हज़रत बेदम शाह वारसी और उनका कलाम
सूफ़ी संतों के कलाम भाव प्रधान होते हैं इसलिए जीवन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते हैं. एक दिन दरगाह निज़ामुद्दीन औलिया में बैठा मैं क़व्वाली सुन रहा था. अक्सर देश भर से क़व्वाल हाज़िरी लगाने हज़रत की दरगाह पर आते हैं और कुछ कलाम पढ़ कर, महबूब-ए-इलाही के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं. उस दिन कोई क़व्वाल देवा शरीफ़ से आया था और हज़रत बेदम शाह वारसी का कलाम पढ़ रहा था. जैसा कि मैंने पहले कहा कि क़व्वाली भाव प्रधान होती है इसलिए क़व्वाली गाना नहीं, क़व्वाली पढना कहते हैं .क़व्वाल ने हज़रत बेदम शाह वारसी का कलाम पढना शुरू किया –
मेरी बे क़सी का आ’लम कोई उस के जी से पूछे
मेरी तरह लुट गया हो जो बिछड़ के कारवाँ से
कई दफ़ा यूँ होता है कि हमारे भीतर ही सवालों की कई गांठे होती है जिनके विषय में हमें भी नहीं पता होता. जब ये गांठें आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं तो हमें एक विषाद का अनुभव होने लगता है, वहीं अगर कुछ देखते-सुनते हुए कुछ सवालों के जवाब मिल जाते हैं और अन्दर कोई गाँठ खुल जाती है तब एक अलग प्रकार की ख़ुशी का अनुभव होता है .यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है और हमें इस का पता सिर्फ़ ख़ुशी और विषाद की अवस्था से चलता है. उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. एक आतंरिक ख़ुशी ने दिल को हलके से छुआ और छू कर अनंत में विलीन हो गयी. अन्दर निश्चय ही कोई गाँठ खुली थी. हज़रत बेदम शाह वारसी पर उर्दू में बहुत कुछ लिखा गया है और उनके कविता संग्रह भी उपलब्ध हो जाते हैं पर हिंदी के पाठकों के लिए बेदम सिर्फ़ चंद क़व्वालियों तक सीमित हैं और उन पर ऑनलाइन जानकारी भी बहुत कम उपलब्ध है.
सिलसिला वारसिया हिंदुस्तान में जिस तेजी से फैला वह आश्चर्यचकित करने वाला है. वारसिया सिलसिला हज़रत वारिस पाक से शुरू हुआ और इस में सब धर्मों के लोग शामिल हैं. बेदम शाह वारसी, हज़रत वारिस पाक के सबसे प्रिय मुरीद थे .बेदम शाह वारसी उन्नीसवी सदी के एक प्रसिद्ध सूफ़ी शायर थे जिन्होंने हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरहन में अपनी शायरी के जड़ी-गोटे लगाए और इसे नयी शान बख़्शी.
हज़रत बेदम शाह वारसी के पिता का नाम सय्यद अबुल हसन साहब था. बेदम शाह वारसी का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के प्रमुख स्थान (नया शहर) के मोहल्ला शाह महमूद में सन 1876 ई. में हुआ था .बेदम शाह के नाम के संबंध में मतभेद मिलते है .आप की माता ने आपका नाम गुलाम हुसैन रखा था. आप का वास्तविक नाम सिराजुद्दीन था. इसी नाम के कारण आप को ‘सिराजुश्शोरा’ भी कहा जाता है.जब आप वरसिया सिलसिले में दाख़िल हुए तब आप को ‘बेदम’ की उपाधि मिली. बेदम शाह वारसी के एक पुत्र, हज़रत वारिस हुसैन थे जिनका तख़ल्लुस बेदार था, और एक बेटी अम्बरी ख़ातून थीं जिनका विवाह सैय्यद एह्तिसाम अ’ली साहब से हुआ था. पुत्री की मृत्यु पाकिस्तान में हुई.
