अमीर ख़ुसरो की शाइ’री में सूफ़ियाना आहँग
हिन्दुस्तान में इब्तिदा ही से इ’ल्म-ओ-अदब,शे’र-ओ-हिक्मत, तसव्वुफ़-ओ-मा’रिफ़त,अदाकारी-ओ-मुजस्समा-साज़ी और मौसीक़ी-ओ-नग़्मा-संजी का रिवाज है।अ’ह्द-ए-क़दीम से लेकर दौर-ए-हाज़िर तक ऐसी बे-शुमार शख़्सियात इस सर-ज़मीन पर पैदा होती रही हैं जिन्होंने अपने कारहा-ए-नुमायाँ से हिन्दुस्तान का नाम सारी दुनिया में रौशन किया।उन्हीं शख़्सियतों में एक ताबिंदा और बा-वक़ार नाम अबुल-हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो का भी है जिन्हें ‘तूती-ए-हिंद’ का शरफ़ हासिल है।और जो अमीर ख़ुसरो के नाम से चहार दांग-ए-आ’लम में मशहूर-ओ-मा’रूफ़ हैं।
अमीर ख़ुसरो एक अ’ब्क़री शख़्सियत के मालिक हैं।उनकी शख़्सियत के कई पहलू हैं और हर पहलू ख़ास अहमियत का हामिल है।वो एक बा-कमाल-ओ-क़ादिरुल-कलाम शाइ’र होने के साथ साथ एक आ’ला दर्जे के नस्र-निगार भी थे।दोनों ही अस्नाफ़-ए-अदब में उनकी मुतअ’द्दिद तसानीफ़ मौजूद हैं जो उनकी बे-पनाह सलाहियतों की ग़म्माज़ी करती हैं।उनका तअ’ल्लुक़ दरबार से भी रहा और ख़ानक़ाह से भी।उन्होंने दोनों ही के आदाब को ब-तरीक़-ए-अहसन मल्हूज़-ए-ख़ातिर रखा और दोनों ही जगह कामयाब रहे।इ’ल्म-ओ-अदब की दुनिया उनकी बतौर-ए-ख़ास मर्हून है।उन्होंने इस मैदान में जो ग़ैर-मा’मूली फ़ुतूहात हासिल की हैं उनमें दवाम-ओ-सबात की कैफ़ियत मौजूद है।
इक़्बाल कहते हैं:
रहे न ऐबक-ओ-ग़ौरी के मा’रके बाक़ी।
हमेशा ताज़ा-ओ-शीरीं है नग़्मा-ए-ख़ुसरो।।
अमीर ख़ुसरो के इस दार-ए-फ़ानी से कूच किए हुए तक़रीबन सात सौ बरस (पैदाइश 1253 ई’स्वी,वफ़ात1327 ई’स्वी)गुज़र गए,इसके बावजूद उनकी शोहरत और मक़्बूलियत में ज़रा भी कमी नहीं आई।उनकी आ’ला सिफ़ात शख़्सियत और उनके कारनामे आज भी हमारी तवज्जोह का मरकज़-ओ-मेहवर बने हुए हैं जिससे ख़ुसरो की अहमियत और मा’नवियत अज़ ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है।
ख़ुसरो एक हक़ीक़ी शाइ’र-ओ-अदीब थे।उन्होंने शे’र-ओ-अदब से हमेशा अपने आपको वाबस्ता रक्खा जिसके बाइ’स उनकी इ’ल्मी-ओ-अदबी काविशों का दायरा निहायत ही वसीअ’-ओ-बसीत हो गया है।इसलिए उसका कमाहक़्क़हु मुहाकमा करना जू-ए-शीर लाने से कम दिक़्क़त तलब अम्र नहीं है।जहाँ तक उनकी शाइ’री का मुआ’मला है उसमें मौज़ूआ’त की बू-क़लमूनी पाई जाती है और तमाम मौज़ूआ’त पर एक मज़मून या मुख़्तसर मक़ाले में रौशनी नहीं डाली जा सकती।यही वजह है कि इस मक़ाले में उनकी शाइ’री के एक पहलू या’नी उनकी शाइ’री में सूफ़ियाना आहँग को ही इहाता-ए-तहरीर में लाने की कोशिश की जा रही है और वो भी इज्मालन।
