आस्ताना-ए-ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ में ख़ुद्दाम साहिब-ज़ादगान, सय्यिद-ज़ादगान औलाद-ए-हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह
ये नसब-नामा-ए-मौरुसी ख़ुद्दाम-ए-हुज़ूर ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह का है।ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा का लक़ब इस ख़ानदान के हर फ़र्द की पहचान है।अपने मुरिस-ए-आ’ला हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़रुद्दीन गर्देज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह से इस लक़ब को मंसूब कर के इसे अपना तुर्रा-ए-इम्तियाज़ और जुज़्व नाम बनाया है।
जिन मुरिस-ए-आ’ला का ज़िक्र मज़्कूरा-बाला किया है उनकी तफ़्सील ये है कि हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हरूनी से बैअ’त-ओ-इरादत रखते थे। और हज़रत ख़्वाजा सय्यिद मुई’नुद्दीन चिश्ती के साथ सफ़र कर के अजमेर शरीफ़ तश्रीफ़ लाए थे। अजमेर शहर में दाख़िल होने से क़ब्ल कुछ दूरी के फ़ासले पर ख़्वाजा-ए- आ’ज़म रहमतुल्लाहि अ’लैह ने मुस्तक़िल क़याम के वास्ते जगह के तअ’य्युन के लिए ख़्वाजा फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी को शहर की तरफ़ रवाना किया। ख़्वाजा-ए-आ’ज़म की हयात-ए-मुबारक में आपको ख़िदमत और लंगर के इंतिज़ाम-ओ-एहतिमाम का शरफ़ हासिल था।ख़्वाजा-ए-आ’ज़म के विसाल के10 साल बा’द रिहलत फ़रमाई और उस वक़्त आपकी उ’म्र 93 साल थी। तद्फ़ीन का अ’मल भी ख़्वाजा-ए-आ’ज़म रहमतुल्लाहि अ’लैह के मज़ार के क़रीब हुआ।ख़्वाजा-ए-आ’ज़म और हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी का मज़ार अ’र्सा-ए-दराज़ तक ख़ाम हालत में था।ख़िल्जी हुक्मरान के दौर में गुंबद-ए-मुबारक की ता’मीर का काम हुआ।इस वक़्त आपके ख़ादिम-ए-ख़ास का मज़ार जो करोड़ों मुसलमानों की आँखों को नूर और दिलों को सुरूर बख़्शता है इसी गुंबद में शामिल हुआ और आज आपका मज़ार तोशा-ख़ाना अंदरून-ए-गुबंद-ए-मुबारक में वाक़े’ है। ख़्वाजा-ए-आ’ज़म के मज़ार की ख़िदमत का तमाम साज़-ओ-सामान आज भी तोशा-ख़ाना में ही रखा जाता है।ये हक़ीक़त है कि आ’लम-ए-हयात में जो शरफ़-ए-क़ुर्ब-ओ-ख़िदमत आपको हासिल था बि-हम्दिहि तआ’ला बा’द अज़ विसाल भी उसी क़ुर्ब-ओ-ख़िदमत की वजह से नसीब है। आपका ज़िक्र चिश्तिया सिलसिले की कई कुतुब-ओ-दीगर तज़्किरों में मौजूद है।
सियरुल-आ’रिफ़ीन जो अ’ह्द-ए-सल्तनत-ए-हुमायूँ में938 हिज्री 1531 ई’स्वी और942 हिज्री 1536 ई’स्वी के दरमियान मुरत्तब हुआ जिसके अस्ल नुस्ख़े मुल्क-ओ-बैरून-ए-मुल्क की मुख़्तलिफ़ लाइब्रिरियों-ओ-कुतुब-ख़ानों में महफ़ूज़ है उस किताब में लिखा है कि ‘शैख़ ख़ादिमे दाश्त फ़ख़्रुद्दीन नाम-ए- ऊ’, (तर्जुमा) आपके एक ख़ादिम थे उनका नाम फ़ख़्रुद्दीन था ।