बेदम शाह वारसी को पारिवारिक प्रेम आकर्षित न कर पाया और 16 वर्ष की अवस्था में आप ने वैराग्य धारण कर लिया .उसी समय हज़रत वारिस पाक इटावा में पधारे और उनके आगमन पर ‘मिलादुन्नबी’ सभा का आयोजन किया गया. इस सभा में बेदम शाह ने भी एक ना’त पढ़ी जिसे सुनकर हज़रत बेहद प्रसन्न हुए . उन्होंने फरमाया – यह बच्चा माशाअल्लाह बड़ा गुनी है. सुना सुना ! यह तो मेरा है ! बेदम शाह साहब की दादी साहिबा उस मजलिस में उपस्थित थीं, जब उन्होंने यह सुना तो बड़ी विचलित हुयीं. उन्होंने अर्ज़ किया –शाह साहब मेरा एक ही पोता है जो बड़ी मन्नतों के बाद हुआ है ! हज़रत वारिस पाक ने फरमाया – यह तेरा नहीं यह मेरा है ! इस के बाद बेदम शाह साहब ने अपना ज़्यादातर समय देवाशरीफ़ में ही बिताया.
सूफ़ी बेदम शाह वारसी ने अपनी आरंभिक शिक्षा इटावा में ही प्राप्त की. नयी भाषाएँ सीखने का बेदम शाह साहब को जुनून था. उन्होंने अरबी-फ़ारसी की शिक्षा सैयद वाहिद हुसैन साहब वज्द इटावी से प्राप्त की और संस्कृत का ज्ञान पंडित राम गुलाम के द्वारा प्राप्त किया .संस्कृत में आप की विशेष रूचि थी इसलिए आप ने रामायण, उपनिषदों और वेदों का भी अध्ययन किया. संस्कृत के साथ साथ आप का अवधी पर भी पूर्ण अधिकार था. आप ने अवधी में ठुमरी, दादरा, होली, बंसंत और सावन आदि के रूप में ऐसी मनोहारी रचनायें की हैं कि इन्हें हिंदी का कवि भी कहा जाने लगा .
बेदम शाह साहब ने नौकरी पाने हेतु हाई स्कूल की परीक्षा भी दी थी परन्तु परिणाम आने से पूर्व ही वैराग्य ले लिया. शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात धीरे धीरे आप में शायरी के प्रति रूचि उत्पन्न हुई. आरम्भ में आप दूसरे शायरों की ग़ज़लें गुनगुनाया करते थे, धीरे धीरे आप ने भी शे’र कहना शुरू किया और अपने कुछ घनिष्ट मित्रों को सुनाया करते थे. धीरे धीरे इस अभ्यास ने जुनून की शक्ल अख़्तियार कर ली और यही जुनून आप को आगरा लेकर गया जहाँ आप ने ख्व़ाजा आतिश लखनवी के मुरीद हज़रत वहीद मानिकपुरी और उनके मुरीद सैयद निसार अ’ली शाह अबुलअ’ला से प्रभावित होकर शायरी की शिक्षा ली. शायरी में हज़रत बेदम शाह साहब के उस्ताद का पता नहीं चलता लेकिन कहते हैं कि जब आप ने वैराग्य धारण किया तब आप सब से पहले आगरे में हज़रत शाह अबुलअ’ला की दरगाह पर हाज़िर हुए थे .
बेदम शाह वारसी 16 वर्ष की अवस्था में हज़रत वारिस पाक के हुज़ूर पेश हुए थे. हज़रत वारिस पाक ने आप को अपना मुरीद बनाया और उनके करम से आप ‘बेदम’ हो गए . थोड़े ही समय बाद सन 1898ई. में ईद-उल-फ़ित्र के दिन शुक्रवार को दोपहर की नमाज़ के बाद आप को ‘एहराम’ प्रदान किया और साथ ही आप को बेदम शाह वारसी की उपाधि से सम्मानित किया. अपने पीर का सम्मान करते हुए बेदम साहब ने पूरी ज़िन्दगी पीला, सब्ज़, शरबती और भूरे रंग का ही एहराम धारण किया .
बेदम शाह वारसी, वारसिया सूफ़ी शायरों की कतार में सबसे आगे नज़र आते हैं. अपनी शायरी का पूरा श्रेय आप अपने मुर्शिद हज़रत वारिस पाक को देते हैं –
बनाया रश्क़-ए-मह्र-ओ-मह तेरी ज़र्रा नवाज़ी ने
नहीं तो क्या है बेदम और क्या बेदम की हस्ती है .