जहाँ तक तसव्वुफ़ का सवाल है, ख़ुसरो के यहाँ ये महज़ रस्मी अंदाज़ में नहीं पाया जाता।वो ‘तसव्वुफ़ बराए शे’र गुफ़्तन ख़ूब अस्त’ के तहत सूफ़ियाना शाइ’री नहीं करते थे।उनकी शाइ’री फ़ितरत का हिस्सा और अ’क़ीदे का जुज़्व है।वो अ’मली तौर पर सूफ़ी थे और तसव्वुफ़ उनका मस्लक था।उन्होंने मा’रिफ़त और तरीक़त के मराहिल तय करने के लिए अपने दौर के अ’ज़ीम सूफ़ी सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाहि अ’लैहि से बैअ’त की और उनके इरादत-मंदों में शामिल हो गए।रफ़्ता-रफ़्ता अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत में शिद्दत पैदा होती गई और मुरीद-ओ-पीर के दरमियान ऐसा वालिहाना रिश्ता क़ाइम हुआ कि दोनों दो क़ालिब एक जान हो गए।बल्कि दोनों में जान और तन जैसा तअ’ल्लुक़ पैदा हो गया।इ’श्क़ की इसी कैफ़ियत का इज़्हार ख़ुसरो ने अपने इस शे’र में किया है:
मन तू शुदम तू मन शुदी मन तन शुदम तू जाँ शुदी।
ता कस न-गोयद बा’द अज़ीं मन दीगरम तू दीगरी।।
मुर्शिद-ए-गिरामी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से ख़ुसरो की अ’क़ीदत का अंदाज़ा मुंदर्जा ज़ैल अश्आ’र से भी लगाया जा सकता है जिनमें उन्होंने इस बात पर फ़ख़्र-ओ-मबाहात का इज़्हार किया है कि उन्हें हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ग़ुलामी का शरफ़ हासिल हुआ और वो उनके सिलसिले से वाबस्ता हो गए।उनसे वाबस्तगी के बा’द उन्हें किसी मुर्शिद या रहनुमा की हाजत नहीं रही।उनके लिए उनकी रहनुमाई ही काफ़ी है।
मुफ़्तख़र अज़ वै ब-गु़लामी मनम।
ख़्वाजा निज़ामस्त-ओ-निज़ामी मनम।।चू नज़रे मर्हमतश गश्त यार।
नीस्त मरा हाजत-ए-आमोज़गार।।(मत्लउ’ल-अनवार)
ख़ुसरो ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद की शफ़क़तों और इ’नायतों का खुले तौर पर ऐ’तिराफ़ करते हुए इस बात को अ’लल-ऐ’लान तस्लीम किया है कि उन्हें जो मक़ाम-ओ-मर्तबा हासिल हुआ है वो उनके पीर-ओ-मुर्शिद की निगाह-ए-करम की वजह से ही हासिल हुआ है:
ईं कि मरा हस्त ब-ख़ातिर दरूँ।
नक़्द-ए-मा’नी ज़े-निहायत बरुँ।।ने ज़े-ख़ुद ईं मुल्क-ए-अबद याफ़्तम।
अज़ नज़र-ए-मुन्इ’म-ए-ख़ुद याफ़्तम।।(मत्लउ’ल-अनवार)
ख़ुसरो ने अपनी शाइ’री से मुतअ’ल्लिक़ भी इस बात का इज़्हार किया है कि उनकी शा’इरी में जो शीरीनी और हलावत है वो उनके मुर्शिद-ए-गिरामी के लुआ’ब-ए-दहन का फ़ैज़ है। अपनी मस्नवी नुह-सिपहर में लिखते हैं:-
मन अज़ वै लुआ’ब-ए-दहन याफ़्तम।
कि ज़ीं गून: आब-ए-सुख़न याफ़्तम।।