अ’ह्द-ए-जहाँगीरी में तालीफ़-कर्दा तज़्किरा गुल्ज़ार-ए-अबरार में लिखा है’शैख़ फ़ख़्रुद्दीन अहमद अजमेरी रहमतुल्लाहि दर ख़िदमत-गारी-ओ-परस्तारी-ए-पीर पाया-ए-बंदगी दाश्त-ओ-सुख़नान-ए-ऊ रा ब-जामा-ए-इ’बारत आरास्ता-ओ-हमगी ज़िंदगानी-ए-ख़ुद रा दिगर ब-इ’बादत-ओ-तन-गुज़ारी कर्दः बूद’ या’नी आपको पीर की ख़िदमत-गुज़ारी और परस्तारी में दर्जा-ए- ग़ुलामी हासिल था और पीर के नासिहाना कलाम को क़लम से लिखा करते थे।अपनी तमाम ज़िंदगी, इ’बादत और रियाज़त में वक़्फ़ कर रक्खी थी
सिलसिला-ए-चिश्तिया के तमाम मशाइख़ ने ख़ुद को अपने पीर-ओ-मुर्शिद का ख़ादिम ही कहा है।ये एक अलग बात है कि ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी को ख़्वाजा-ए-आ’ज़म के ख़लीफ़ा और पीर भाई होने का भी शरफ़ हासिल है मगर कभी आपने ख़ादिम के लक़ब के अ’लावा कोई दीगर लक़ब ख़ुद के लिए इस्ति’माल नहीं किया।और आपने ख़ादिम-ए-ख़्वाजा होने पर ही फ़ख़्र किया।जिस तरह मश्हूर सहाबी हज़रत अबू अय्यूब रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु अंसारी थे और आज तक आपकी औलाद फ़ख़्र-ओ-मबाहात के तौर पर अपने जद्द-ए-बुज़ुर्ग की उस निस्बत को ज़ाहिर करती है और उस ख़ानदान का हर फ़र्द अंसारी कहलाता है ठीक उसी तरह हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी की औलाद ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा कहलाती है। ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी को क़ुर्ब-ओ-सुख़न के साथ साथ ये मर्तबा-ए-इ’ज़्ज़-ओ-शरफ़ भी ख़िदमत से हासिल हुआ कि ख़ुद ख़्वाजा-ए-आ’ज़म अपनी ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाते थे ‘फ़ख़्रुना बि-फ़ख़्रिद्दीन’,या’नी फ़ख़्रुद्दीन मेरा फ़ख़्र है। और ये भी तअ’ल्लुक़-ए-ख़ुसूसी हासिल है कि ख़्वाजा-ए-आ’ज़म के बड़े साहिब-ज़ादे का नाम भी आपने अपने ख़ादिम-ए-ख़ास की निस्बत से फ़ख़्रुद्दीन रखा।ये कोई मा’मूली बात नहीं।ये बात बहुत गहरे असरार समोए हुए है क्योंकि कोई भी शख़्स अपने बेटे का नाम अपने ख़ादिम की निस्बत से नहीं रखता।ये हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी की ख़्वाजा आ’ज़म से ख़ादिम-ए-ख़ास की निस्बत-ए-क़ुर्ब के गहरे मा’नी को मह्व किए हुए है।
हज़रत ख़्वाजा फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी के तीन फ़रज़ंद थे जिनके नाम ये हैं (1) हज़रत सय्यिद मौलाना मस्ऊ’द (2) हज़रत सय्यिद बहलोल (3) हज़रत सय्यिद इब्राहीम।