सूफ़ी परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है. गुरु ही अपने शिष्य को परमात्मा से मिलन का मार्ग बताता है और उस मार्ग पर चलते हुए उसकी निगरानी भी करता है .बेदम शाह वारसी भी अपने मुर्शिद की महत्ता का वर्णन करते हुए फ़रमाते हैं –
बिन गुरु चाहे बन बन फिरयो,
बिन गुरु के तारे न तरियो
गुरु गोविन्द की सेवा कीजै
प्रेम भटी का मधवा पीजै
बेदम शाह वारसी को वारसिया सूफ़ी शायरों में वही स्थान प्राप्त है जो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीदों में हज़रत अमीर ख़ुसरौ का है .बेदम शाह वारसी के कई मुरीद बड़े प्रसिद्द हुए. आप की शिष्य परंपरा में जालंधर के अब्र शाह वारसी, हज़रत सैयद हैदर अ’ली शाह वारसी, हज़रत हैरत शाह वारसी (पाकिस्तान ) आदि प्रमुख हैं .
बेदम शाह वारसी साहब ने बहुत कम उम्र से ही काव्य रचना शुरू कर दी थी. सैयद निसार साहब से प्रभावित होकर आप ने आगरे से काव्य रचना शुरू की . आप ने अपने हर काव्य की शुरुआत इसी रुबाई से की है –
इश्क़ आया रफ़अते ख़याली लेकर
हुस्न आया है शौक़त ए जमाली लेकर
हर साहब ए कमाल ले के आया है कमाल
‘बेदम’ आया है बेकमाली लेकर .
आप की रचनाओं में जहाँ प्रेम तत्त्व चासनी बनकर लिपटा हुआ मिलता है वहीं सूफ़ियों के यहाँ सर्वसुलभ रहस्यवादिता भी आप के कलाम में मिलती है.
हँसते थे वस्ल में दर ओ दीवार मेरे साथ
या रो रहे हैं देख कर दीवार ओ दर मुझे
आप ने शायरी की लगभग सभी विधाओं में कलाम कहे हैं. ग़ज़ल, क़तआत, रुबाइयात, ना’त, मनक़बत, क़सीदा आदि के साथ साथ आप के हिन्दवी कलाम का भी एक बड़ा संग्रह उपलब्ध है जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता रहेगा .
आप की कुछ प्रमुख किताबें निम्न हैं –
करिश्मा ए वारसी (सौत ए सरमदी )
इस किताब का नाम पहले करिश्मा ए वारसी था. इस का नाम अब सौत ए सरमदी है .यह किताब मुंशी प्यारे लाल के प्रयास से बिरन प्रकाश बुलंदशहर प्रेस से सन 1902 ई. में प्रकाशित हुयी.
इस किताब की शुरुआत में मुहम्मद नासिर नज़ीर देहलवी (मौलाना सैयद मुहम्मद हुसैन साहबआज़ाद के मुरीद ) ने 7 अप्रैल 1901 ई. में पुस्तक का मुक़दमा लिखकर संलग्न किया था.
नासिर नज़ीर देहलवी साहब ने ईश्वर स्तुति(हम्द) के पश्चात तहरीर किया है कि यह किताब जिसका नाम करिश्मा ए वारसी है, वास्तव में मेरे दिल के उपवन में बुलबुल की तरह चहकने वाले, अपनी अनोखी शैली और तूती के समान सुन्दर सूफ़ी संत हज़रत बेदम शाह वारसी साहब का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है. इनका कहना है कि –
ज़बां पे बारे खुदाया यह किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मेरी जबां के लिए .
यह किताब महज एक रचना संग्रह नहीं बल्कि इश्क़ ए हक़ीक़ी का मूर्त रूप है जिसमे कहीं हज़रत कैस इराक़ के मज्द जंगल में मिट्टी का बिछौना बिछाए बैठे हैं और प्रातः काल की ठंडी हवा और हिरन से लैला का पता पूछ रहे हैं, कहीं लैला अपने महल में रत्नजडित पलंग पर लेटी हुई सामने के दर्पण में अपना सौंदर्य निहार रही है और अपने सौंदर्य पर स्वयं मोहित हो रही है .सूफ़ी मत की विभिन्न शैलियों का समायोजन इस किताब में किया गया है और इसमें 243 पद हैं .
किताब की शुरुआत हम्द अथवा ईश्वर स्तुति से होती है जिसमे ईश्वर के निराकार रूप की स्तुति की गयी है –
बेदम की आरज़ू है हर दम जुस्तजू है
मिल जाए काश उसको कुर्ब ओ हुज़ूर तेरा .