मुंदर्जा बाला नक़्ल शुदा तमाम अश्आ’र से हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से ख़ुसरो के तअ’ल्लुक़-ए-ख़ातिर और मोहब्बत-ओ-इरादत का ब-ख़ूबी अंदाज़ा हो जाता है।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ख़ुसरो को किस क़दर अ’ज़ीज़ रखते थे और उनकी नज़र में उनका क्या मक़ाम-ओ-मर्तबा था उसका सुराग़ इस अम्र से लगाया जा सकता है कि उन्होंने उनको “तुर्कुल्लाह” का लक़ब मरहमत फ़रमाया और उनसे मुतअ’ल्लिक़ ये इर्शाद फ़रमाया कि “क़ियामत के रोज़ मुझे उम्मीद है कि इस तुर्क के दिल में जो आग सुलग रही है उसकी गर्मी से मेरा नामा-ए-आ’माल पाक हो जाएगा(अमीर ख़ुसरो,वहीद मिर्ज़ा 119) मज़ीद उन्होंने फ़रमाया कि एक क़ब्र में दो आदमियों को दफ़्न करने की इजाज़त होती तो मैं ये चाहता कि ख़ुसरो को मेरे साथ दफ़्न किया जाए।(1)(अमीर ख़ुसरो,वहीद मिर्ज़ा 119)
हज़रत अमीर ख़ुसरो और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के दरमियान जो वालिहाना तअ’ल्लुक़ और रुहानी रिश्ता था उसकी ताई’द अ’ल्लामा शिब्ली नो’मानी ने भी की है।वो लिखते हैं:
“ख़्वाजा साहिब से अमीर साहिब की इरादत और अ’क़ीदत इ’श्क़ के दर्जे तक पहुंच गई थी।हर वक़्त साथ साथ रहते थे और गोया उनका जमाल देखकर जीते थे।ख़्वाजा साहिब को भी उनके साथ ये तअ’ल्लुक़ था कि फ़रमाया करते थे कि जब क़ियामत में सवाल होगा कि निज़ामुद्दीन क्या लाया है तो ख़ुसरो को पेश कर दूँगा।दुआ’ मांगते थे तो ख़ुसरो की तरफ़ इशारा कर के फ़रमाते थे “इलाही ब-सोज़-ए-सीन-ए-ईं तुर्क मरा ब-बख़्श’’।(2)(हयात-ए-ख़ुसरो,मौलाना शिब्ली नो’मानी,मश्मूला
अमीर ख़ुसरो, मुरत्त्बा शैख़ सलीम अहमद, इदारा-ए-अदबियात दिल्ली,1974 स46-45)।
हज़रत अमीर ख़ुसरो की शाइ’राना तर्बियत हज़रत निज़मुद्दीन औलिया के जेर-ए-निगरानी हुई।उनकी शाइ’री के आ’शिक़ाना उस्लूब की तश्कील में उनके पीर-ओ-मुर्शिद के मशवरे को काफ़ी अहमियत हासिल है।इससे मुतअ’ल्लिक़ सबाहुद्दीन अ’ब्दुर्रहमान अपनी मार’रकतुल-आरा तस्नीफ़,सूफ़ी अमीर ख़ुसरो,में सियरुल-औलिया के हवाले से रक़म तराज़ हैं।
“एक रोज़ ख़्वाजा ने अमीर ख़ुसरो से कहा कि मा’शूक़ के ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल के साथ असफ़हान के शो’रा के तर्ज़ में इ’श्क़-अंगेज़ कलाम कहा करो।अमीर ख़ुसरो ने उन्हें दिल-आवेज़ सिफ़ात के साथ अपना कलाम कहना शुरूअ’ किया और उसको इंतिहा-ए-कमाल तक पहुंचा दिया”
(3)सूफ़ी अमीर ख़ुसरो, सय्यिद सबाहुद्दीन अ’ब्दुर्ररहमान, दारुल-मुसन्नि फ़ीन, शिबली एकेडमी, आ’ज़म गढ़,2009 स23)
