दूल्हा और दुल्हन का आरिफ़ाना तसव्वुर – शमीम तारिक़

दूल्हा और दुल्हन बहुत आम फ़हम अलफ़ाज़ हैं। इनकी तहज़ीबी हैसियत और समाजी मानविय्यत से वो भी वाक़िफ़ हैं जिन्हें दूल्हा या दुल्हन बनने का मौक़ा मिल चुका है और वो भी जो दूसरों की बारात या रुख़्सती देखने पर इक्तिफ़ा करते रहे हैं मगर सूफ़ी और भक्त शाइरों के कलाम में ये दोनों लफ़्ज़ एक मुकम्मल मानवियाती कहकशां का इस्तिआरा हैं और उनका इदराक वही कर सकता है जिसकी आँख के साथ दिल भी रौशन हो । मिसाल के तौर पर कबीर ने अपनी नज़्म (पद) में ज़ात-ए-मुतलक़ को अबिनासी (ला-फ़ानी) दूल्हा कहा है।

कहत कबीर सुनो भाई प्यारे
बर पायो अबिनासी

इसी तरह मीराबाई ने जो समझती थीं कि उनकी शादी गिरधर गोपाल से हो चुकी है और वो उन ही की मूर्ति के सामने सुरूर-व-मस्ती के आलम में भजन गाती हुई नाचती रहती थीं, एतिराफ़ किया है कि

साज सिंगार बांध पग घुंघरू
लोक लाज तज नाची

इन दोनों मिसालों की रौशनी में ज़हन में ये तजस्सुस पैदा होना बरहक़ है कि मीरा को तो ख़ैर, उन की बचपन की मासूमियत ने बावर करा दिया था कि गिरधर गोपाल उनके दूल्हा हैं और वो सन्न-ए-शुऊर को पहुंचने के बाद उन्ही को अपने इष्ट देवता के रूप में देखने लगी थीं कि सगुण भक्ति उनके मिज़ाज और ख़ानदानी रिवायात का हिस्सा थी मगर कबीर तो निर्गुण भक्ति के अलमबर्दार की हैसियत से सृजनहार को किसी ख़ास शक्ल में देखने और पूजने के क़ाएल ही नहीं थे:

निरंकार र्निगुन अबिनासी
अपार अथाह अंग

और उन्हें हक़ीक़त का भी एहसास था कि दूलहा और दुल्हन का समाजी और तहज़ीबी तसव्वुर जिस्म और जिस्मानियत के बग़ैर नहीं है। सज-धज के घोड़े पर सवार हो कर दुल्हन रुख़स्त कराने वही आता है जो जिस्म का मालिक हो । इन्सान की समाजी तारीख़ में किसी ग़ैर मुरई वजूद के दूल्हा बन कर आने और दुल्हन रुख़स्त कराके ले जाने का कोई तसव्वुर नहीं है और फिर जो दूलहा बन कर आता है और दुल्हन रुख़स्त कराके ले जाता है इस का ख़ुद भी एक दिन कफ़न पहन कर दुनिया से रुख़स्त हो जाना यक़ीनी है इसलिए कबीर का ज़ात-ए-मुतलक़ को दूलहा कहना और फिर अबिनासी की सिफ़त इस्तेमाल करके उस दूल्हे को आम दूल्हों से मुख़्तलिफ़ साबित करना मानविय्यत से ख़ाली नहीं है।
ये तजस्सुस उस वक़्त और बढ़ जाता है जब मालूम होता है कि अपने आपको दुल्हन समझने और अपने वजूद को ला-फ़ानी दूल्हे के वजूद में फ़ना कर देने का तसव्वुर सगुण और निर्गुण भक्ति के अलंबरदारों में ही नहीं मुस्लिम सूफ़ियों और शाइरों के कलाम में भी मौजूद है जो हैय्युल-लज़ी-लायमूतु पर ईमान रखते थे। मीराँ जी शम्सुल-उश्शाक़ (मीम.1496 ई.), शेख़ बहाउद्दीन बाजन (मीम 1506 ई.), क़ाज़ी महमूद दरियाई (मीम 1524 ई.), शाह अली जी गाम धनी (मीम 1565 ई.) और ख़ूब मुहम्मद चिशती (मीम 1614 ई.) जिनका ज़माना पंद्रहवीं, सोलहवीं और सत्रहवीं सदी का है इस लिहाज़ से बहुत अहम हैं कि लफ़्ज़ियात-व-मौज़ूआत के अलावा मजमूई तअस्सुर के एतिबार से भी उनका कलाम संत कवियों के कलाम के मुशाबेह है । इन्होंने “पिया मिलन” की तमन्ना का इज़हार भी औरत की ज़बान-ओ-लहजे में किया है मिसाल के तौर पर मीराँ जी शम्सुल-उश्शाक़ की नज़्म “ख़ुश नामा” की अहम किरदार “ख़ुश” नाम की लड़की है जिसको शम्सुल-उश्शाक़ ने “गुणवंती” और “सती” जैसे औसाफ़ से मुत्तसिफ़ किया है। उनके नज़्दीक “ख़ुश” नामी उस लड़की पर अल्लाह का सुहाग है यानी वो हमेशा के लिए अल्लाह की हो चुकी है इसलिए वो जे़ब-व-ज़ीनत के सामान मसलन हल्दी, मेहंदी से गुरेज़ करती और अल्लाह से लौ लगाए हुए निहायत सादा ज़िंदगी बसर करती है । उनकी एक दूसरी नज़्म “ख़ुश नग़्ज़” के हर बाब की इब्तिदा “ख़ुश पूछी” या “ख़ुश कही” से हुई है और सवाल-व-जवाब की सूरत में इश्क़-व-इर्फ़ान के रुमूज़-व-हक़ाएक़ बयान किए गए हैं । शाह बुरहानुद्दीन जानम (मीम 1583 ई.) और शाह अमीनुद्दीन आला (मीम 1675 ई.) शम्सुल-उश्शाक़ के बेटे और पोते थे। उनके कलाम में शम्सुल-उश्शाक़ का ही रंग झलकता है ।
शेख़ बहाउद्दीन बाजन के तख़ल्लुस से ही ज़ाहिर है कि उन्हें राग रागनियों में बड़ी दिल-चस्पी थी । उनकी शायरी में हिन्दुस्तानियत का रंग इतना चोखा है कि एक नज़्म का उनवान ही “जंग नामा-ए-शलवार व पिशवाज़ व साड़ी” है जिसमें साड़ी और पिशवाज़ (लहंगे की क़िस्म की ईरानी पोशाक जो आगे से खुली होती है और फ़ारस में क़ुबा-ए-पेश-बाद कहलाती है) को सोकनीं क़रार दे कर तिम्सीली अंदाज़ में उनके दरमियान जंग की मंज़र-कशी की गई है और फिर नतीजा ये निकाला गया है कि ईरानी लिबास के मुक़ाबले हिन्दुस्तानी लिबास साड़ी और चोली ज़्यादा लायक़-ए-एहतिराम है । कम-कम सही उनके कलाम में औरत की तरफ़ से तख़ातुब की मिसालें भी मिल जाती हैं।

मितवा आओ घड़ी, तो कब तक रहे बिदेस
बाजन जीहूं साजन पाऊँ, फूलों सेज बिछाऊँ री
नैनन सियतीं बाद बहारों पाऊँ जो, बल्ली जाऊँ री

