Bhakti Movement and Sulh e Kul ( भक्ति आंदोलन और सुल्ह ए कुल )
भक्ति आंदोलन हिंदुस्तानी संस्कृति के सामान ही विविधताओं का पिटारा है। हिन्दू और मुसलमान भक्त कवियों ने जहाँ जात पात और मज़हब से परे मानवता और प्रेम को अपनाया वहीं सूफ़ियों से उनका प्रेम तत्व भी ग्राह्य किया। भक्ति आंदोलन की शुरुआत तो आठवी शताब्दी में ही अलवार संतों द्वारा हो गयी थी परन्तु कबीर के बाद इसका स्वरुप पूरी तरह से बदल गया। हज़रत अमीर खुसरौ ने जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का बीज बोया था वो धीरे धीरे पनप कर अब अपनी बाहें पूरे हिंदुस्तान में फैला रहा था। भौतिकी में एक सिद्धांत है कि ब्रह्माण्ड की हर वस्तु एक दूसरे से मिलना चाहती है। आपस में मेलजोल का यह सिद्धांत सूफियों ने भी समझा और सुलह ए कुल का सिद्धांत दिया। वेदांत जहाँ नेति नेति (ये भी नहीं, वो भी नहीं) के सिद्धांत पर जोर देता है वही सूफी इति इति (ये भी वो भी )के सिद्धांत पर विश्वास करते थे।
मौलाना रूमी के पास एक आदमी आया और उसने उनसे पूछा कि आप 72 फिरकों(Sects ) से एक साथ सहमत होने का दवा करते हैं जबकि एक ईसाई कभी एक मुस्लमान से सहमत नहीं हो सकता और एक मुस्लमान कभी एक हिन्दू से सहमत नहीं हो सकता .रूमी ने इसपर हॅसते हुए जवाब दिया था कि मैं आपसे भी सहमत हूँ .
यह सहमति का सिद्धांत ही भारत में सुलह ए कुल के नाम से विख्यात हुआ। भारतीय संतों ने भी अपनी रचनाओं में सुलह ए कुल का महत्व समझते हुए खूब पद कहे। अमीर खुसरौ के बाद विद्यापति भक्त कवियों में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं. इन्होने अपनी कीर्ति लता और कीर्ति पताका में फ़ारसी शब्दों का खूब इस्तेमाल किया है जो यह दर्शाता है कि धीरे धीरे सिर्फ मुस्लमान ही नहीं वरन हिन्दू भी आपसी मेलजोल और साझी संस्कृति के महत्व को समझने लगे थे। कबीर के पदों में भी उर्दू और फ़ारसी के शब्द बहुतायत से पाए जाते हैं।
जहाँ हज़रत ग़ौस ग्वालियरी ने योग पर अपनी प्रसिद्द किताब बहरूल-हयात लिखी वहीं मालिख मुहम्मद जायसी ने पद्मावत, अखरावट और कन्हावत जैसी कृतियां हिंदी साहित्य को दी। कान्हावत के कृष्ण कंस को मारकर द्वारका पर शासन नहीं करते बल्कि द्वारका में ही अपनी ख़ानक़ाह बना कर लोगों के बीच शांति का सन्देश देते हैं। रसखान, रसलीन, मुल्ला दाऊद, कुतबन, मंझन आदि संत कवियों ने संत वाणी की ऐसी धारा बहाई कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने लिखा था-
इन मुस्लमान हरिजनन पर कोटिक हिन्दू वारिये
सूफ़ी संतों का भक्ति आंदोलन पर बड़ा प्रभाव था। लंगर जैसी प्रथा सूफ़ी संतों के द्वारा ही सर्वप्रथम शुरू की गयी जो बिलकुल उसी रूप और नाम के साथ सिख गुरुओं द्वारा भी अपनायी गयी। सूफ़ियों और संतो का ही असर था कि जब श्री गुरुग्रंथ साहेब जी की रचना हुयी तो इसमें बाबा फरीद की वाणी और कबीर और रैदास जैसे संत कवियों की वाणी को भी स्थान दिया गया। श्री हरमंदिर साहेब की नीव की पहली ईट भी उस काल के प्रमुख क़ादरी सूफ़ी संत हज़रत मियां मीर ने रखी थी। गंगा जमुनी तहज़ीब की आधारशिला इन सूफ़ी संतों ने मिलकर रखी थी । बाद में हज़रत तुराब अली शाह क़लन्दर और शाह क़ाज़िम क़लन्दर ने शांत रस और अमृत रस जैसी रचनायें की और कृष्ण भक्ति के पद भी लिखे .यह गंगा जमुनी तहज़ीब सुल्ह ए कुल का ही परिवर्धित रूप थी जिसने आज भी हिंदुस्तान के हर ह्रदय को एक मज़बूत डोर से तमाम विविधताओं के वावजूद एक सूत्र में बाँध रखा है .
Blog by -Suman Mishra
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