ख़ुसरो के कलाम में जो शीरीनी है इससे मुतअ’ल्लिक़ ये भी रिवायत मिलती है, जिसको भी सबाहुद्दीन अ’ब्दुर्ररहमान ने मज़्कूरा बाला किताब में सिरुल-औलिया ही के हवाले से रक़म किया है।
“एक-बार अमीर ख़ुसरो ने ख़्वाजा की मद्ह में एक मंक़बत कही और जब उसको सुनाया तो ख़्वाजा ने फ़रमाया:‘क्या सिला चाहते हो? ख़ुसरो ने जवाब दिया” कलाम में शीरीनी”। उस वक़्त हज़रत ख़्वाजा की चारपाई के नीचे एक तश्त में शकर रक्खी थी।उन्होंने ख़ुसरो से ये तश्त मँगवाई और उनसे कहा अपने सर के ऊपर छिड़क लो और कुछ खा भी लो।उसके बा’द ही उनके कलाम में बड़ी शीरीनी पैदा हो गई।(4) (स.24-23)
मज़्कूरा बाला सुतूर से ये बात रोज़-ए-रौशन की तरह अ’याँ हो जाती है कि ख़ुसरो की शाइ’री एक मर्द-ए-ख़ुदा-शनास के ज़ेर-ए-साया-ए-आ’तिफ़त सूफ़ियाना फ़ज़ा में परवान चढ़ी।इसलिए उसमें सूफ़ियाना अफ़्कार-ओ-ख़यालात की जल्वा-सामानी का होना एक ना-गुज़ीर सी बात होती है।मैंने शुरूअ’ में इस बात का इज़्हार किया था कि ख़ुसरो की शाइ’री में मौज़ूआ’त का तनव्वो’ मौजूद है और ये बात हक़ीक़त से तअ’ल्लुक़ रखती है। लेकिन उनकी शाइ’री की शनाख़्त जिस रंग-ओ-आहँग से क़ाइम होती है वो आशिक़ाना रंग-ओ-आहँग है।उसकी बुनियाद सूफ़ियाना अफ़्कार-ओ-तसव्वुरात पर क़ाइम है।
तसव्वुफ़ में इ’श्क़ को कलीदी हैसियत हासिल है।यही इ’श्क़ मा’रिफ़त-ए-इलाही का ज़रिआ’ है।इसलिए हमारे सूफ़ियों ने इ’श्क़ को काफ़ी अहमियत दी है।चूँकि ख़ुसरो भी एक सूफ़ी- मनिश शाइ’र हैं और उनकी शाइ’री की ग़ायत-ए-अस्ली सूफ़ियाना अफ़्कार-ओ-तसव्वुरात की तर्जुमानी है,इसलिए उनकी शाइ’री में इश्क़िया रंग-ओ-आहँग की हुक्मरानी मिलती है।वो मुआ’मलात-ए-इ’श्क़ की तर्जुमानी निहायत ही वालिहाना अंदाज़ में करते हैं।इस ज़िम्न में उनकी मस्नवी “शीरीं-ओ-ख़ुसरो’’ के ये अश्आ’र मुलाहज़ा हों:
ब-गुफ़्तश इ’श्क़-बाज़ाँ रा निशाँ चीस्त
ब-गुफ़्ता आँ कि बायद दर बला ज़ीस्त
ब-गुफ़्तश आ’शिक़ाँ ज़ीं रह चे पोयंद
ब-गुफ़्ता दिल देहंद-ओ-दर्द जोयंद
ब-गुफ़्तश दिल चेरा बा-ख़ुद न-दारंद
ब-गुफ़्ता ख़ूब-रूयाँ के गुज़ारंद
ब-गुफ़्तश मज़हब-ए-ख़ूबाँ कुदामस्त
ब-गुफ़्ता कश फ़रेब-ओ-इ’श्वः नामस्त
ब-गुफ़्तश पेश:-ए-दीगर चे दानंद
ब-गुफ़्ता ग़म देहंद-ओ-जाँ सितानंद
ब-गुफ़्तश तल्ख़ी-ए-ग़म हेच कम नीस्त
ब-गुफ़्ता गर ग़म-ए-शीरींस्त ग़म नीस्त
ब-गुफ़्तश बर तू अंदाज़द गहे नूर
ब-गुफ़्ता आरे-ओ-लेकिन चू मह अज़ दूर
ब-गुफ़्तश चूँ ख़ूरी चँदीं ग़म-ए-दोस्त
ब-गुफ़्ता नाज़ियम चूँ जान-ए-मन ऊस्त
ब-गुफ़्त अज़ इ’श्क़ जानत दर हलाकस्त
ब-गुफ़्ता आ’शिक़ाँ रा ज़ीं चे बाकस्त