इसके बाद हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद(PBUH) की शान में ना’त संगृहीत है .बेदम शाह वारसी साहब ने हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद( PBUH) के जन्म से लेकर में’राज तक का वर्णन खूबसूरत शब्दों में किया है –
भरा है ना’त का मजमूँ मेरे दिल से छलकता है
मेरी शाख़ ए कलम से बेतरह जोबन टपकता है
ख़बर आमद की सुनकर बाग़ में बुलबुल चहकता है
हर एक गुल में बसी वह बू मुअत्तर ही महकता है
हज़ारों साल पहले से ख़बर थी जिसकी आमद की
अरब में आज वह नूर ए ख़ुदा आकर चमकता है .
इस के बा’द बेदम शाह साहब ने हज़रत अ’ली और चिश्ती सिलसिले के बुजुर्गों यथा ख्व़ाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, एवं कादरी सिलसिले के बुज़ुर्ग हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी की शान में मनक़बत लिखे हैं .
मनक़बत के बा’द बेदम शाह साहब ने हज़रत वारिस पाक की शान में शायरी की है और पूरी किताब हज़रत वारिस पाक के अद्भुत कारनामों का समा’अ ख़ाना बन जाती है .सूफ़ी अपने मुर्शिद से चिरौरी भी करता है और उन्हें उलाहना भी देता है.
क्यूँ नहीं देवे बुलाते हैं आप, क्यूँ हमें बातों से बहलाते हैं आप
तालिब ए दीदार को मरने के बाद, जलवा ए रुख़्सार दिखलाते हैं आप
जज़्बा ए इश्क़ ए हक़ीक़ी जब बढ़ा, अपने शैदा में समा जाते हैं आप
क्या ख़ता बेदम से ऐ वारिस हुई, क्यूँ तसव्वुर में नहीं आते हैं आप .
सूफ़ी अपने मुर्शिद में फ़ना हो जाता है और फ़ना होकर बक़ा भी रहता है. मुर्शिद उसके नफ़्स को ख़त्म करके उस के व्यक्तित्व पर स्वयं आरूढ़ हो जाता है. यह अवस्था सूफ़ी साधना की चरम अवस्थाओं में से एक मानी जाती है. इसी अवस्था का वर्णन करते हुए बेदम शाह फरमाते हैं –
वस्ल के इक़रार सारे हो चुके, उनके हम और वो हमारे हो चुके
अप तो लाग जाओ गले से जाने जाँ, ख़त्म वादे भी तुम्हारे हो चुके .
फूलों की चादर (रियाज़ ए मुअत्तर)
यह बेदम शाह वारसी साहब की एक बड़ी छोटी पुस्तक है . इस का प्रकाशन खुर्शीद बुक डिपो अमेठी हाउस, लखनऊ द्वारा किया गया तथा इसका मुद्रण हिंदुस्तान बुक डिपो ऑफ़सेट डिवीज़न लखनऊ द्वारा 1991ई. में किया गया.
इस किताब में तज़मीन, रुबाई, ग़ज़लें आदि शामिल है . मौलाना जामी की ज़मीन पर 6 नातिया ग़ज़लें भी शामिल की गयी हैं. इस किताब में हज़रत वारिस पाक की शान में भी ग़ज़लें संकलित हैं .
इस किताब की शुरुआत भी अन्य किताबों की तरह हम्द (ईश्वर स्तुति ), ना’त (हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद(PBUH) की शान में लिखी गयी कविता )और मनक़बत (सूफ़ी बुजुर्गों की शान में लिखी गयी कविता ) से की गयी है और उसके बाद ग़ज़लों का संग्रह प्रस्तुत किया गया है .
हज़रत जामी के समक्ष अपनी दीनता प्रस्तुत करते हुए बेदम शाह वारसी लिखते है –
ऐ ऐन कमाल ब कमाली, ऐ ज़ीनत ए बज़्म बेमिसाली
ऐ शान जमील वहम जमाली, ऐ मज़हर ए हुस्न ला यज़ाली
मिरआत जमाल ज़ुलजलाली
अर्थात – ऐ अद्भुत चमत्कार प्रकट करने वाले महान व्यक्तित्व के स्वामी, ऐ अनुपमीय सभाओं की शोभा, ऐ सौंदर्य की शक्ति वाले,.. तेरे ही सौंदर्य का विचार करने योग्य काम है .ऐ ईश्वर के सौंदर्य को प्रकट करने वाले आप आलौकिक सत्ता के सौंदर्य का दर्पण हैं .
हज़रत जामी की मूल फ़ारसी ग़ज़ल भी प्रस्तुत है –
ऐ मज़हर-ए-हुस्न-ए-ला-यज़ाली
मिरअत-ए-जमाल-ए-ज़ुल-जलाली
अनवार-ए-तजल्ली-ए-क़िदम रा
रुख़्सार-ए-तू अहसन-उल-मजाली
दर शान-ए-कमाल-ए-तुस्त नाज़िल
आयात-ए-मकारिम-ओ-मआ’ली
रूयत तरफ़-ए-मिनन-नहारस्त
ज़ुल्फ़त ज़ुल्फ़-ए-मिनल-लयाली
एहराम-ए-हरीम-ए-आँ न-बनदन्द
जुज़ दुर्द-ए-कशान-ए-ला-उबाली
‘जामी’ ब-वज़ाइफ़-ए-तज़र्रो’
मशग़ूल बुवद अ’लत-तवाली
बाशद ब-हवाला-ए-इ’नायत
रोज़े ब-रसद बदाँ हवाली
बेदम शाह वारसी अपनी रचनाओं में अपने पीर रुपी प्रियतम के बिना इस ज़िन्दगी को व्यर्थ मानते हैं और बिना उस प्रियतम के उन्हें जीवन और मृत्यु दोनों समान लगते हैं. बिना खुद को फ़ना किये प्रियतम का दीदार भी तो कहाँ होता है –
हम गमज़दों की मौत क्या और क्या हमारी ज़िन्दगी
बस हिज्र की शब मौत है और वस्ल के दिन ज़िन्दगी
एक खंड में बेदम साहब ने हज़रत मौलाना शाह मुहम्मद अबुल खैर ‘फ़सीह’, सज्जादानशीन ख़ानक़ाह फसीही ग़ाज़ीपुर के विवाह उत्सव के अवसर पर एक सेहरा भी शामिल किया है. उन्होंने सेहरे की शोभा की उपमा कुरआन शरीफ़ के बिस्मिल्लाहिर्रहमाननिर्रहीम से दी है.-
रुख़ ए नौशा पे है साया ए यज्दां सेहरा,
जैसा बिस्मिल्लाह है ज़ेबे सरे कुरआँ सेहरा
किताब के अंतिम हिस्से में पूरबी भाषा में लिखी कवितायें सम्मिलित हैं. चैत के महीने में प्रियतम के न होने पर विरह का हाल कुछ यूँ है –
सूनी लागे रे हमरी नगरिया हो राम, अरे सूनी लागे !
पिया ‘बेदम’ सौतिन बस गयी भई लीं फुलवन महके रे
हमरी सेजरिया हो रामा !
गुलदस्ता ए वारसी (नज्र ग़रीब नवाज़ )
इस किताब का प्रकाशन सन 1910 ई. में किया गया. इस किताब के विषय में मौलाना बेनज़ीर शाह वारसी फरमाते है –
ऐ बेनज़ीर बेदम ने क्या लिखा रिसाला,
हर लफ्ज़ साफ़ इसका आईना अदब है .
अल्लाह की मुहब्बत है औलिया की उल्फ़त
यानी नुज़ूल रहमत का यह बड़ा सबब है .
इस किताब में बेदम शाह वारसी ने 92 कविताओं के माध्यम से अपने पीर हज़रत वारिस पाक के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है . अन्य किताबों की तरह इस किताब की शुरुआत भी हम्द. ना’त और मनक़बत से की गयी है और इसके पश्चात अपनी कविता के केंद्र बिंदु अपने मुर्शिद हज़रत वारिस पाक की प्रशंसा में अधिकाश ग़ज़लें कही हैं .इन ग़ज़लों के साथ साथ बेदम साहब ने ठुमरी, दादरा और पूरबी गीतों का संग्रह भी अंत में जोड़ा है .
हज़रत शैख़ सादी का अनुकरण करते हुए उन्होंने उसी ज़मीन पर शायरी की है –
जो शब ए विसाल में मुस्तफ़ा, चले जी में ठान के अर्श की
तो ज़मी से अर्श ए बरीं तलक हुई हुस्न ए पाक की रोशनी
वो हज़ार खूबी व दिलबरी, वो बहार गुलशन ए सरमदी
हो सवार अपने बुराक़ पर, गए जैसे बिजली चमक गयी
बलग़-अल-उ’ला बि-कमालिही ,कशफ़द-दुजा बि-जमालिही
हसुनत जमीउ’ ख़िसालिही ,सल्लु अ’लैहि व आ’लिही
मान्यता है कि हज़रत पैग़म्बर मुहमम्द(PBUH) की मेराज यात्रा इतने कम समय में पूर्ण हो गयी थी कि आप जब वापस आये तो घर के दरवाज़े की जंजीर हिल ही रही थी.