चूँकि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग के रौज़ा-ए-मुतबर्रका के नज़्राने लेने का हक़ शरअ’न, क़ानूनन,-ओ-रस्मन ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा का है जिसको अ’ह्द-ए-जहाँगीरी से क़ब्ल पंचाएती क़वाइद के मुताबिक़ तक़्सीम किया गया था मगर जहाँगीरी मुसद्दक़ा नक़्ल-ए-शाही फ़रमान ब-तारीख़ 3 रमज़ान1023हिज्री ब-मुताबिक़ 7, अक्तूबर 1614 ई’स्वी को तक़्सीम-ए-कुल नुज़ूरात की वज़ाहत में ये तहरीर है ‘औलाद-ए-बहलोल जम्अ’-ए-कसीर बूदः-अंद अज़ वस्त:-ए-सितम शरीकी ब-आँहा हिस्सा-ए-कम मी-रसद’,या’नी बहलोल की औलाद ज़्यादा हो गई है और उन लोगों को हिस्सा कम पहुंचने लगा है इसलिए बादशाह सलामत का हुक्म हुआ कि कुल क़िंदील की नुज़ूरात को अब छः हिस्से में तक़्सीम किया जाए जिनमें से चार हिस्से औलाद-ए-हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी को हासिल हुए।जिसकी मज़ीद तफ़सील ये है। औलाद-ए-मसऊ’द के डेढ़ हिस्से,औलाद-ए-बहलोल के दो हिस्से,औलाद-ए-इब्राहीम का आधा हिस्सा। ये इसलिए किया गया कि औलाद-ए-इब्राहिम में सिर्फ़ 12 अश्ख़ास ही मौजूद हैं इसलिए उनका निस्फ़ हिस्सा कसरत-ए-औलाद के बाइ’स औलाद-ए-बहलोल को दिया गया था।इसी फरमान-ए-शाही में ता’दाद भी रक़म है जिससे ये मा’लूम होता है कि औलाद-ए-हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी के कुल अफ़राद की ता’दाद अ’ह्द-ए-जहाँरगी या’नी 1023 हिज्री में (172) थी जिनमें औलाद-ए-मस्ऊ’द के (64) अफ़राद,औलाद-ए-बहलोल के (100) अफ़राद और औलाद-ए-इब्राहीम के (12) अफ़राद मौजूद थे।
अ’ह्द-ए-अकबरी में ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा की जमाअ’त और उस ख़ानदान में हज़रत सय्यिद (शैख़)दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद-दान साहिब एक अ’ज़ीम शख़्सियत थे। अकबर बादशाह जब 980 हिज्री में अजमेर आए और यहाँ से वापस होने लगे तो एक बेगम को मौसूफ़ के घर में छोड़ गए इसलिए कि ज़चगी का ज़माना क़रीब था।2 जमादिलअव्वल को शहज़ादा पैदा हुआ तो जिस तरह हज़रत शैख़ सलीम चिश्ती के नाम पर जहाँगीर का नाम शहज़ादा सलीम रखा था उसी तरह हज़रत सय्यिद शैख़ दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद-दान साहिब के नाम पर उस नौ-मौलूद का नाम शहज़ादा दानियाल रखा। हज़रत सय्यिद शैख़ दानियाल की अ’ज़मत-ओ-शहज़ादा दानियाल की विलादत का वाक़िआ’ तारीख़ी कुतुब में मौजूद है।ख़ुद बादशाह जहाँगीर ने इस वाक़िआ’ को तुज़्क-ए-जहाँगीरी में इस तरह लिखा है:
‘तव्वुलुद-ए-ऊ दर अजमेर दर ख़ान:ए यके अज़ मुजाविरान-ए-आस्ताना-ए-मुतबर्रका-ए-ख़्वाजा बुजु़र्ग-वार ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती कि शैख़ दानियाल नाम दाश्त वक़ूअ’ याफ़्त।ब-हमाँ मुनासिबत मौसूम ब-दानियाल गश्त’(तुज़्क-ए-जहाँगीरी फ़ारसी स16)
उसकी या’नी दानियाल की पैदाइश हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती के आस्ताना शरीफ़ (गुंबद-ए-मज़ार-ए-मुबारक) के एक मुजाविर(ख़ादिम) शैख़ दानियाल नामी के घर में हुई।इसी मुनासबत से उस शहज़ादे का नाम दानियाल रखा गया।
सय्यिद(शैख़) दानियाल उ’र्फ़ दान साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह की निस्बत तबक़ात-ए-अकबरी के मुसन्निफ़ निज़ामुद्दीन अहमद बख़्शी लिखते हैं:
‘अज़ मशाइख़-ए-वक़्त दर सलाह-ओ-तक़्वा मुमताज़ बूद’ (तबक़ात-ए-अकबरी फ़ारसी जिल्द दोउम स371)
शैख़ दानियाल सलाहियत और परहेज़-गारी में अपने वक़्त के मशाइख़ से मुमताज़ हैं।अबूल-फ़ज़ल अकबर-नामा में लिखते हैं:
‘नूर-ए-सलाह-ओ-फ़लाह अज़ नासिया-ए-ऊ मी-ताफ़त’(अकबर-नामा फ़ारसी जिल्द दोउम स।465)
सलाहियत और नेकी का नूर शैख़ दानियाल की पेशानी पर चमकता था।
मुल्ला अ’ब्दुलक़ादिर बदायूनी अपनी किताब मुंतख़बुत्तवारीख़ में लिखते हैं:
‘शैख़ दानियाल नाम-ए-मुजाविर-ए-सालिह’ (मुंतख़बुत्तवारीख़ फ़ारसी जिल्द दोउम स140)
तर्जुमा, शैख़ दानियाल नामी सालिह मुजावर (ख़ादिम-ए-ख़्वाजा साहिब थे।
मोअ’तमद ख़ान बख़्शी अपनी किताब इक़्बाल-नामा-ए- जहाँगीरी में इस तरह ज़िक्र करते हैं:
‘ब-सलाह-ए-ज़ाहिरी-ओ-सफ़ा-ए-बातिनी इम्तियाज़ दाश्त'(इक़्बाल-नामा-ए-जहाँगीरी स244)
ज़ाहिरी सलाहियत औऱ बातिनी सफ़ाई की ख़ूबी रखने की वजह से इम्तियाज़ रखते थे।
(शैख़ दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद दान साहिब का ये मकान आज भी मौजूद है जो पहले ‘दौलत-कदा-ए-दानियाल’से मौसूम था अब ‘शाही महल’ कहलाता है। आज भी इस में उन के वारिस ब-दस्तूर रहते हैं।हज़रत साहिब ने 994 हिज्री या’नी 1585/86 ई’स्वी में वफ़ात पाई।उनकी वफ़ात के बा’द किसी तरह उस हवेली पर सय्यिद आ’शिक़ क़ाबिज़ हो गए थे इस वजह से फ़रज़न्दान-ए-हज़रात-ए-सय्यिद (शैख़)दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद दान साहिब ने शिकायत की। 1026 हिज्री में जहाँगीरी शाही फ़रमान सादिर हुआ कि सय्यिद आ’शिक़ को हवेली से अ’लाहिदा कर दिया जाए और सय्यिद मट्ठा,सय्यिद अ’ब्दुलग़ैस,सय्यिद तय्यब औलाद-ए-सय्यिद दान का क़ब्ज़ा बर–क़रार रहे।(असानीदुस्सनादीद मुरत्त्बा मौलाना अ’ब्दुल बारी साहिब मा’नी स215 ता225)
अ’ह्द-ए-शाहजहाँ में एक शाही परवाना अजमेर के सूबा-दार मीर शाह अ’ली ने मुतसद्दियों के नाम सादिर किया जिसमें औलाद-ए-हज़रत सय्यिद शैख़ दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद दान का मतरुका जिनमें जायदाद,ज़मीन-ओ-बाग़ जो कुल चार हज़ार छः सौ तैंतालीस (4643) गज़ अठारह 18) बिस्वा ज़मीन थी उसका क़िस्मत-नामा (तक़्सीम-नामा) जारी हुआ और शैख़ जा’फ़र मोहम्मद क़ाज़ी और नरहर दास क़ानूनगो को सूबा-दार का हुक्म हुआ कि तुम लोग ख़ुद जा कर दरगाह शरीफ़ के पास वाले पुराने मकानात (हवेली) और बाग़ की ज़मीन में से आधा हिस्सा सय्यिद अ’ब्दा इब्न-ए-सय्यिद दान (हज़रत शैख़ दानियाल-ओ-सय्यिद कमाल इब्न-ए-सय्यिद दान (हज़रत सय्यिद शैख़ दानियाल की औलाद में बराबर तक़्सीम करो। इस शाही परवाने की ता’मील में सब हिस्सेदारों की मर्ज़ी से शरअ’ शरीफ़ के मुताबिक़ ये तक़्सीम हुई थी ताकि कोई तज़ाद न हो।इस शाही सनद में दस्तख़त औलाद-ए-हज़रत सय्यिद शैख़ दानियाल उ’र्फ़ सय्यिद दान के मौजूद हैं जिनमें इस ख़ानदान के अ’ह्द-ए-शाहजहानी के बुज़ुर्ग सय्यिद मट्ठा बिन सय्यिद अ’ब्दा के दस्तख़त इस तरह हैं ‘शहीद बन्ना मा फ़िहि फ़क़ीर मट्ठा’। इस शाही सनद में तारीख़ 14 रमज़ान 1056 हिज्री या’नी 24 अक्तूबर 1646 ई’स्वी मर्क़ूम है। (असानीदुस्सनादीद मुरत्त्बा मौलाना अ’ब्दुल बारी साहिब मा’नी स 196 ता 200)। इस शाही सनद की अस्ल फोटोकॉपी ख़ाकसार फ़क़ीर ने सय्यिद सादिक़ हुसैन उ’स्मानी चिश्ती वलद सय्यिद अहमद हुसैन उ’स्मानी चिश्ती साहिब से दस्तयाब की है जो अब ख़ाकसार फ़क़ीर के पास भी मौजूद है।
हज़रत ख़्वाजा सय्यिद मुई’नुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाहि अ’लैह का मक़ाम-ए-सुकूनत-ओ-रिहाइश वही थी जहाँ आज आपका मज़ार-ए-अक़्दस है।जब आपने इस दार-ए-फ़ानी को ख़ैर-आबाद कहा तो आपके जसद-ए-मुबारक को वहीं मद्फ़ून किया गया जहाँ आज आपका मज़ार-ए-अक़्दस है।बा’द-ए-विसाल आपका मज़ार-ए-अक़्दस तक़रीबन 250 साल तक ख़ाम हालत में था जिसकी देख-भाल मुरिस-ए-आ’ला जमीअ’-ए- ख़ादिमान सय्यिद-ज़ादगान-ए-हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी चिश्ती जो ख़्वाजा-ए-आ’ज़म के ख़ादिम-ए-ख़ास थे वो करते रहे। बा’द-ए-विसाल ख़ादिम-ए-ख़ास हज़रत ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी चिश्ती आपके पिसरान ने ख़िदमत का सिलसिला जारी रखा और मस्नद-ए-इर्शाद-पनाही या’नी रुहानी गद्दी से मलफ़ूज़ात, करामात-ओ-ता’लीमात को आ’म करते रहे और ख़्वाजा-ए-आ’ज़म रहमतुल्लाहि अ’लैह के तब्लीग़ी कार-नामों से आगाह करते रहे। ख़्वाजा-ए-आ’ज़म से बेलौस क़ुर्ब के सबब ज़ाइरीन-ओ-हाज़िरीन ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा से मुरीद होते थे और ख़ुद्दाम साहिबान उन सालिकीन-ए-तरीक़त के लिए एक रुहानी पीर का किर्दार अदा कर सिलसिला-ए-चिश्ती के ता’लीम-ओ-तर्बियत के तरीक़ से आरास्ता-ओ-पैरास्ता करते थे–ओ मस्नद-ए-इर्शाद-पनाही रुहानी गद्दी को आराइश बख़्शते थे। अय्याम-ए-उ’र्स-ए-ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ में दरगाह शरीफ़ में कुल 11 गद्दीहा,या’नी 11 ख़ुद्दाम ख़्वाजा के निशस्तगाहों पर ये रुहानी गद्दी लगती हैं। उन 11 गद्दीयों में से उस ख़ानदान में मीर सय्यिद मुज़फ़्फ़र हुसैन काज़मी चिश्ती साहिब को रुहानी गद्दी-नशीनी का हक़ हासिल था। अब सय्यिद अनवर हुसैन काज़मी चिश्ती वलद सय्यिद ज़फ़र हुसैन काज़मी चिश्ती साहिब उस रुहानी गद्दी के फ़राइज़ को अंजाम दे रहे हैं और सालिकीन-ए-तरीक़त की तर्बियत-ओ-सिलसला-ए-चिश्तिया में हल्क़ा ब-गोश कर के तर्बियत कर रहे हैं और सिलसिला-ए-चिश्तिया की ता’लीमात फैला कर उसकी नशर-ओ-इशाअ’त भी कर रहे हैं।
अ’ह्द-ए-महमूद ख़िल्जी तक न तो कोई वक़्फ़ था और न कोई जायदाद थी। ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा के ईमा पर गुबंद-ए- मुबारक की ता’मीर का काम हुआ और ख़ाम मज़ार-ए-अक़्दस की ता’मीर हुई।और मज़ार-ए-पुर-अनवार को गुंबद-ए-मुबारक की शक्ल देकर ‘दर-कुशाई’ के तरीक़े का मा’मूल वुजूद में आया और इस मा’मूल से ‘कलीद बर्दारी’ का आग़ाज़ हुआ।उस वक़्त से लेकर आज तक गुंबद-ए-मुबारक की तमाम कुंजियाँ मौरूसी हैसियत से ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा के पास मौजूद रहीं जिस सबब मज़ार-ए-अक़्दस ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा की तहवील में रहा और तमाम रुसूमात-ओ-ख़िदमत-ए-मज़ार-ए-अक़्दस अंजाम देते रहे।अ’ह्द-ए-महमूद ख़िल्जी में ये कलीद-बर्दारी का नज़्म-ओ-ज़ब्त पंचाएती तरीक़ा पर चलता था, मगर अ’ह्द-ए-शाहजाहाँ बादशाह की शाही सनद से तस्फ़िया कर तक़्सीम-ए-हिस्सा-ए- कलीद-बर्दारी (बारी) 29 ज़िलहज्जा 1064 हिज्री या’नी 13 दिसंबर 1651 ई’स्वी अ’मल में आया। इसकी मुसद्दक़ा नक़्ल ख़ाकसार फ़क़ीर के पास मौजूद है। इस शाही सनद में सत्ताईस (27) अफ़राद की सात जमाअ’तें बना कर हर जमाअ’त को हफ़्ते के सात (7) दिनों में से एक दिन कलीद-बर्दार माना है। इस अ’ह्द-ए-शाहजहाँनी की शाही सनद में यौम-ए-जुमा’ में उस ख़ानदान के बुज़ुर्ग सय्यिद हबीबुल्लाह वलद मट्ठा साहिब का नाम मर्क़ूम है जो अ’ह्द-ए-शाहजहाँनी में मशारुन-इलैह या’नी रोज़-ए-जुमा’ के हफ़्त बरदार थे।हबीबुल्लाह साहिब के फ़ौत होने के बा’द ये हफ़्त बरदारी हक़ तर्का-ए-मादराना में मुंतक़िल हो गया मगर हक़्क़-ए-कुल ख़िदमत यौम-ए-जुमा’ में बहाल रहा और हिस्सा-ए-कलीद बर्दारी आस्ताना-ए-आ’लिया औलाद-ए-हबीबुल्लाह में अज़ रू-ए-तक़्सीम सनद चलती रही और आज भी इस ख़ानदान का अस्ल-ए-जद्दी कलीद-बर्दारी हिस्सा ज़िल-हिज के हर तीन साल में कुल यौम-ए-जुमा’ आते हैं और तमाम हिस्सा-दारान ख़िदमत और रोज़ाना के रुसूमात अंजाम देते हैं।1818 ई’स्वी से अजमेर अंग्रेज़ी हुकूमत के क़ब्ज़े में आ गया था।कुछ साल बा’द कलीद-बर्दारी की तसदीक़ मुतवल्ली अ’ज़ीमुल्लाह ने अपनी अ’र्ज़ी मुक़द्दमा-ए-मश्मूला मिस्ल नंबर 63 दरगाह रजिस्टर 1821 ई’स्वी में की जो अभी तक मौजूद है। पेशतर ज़िक्र-कर्दा रजिस्टर की पूरी मुसद्दक़ा नक़्ल ख़ाकसार फ़क़ीर के पास महफ़ूज़ है। फिर दरगाह कमेटी ने 15 मई 1944 ई’स्वी को एक रेज़ूलेशन से मौरुसी ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा साहिब को बरतरफ़ करने की कोशिश की मगर इस रेज़ूलशन को तमाम ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा साहब की जानिब से अ’दालत में मुक़द्दमा-ए-दीवानी नंबर 1944/45 से चैलेंज किया गया और इस मुक़द्दमा में ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा साहिब मुद्दई’-ओ-दरगाह कमीटी मुद्दआ’अ’लैह है। मुक़द्दमा में दरगाह कमेटी को शिकस्त हुई और मुक़द्दमा की हतमी डिग्री 9 नवंबर 1948 ई’स्वी में ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा साहिब के हक़ में आई और उस डिग्री की ता’मील करवा कर निस्फ़ अख़राजात-ए-मुक़द्दमा हासिल किए गए ।
जब दरगाह ख़्वाजा साहिब ऐक्ट नंबर 1955/36 नाफ़िज़ किया गया और जब ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा साहिब ने उस ऐक्ट को भी चैलेंज कर राजस्थान हाईकोर्ट दर्ख़ास्त नंबरी 17 तारीख़ दायरा 4 फ़रवरी 1957 ई’स्वी मुक़द्दमा में ख़ुद्दाम-साहिबान ने मुक़द्दमा दीवानी नंबर 1945/4 ई’स्वी को भी पेश किया तो कई दीगर अहम फ़ैसलों के साथ दरगाह ख़्वाजा साहिब ऐक्ट नंबर 1955/36 को मुकम्मल तौर पर क़ानूनी दायरा से बाहर साबित किया गया मगर उस फ़ैसले की अपील दरगाह कमेटी ने सुप्रीमकोर्ट में कर दी थी। आख़िरकार मुकम्मल जज का फ़ैसला 17 मार्च 1961 ई’स्वी में आया जिसमें ख़ुद्दाम-ए-ख़्वाजा के क़दीम हुक़ूक़ को बहाल रखते हुए फ़ैसला दिया जो आज तक जारी है। ये फ़ैसला दरगाह ख़्वाजा साहिब के मुतअ’ल्लिक़ जितने भी फ़ैसले हुए हैं उनमें सबसे बड़ा और अहम फ़ैसला है।
फ़िहरिस्त-ए-मनाबिअ’
(1) तारीख़-ए-फ़रिश्ता अज़ मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता
(2) सियरुल-आ’रिफ़ीन अज़ हामिद बिन फ़ज़्लुल्लाह जमाली देहलवी
(3) गुल्ज़ार-ए-अबरार अज़ मोहम्मद ग़ौसी शत्तारी
(4) तारीख़ुस्सलफ़ अज़ मौलाना सय्यिद अ’ब्दुलबारी मा’नी अजमेरी
(5) सवानिह-हयात ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी अज़ मौलाना सय्यिद अ’ब्दुल बारी मा’नी अजमेरी
(6) जवाब-नामा अज़ मौलाना सय्यिद अ’ब्दुल बारी मा’नी अजमेरी
(7) तज़्किरतुल-मुई’न अज़ साहिब-ज़ादा सय्यिद ज़ैनुल आ’बिदीन अजमेरी
(8) जवाहर-ए-फ़रीदी अज़ अ’ली असग़र चिश्ती
(9) मिर्आतुल-असरार अ’ब्दुर्रहमान चिश्ती
(10) इक़्तिबासुल-अनवार अज़ शैख़ मोहम्मद अकरम कुद्दूसी
(11) मसालिकुस्सालिकीन अज़ अ’ब्दुस्सत्तार सहसरामी
(12) मूनिसुल-अर्वाह अज़ शहज़ादा जहाँआरा बेगम
(13) अकबर-नामा अज़ अ’ल्लामा अबुल-फ़ज़ल
(14) इक़्बाल-नामा जहाँगीरी अज़ मो’तमद ख़ान
(15) मुंतख़बुत-तवारीख़ अज़ मुल्ला अ’ब्दुल क़ादिर बदायूनी
(16) तबक़ात-ए-अकबरी अज़ ख़्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद
(17) तुज़्क-ए-जहाँगीरी अज़ नुरुद्दीन जहाँगीर बादशाह
(18) फ़ैसला सुप्रीमकोर्ट, ए,आई, आर4102(1961)
(19) फ़ैसला मुक़द्दमा दीवानी नंबर1945/4
(20) मुक़द्दमा मश्मूला मिस्ल नंबर63 दरगाह रजिस्टर1821 ई’स्वी
(21) असानीदुस्सनादीद अज़ मौलाना सय्यिद अ’ब्दुल बारी मा’नी अजमेरी
(22) क़लमी शजरा, औलाद-ए-ख़्वाजा सय्यिद फ़ख़्रुद्दीन गर्देज़ी (ज़ाती मज्मूआ’)
(23) फ़रामीन-ए-, अस्नाद-ए-मुग़्लिया सल्तनत दरगाह ख़्वाजा साहिब से मुतअ’ल्लिक़ (ज़ाती मज्मूआ’
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