मैंने जो ये अश्आ’र नक़्ल किए हैं वो ख़ुसरो और फ़रहाद के माबैन मुकालमात पर मुश्तमिल हैं।इन मुकालमात पर ग़ौर करने के बा’द ये नुक्ता आश्कार हो जाता है कि एक आ’शिक़-ए-सादिक़ की ख़्वाहिशात और तमन्नाएं क्या हुआ करती हैं। अगर्चे इ’श्क़ में एक आ’शिक़ तरह तरह की ईज़ाएं सहता है, लेकिन वो इन ईज़ाओं से घबरा कर तर्क-ए-इ’श्क़ पर आमादा नहीं होता क्योंकि इ’श्क़ की नाज़-बर्दारी उसके लिए शेवा-ए-हयात हुआ करती है।यहाँ फ़रहाद एक मजाज़ी हुस्न पर फ़रेफ़्ता है और वो मजाज़ी हुस्न के लिए इतनी सुऊ’बतें बर्दाश्त करता है और अपने मा’शूक़ का क़ुर्ब हासिल करना चाहता है।लेकिन इन मुकालमात से इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी के निकात भी उभर कर सामने आते हैं।‘अलमजाज़ु क़न्तरतुल-हक़ीक़त’ की रौशनी में अगर फ़रहाद के मुआ’मलात-ए-इ’श्क़ की ता’बीर की जाए तो हम शाइ’र के मंशा तक ब-आसानी पहुंच सकते हैं।यहाँ शाइ’र का मक़्सद महज़ मजाज़ी हुस्न-ओ-इ’श्क़ की दास्तान बयान करना नहीं है बल्कि इसके ज़रिऐ’ इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी के रुमूज़-ओ-असरार की गिरह कुशाई है।
हज़रत अमीर ख़ुसरो की ज़िंदगी को पेश-ए-नज़र रखने के बा’द ये बात यक़ीन के उजाले में आ जाती है कि उन्होंने किसी दुनियावी मा’शूक़ से दिल नहीं लगाया था।उनका इ’श्क़ रुहानी था जिसका तअ’ल्लुक़ ख़ुदा,रसूल और उनके मुर्शिद-ए-गिरामी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से था।या’नी कि उन्होंने इस इ’श्क़ के ज़रिऐ’ फ़ना फ़िश्शैख़, फ़ना फ़िर्रसूल और फ़ना फ़िल्लाह के मनाज़िल तय किए थे।यही वजह है कि उनकी शाइ’री का आ’शिक़ाना आहँग रुहानी रंग में डूबा हुआ है।
उनकी ग़ज़लों में भी ये रंग वाज़ेह तौर से दिखाई देता है। इ’श्क़ में एक आ’शिक़ की क्या कैफ़ियत होती है उसके तअ’ल्लुक़ से ये शे’र मुलाहज़ा हो:
ज़े-इ’श्क़त बे-क़रारम बा कि गोयम
ज़े-हिज्रत ख़्वार-ओ-ज़ारम बा कि गोयम
नमी-पुर्सी ज़े-अहवालम कि चूनी
परेशाँ रोज़गारम बा कि गोयम
मुन्दर्जा बाला अश्आ’र में शाइ’र ने ये बयान किया कि है उसके दिल में जो बे-क़रारी है वो इ’श्क़ की वजह से है।वो मा’शूक़ के हिज्र में परेशान है लेकिन उसका मा’शूक़ उससे उसके दिल की कैफ़ियत के बारे में कभी नहीं पूछता या’नी कि वो उसकी पुर्सिश-ए-अहवाल नहीं करता।यहाँ हिज्र से मुराद वो अज़ली जुदाई है जो नौ-ए’-बशर की क़िस्मत में आई है। लिहाज़ा इ’श्क़ के ज़रिऐ’ वो उस जुदाई के हिसार को तोड़ कर मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी का विसाल हासिल करना चाहता है जो उसकी ज़िंदगी की ग़रज़-ओ-ग़ायत है।चूँकि दर्द-ए-इ’श्क़ ही विसाल-ए-महबूब का वसीला होता है और विसाल-ए-महबूब ही आ’शिक़ की ज़िंदगी का मक़्सद, इसलिए वो दर्द-ए-इ’श्क़ को अपने कलेजे से लगाए रखता है और उसकी दवा किसी मुआ’लिज से नहीं करवाता।इस सिल्सिले में ख़ुसरो कहते हैं:
अज़ सर-ए-बालीन-ए-मन बर-ख़ेज़ ऐ नादाँ तबीब।
दर्द-मंद-ए-इ’श्क़ रा दारू ब-जुज़ दीदार नीस्त।।
ये हक़ीक़त है कि अहल-ए-दुनिया की नज़र में इ’श्क़ कार-ए-ज़ियाँ है। यही वजह है कि दुनिया के लोग आ’शिक़ों पर ता’न-ओ-तश्नीअ’ रवा रखते हैं।लेकिन चूँकि ख़ुसरो एक अहल-ए-दिल और साहिब-ए-नज़र शाइ’र हैं और उनके दिल-ए-पुर-इ’श्क़ के असरार-ओ-रुमूज़ मुंकशिफ़ हैं,वो अहल-ए-इ’श्क़ की अ’ज़्मतों और फ़ज़ीलतों से वाक़िफ़ हैं, इसलिए वो बिला-तअम्मुल कहते हैं:
इ’श्क़ अगर्चे निशान-ए-बख़्त-ए-बदस्त।
नज़्द-ए-आ’शिक़ सआ’दत-ए-अबदस्त।।
सूफ़िया की ज़िंदगी फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा और सब्र-ओ-क़नाअ’त का नमूना रही है और उन्होंने इन चीज़ों को ब-रज़ा-ओ-रग़बत अपनाया है। उन्हें इस बात का इर्फ़ान-ओ-इद्राक हासिल रहा है कि दुनिया की ऐ’श-ओ-इ’श्रत चार दिन की चाँदनी है, इसको सबात-ओ-दवाम हासिल नहीं इसलिए उन्होंने इस से इग़्माज़ का रवैय्या अपनाते हुए हुक्मरानी पर फ़क़ीरी को तर्जीह दी है और इस पर मुफ़्तख़िर भी रहे।ख़ुसरो कहते हैं:
कूस-ए-शह ख़ाली-ओ-बाँग-ए-ग़लग़लश दर्द-ए-सरस्त
हर कि क़ाने’ शुद ब-ख़ुश्क-ओ-तर शह-ए-बह्र-ओ-बरस्त
ख़ुसरो के यहाँ बे-सबाती-ए-आ’लम से मुतअ’ल्लिक़ अश्आ’र ब-कसरत मिलते हैं जो उनके सूफ़ियाना अफ़्कार-ओ-ख़यालात की तर्जुमानी करते हैं।चंद अश्आ’र मुलाहज़ा हों:
आँ सर्वराँ कि ताज-ए-सर ख़ल्क़ बूदः अंद
अकनूं नज़्जारः कुन कि हम: ख़ाक-ए-पा शुदंद
बाज़ीचाईस्त तिफ़्ल-ए-फ़रेब ईं मता-ए’-दह्र
बे-अ’क़्ल मर्दुमाँ कि बदीं मुब्तला शुदंद
ख़ुसरो की शे’री जमालियात की तश्कील में सूफ़ियाना अफ़्कार-ओ-ख़्यालात को कलीदी हैसियत हासिल है।उनके कलाम में ज्ज़ब-ओ-मस्ती की जो कैफ़ियत है वो तसव्वुफ़ की मर्हून-ए-मिन्नत है।उनका इ’श्क़, इ’श्क़-ए-पाक-बाज़ है और उनकी शाइ’री में उसी ‘इ’श्क़-ए-पाक-बाज़ की नक़्श-गरी की गई है जिसके सबब उसमें दिल-कशी और असर अंगेज़ी पैदा हो गई है।तसव्वुफ़ उनकी शाइ’री का जुज़्व-ए-ला-यनफ़क है और इसके बग़ैर उनकी शाइ’री की मुकम्मल तफ़्हीम-ओ-ता’बीर मुम्किन नहीं।उन्हीं के एक शे’र पर अपनी गुफ़्तुगू ख़त्म करता हूँ:
ब-गो कि चंद शवी बे-ख़बर ज़े-मस्ती-ए-इ’श्क़।
कसे कि मस्तीयश अज़ इ’श्क़ नीस्त बे-ख़बरस्त।।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi