ला से।

बंदा से ख़ुदावंद तआ’ला की रज़ा ये है कि वो उनको सवाब, ने’मत और बुज़ुर्गी अ’ता करता है, और ख़ुदावंद तआ’ला से बंदों की रज़ा ये है कि वो उसके अहकाम की ता’मील करें।ख़ुदावंद तआ’ला अपने अहकाम में या तो किसी चीज़ से मनअ’ करता है, या अ’ता करने का वा’दा करता है, मगर उसके अहकाम के मानने वाले उसके ख़ौफ़-ओ-हैबत में ऐसे ही लज़्ज़त महसूस करते हैं, जैसे उसके लुत्फ़-ओ-करम से हज़ उठाते हैं।उसका जलाल और जमाल उनकी नज़रों में यकसाँ है।और वो महज़ इसलिए कि वो अपने इख़्तियारात को सल्ब कर लेते हैं, जिसके बा’द उनका दिल ग़ैर के अंदेशा से नजात पाकर तमाम ग़म-ओ-अलम से आज़ाद हो जाता है।

अस्हाब-ए-रज़ा चार क़िस्म के होते हैं।एक ख़ुदावंद तआ’ला की अ’ता (ख़्वाह वो कैसी ही हो) पर राज़ी रहते हैं,ये मा’रिफ़त है।दूसरे उसकी ने’मतों (दुनियावी) पर राज़ी होते हैं, वो दुनिया वाले हैं।तीसरे मुसीबत पर राज़ी रहते हैं, ये रंज है।चौथे अहवाल-ओ-मक़ामात की क़ैद से निकल कर सिर्फ़ ख़ुदावंद तआ’ला की ख़ुशी पर रहते हैं, ये मोहब्बत है।

दूसरा गिरोह क़ुसारिया का है। इसके पेशवा अबू सालिह बिन हमदून बिन अहमद ए’मादतुल-क़ुसार हैं, जो ख़ल्क़ की मलामत को तज़्किया-ए-नफ़्स के लिए ज़रूरी समझते हैं।मलामत पर बह्स छट्ठे बाब में गुज़र चुकी है, इसलिए हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इस मौ’क़ा’ पर उस मस्लक पर तफ़्सील के साथ रौशनी नहीं डाली है।

सुक्र-ओ-सह्वः-

इसके बा’द गिरोह-ए-तैफ़ोरिया और गिरोह-ए-जुनैदिया का ज़िक्र है। अव्वलुज़्ज़िक्र के पेशवा अबू ज़ैद तैफ़ोर बिन सरोशान अल-बुस्तामी, और मुअख़्ख़रुज्ज़िक्र के इमाम अबुल क़ासिम अल-जुनैदिया बिन मोहम्मद हैं।पहले गिरोह का का अ’क़ीदा सुक्र और दूसरे का सह्व पर मबनी है। इस सिलसिला में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने बताया है कि सुक्र और सह्व क्या हैं। सुक्र हक़ तआ’ला की मोहब्बत का ग़लबा है।एक सालिक जब महबूब के जमाल को देखता है तो उसकी अ’क़्ल इ’श्क़ से मग़्लूब हो जाती है, और ग़ायत-ए-बे-ख़ुदी में उसके इदराक और होश बाक़ी नहीं रहते।उस पर मह्वियत और फ़ना की कैफ़ियत तारी हो जाती है।सह्व मह्वियत के बा’द हुसूल-ए-मुराद का नाम है, जिसमें जमाल-ए-महबूब के मुशाहदा से हैरत और वहशत बाक़ी नहीं रहती।सह्व में ग़फ़्लत से हिजाब पैदा होता है, लेकिन जब यही ग़फ़्लत मोहब्बत बन जाती है, तो वो कश्फ़ है।सह्व ग़फ़्लत के क़रीब हो तो सुक्र है, और सुक्र मोहब्बत के क़रीब हो तो सह्व है।जब दोनों की अस्ल सही हो तो सुक्र सह्व और सह्व सुक्र है। इस जुज़्वी इख़्तिलाफ़ के बावजूद, दोनों एक दूसरे की इ’ल्लत-ओ-मा’लूल हैं, लेकिन दोनों की अस्ल सहीह न हो तो दोनों बे-फ़ाईदा हैं। हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ख़ुद जुनैदी मस्लक के पाबंद थे, और सह्व को सुक्र पर फ़ौक़ियत देते थे।लिखते हैं कि मक़ाम-ए-सह्व मुर्दों की जा-ए-फ़ना है।

उ’ज़्लत-नशीनीः-

पाँचवाँ गिरोह नूरिया का है जिसके पेशवा इब्नुल हसन बिन नूरी रहमतुल्लाहि अ’लैह हैं।वो दरवेशों की उ’ज़्लत-गुज़ीनी को एक ना- महमूद फ़े’ल समझते हैं, और सोहबत को ज़रूरी क़रार देते हैं, और अस्हाब-ए-सोहबत के लिए ईसार-ओ-कुल्फ़त बर्दाशत करने को भी ज़रूरी समझते हैं, वर्ना इसके बग़ैर सोहबत हराम है, और अगर सोहबत के रस्मी ईसार, रंज-ओ-कुल्फ़त के साथ मोहब्बत भी शामिल हो, तो ये और ये ज़्यादा औला है।हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इस मस्लक को पसंदीदा कहा है।

मुजाहदा-ओ-रियाज़तः-

(6)    सह्लियाः- इसके इमाम हज़रत सह्ल बिन तुस्तरी रहमतुल्लाह अ’लैह हैं।उनकी ता’लीम इज्तिहाद (जद्दो-जिहद, मुशक़्क़त), मुजाहदा-ए-नफ़्स और रियाज़त है।इज्तिहाद, मुजाहदा और रियाज़त की ग़र्ज़ नफ़्स की मुख़ालफ़त है, इसलिए हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने नफ़्स की तश्रीह वाज़ेह तौर से की है।

फ़रमाते हैं कि नफ़्स की मुख़ालफ़त तमाम इ’बादतों का सर-चश्मा है।नफ़्स को न पहचानना अपने को न पहचानना है।जो शख़्स अपने को नहीं पहचानता, वो ख़ुदा को नहीं पहचान सकता।नफ़्स का फ़ना हो जाना हक़ के बक़ा की अ’लामत है, और नफ़्स की पैरवी हक़ अ’ज़्ज़ा-ओ-जल्ल की मुख़ालफ़त है। नफ़्स पर जब्र करना या’नी नफ़्सानी ख़्हवाहिशों को रोकना जिहाद-ए-अकबर है।हज़रत सह्ल बिन अ’ब्दुल्लाह तुस्तरी ने इस में बड़ा ग़ुलू फ़रमाया है।वो नफ़्स के मुजाहदा को मुशाहदा की इ’ल्लत क़रार देते हैं। सह्ल तुस्तरी रहमतुल्लाह अ’लैह के इस मस्लक से बा’ज़ गिरोहों को इख़्तिलाफ़ है।उनका ख़याल है कि मुशाहदा महज़ इ’नायत-ए-एज़दी पर मुंहसिर है।मुजाहदा वस्ल-ए-हक़ की इ’ल्लत नहीं हो सकता।मुमकिन है, एक शख़्स हुज्रा के अंदर इ’बादत में मशग़ूल हो, फिर भी हक़ से दूर हो और एक शख़्स ख़राबात में रहता हो,गुनहगार हो और उसे क़ुर्ब-ए-ख़ुदावंदी हासिल हो।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इस इख़्तिलाफ़ को महज़ अल्फ़ाज़ और ता’बीर का इख़्तिलाफ़ क़रार दिया है, कि एक शख़्स मुजाहदा करता है तो उसको मुशाहदा हासिल होता है,दूसरा मुशाहदा करता है कि मुजाहदा हासिल हो, मुशाहदा के ब-ग़ैर मुजाहदा नही और मुजाहदा के ब-ग़ैर  मुशाहिदा नहीं।इस राय के बावजूद हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह मुजाहदा को मुशाहदा की इ’ल्लत क़रार नहीं देते, बल्कि उसको वस्ल-ए-हक़ का तरीक़ा और ज़रीआ’ समझते हैं।

नफ़्स के बा’द हवा या’नी नफ़्स की ख़्वाहिशों का ज़िक्र है।इसमें बताया गया है कि बंदा दो चीज़ों का ताबे’ रहता है।एक अ’क़्ल का दूसरे नफ़्स की ख़्वाहिशों का। जो अ’क़्ल का मुत्तबे’ होता है, वो ईमान की तरफ़ जाता है, और जो हवा की पैरवी करता है, वो कुफ़्र, गुमराही और ज़लालत की तरफ़ माइल है।हज़रत जुनैद रहमतुल्लाह अ’लैह से पूछा गया कि वस्ल-ए-हक़ क्या चीज़ है। फ़रमाया “हवा का तर्क करना” । हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने भी इसकी ताईद की है, और कहा कि सब से बड़ी इ’बादत हवा का तर्क करना है।गो इसका तर्क करना नाख़ुन से पहाड़ खोदने से भी ज़्यादा मुश्किल है।

हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने हवा की दो क़िस्में बताई हैं। 1. लज़्ज़त और शहवत 2. जाह-तलबी।अव्वलुज़्ज़िक्र के फ़ित्ना से ख़ल्क़ महफ़ूज़ रहती है, लेकिन मुअ’ख़्ख़रुज़्ज़िक्र से ख़ल्क़ के दर्मियान फ़ित्ना पैदा होता है।ख़सूसन जब ये जाह-तलबी ख़ानक़ाहों में हो।

विलायत-ओ-करामतः-

(7)    फ़िर्क़ा-ए-हकीमियाः-

ये गिरोह हज़तरत अबू अ’ब्दुल्लाह बिन अ’ली बिन अ’ली अल-हकीम अत्तिर्मिज़ी की जानिब मंसूब है।इस फ़िर्क़ा का मस्लक है कि वलीउल्लाह ख़ुदा का बर्गुज़ीदा बंदा होता है, जो नफ़्स की हिर्स-ओ-आज़ से पाक हो कर असरार-ए-इलाही से वाक़िफ़ होता है, और उस से करामत ज़ाहिर हो सकती है।इस सिलसिला में हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने वली की विलायत और करामत पर मुफ़स्सल बह्स की है।जिसका ख़ुलासा ये है कि अल्लाह तआ’ला अपने बंदों में से कुछ बंदों को अपना दोस्त बनाता है।उनकी सिफ़ात ये हैं कि दुनियावी माल-ओ-दौलत से बे-नियाज़ हो कर वो सिर्फ़ ज़ात-ए-ख़ुदावंदी से मोहब्बत करते हैं।जब दूसरे लोग डरते हैं तो वो नहीं डरते, और जब दूसरे ग़म-ज़दा होते हैं तो वो नहीं होते।और जब ऐसे लोग दुनिया में बाक़ी न रहेंगे तो क़ियामत आ जाएगी। मो’तज़ला  का ए’तिराज़ है कि अल्लाह तआ’ला के तमाम बंदे उसके दोस्त हैं।कोई बंदा ख़ास और बर्गुज़ीदा नहीं होता।अल्लाह का ख़ास बंदा सिर्फ़ नबी होता है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इसका ये जवाब दिया है कि अल्लाह तआ’ला हर ज़माना में अपने बंदों में से किसी एक को ख़ास बनाता है ताकि अल्लाह तआ’ला की ज़ात और उसके रसूल की रिसालत की दलील रौशन और वाज़ेह होती रहे। फ़िर्क़ा-ए-हशवी ख़ास बंदों का होना जाइज़ समझता है, मगर उसका ख़याल है कि ऐसे बंदे थे ज़रूर मगर अब नहीं है।लेकिन हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह कहते हैं कि ऐसे बंदे हर ज़माने में होते हैं, और उनकी क़िस्में बताई हैं।

(1)            अख़्यार (2) अब्दाल (3) अबरार (4) औताद (5) नुक़बा  (6) क़ुतुब या ग़ौस।

एक गिरोह का ऐ’तराज़ है कि वली अपनी विलायत के बाइ’स आ’क़िबत से बे-ख़ैफ़ और दुनिया पर मग़रूर हो सकता है।लेकिन हज़रत शैख़ हुज्वेरी ने बहुत से अक़्वाल से साबिल किया है कि वली वो है जो अपने हाल में फ़ानी और मुशाहदा-ए-हक़ में बाक़ी हो। से अपने वजूद की ख़बर न हो, और न उसको अल्लाह के सिवा ग़ैर के साथ क़रार हो।वो मशहूर होता है, लेकिन शोहरत से परहेज़ करता है, क्यूँकि शोहरत बाइ’स-ए-फ़साद-ओ-रऊ’नत है।

जब वली अपनी विलायत में सादिक़ होता है तो उस से करामत ज़ाहिर होती है। करामत वली का ख़ास्सा है।करामत न अ’क़्ल के नज़दीक मुहाल है और न उसूल-ए-शरीअ’अत के ख़िलाफ़ है। करामत महज़ “मक़दूर-ए-ख़ुदावंदी” है।या’नी उसका ज़ुहूर कसब से नहीं, बल्कि ख़ुदा की बख़्शिशों से होता है।

इसके बा’द ये बह्स है कि करामत का ज़ुहूर कब होता है।अबू यज़ीद रहमतुल्लाह अ’लैह, ज़ुन्नून मिस्री रहमतुल्लाह अ’लैह और मोहम्मद बिन हनीफ़ वग़ैरा का ख़याल है कि इसका ज़ुहूर सुक्र के हाल में होता है, और जो सह्व के हाल में हो, वो नबी का मो’जिज़ा है।वली जब तक बशरिय्यत के हाल में रहता है, वो महजूब रहता है, और जब ख़ुदा के अल्ताफ़-ओ-इकराम की हक़ीक़त में मदहोश हो जाता है, तो उस हाल में (जो सुक्र है) करामत ज़ाहिर होती है, और ये उस वक़्त होता है, जब वली के नज़दीक पत्थर और सोना दोनों बराबर हो जाते हैं।

हज़रत जुनैद रहमतुल्लाह अ’लैह और अबुल अ’ब्बास सय्यारी वग़ैरा का मस्लक है कि करामत सुक्र में नहीं बल्कि सह्व और तमकीन में ज़ाहिर होती है।वली ख़ुदा के मुल्क का मुदब्बिर, वाक़िफ़-कार और वाली होता है और उस से मुल्क की गुत्थियाँ सुलझती हैं।  इसीलिए उसकी राय सब से ज़्यादा साइब और उसका दिल सब से ज़्यादा शफ़ीक़ होता है।मगर ये मर्तबा तल्वीन और सुक्र में हासिल नहीं होता, क्यूँकि तल्वीन और सुक्र इब्तिदाई मदारिज हैं।और जब ये आख़री मंज़िल तमकीन और सह्व में मुंतक़िल हो जाते हैं, तो वली-ए-बर-हक़ होता है, और उसकी करामत सहीह होती है।

इस बह्स के बा’द औलिया-अल्लाह की करामतों का बयान है।फिर दो फ़स्लों में बताया गया है कि अंबिया ,औलिया से अफ़ज़ल-तरीन हैं, और अंबिया-ओ-औलिया फ़रिश्तों पर फ़ज़ीलत रखते हैं।

फ़ना-ओ-बक़ाः

(8)    फ़िर्क़ा-ए-ख़राज़ीः ये फ़िर्क़ा हज़रत अबू सई’द ख़राज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह की जानिब मंसूब है, जिन्हों ने सब से पहले मक़ाम-ए-फ़ना और बक़ा से बह्स की है, इसलिए इस फ़स्ल में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने सिर्फ़ फ़ना और बक़ा पर रौशनी डाली है।

कुछ लोगों का ख़याल है कि फ़ना से मुराद अपनी ज़ात और वजूद का मिटा देना, और बक़ा से मुराद ख़ुदा से मुत्तहिद हो कर उसमें हुलूल कर जाना है।लेकिन हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इन दोनों की तर्दीद की है।उनके नज़दीक ज़ात और वजूद का नीस्त हो कर ख़ुदा में हुलूल करना मुहाल है,क्यूँकि हादिस क़दीम से, मस्नू’ साने’ से, मख़लूक़ ख़ालिक़ से मुत्तहिद और मुम्तज़िज नहीं हो सकता।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक फ़ना से मुराद शहवात-ओ-लज़्ज़ात को तर्क कर के ख़साइस-ए-बशरिय्यत से इस तरह अ’लाहिदा हो जाना है कि फिर मोहब्बत-ओ-अ’दावत, क़ुर्बत-ओ-बो’द, वस्ल-ओ-फ़िराक़, और सह्व-ओ-सुक्र में कोई तमीज़ बाक़ी न रह जाए।और जब ये मक़्सूद हासिल हो जाए तो यही बक़ा है।इसको मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में यूँ कहा जा सकता है कि इंसानियत के तअ’ल्लुक़ात से किनारा-कश होने का नाम फ़ना है, और इख़्लास-ओ-उ’बूदियत का नाम बक़ा है, या अ’लाइक़-ए-दुनयवी से अ’लाहिदा होना फ़ना है, और ख़ुदा का जलाल देखना बक़ा है।इस ग़लबा-ए-जलाल से ये कैफ़ियत होती है,कि सालिक दीन-ओ-दुनिया को फ़रामोश कर देता है, हाल-ओ-मक़ाम से बे-नियाज़ हो जाता है, और उसकी ज़बान हक़ तआ’ला से नातिक़ हो जाती है।

ग़ैबत-ओ-हुज़ूरः-

(9)    फ़िरक़ा-ए-हक़ीक़ीः ये फ़िरक़ा हज़रत अबू अ’ब्दुल्लाह बिन ख़फ़ीफ़ की जानिब मंसूब है। इसका मज़हब-ए-तसव्वुफ़ “ग़ैबत-ओ-हुज़ूर” है।

ग़ैबत से मुराद दिल का अपने वजूद से ग़ाएब रहना, और हुज़ूर से मुराद उसका ख़ुदा के साथ रहना है।अपने से ग़ैबत हक़ से हुज़ूर है।या’नी जो शख़्स अपने से ग़ाएब है, वो ख़ुदा तआ’ला की बारगाह में हाज़िर है।एक सालिक के अपने से ग़ाएब होने से मुराद ये है कि वो अपनी हस्ती के वजूद की आफ़तों से दूर हो,उसकी सिफ़ात-ए-बशरी ख़त्म हो गई हों, और उसके तमाम इरादे पाक हों।

इस सिलसिला में सूफ़िया-ए-किराम ने ये बह्स की है कि ग़ैबत हुज़ूर पर मुक़द्दम है, या हुज़ूर ग़ैबत पर।एक गिरोह कहता है कि ग़ैबत से हुज़ूरी हासिल होती है, और दूसरा कहता है कि हुज़ूरी से ग़ैबत हासिल होती है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह का ख़याल है कि दोनों बराबर हैं, क्यूँकि ग़ैबत से मुराद हुज़ूर है, जो अपने से ग़ाएब नहीं है, वो हक़ से हाज़िर नहीं है, और जो हाज़िर है, वो ग़ाएब है।ये नुक्ता हज़रत जुनैद रहमतुल्लाह अ’लैह के हाल से वाज़ेह हो जाता है। उन्हों ने फ़रमाया कि मुझ पर कुछ ज़माना ऐसा गुज़रा है कि आसमान और ज़मीन मेरे हाल पर रोते थे।फिर ख़ुदा ने ऐसा कर दिया कि मैं उनकी ग़ैबत पर रोता था।और अब ये ज़माना है कि मुझको न आसमान की ख़बर है, न ज़मीन की और न ख़ुद अपनी।

जम्अ’-ओ-तफ़रिक़ा-

(10)  फ़िरक़ा-ए-सय्यारियाः ये फ़िर्क़ा अबू अ’ब्बास सय्यारी की जानिब मंसूब है, जो मर्व के इमाम थे।उनकी बह्स जम्अ’-ओ-तफ़रिक़ा पर है। हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने उस पर ये रौशनी डाली है कि अर्बाब-ए-इ’ल्म के नज़दीक जम्अ’ तौहीद का इ’ल्म और तफ़रिक़ा अहकाम का इ’ल्म है।मगर अस्हाब-ए-तसव्वुफ़ के नज़दीक तफ़रिक़ा से मकासिब और जम्अ’ से मुवाहिब मुराद हैं।जब सालिक ख़ुदा के रास्ता में मुजाहदा करता है, तो वो तफ़रिक़ा में है, और जब ख़ुदा की इ’नायत और मेहरबानी से सरफ़राज़ होता है, तो ये जम्अ’ है।जम्अ’ में बंदा कुछ सुनता है तो ख़ुदा से, कुछ देखता है तो ख़ुदा को, कुछ लेता है तो ख़ुदा से और कुछ कहता है तो ख़ुदा से।पस बंदा की इ’ज़्ज़त इस में है कि वो अपने फ़े’ल के वजूद और मुजाहदा को ख़ुदा की नवाज़िशों से मुस्तग़रक़ पाए, और मुजाहदा को हिदायत के पहलू में मंफ़ी कर दे क्यूँकि जब हिदायत ग़ालिब होती है, तो कसब और मुजाहदा बेकार है।चुनाँचे फ़िर्क़ा-ए-सय्यारिया का मस्लक है कि तफ़रिक़ा और जम्अ’ इज्तिमा-ए’-ज़िद्दैन

हैं।जम्अ’ का इज़हार तफ़रिक़ा कि नफ़ी पर है,लेकिन हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इसकी तर्दीद की है, और दलील ये पेश की है कि जिस तरह आफ़्ताब से नूर, जौहर से अ’र्ज़ और मौसूफ़ से सिफ़त जुदा नहीं हो सकती है,उसी तरह शरीअ’त हक़ीक़त से और मुजाहदा हिदायत से अ’लाहिदा नहीं हो सकता।मुमकिन है कि मुजाहदा कभी मुक़द्दम हो, और कभी मुअख़्ख़र।मुक़द्दम की हालत में मशक़्क़त ज़्यादा होती है, इस वजह से कि वो ग़ौबत की हालत मे होता है।और जब मुजाहदा मुअख़्ख़र, होता है तो रंज-ओ-कुल्फ़त नहीं होती, क्यूँकि ये हालत-ए-हुज़ूरी में होता है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने दोनों को लाज़िम-मल्ज़ूम इसलिए क़रार दिया है कि उनका ख़याल है कि ख़ुदा का क़ुर्ब हिदायत से हासिल होता है, न कि कोशिश से।

(11)  इसके बा’द हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने जम्अ’ की दो क़िस्में बताई हैं 1. जम्अ-ए’-सलामत 2. जम्अ-ए’-तक्सीर।जम्अ-ए’-सलामत में बंदा मग़्लूबुल-हाल रहता है, लेकिन ख़ुदावंद तआ’ला उसका मुहाफ़िज़ होता है, और अपने हुक्म की ता’मील कराने में निगाह रखता है। मस्लन हज़रत अबू यज़ीद बुस्तामी रहमतुल्लाह अ’लैह, अबू बक्र शिब्ली रहमतुल्लाह अ’लैह, और अबुल हसन हसरी रहमतुल्लाह अ’लैह हमेशा मग़्लूबुल-हाल रहते थे,लेकिन नमाज़ के वक़्त अपने हाल में लौट जाते थे,और जब नमाज़ पढ़ चुकते थे तो फिर मग़्लूबुल-हाल हो जाते थे।

जम्अ-ए-तक्सीर में बंदा ख़ुदावंद तआ’ला के हुक्म से बेहोश हो जाता है, और उसकी हालत मज्नुओं की सी हो जाती है,इसीलिए ये मा’ज़ूर और अव्वलुज़्ज़िक्र मश्कूर कहलाते हैं।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने मश्कूर बंदों को ज़्यादा फ़ौक़ियत दी है।

हुलूल-ए-रूहः-

ग्यारहवाँ फ़िरक़ा हुलूलिया है,जो अबू हिल्मान दमिश्क़ी की तरफ़ मंसूब है। बारहवें फ़िरक़े का नाम नहीं लिया है, मगर इस सिलसिला के बानी का नाम फ़ारस (या’नी फ़ारस बिन ई’सा बग़दादी) बताया है।

हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने फ़िरक़ा-ए-हुलूलिया को ज़िंद्दीक़ और काफ़िर कहा है।ख़ुदा तआ’ला में बंदा की रूह का हुलूल करना मुहाल है, क्यूँकि रूह हादिस है, क़दीम नहीं।इसको ख़ुदा की सिफ़त भी कह सकते है।ख़ालिक़ और मख़्लूक़ की सिफ़त यक्साँ नहीं हो सकती।फिर क़दीम-ओ-हादिस और ख़ालिक़-ओ-मख़्लूक़ की सिफ़त क्यूँकर एक दूसरे में हुलूल कर सरकती है। रूह महज़ एक जिस्म-ए-लतीफ़ है, जो ख़ुदा के हुक्म से क़ाएम है, और उसी के हुक्म से आती जाती है, इसलिए हुलूलिया का मस्लक तौहीद और दीन के ख़िलाफ़ है जो किसी तरह तसव्वुफ़ नहीं कहा जा सकता।

गुज़िश्ता सफ़हात में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने  तसव्वुफ़ पर नज़री और तारीख़ी हैसियत से बह्स की है, जिससे उसकी अस्ल तारीख़ और उसके मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों और गिरोहों के अ’क़ाइद का अंदाज़ा होता है।लेकिन आईंदा अब्वाब में तसव्वुफ़ के अ’मली मसाएल पर मबाहिस हैं, और राह-ए-सुलूक में बारह हिजाब या’नी पर्दे बताए हैं।उन में से हर एक की अ’लाहिदा अ’लाहिदा तश्रीह और तौज़ीह है।

मा’रिफ़तः-

पहला पर्दा ख़ुदा की मा’रिफ़त का है।मो’तज़ला कहते हैं कि मा’रिफ़त इ’ल्म-ओ-अ’क़्ल से होती है मगर हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने इसकी तर्दीद की है।वो कहते हैं कि अगर मा’रिफ़त इ’ल्म और अ’क़्ल से होती तो हर आ’लिम और आ’क़िल आ’रिफ़ होता, हालाँकि ऐसा नहीं है।हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह का ख़याल है कि मा’रिफ़त उसी बंदा को हासिल होती है जिस पर ख़ुदावंद तआ’ला की इ’नायत हो।वही दिल को खोलता है, और बंद करता है, कुशादा करता है, और मुहर लगाता है।अ’क़्ल और दलील मा’रिफ़त का ज़रिआ’ हो सकती है मगर इ’ल्लत नहीं।इ’ल्लत सिर्फ़ उसकी इ’नायत है। चुनाँचे हज़रत अ’ली रज़ियल्लाहु अ’न्हु ने फ़रमाया कि ख़ुदा को मैंने ख़ुदा ही से पहचाना, और ख़ुदा के सिवा को उसके नूर से पहचाना।

मा’रिफ़त क्या है? इस पर हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने सूफ़िया-ए-किराम के अक़्वाल की रौशनी में बह्स की है। हज़रत अ’ब्दुल्लाह बिन मुबारक रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते हैं कि मा’रिफ़त ये है कि किसी चीज़ पर तअ’ज्जुब न हो, क्यूँकि तअ’ज्जुब उस फ़े’ल से होता है, जो मक़दूर से ज़्यादा हो, लेकिन ख़ुदा तआ’ला हर कमाल पर क़ादिर है, फ़िर आ’रिफ़ के उसके अफ़्आ’ल पर तअ’ज्जुब क्यूँ हो।हज़रत ज़ुन्नून मिस्री रहमतुल्लाह अ’लैह का क़ौल है कि मा’रिफ़त की हक़ीक़त ये है कि अल्लाह तबारक-ओ-तआ’ला पैहम लताइफ़ के अनवार से बंदा को अपने असरार से आगाह या’नी उसके दिल को रौशन और आँख को बीना कर के उसको तमाम आफ़तों से महफ़ूज़ रखे।उसके दिल में ख़ुदा के सिवा मौजूदात और मुश्ब्बतात का ज़र्रा बराबर वज़्न क़ाएम होने न दे जिसके बा’द बंदा ज़ाहिरी और बातिनी असरार का मुशाहदा करता रहता है।शैख़ शिब्ली अ’लैहिर्रहमा फ़रमाते हैं कि मा’रिफ़त हैरत-ए-दवाम का नाम है।हैरत दो तरह पर होती है, एक हस्ती में दूसरो चिगूनगी में।हस्ती में हैरत का होना शिर्क और कुफ़्र है, और चिगूनगी में मा’रिफ़त क्यूँकि ख़ुदा की हस्ती में शक नहीं किया जा सकता, मगर उसकी हस्ती की चिगूनगी से यक़ीन-ए-कामिल पैदा होता है, और फ़िर हैरत।हज़रत बायज़ीद बुस्तामी रहमतुल्लाह अ’लैह का क़ौल है कि मा’रिफ़त ये है कि बंदा को ये मा’लूम हो जाए कि मख़्लूक़ की तमाम हरकात-ओ-सकनात ख़ुदा की तरफ़ से हैं, किसी को ख़ुदा के इज़्न के बग़ैर उसके मिल्क में तसर्रुफ़ नहीं है, और हर चीज़ की ज़ात उसकी ज़ात से है, हर चीज़ का असर उसके असर से है, हर शय की सिफ़त उसकी सिफ़त से है, मुतहर्रिक उससे मुतहर्रिक है, और साकिन उससे साकिन है।बंदा का फ़े’ल महज़ मिजाज़न है, वर्ना हक़ीक़त वो फ़े’ल ख़ुदावंद-ए-आ’लम का है।

तौहीदः-

दूसरा पर्दा तौहीद का है।तौहीद तीन तरह पर होती है।(1) या’नी ख़ुदावंद तआ’ला को ख़ुद भी अपनी वहदानियत का इ’ल्म है (2) ख़ुदावंद तआ’ला बंदों को अपनी वहदानियत तस्लीम करने का हुक्म देता है (3) बंदों को ख़ुदावंद तआ’ला की वहदानियात का इ’ल्म होता है, और जब सालिक को ये इ’ल्म ब-दर्जा-ए-अतम हासिल होता जाता है, तो वो महसूस करता है, कि ख़ुदावंद तआ’ला एक है जो फ़स्ल-ओ-वस्ल को क़ुबूल नहीं करता।वो क़दीम है, इसलिए हादिस नहीं।वो महदूद नहीं जिसके लिए तरफ़ैन हों।वो मकीन नहीं जिसके लिए मकान हो, वो अ’र्ज़ नहीं जिसके लिए जौहर हो, वो कोई तब्अ’ नहीं कि उसमें हरकत और सुकून हो, वो कोई रूह नहीं कि उसके लिए बदन हो, वो कोई जिस्म नहीं कि उसके लिए आ’ज़ा हों, वो क़ूवत और हाल नहीं कि और चीज़ों की जिंस हो।वो किसी चीज़ से नहीं कि कोई चीज़ उसका जुज़्व हो।उसकी ज़ात-ओ-सिफ़ात में कोई तग़य्युर नहीं। वो ज़िंदा रहने वाला है, देखने वाला है, कलाम करने वाला है, और बाक़ी रहने वाला है।वो जो कुछ चाहता है, वही करता है, और वही चाहता है, जो जानता है। उसका हुक्म उसकी मशिय्यत से है, और बंदों को उसके बजा लाने के सिवा कोई चारा नहीं।वही नफ़अ’ और नुक़्सान का बा’इस है।वही नेकी और बदी का अंदाजा करने वाला है।

ईमानः

तीसरा पर्दा ईमान का है।इसमें ये बह्स है कि ईमान की इ’ल्लत क्या है। मा’रिफ़त या ताअ’त।एक गिरोह का ख़याल है कि ईमान की इ’ल्लत मा’रिफ़त है।अगर मा’रिफ़त हो और ताअ’त न हो तो अल्लाह तआ’ला बंदा से मुआख़ज़ा न करेगा, लेकिन ताअ’त हो और मा’रिफ़त न हो तो बंदा नजात नहीं पाएगा।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक वो मा’रिफ़त पसंदीदा नहीं है, जिसमें ताअ’त न हो। उनके नज़दीक मा’रिफ़त शौक़ और मोहब्बत का नाम है, और शौक़ और मोहब्बत की अ’लामत ताअ’त है।शौक़ और मोहब्बत जिस क़द्र ज़्यादा होती जाएगी उसी क़द्र फ़रमान-ए-इलाही की ता’ज़ीम बढ़ती जाएगी।ये कहना ग़लत है कि ताअ’त की ज़रूरत उसी वक़्त तक है जब तक ख़ुदावंद तआ’ला की मा’रिफ़त हासिल न हो।और हुसूल-ए-मा’रिफ़्त के बा’द शौक़ का महल बन गया, और जिस्मानी ताअ’त की तक्लीफ़ ऊठ गई,बल्कि सहीह ये है कि जब क़ल्ब ख़ुदा की दोस्ती का महल, आँखें उसके दीदार का महल, जान इ’ब्रत का महल,दिल मुशाहदा का मक़ाम हो गया तो फिर तन को उसकी ताअ’त तर्क न करनी चाहिए।

तहारतः-

चौथा पर्दा तहारत का है।हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक ईमान के बा’द तहारत फ़र्ज़ है। इसकी दो क़िस्में हैं 1. तहारत-ए-ज़ाहिर 2. तहारत-ए-बातिन। तहारत-ए-ज़ाहिर से मुराद बदन का पाक होना है, जिसके ब-ग़ैर नमाज़ दुरुस्त नहीं, और तहारत-ए-बातिन से मुराद दिल का पाक होना है, जिसके ब-ग़ैर मा’रिफ़त हासिल नहीं हो सकती।बातिन की तहारत ख़ुदा की बारगाह में तौबा से होती है, जो सालिक का पहला मक़ाम है। तौबा के मा’नी हैं ख़ुदावंद तआ’ला के ख़ौफ़ से उसके नवाही से बाज़ रहना।तौबा के लिए तीन शर्तें हैं 1. ख़ुदा के हुक्म की मुख़ालफ़त पर तअस्सुफ़ हो 2. ये मुख़ालफ़त फ़ौरन तर्क कर दी गई हो। 3. उसकी तरफ़ लौटने का ख़याल न हो।ये शर्त उसी वक़्त मुमकिन है जब नदामत हो। इस नदामत के लिए भी तीन शर्तें हैं। 1. उ’क़ूबत का ख़ौफ़ हो, 2. ये ख़याल हो कि बुरे कामों का हासिल कुछ भी नहीं 3. नाफ़रमानियों से पशेमानी हो कि ख़ुदा सब कुछ देखता है।

नदामत से तौबा करने वालों की भी तीन क़िस्में हैं।

1.    अ’ज़ाब के डर से, इसको तौबा कहते हैं जो आ’म बंदे किया करते हैं।

2.    सवाब की ख़्वाहिश से, ये इनाबत है जो औलिया-अल्लाह के लिए मख़्सूस है।

3.    हुसूल-ए-इ’र्फ़ान के लिए, ये इ’ज़ाबत है,जो अंबिया-ओ-मुर्सलीन के लिए है।आगे चल कर तौबा की भी तीन क़िस्में बताई गई हैं।

1.    ख़िताब से सवाब की जानिब हो, या’नी गुनाह करने वाला बख़्शिश का ख़्वासत्गार हो, ये तौबा आ’म है।

2.    सवाब से सवाब की तरफ़ हो, ये अहल-ए-हिम्मत और ख़ास लोगों की तौबा है।

3.    ख़ुदी से हक़ तआ’ला की तरफ़ हो, ये मोहब्बत की दलील है।

नमाज़ः-

पाँचवाँ हिजाब नमाज़ का है। इस में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने सूफ़ियाना रंग में बताने की कोशिश की है कि नमाज़ बंदों को ख़ुदा के रास्ता पर पुहँचाती है, और उन पर उस राह के तमाम मक़ामात खुल जाते हैं।वज़ू या’नी जिस्म की तहारत तौबा या’नी बातिन की तहारत है।क़िब्ला रू होना, मुर्शिद से तअ’ल्लुक़ पैदा करना है।क़ियाम नफ़्स का मुजाहदा है। क़िराअत ज़िक्र है।रुकूअ’ तवाज़ो’ है।सज्दा नफ़्स की मा’रिफ़त है।तशह्हुद उन्स या’नी मोहब्बत का मक़ाम है, और सलाम दुनिया से तंहा हो कर मक़ामात से बाहर आना है।

नमाज़ के सिलसिला में बहुत सी बह्सें हैं।मस्लन सूफ़िया का एक गिरोह नमाज़ को हुज़ूर का ज़रिआ’ (आला) और दूसरा ग़ैबत का महल समझता है।लेकिन हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने दोनों की तर्दीद की है। उनके दलाइल ये हैं, कि अगर नमाज़ हुज़ूर की इ’ल्लत होती तो नमाज़ के सिवा हुज़ूरी न होती ।और अगर ग़ैबत की इ’ल्लत होती तो ग़ाएब नमाज़ को तर्क करने से हाज़िर होता, चुनाँचे हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक नामज़ महज़ अपनी ज़ात का एक ग़लबा है, जिसका तअ’ल्लुक़ ग़ैबत और हुज़ूर से नहीं।

एक बह्स ये भी है, कि नमाज़ से तफ़रिक़ा होता है, या जम्अ’। जिनको नमाज़ में तफ़रिक़ा होता है, वो फ़र्ज़ और सुन्नत के सिवा नमाज़ें बहुत कम पढ़ते है, और जिनको जम्अ’ की कैफ़ियत हासिल होती है, वो रात दिन नमाज़ पढा करते हैं।शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक नमाज़ पढ़ने वालों के लिए नफ़्स का फ़ना करना ज़रूरी है, मगर उसके लिए हिम्मत को जम्अ’ करने की ज़रूरत है।और जब हिम्मत जम्अ’ हो जाती है, तो नफ़्स का ग़लबा ख़त्म हो जाता है, क्यूँकि नफ़्स की हुकूमत तफ़रिक़ा से क़ाएम रहती है। तफ़रिक़ा इ’बादत के साथ जम्अ’ नहीं हो सकता।

हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह की राय में अस्ली नमाज़ ये है कि जिस्म आ’लम-ए-नासूत में हो, और रूह आ’लम-ए-मलकूत में।सूफ़िया-ए-किराम ने ऐसी नमाज़ें पढ़ी हैं। हज़रत हातिम असम रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते थे कि जब मैं नमाज़ पढ़ता हूँ तो बिहिश्त को अपनी सीधी जानिब और दोज़ख़ को पुश्त की जानिब देखता हूँ।हज़रत अबुल ख़ैर अक़्ता’ के पावँ में आकला हो गया था। अतिब्बा ने पावँ काटना चाहा, मगर वो राज़ी न हुए।एक रोज़ वो नमाज़ से फ़ारिग़ हुए, तो पावँ को कटा हुआ पाया।एक बीबी को नमाज़ में बिच्छू ने चालीस बार डंक मारा मगर उनकी हालत में किसी क़िस्म का तग़य्युर न हुआ।और वो नमाज़ से फ़ारिग़ हुईं तो उनसे पूछा गया कि बिच्छू को क्यूँ नहीं अपने से दूर किया।उन्हों ने जवाब दिया कि ख़ुदा के काम के दर्मियान अपना काम कैसे करती।मर्दों के लिए नमाज़-ए-बा-जमाअ’त की ताकीद हर-हाल में की है, चुनाँचे उन्हों ने ख़ुद चालीस बरस की मुसलसल सियाहत में हर वक़्त की नमाज़ बा-जमाअ’त अदा की, और जुमआ’ की नमाज़ किसी क़स्बा में पढ़ी।जैसा कि पहले ज़िक्र आ चुका है।

ज़कातः-

छट्ठा हिजाब ज़कात है, जो ईमान का जुज़्व है।इस से रु-गर्दानी जाइज़ नहीं।सालिक को ज़कात में न सिर्फ़ सख़ी, बल्कि जव्वाद होना चाहिए।सख़ी सख़ावत के वक़्त अच्छे और बुरे माल में और उसकी ज़ियादती-ओ-कमी में तमीज़ करता है, मगर जव्वाद के हाँ इस क़िस्म का फ़र्क़-ओ-इम्तियाज़ नहीं होता।

इस मौक़ा’ पर एक सवाल ये पैदा हो सकता है कि सूफ़ी के फ़क़्र में ज़कात की गुनजाइश कहाँ? मगर हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक ज़क़ात सिर्फ़ माल ही नहीं हर शय की होती है।ज़कात की हक़ीक़त ने’मत की शुक्र-गुज़ारी है। तंदुरुस्ती एक ने’मत है जिसके लिए ज़कात लाज़िम है। इसकी ज़क़ात सब आ’ज़ा को इ’बादत में मशग़ूल करना है।बातिन भी एक ने’मत है, इसकी ज़कात इ’रफ़ान हासिल करना है।

रोज़ा सातवाँ हिजाब है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक रोज़ा से मुराद हवास-ए-ख़म्सा को इस तरह मुक़य्यद करना है, कि नफ़्स-ओ-हवा का गुज़र न हो।भूक से बह्स करते हुए बताया है, कि इससे नफ़्स में फ़तादगी और दिल में आ’जिज़ी पैदा होती है।अगर्चे भूक से जिस्म बला में मुब्तला होता है, लेकिन दिल को रौशनी, जान को सफ़ाई और सर को बक़ा हासिल होती है।हज़रत अबुल अ’ब्बास क़स्साब रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते थे कि जब मैं खाता हूँ तो अपने में गुनाहों का माद्दा पाता हूँ,और जब खाने से हाथ उठा लेता हूँ तो सब ताअ’तों की अस्ल पाता हूँ।हज़रत अ’ब्दुल्लाह तुस्तरी रहमतुल्लाह अ’लैह पंदरह रोज़ में एक दफ़आ’ खाना खाते थे, और जब माह-ए-रज़मानुल मोबारक शुरूअ’ होता था, तो मा’मूली इफ़्तार के सिवा ई’द तक वो कुछ नहीं तनाउल फ़रमाते। हज़रत इब्राहीम अदहम भी रमज़ानुल मोबारक में कोई चीज़ नहीं खाते थे, हालाँकि सख़्त गर्मी का मौसम होता था।रोज़ाना गेहूँ काटने के काम पर जाया करते थे, और जो कुछ मज़दूरी मिलती थी उसको फ़ुक़रा और मसाकीन को दे दिया करते थे।

हजः-

आठवाँ हिजाब हज का है। हज़रत हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह के नज़दीक हज के लिए एक सूफ़ी का निकलना गुनाहों से तौबा करना है। कपड़े उतार कर एहराम बाँधना इंसानी आ’दतों से अ’लाहिदा होना है। अ’रफ़ात में क़ियाम करना मुशाहदा का कश्फ़ हासिल करना है। मुज़्दलफ़ा जाना नफ़्सानी मुरादों को  तर्क करना है।ख़ाना-ए-का’बा का तवाफ़ करना ख़ुदा तआ’ला के जमाल-ए-बा-कमाल को देखना है।सफ़ा और मर्वा में दौड़ना दिल की सफ़ाई और उस में मुरुव्वत हासिल करना है।मिना में आना आरज़ूओं को साक़ित करना है।कुर्बानी करना गोया नफ़्सानी ख़्वाहिशों को ज़ब्ह करना है और कंकरियाँ फेंकना बुरे साथियों को दूर करना है।जिस सूफ़ी को हज में ये कैफ़ियात हासिल नहीं हुईं उस ने गोया हज नहीं किया।

मुशाहदाः-

हज़रत शैख़ हुज्वेरी ने हज को मक़ाम-ए-मुशाहदा क़रार दिया है, इसलिए इब बाब में मुशाहदा पर बह्स की है।हज़रत अबुल-अ’ब्बास ने फ़रमाया कि मुशाहदा यक़ीन की सेहत और मोहब्बत का ग़लबा है।

या’नी जब ख़ुदावंद तआ’ला की मोहब्बत का ग़लबा इस दर्जा पर हो कि उसकी कुल्लियत उसकी हदीस हो जाए, तो फिर अल्लाह के सिवा कोई और चीज़ दिखाई नहीं देती।हज़रत शैख़ शिब्ली रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते हैं कि मैं ने जिस चीज़ की तरफ़ देखा, ख़ुदावंद-ए-आ’लम के लिए देखा, या’नी उसकी मोहब्बत का ग़लबा और उसकी क़ुदरत का मुशाहदा किया।इन दोनों अक़्वाल से ज़ाहिर होता है, कि मुशाहदा में एक गिरोह फ़ाइ’ल को और दूसरा फ़ाइ’ल के फ़े’ल के देखता है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी के नज़दीक मुशाहदा दिल का दीदार है।दिल परतव-ए-  अनवार-ए-इलाही है, इसलिए ज़ाहिर और बातिन में हक़ तआ’ला का दीदार करता है, और ये दीदार कैफ़ियत है जो ज़िक्र-ओ-फ़िक्र में हासिल होती है।

आदाब-ए-सालिकः-

इसके बा’द मुख़्तलिफ़ अब्वाब में हज़रत शैख़ हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैह ने सालिक के तरीक़-ए-आदाब पर बह्स की है, जिसका ख़ुलासा ये है कि (1) सालिक हर हाल में हक़ के अहकाम का इत्तिबाअ’ करता हो। (2) बंदों का हक़ भी अदा करता हो (3) उसके लिए कीसी शैख़ की सोहबत ज़रूरी है, क्यूँकि तंहाई उसके लिए आफ़त है (4) जब कोई दरवेश उसके पास आए, तो इ’ज़्ज़त के साथ उसका इस्तिक़बाल करे (5) सफ़र करे तो ख़ुदा के वास्ते करे या’नी उसका सफ़र हज या ग़ज़वा या इ’ल्म या किसी शैख़ की तुर्बत की ज़ियारत के लिए हो (6) उसका खाना और पीना बीमारों के खाने और पीने के मानिंद हो, और हलाल हो वो।दुनिया-दार की दा’वत क़ुबूल न करे (7) चले तो ख़ाक-सारी और तवाज़ो’ से चले।रऊ’नत और तकब्बुर इख़्तियार न करे (8) उसी वक़्त सोए जब नींद का ग़लबा हो (9) ख़ामोश रहे, क्यूँकि ख़ामोशी गुफ़्तार से बेहतर है, लेकिन गुफ़्तार के साथ हक़ हो तो वो खामोशी से बेहतर है (10) किसी चीज़ की तलब करे तो ख़ुदा से करे (11) तजर्रुद की ज़िंदगी सुन्नत के ख़िलाफ़ है। इसके अ’लावा तजर्रुद में नफ़्सानी ख़्वाहिशात का ग़लबा रहता है, लेकिन अगर सालिक ख़ल्क़ से दूर रहना चाहता हो तो मुजर्रद रहना उसके लिए ज़ीनत है।  

समाअ’-

आख़िर में समाअ’ पर बह्स है।हज़रत शैख़ हुज्वेरी के नज़दीक समाअ’ मुबाह है मगर इसके लिए हसब-ए-ज़ैल शर्तें हैं।सालिक समाअ’ बिला ज़रूरत न सुने और तवील वक़्फ़ा के बा’द सुने, ताकि उसकी ता’ज़ीम दिल में क़ाएम रहे।महफ़िल-ए-समाअ’ में मुर्शिद मौजूद हो।अ’वाम शरीक न हों।क़व्वाल फ़ासिक़ न हों ।समाअ’ के वक़्त दिल दुनियावी अ’लाइक़ से ख़ाली हो । तबीअ’त लह्व-ओ-लइ’ब की तरफ़ माइल न हो, अगर वज्द की कैफ़ियत तारी हो जाए तो उसको तकलीफ़ के साथ न रोके, और ये कैफ़ियत जारी रहे तो तकलीफ़ के साथ इसको जज़्ब करने की कोशिश ने करे।वज्द के वक़्त किसी से मुसाअ’दत की उम्मीद न रखे और कोई मुसाअ’दत करे तो उसको न रोके।क़व्वाल के गाने की अच्छाई और बुराई का इज़हार न करे।

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