दूसरे खंड में बेदम शाह वारसी साहब ने अवधी भाषा में भजन, बनरा, ठुमरी, भैरवी, गागर, दादरा आदि रूपों में अपनी विरह गाथा का वर्णन किया है . इस खंड में हज़रत वारिस पाक कहीं कृष्ण हैं तो कहीं मोहन . सगुन प्रतीकों से अपनी मुर्शिद का गुणगान जैसा बेदम शाह वारसी ने किया है वह दुर्लभ है –
हम से करि अनरीति ए मोहन, को करि है परतीति रे मोहन
दीन धरम तन मन धन जरिगा, आग लगे अस पीति रे मोहन
पूर्वी भाषा के अंतिम दादरा छंद में हज़रत वारिस पाक के निवास स्थल देवा शरीफ़ की तरफ संकेत करते हुए उनके गेसुओं का वर्णन करते हैं –
देवावासी कृष्ण कन्हैया , वारिस अवध के अवध बिहारी
सीस उधर लट घूंघर वाली, काँधे सोहे कमली कारी
नज्र ए वारिस (जान ए वारिस )
यह किताब जान ए वारिस के नाम से प्रसिद्ध है . यह बेदम शाह वारसी साहब की तीसरी महत्वपूर्ण रचना है . इसका सम्पादन सन 1905 ई. में हुआ . इसके संपादक मुहम्मद मच्छू ख़ान और मुहम्मद हुसैन ख़ान मालिक साहब हैं .
इस किताब में हम्द, ना’त और मनक़बत के पश्चात ग़ज़लों का संग्रह है जिनमें बेदम साहब का भाषा प्रवाह पाठक को चकित करता है. भाषा पर बेदम शाह वारसी साहब का पूर्ण अधिकार था और उनकी लेखनी भाषा प्रतीकों से खेलती प्रतीत होती है. हज़रत अमीर ख़ुसरौ के प्रति प्रेम का वर्णन वह तज़मीन के रूप में करते हैं –
एक जिन व इन्स ही नहीं सिर्फ़ आप पर फ़िदा
वह कौन है कि जिसको नहीं इश्क़ आपका
मखलूक कैसे आप हैं ख़ालिक के दिलरुबा
जो देखता है आपको कहता है बरमला
बेदम शाह वारसी अपने पीर हज़रत वारिस पाक में ईश्वर की पूर्णता का प्रतिबिंम्ब पाकर लिखते हैं –
कौन सा दिल है जो आप का बीमार नहीं
कौन सी आँख है जो तालिब ए दीदार नहीं .
इश्क़ की राह में दुखों का वर्णन करते हुए बेदम शाह वारसी लिखते हैं –
सुना था लुत्फ़ होते हैं हसीनों की मुहब्बत में
मगर दिल दे के हम पड़ गए सरकार आफत में
रुलाती है हमें अगली बहारें आठ आठ आंसू
गुज़रती थी हमारी भी कभी ऐशो मोहब्बत में .
इस किताब में बेदम शाह साहब ने हज़रत वारिस पाक के दर्शन सम्बन्धी भजनों का संग्रह किया है जिन में पीर हज़रत वारिस पाक को गुरु, गोविन्द, गोसाईं, गिरधर, कृष्ण आदि अनेक नामों से संबोधित किया है .
बसंत ऋतु में अपनी विरह अवस्था का वर्णन बेदम शाह वारसी यूँ करते हैं –
ऋतु बसंत मन ललचाने, सुधि मन मोहन की आवे
पी पी रटत पपीहा उमंग में, कोयल कूक सुनावे
झींगुर करत झिंगार बाग़ में, मोरा मंगल गावे
ऋतु बसंत मन ललचावे.
नूरुलऐन (मुसहफ़-ए –बेदम)
इस किताब का नवीन प्रकाशन खुर्शीद बुक डिपो लखनऊ से किया गया तथा नामी प्रेस लखनऊ से 1935 ई. में यह किताब छपी थी.
बेदम शाह वारसी साहब ने इस किताब की पूरी कथा वस्तु को चार पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया है –
बादस्सलाम ना’त लिखी फिर ग़ज़ल कही
मनक़बत व मुस्तजाद पूरबी लिखी
तकमील नूर-ए-ऐन की बेदम ने की है यूँ
शज़रए नस्ब लिखा है वह भी वारसी .
यह किताब बेदम शाह वारसी साहब की महत्वपूर्ण किताबों में से एक है . अपने पीर की चिरौरी करते हुए बेदम कहते हैं –
का’बे का शौक़ है न सनम-ख़ाना चाहिए
जानाना चाहिए दर-ए-जानाना चाहिए
साग़र की आरज़ू है न पैमाना चाहिए
बस इक निगाह-ए-मुर्शिद-ए-मय-ख़ाना चाहिए
पूरबी भाषा पर बेदम शाह वारसी का इतना नियंत्रण है कि कागज़ चाक बन जाता है और लेखनी मिटटी, और बेदम इसे ऐसा घुमाते हैं कि अनगढ़ भाषा भी सुन्दर और सुग्राह्य बन जाती है. जब सूफ़ी इस संसार सागर में अपने आप को फंसा हुआ पाता है और अपने मुर्शिद से पार लगाने की गुहार करता है, इस अवस्था का वर्णन बेदम कुछ यूँ करते हैं –
अब आन पड़ी है मोरी मजधार में नैया, देवे के बसैय्या
विपदा में पड़ी हूँ तोरी देती हूँ दुहैय्या, देवे के बसैय्या
जैसी हूँ तुम्हारी हूँ, बुरी हूँ, भली हूँ, टुकड़ों में पली हूँ
अब लाज रखो मोरी लाज रखैय्या, देवे के बसैय्या .
24 नवम्बर 1936 ई. को शनिवार के दिन दो बजकर पांच मिनट पर हज़रत बेदम शाह वारसी इस जगती के पालने से कूच कर गए. आप का विसाल कोठी नंबर –B, स्टेशन रोड, लखनऊ में हुई. 22 मील दूर देवाशरीफ़ में बुधवार को गंज शहीदान कर्बला से कुछ दूर स्थित शाह उवैस कब्रिस्तान में सुपुर्द ए ख़ाक कर दिए गए .
आप का ही शे’र है –
मुझे ख़ाक में मिला कर मिरी ख़ाक भी उड़ा दे
तिरे नाम पर मिटा हूँ मुझे क्या ग़रज़ निशाँ से
इसी ख़ाक-ए-आस्ताँ में किसी दिन फ़ना भी होगा
कि बना हुआ है ‘बेदम’ उसी ख़ाक-ए-आस्ताँ से
प्रसिद्ध सूफ़ी विद्वान् ख्व़ाजा हसन निज़ामी फरमाते हैं कि बेदम का तख़ल्लुस ही पूरा ग्रन्थ है और इस के बाद जो कुछ भी है वह इस तख़ल्लुस की व्याख्या और अनुवाद है . जब तक उर्दू के दम में दम शेष है, बेदम का कलाम भी अमर रहेगा.
हज़रत बेदम शाह वारसी ने अपनी शायरी और अपने चरित्र से एक मिसाल पेश की है जिसका अनुकरण आने वाली पीढियां करती रहेंगी. हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब के एक मज़बूत पाये के रूप में हज़रत बेदम शाह वारसी हमेशा याद किये जायेंगे.
एक शायर जब ज़िन्दगी के साथ नए रंग बुनता है और उन रंगों से नयी रचनायें करता है तब धीरे धीरे ज़िन्दगी उसकी रचनाओं में आ बसती है और वह खुद भी एक रचना बन जाता है –
थका थका सा हूँ नींद आ रही है सोने दो
बहुत दिया है तेरा साथ ज़िन्दगी मैंने .