क़ाज़ी महमूद दरियाई बुलंद पाये बुज़ुर्ग थे। उनका लक़ब “दरियाई दूल्हा” था और गुजरात के लोग उन्हें “ख़्वाजा ख़िज़्र” का दर्जा देते थे। उन्होंने अपने कलाम में ख़ुद को “दुल्हन” और मालिक-व-ख़ालिक़ को “दूल्हा” क़रार दिया है। इसी तरह शाह अली जी गाम धनी के कलाम में भी तख़ातुब औरत की तरफ़ से है । ख़ूब मुहम्मद चिश्ती के कलाम में औरत की तरफ़ से तख़ातुब की मिसालें ख़ाल-ख़ाल हैं अलबत्ता उनकी शाइरी की पूरी फ़िज़ा हिंदू तलमीहात और तसव्वुरात से मामूर है । उनकी तख़्लीक़ात से ज़ाहिर हो जाता है कि कबीर और मीरा की तरह ख़ुदा को दूल्हा और ख़ुद को दुल्हन समझने या एक ला-फ़ानी वजूद में अपनी हस्ती को फ़ना कर देने का तसव्वुर गुजरी और दक्नी के क़दीम सूफ़ी शाइरों में मक़बूल हो चुका था । वक़्त के साथ ये तसव्वुर दूसरे इलाक़ों और इलाक़ाई बोलियों के सूफ़ी शाइरों में भी मक़बूल होता गया । ब्रज भाषा के शाइर शाह मुहम्मद काज़िम क़लंदर (मीम 1806 ई.) और शाह तुराब अली क़लंदर (मीम 1858 ई.) ने बिरह की मारी, मिलन को तरस्ती दुल्हन के जज़्बात की तर्जुमानी के साथ विसाल और ख़ुदसुपुर्दगी के जज़्बात की तर्जुमानी में भी ग़ज़ब की तासीर पैदा की है। पंजाब व सिंध के सूफ़ी शाइरों ने भी ख़ुद को सृजनहार की दुल्हन समझने, उससे विसाल की तमन्ना करने और विसाल से पहले विसाल के तसव्वुर से सरशार हो जाने की बड़ी ख़ूबसूरत मिसालें पेश की हैं। बुल्ले शाह (मीम 1757 ई.) ने अपनी ऐसी ही एक नज़्म में क़ुरआनी अल्फ़ाज़-व-आयात के इस्तेमाल से अज़ल-व-अबद के दो किनारों को अपनी साँसों में समो लेने की कोशिश की है:

होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी बूंद अल्लाह अल्लाह
रंग रंगीली ओही खिलावे जो सखी होवे फ़ना-फ़िल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
अलस्तु-बिरब्बिकुम पितयम बोले सब सखियां ने घुंघट खोले
क़ालू-बला ही यूं कर बोले ला-इलाहा इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
नहनु-अक़रबु की बंसी बजाई मिन-अफ़्वु-नफ़्सिहि की कूक सुनाई
फ़सुम्मा-वजहुल्लाह की धूम मचाई विच दरबार-ए-रसूलुल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
हाथ जोड़ कर पांव पड़ूँगी आजिज़ हो कर बिनती करूँगी
झगड़ा कर भर झोली लूँगी नूर-ए-मुहम्मद-सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
फ़ाज़कुरूनी की होरी बनाऊँ वश्क़ुरूली कह प्यार झाऊं
ऐसे पिया के मैं बल बल जाऊं, कैसा पिया सुबहानल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह
सिबग़तुल्लाह की भर पिचकारी अल्लाहुस्समद पिया पर मारी
नूर-ए-नबी दाहक़ से जारी नूर-ए-मुहम्मद सल्लल्लाह
बुल्हा शाह दी धूम मची है ला-इलाहा इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह

बुल्ले शाह के इस गीत में होरी(होली) घुंघट(घूँघट) जैसे लफ़्ज़ों के साथ “होरी खेलूँगी कह बिस्मिल्लाह” जैसे मिस्रों से जहां इस हिन्दुस्तानी ज़हन व तहज़ीब की नुमाइंदगी होती है जिनकी सूरत-गरी में भक्ति के रंग और कैफ़ियत ने बहुत अहम किरदार अदा किया है वहीं बिस्मिल्लाह, फ़ना फ़िल्लाह, अलस्तु, क़ालू-बली, नहनु-अक़रबु, फ़ज़कुरूनी, अश्क़ुरूली, सिब्ग़तुल्लाह जैसी इस्तिलाहात से जो क़ुरआने-हकीम से माख़ूज़ हैं इस हक़ीक़त-व-कैफ़ियत का इज़हार होता है जो अल्लाह के ज़िक्र का मंतक़ी नतीजा है। अल्लाहुस्समद मालिके कौनेन के ज़ाती व सिफ़ाती नाम हैं। नबी, नबी रहमत(स.) के लिए है जिनके तवस्सुत से अल्लाह का कलाम हम तक पहुंचा। उनके ज़रीये आलम-ए-अर्वाह में इन्सान के अहद या उस अहद-ए-अलस्तु को याद दिलाने की कोशिश की गई है जिसको इस दुनिया में आने के बाद इन्सान भूल गया था यानी अल्लाह के वहदहू-लाशरीक होने का इक़रार इन्सान की सरिश्त में शामिल है लेकिन ये उस की बदबख़ती है कि अक्सर वो अपनी सरिश्त से भी बग़ावत पर उतर आता है । सूफ़िया उस को इस बग़ावत से रोक कर सआदत की राह पर लाने के लिए ऐसे औराद-व-इश्ग़ाल तालीम करते हैं जिनकी मश्क़ के दौरान वो रुहानी इर्तिक़ा के मुख़्तलिफ़ मक़ामात से गुज़रता और चश्म-ए-तसव्वुर से अपने मालिक-ए-हक़ीक़ी के जल्वे देख देख कर हैरान होता जाता है । इस हैरत में वो कुछ आहटें और आवाज़ें भी सुनता है दूसरे लफ़्ज़ों में इस का अक़ीदा और मुशाहिदा एक हो जाता है। “होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह में अक़ीदे और मुशाहदे की इसी हम-आहंगी का ऐलान है। यहां एक और नुक्ता तवज्जो का मुस्तहिक़ है कि बुल्लेह शाह ने फ़ज़कुरूनी और वशकुरूली जैसे अलफ़ाज़ क़ुरआने-हकीम की जिस सूरह् (बक़रा) से लिए हैं इसी सूरत में नबी रहमत की आमद का मुज़्दा सुनाते हुए कहा गया है कि

जिस तरह तुम लोगों में हमने एक अज़ीमुश्शान रसूल को भेजा तुम ही में से हमारी आयात (व अहकाम) पढ़ पढ़ कर तुमको सुनाते हैं और जिहालत से तुम्हारी सफ़ाई करते रहते हैं और तुमको किताब (इलाही) और फ़हम की बातें बतलाते रहते हैं और तुमको ऐसी मुफ़ीद बातें तालीम करते रहते हैं जिनकी तुमको ख़बर भी न थी।

इस का मतलब है कि जो सूफिया बहुत ज़्यादा मतबा सुन्नत नहीं थे उनके कलाम में भी नबी रहमत की सुन्नत की इत्तिबा का एहसास मौजूद है।
मुंदरजा बाला तफ़हीम-ओ-तशरीह से ये हक़ीक़त वाज़ेह हो जाती है कि सूफ़ी संत और भक्त इन्सानों के मिज़ाज-ओ-किरदार के अलावा लफ़्ज़ों की मानवी बिसात पलटने पर भी क़ादिर हैं और इस की वजह ये है कि इश्क़ की एक ख़ास कैफ़ियत या मुशाहदा-ए-हक़ के एक ख़ास मरहले में उन्हें जो शक्लें नज़र आती हैं, आहटें सुनाई देती हैं या लज़्ज़तें महसूस होती हैं उनको बयान करने के लिए उनके पास मुनासिब अलफ़ाज़ नहीं होते। इसलिए वो इन शक्लों, आहटों और लज़्ज़तों को बयान करने के लिए वही अलफ़ाज़-ओ-अलाइम इस्तेमाल करने पर मजबूर होते हैं जो उनकी मज़हबी और तहज़ीबी विरासत का हिस्सा होते हैं । लेकिन चूँकि ऐसा करते हुए तख़्लीक़ी क़ुव्वत और शेरी-व-रुहानी बसीरत उनके साथ होती है इसलिए उनके इस्तेमाल किए हुए लफ़्ज़ों की मानियाती जिहात बदलती जाती हैं और आदमी से आदमी के इश्क़ का इज़हार करने वाले अलफ़ाज़-व-अलाइम में “सृजन हार” यानी इन्सान और कायनात को पैदा करने वाले की मोहब्बत की शान पैदा हो जाती है । दूलहा और दुल्हन ऐसे ही अलफ़ाज़ हैं जो सूफ़ियों और संतों की शेरी बसीरत में ढल कर अबद-व-माबूद के वस्ल का इस्तेआरा बन गए हैं और अहम बात ये है कि इस्लाम और हिंदू धर्म में हक़ से विसाल का तसव्वुर अगरचे अलग अलग है मगर शेरी सतह पर हिंदू भक्तों और मुस्लिम सूफ़ियों ने एक ही अंदाज़ में अपने फ़ानी वजूद को एक ला-फ़ानी वजूद में ज़म कर देने या अपनी रूह को दुल्हन और ज़ाते मुतलक़ को दूल्हा समझते हुए रूह को रूहे मुतलक़ में फ़ना कर देने की तमन्ना का इज़हार किया है। यही नहीं इस तमन्ना के इज़हार में बहुत से सूफ़ियों ने भक्तों की तरह औरत का लब-व-लहजा भी इख़्तियार किया है । चूँकि हिंदू दर्शन में आराध्य मर्द है और आराधक औरत, और वैष्णवों ने उसूल के तौर पर इस बात को तस्लीम किया है कि ख़ालिस मोहब्बत औरत के दिल में ही हो सकती है इसलिए मशहूर हो गया है कि मुस्लिम सूफ़ियों और शाइरों ने औरत के लब-ओ-लहजे में तख़ातुब का जो अंदाज़ इख़्तियार किया है वो हिंदू दर्शन और हिन्दुस्तानी शेरियात से उनके मुतअस्सिर होने का नतीजा है । किसी हदतक ये सही भी है । सूफ़ियों और मुस्लमान शाइरों ने हिन्दुस्तानी फ़िक्र-ओ-फ़ल्सफ़ा, शेरियात और मज़हब-व-तहज़ीब से इस्तिफ़ादा करने में बड़ी फ़र्राख़-दिली का मुज़ाहरा किया है लेकिन चूँकि रम्ज़-ओ-तम्सील के तौर पर लफ़्ज़ औरत का इस्तेमाल और औरत की तरफ़ से तख़ातुब का अंदाज़ मौलाना रूम की मसनवी में भी है इसलिए इस रुजहान को किसी ख़ास मज़हब या शेरी रिवायत से जोड़ने के बजाये रुहानी वारदात से जोड़ना ज़्यादा मुनासिब है।
इस की एक अहम वजह ये भी है कि बाज़ सूफ़िया की रुहानी वारदात का असर उनकी ज़बान ओ लब-व-लहजे के साथ उनकी वज़ा क़ता पर भी मुरत्तिब हुआ है। मिसाल के तौर पर अस्हाब-ए-सलासिल में से एक जमात के लोग जो सदा सुहाग के नाम से मशहूर हैं ज़नाना लिबास और चूड़ियां पहनते हैं । वज़ा क़ता के साथ उनका लब-ओ-लहजा भी औरतों जैसा होता है । बाज़ तज़्किरा निगारों का ख़याल है कि इस सिलसिले की इब्तिदा मूसा सुहाग से हुई जो दर्मियानी जिन्स के लोगों के बीच रह कर गाने, बजाने और नाचने में मगन रहते थे। “साहिबे-मिरात-ए-अहमदी” ने उनका शुमार चिश्तिया सिलसिले के बुज़ुर्गों में किया है मगर कुछ तज़किरों से मालूम होता है कि वो मुरीद थे शाह सिकन्दर बूद के, वो मुरीद थे शाह जीवन लाल क़लंदर के और वो मुरीद थे शाह जमाल मुजर्रिद के, और वो मुरीद थे शाह इब्राहीम गर्म सेल क़लंदर के और वो मुरीद थे शेख़ अबू नजीब सुहरावर्दी के । और यही क़रीने-क़यास है क्यों कि ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की मलामत को दावत देना, मलामतियों का शेवा है और मलामतियों को एक ख़ास निस्बत है सुहरावर्दियों से । शेख़ शहाबुद्दीन सहरवर्दी की किताब “अवारिफ़-उल-मआरिफ़” का एक बाब मलामतियों के बयान में है । इस के मुताबिक़ मलामतियों का ज़िक्र, ज़िक्रे-ज़बान, ज़िक्रे-क़ल्ब, ज़िक्रे-सतर और ज़िक्रे-रूहानी चार तरीक़ों पर मबनी है और जब ज़िक्रे-रूह शुरू होता है तो ज़बान, क़ल्ब और सतर ख़ामोश हो जाते हैं और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा मलामतियों के बारे में मुग़ालते में पड़जाती है । यही उनका मक़्सद भी होता है कि ख़ल्क़-ए-ख़ुदा से बच कर यकसूई से बेरिया इबादत करें । वो औरत के हर एक अज़ू में अल्लाह का जलवा देखने के मुतमन्नी हैं और इस सिलसिले में उनकी अपनी तावीलात हैं । मूसा सुहाग और उनकी जमात के लोगों के बारे में तज़किरा निगारों ने लिखा है कि वो नाचते गाते हुए

ला-इलाहा-इल्लल्लाह नूरे-मोहम्मद सल्लल्लाह

का विर्द करते रहते थे। तज़्किरा निगारों ने मूसा सुहाग का लाल जोड़ा उतार कर उस की जगह उनको सफ़ेद लिबास पहनाने, उनको मस्जिद ले जाने, बारिश के लिए उनसे दुआ करवाने और फिर दुल्हन के लिबास में ही उनके दफ़्न किए जाने की जो रिवायात नक़्ल की हैं वो अफ़्सानवी अनासिर से ख़ाली नहीं हैं इस के बावजूद उनके दुल्हन की तरह उंगली के हर पोर में छल्ला पहनने और सुर्ख़ जोड़ा ज़ेबे-तन किए रहने की हक़ीक़त को मुस्तरद करना मुम्किन नहीं है क्यों कि तज़्किरा निगारों ने उनकी ऐसी ही वज़ा क़ता बयान की है । बाज़ सूफ़िया और शोहदा के साथ दूल्हा का लफ़्ज़ भी इस्तेमाल होता है मसलन क़ाज़ी महमूद दरियाई के नाम के साथ दरियाई दूल्हा, ख़्वाजा मुंतजिबुद्दीन के नाम के साथ ज़रज़री ज़र-बख़्श दूल्हा…. वग़ैरा मगर इन बुज़ुर्गों ने अपने लिए ये लक़ब ख़ुद इस्तेमाल नहीं किया था बल्कि फ़र्ते मोहब्बत में उनके मोतक़िदीन ने उन्हें इसी लक़ब से पुकारा और ये उसी लक़ब से मशहूर हो गए । जब कि मूसा सुहाग की ज़बान से निकले हुए जुमलों से मालूम होता है कि सुहागन होने का एलान उन्होंने ख़ुद अपनी ज़बान से किया था मिसाल के तौर पर पानी बरसाने के लिए दुआ करते हुए उन्होंने कहा था

ऐ मेरे ख़ुदावंद ! अगर तूने मेरी इल्तिजा क़ुबूल न की और पानी न बरसाया तो मैं अपना सुहाग छोड़ दूँगी।

इसी तरह सफ़ेद लिबास सुर्ख़ हो जाने पर उनकी ज़बान से निकला था कि

मियां मेरा कहता है कि तू सुहागन रह, और ये मूए मुझसे कहते हैं कि रांड हो जाओ। मैं तो मियां के कहने पर चलूंगी। इन मुओं की बात मुझ पर हरगिज़ असर न करेगी।

आम तौर से लोगों को औरत का हुस्न-व-जमाल भी पसंद है और मर्द का जाह-व-जलाल भी । शायद ही कोई बदज़ौक़ किसी ख़ातून नुमा मर्द को पसंद करता हो लेकिन चूँकि किसी को किसी के पोशीदा हाल और क़ल्बी-व-ज़हनी कैफ़ियत का इल्म नहीं है इसलिए बद-गुमानी से बचना भी ज़रूरी है ऐसी सूरत में आफ़ियत की एक ही राह है कि सूफ़िया की इस रुहानी वारदात को तस्लीम किया जाए जो तख़य्युलात-व-लफ़्ज़ियात के अलावा बाज़ मग़्लूब अलहाल सूफ़िया की ज़ात पर भी असर-अंदाज़ होती रही है और पूरी यकसूई से बेरिया इबादत करने के लिए जिसको सूफ़िया की एक जमात ने ख़ल्क़े-ख़ुदा को मुग़ालता देकर शुऊरी तौर पर भी इख़्तियार किया है। लेकिन इस वारदात का इत्तिबा हम पर लाज़िम नहीं, इत्तिबा का वाहिद मेयार क़ुरआन-व-सुन्नत है । सूफ़िया ने भी कहीं नहीं लिखा है कि क़ुरआन-व-सुन्नत छोड़ कर मेरी वारदात का इत्तिबा करो लेकिन उनकी वारदात-व-कैफ़ियात ने ज़बान-व-बयान को जो वुसअत और लफ़्ज़ों को जो नई माअनवी जिहत अता की है उस का इनकार कुफ़राने-नेमत में शुमार किया जाएगा ।

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