बेदम शाह वारसी साहब ने न सिर्फ़ कलाम लिखे बल्कि क़व्वाली को पड़ा प्रोत्साहन दिया. उन्होंने खुद क़व्वालों के लिए क़व्वाली की विभिन्न विधाओं में कलाम लिखे जिन्हें आज भी क़व्वाल गाते हैं –कुछ विधाएं और बेदम साहब के कलाम प्रस्तुत हैं –
गागर
साधु साधु गागर सर भारी
चलत डगर लचके पनिहारी
साधु साधु सागर सर भारी
मध की भरी गागर न सुमरी
साधु साधु मैं तो पिया हारी
साधु साधु सागर सर भारी
बिन मध पिए बौराई जात हूँ
जो देखे जाने मतवारी
साधु साधु सागर सर भारी
तुमरी साधे सुधि अब गागर
नाहीं तो जात है लाज हमारी
साधु साधु सागर सर भारी
ख़्वाजा-वारिस चाहें तो ‘बेदम’
सिगरे ख़्वाजन की नैनन में दुलारी
चादर
जनाब-ए-वारिस-ए-आल-ए-अबा की चादर है
हुज़ूर-ए-ख़्वाजः-ए-गुल्गूँ-क़बा की चादर है
अमीर-ए-शहर-ए-विलायत करीम इब्न-ए-करीम
तमाम ख़ल्क़ के हाजत-रवा की चादर है
नबी के लाल की मौला अली के जानी की
ये यादगार-ए-शह-ए-कर्बला की चादर है
गदा-नवाज़ सख़ी दस्तगीर-ए-मज़्लूमाँ
ग़रीब-परवर-ओ-मुश्किल-कुशा की चादर है
मिलेगा हुस्न का सदक़: ग़रीब बेदम को
जमील-ए-हुस्न-ओ-जमाल-ए-ख़ुदा की चादर है
सेहरा
रुख़-ए-नौशाह क़ुरआँ है तो बिस्मिल्लाह का सेहरा
ख़ुदा रखे अछूता है मिरे नौशाह का सेहरा
इसे जिबरील लाए गुँधा कर बाग़-ए-रिज़वाँ से
मोहम्मद मुस्तफ़ा तैबः के शाहंशाह का सेहरा
क़बा-ए-मुस्तफ़ा जामः है अनवार-ए-इलाही का
जलालल्लाह का मिक़्ना’ जमालल्लाह का सेहरा
भली साअ’त से मालिन ने उसे नौशः के बाँधा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से नाम-ए-रसूलल्लाह का सेहरा
ये ‘बेदम’ आज कैसी रौशनी फैली है महफ़िल में
दूल्हन दूल्हा का सेहरा है कि मेहर-ओ-माह का सेहरा
कलाम
वो चले झटक के दामन मिरे दस्त-ए-ना-तवाँ से
उसी दिन का आसरा था मुझे मर्ग-ए-ना-गहाँ से
ये हिजाब-ए-कुफ्र-ओ-ईमाँ भी हटा दो दरमियाँ से
कि मक़ाम-ए-क़ुर्ब आगे है हुदूद-ए-दो-जहाँ से
मिरी तरह थक न जाये कहीं हसरत-ए-फ़सुर्दः
कि लिपट के चल तो दी है वो ग़ुबार कारवाँ से
मुझे शौक़ से तग़ाफ़ुल तिरा पाएमाल कर दे
मिरा सर उठा न उठे तिरे संग आस्ताँ से
तिरे मय-कद: का साक़ी है बयाँ भी कैफ़ आगीं
कि हवा को है तवाजुद मिरे नुदरत-ए-बयाँ से
मिरी बे-कसी का आ’लम कोई उस के जी से पूछे
मिरी तरह लुट गया हो बिछड़ के कारवाँ से
जो ख़याल में भी छूटे दर-ए-पाक तेरा मुझ से
तो लिपट के रोईं मुझ से तेरे संग आस्ताँ से
तिरी रहगुज़र तक ऐ जाँ जो नसीब हो रसाई
मलूँ आँखें अपनी नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-सारबाँ से
वही गूँजती हैं अब तक मिरे कान में सदाएँ
जो सुना था ज़मज़मा इक कभी साज़-ए-कुन-फ़काँ से
न हो पास पर्द: उन को ये पर्दा-दारियाँ हों
मिरी दुख-भरी कहानी जो सुने मिरी ज़बाँ से
मिरी चश्म-ए-हसरत-आगीं ये ख़राबियाँ न देखे
जो क़फ़स को दूर रख दे कोई मेरे आशियाँ से
मुझे ख़ाक में मिला कर मिरी ख़ाक भी उड़ा दे
तिरे नाम पर मिटा हूँ मुझे क्या ग़रज़ निशाँ से
इसी ख़ाक-ए-आस्ताँ में किसी दिन फ़ना भी होगा
कि बना हुआ है ‘बेदम’ उसी ख़ाक-ए-आस्ताँ से
सूफ़ीनामा स्टूडियो में इस कलाम को गिरीश साहब ने पढ़ा है . इस का लिंक प्रस्तुत है –
सूफ़ीनामा वेबसाइट पर हज़रत बेदम शाह वारसी के कलाम इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं – https://sufinama.org/poets/bedam-shah-warsi/
– सुमन मिश्र
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi