आदाब-ए-समाअ’ पर एक नज़र-मोहम्मद अ’ली मैकश अकबराबादी

मैंने इस रिसाले में गाने के ज़ाहिरी पहलू पर नज़र की है या’नी शरई’ हैसियत से बह्स की है। सूफ़िया का एक फ़िर्क़ा ख़ुसूसन चिश्तिया गाने को सुलूक में मुफ़ीद ख़्याल करता है और चूँकि ये तक़र्रुब इलाल्लाह का सबब होता है इसलिए ताआ’त-ओ-इ’बादात में शामिल हो जाता है।
 जिन बुज़ुर्गों ने इससे फ़ाइदा उठाया है उन्होंने गाने की महफ़िलों के लिए कुछ आदाब भी मुक़र्रर किए हैं।

आदाब, हिल्लत-ओ-हुर्मत के अ’लावा एक दीगर शय है। ये बात नहीं है कि अगर मुक़र्ररा आदाब न पाए जाऐंगे तो गाना सुनना हराम हो जाएगा। इस से मक़सूद ये है कि जिन फ़वाइद के लिए वो महफ़िल मुरत्तब की गई थी वो फ़ाइदे उ’मूमन हासिल न होंगे और उस वक़्त उनका ये फे’ल अ’बस होगा। जिसे वह अपने ख़्याल में गुनाह समझते हैं उसका हिल्लत-ओ-हुर्मत और शरीअ’त से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं है।इन आदाब में पास-ए-ज़मान-ओ-मकान-ओ-अख़्वान अहम समझे जाते हैं।
ज़मान से मुराद ये है कि नमाज़ वग़ैरा का कोई ऐसा वक़्त न हो जिसमें कोई ज़रूरी काम अंजाम देना हो। अख़्वान से मुराद ये है कि अपने हम-मज़ाक़-ओ-हम-सोह्बत-ओ-हम-ए’तिक़ाद आदमियों के अ’लावा और कोई न हो। मकान से भी यही मुराद है कि शारिअ’-ए-आ’म न हो जहाँ अग़्यार दाख़िल हो सकें।

इन सब क़ैदों से मक़सूद सिर्फ़ एक है और वो ये कि जमई’यत-ए-ख़ातिर और मज़ाक़-ए-सोह्बत को सदमा न पहुंचे।  अगर उ’लमा की सोह्बत-ए-मख़्सूस में एक रिंद और आज़ाद मनिश आ जाए या आज़ादों के जल्से में कोई मुफ़्ती साहिब तशरीफ़ ले आएं तो मज़ाक-ए-सोह्बत को निहायत सदमा पहुँचेगा और ख़्याल की यकसूई नौ-वारिद पर ज़रूर मब्ज़ूल होगी। इसी तरह सूफ़िया की मह्फ़िल में अगर कोई ग़ैर सूफ़ी चला आए तो शरअ’न वो मह्फ़िल हराम हो जाएगी। उनके आदाब में जिस तरह ये है कि एक रिंद-ए-फ़ासिक़-ओ-फ़ाजिर शरीक-ए-मह्फ़िल न हो उसी तरह ये भी है कि वो आ’बिद-ओ-ज़ाहिद भी शरीक न हो जिसे ज़ौक़-ए-समाअ’ नहीं है

हज़रत क़िब्ला-ओ-का’बा जद्द-ए-अमजद मौलाना सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह क़ादरी चिश्ती रहमतुल्लाहि अ’लैहि जवाहिर-ए-ग़ैबी में मिस्बाहुल-हिदाया के हवाले से नक़्ल फ़रमाते हैं:
तर्जुमा: ‘‘जा-ए-समाअ’ रह-गुज़र से महफ़ूज़ होनी चाहिए और उसमें मुतकब्बिर, बेहूदा-गो और ज़ाहिदान-ए-ख़ुश्क-निहाद, बद-ए’तिक़ाद-पीर और मस्नूई’-हाल लाने वाले न होने चाहिऐं। अह्ल-ए-मह्फ़िल को ख़ामोश बैठना चाहिए और दिल को ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जिह रखना चाहिए और अ’ता-ओ-फ़ैज़ का मुंतज़िर रहना चाहिए।

ये आदाब उन लोगों के वास्ते हैं जो गाना इ’बादत की हैसिय्यत से सुनते हैं। इस में शक नहीं कि अगर कोई गाना सुनने से रुहानी फ़वाएद हासिल करना चाहे तो उसे उन आदाब की पाबंदी ज़रूरी है। इन आदाब की पाबंदी के बग़ैर गाना सुनना जाइज़ ही नहीं।

इ’बादत होने और हलाल होने में जो फ़र्क़ है वो ज़ाहिर है।

वज्द-ओ-हाल

ये मुसल्ल्म है कि गाना और हर अच्छी आवाज़ जज़्बात पर मुवस्सिर है। इस से मुतअस्सिर होने और तासीर के ज़ाहिर होने का नाम वज्द है। ये ता’रीफ़ मैंने अपनी अ’क़्ल के ए’तबार से की है। सूफ़िया और हुकमा ने इस बारे में मुख़्तलिफ़ ख़्याल ज़ाहिर किए हैं और बहुत कुछ कहा है। हज़रत ज़ुन्नून मिस्री रहमतुल्लाहि अ’लैहि फ़रमाते हैं “वो हक़ की तरफ़ से वारिद है जो क़ुलूब को हक़ की तरफ़ खींचता है”। हज़रत अबुल-हुसैन दर्राज रहमतुल्लाह ने हर उस कैफ़िय्यत को जो समाअ’ में पैदा हो वज्द के नाम से ता’बीर किया है।

अबू सई’द इब्नुल-अ’रबी फ़रमाते हैं कि वज्द रफ़-ए’-हिजाब-ओ-मुशाहिदतुर्रक़ीब और हुज़ूर-ए-फ़ह्म का नाम है। उ’मर बिन उ’समान मक्की फ़रमाते हैं कि इ’बारत कैफ़िय्यत-ए-वज्द को बयान ही नहीं कर सकती इसलिए कि वो ख़ुदा तआ’ला का एक राज़ है।
बा’ज़ हुकमा का क़ौल है कि दिल के अंदर एक ऐसी शरीफ़ फ़ज़ीलत है जिसको नुत्क़ बयान नहीं कर सकता। नफ़्स उस को इलहान सुनने के वक़्त ज़ाहिर करता है और इस फ़ज़ीलत के ज़ाहिर होने से नफ़्स-ए-नातिक़ा को इंबिसात-ओ-सुरूर हासिल होता है। बा’ज़ हुकमा का क़ौल है कि फ़िक्र जिस तरह इ’ल्म को मा’लूम की तरफ़ खींचती है उसी तरह नग़मा क़ल्ब को आ’लम-ए-रुहानी की तरफ़ खींचता है।

हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाहि अ’लैहि फ़रमाते हैं कि वज्द उस हालत को कहते हैं जो समाअ’ से पैदा होती है। वो वारिद-ए-जदीद है हक़-ता’ला की तरफ़ से जो समाअ’ के बा’द वारिद होता है और सुनने वाला उसको अपने अंदर मह्सूस करता है।ये हालत दो तरह की होती है ।या तो ये मुशाहिदात-ओ-मुकाशिफ़ात की तरफ़ राजिअ’ होती है जो अज़ क़बील-ए-उ’लूम-ओ-मआ’रिफ़ है या ये तग़य्युरात-ए-अह्वाल की तरफ़ जो  उ’लूम से मुतअ’ल्लिक़ नहीं जैसे शौक़, ख़ौफ़, क़लक़, सुरूर, बे-ख़ुदी, बस्त, सुक्र वग़ैरा ये हालत गाने से पैदा होती है या ज़ियादा होती है। अगर ज़ाहिर में ख़िलाफ़-ए-आ’दत हरकात ज़ाहिर न हों तो उसे वज्द नहीं कहते”।(ग़ज़ाली)

हज़रत ख़्वाजा शैख़ कबीर फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैहि से पूछा गया कि समाअ’ में बे-होशी का क्या सबब है। फ़रमाया कि जब रूहों ने रोज़-ए-मीसाक़ निदा-ए-अलस्तु बिरब्बिकुम सुनी तो सब बेहोश हो गईं। अब जिस वक़्त अह्ल-ए-समाअ’ नाम-ए-दोस्त, सिफ़त-ए-दोस्त के साथ सुनते हैं तो इज़्तिराब-ओ-ज़ौक़-ओ-बे-होशी उनमें पैदा होती है। ये रोज़-ए-मीसाक़ की उस बे-होशी का असर है और निशान-ए-मा’रिफ़त है, जिसने यौम-ए-मीसाक़ उस कलाम की लज़्ज़त उठाई थी ,इस आलम में भी नग़्मे की आवाज़ से उसको याद कर के मस्त और विसाल-ओ-मुशाहिदा-ए-महबूब-ए-हक़ीक़ी के ज़ौक़-ओ-शौक मैं मुज़्तरिब हो जाता है ।जिसने उस आ’लम में लज़्ज़त नहीं उठाई थी इस आ’लम में भी बे-बहरा है।

किताब-ए-मुस्तताब जवाहिर-ए-ग़ैबी मुवल्लफ़ा जद्द-ए-अमजद सय्यिद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह क़ादरी चिश्ती अ’लैहिर्रहमा में है:
तर्जुमा:’ मंशा-ए-वज्द समाअ’ में या तो मुजर्रद नग़्मात-ए-तय्यिबा और अस्वात-ए-मुतनासिबा हैं और उनसे लज़्ज़त हासिल करना रूह का हिस्सा है और या उन नग़्मात और आवाज़ों के साथ अश्आ’र-ओ-मा’नी का मज्मूआ’। उनसे लज़्ज़त हासिल करने में अह्ल-ए-हक़ीक़त के लिए रूह और क़ल्ब मुश्तरक हैं और अह्ल-ए-बातिल के लिए रूह और नफ़्स मुश्तरक हैं। मगर वो मुजर्रद नग़्मात जिनसे रूह मुतलज़्ज़िज़ होती है उसमें भी क़ल्ब-ओ-दीदा लज़्ज़त लेता है।

लिहाज़ा वज्द एक वो जज़्बा-ए-इन्फ़िआ’ल है जो इन्सान के इख़्तियार से बाहर है। इसलिए उस के जवाज़-ओ-अ’दम-ए-जवाज़ से बह्स नहीं हो सकती। अहकाम-ए-शरा’-ओ-क़वानीन साहिब-ए-इख़्तियार पर नाफ़िज़ होते हैं। इमाम ग़ज़ाली और साहिब-ए-नग़ाइमुल-अश्वाक़ ने साबित किया है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम और सहाबा में से हज़रत अ’ली अ’लैहिस्सलाम-ओ-हज़रत ज़ैद-ओ-हज़रत जा’फ़र रज़ी-अल्लाहु अ’न्हुम और औलिया-अल्लाह में से हज़रत मा’रूफ़ कर्ख़ी-ओ-जुनैद-ओ-शिब्ली-ओ-ग़ौस-ए-आ’ज़म हज़रत महबूब-ए-सुबहानी और अक्सर ख़्वाजगान-ए-चिश्त वग़ैरुहुम पर ऐसे हालात तारी हुए हैं और उनका समाअ’-ओ-वज्द साबित है। मगर मैं उसके बयान की ज़रूरत नहीं समझता। जो लोग अह्ल-ए-वज्द पर ए’तिराज़ करते हैं उनका हँसना ऐसा है जैसा जुहला का अह्ल-ए-इ’ल्म पर और अह्ल-ए-अ’क़्ल पर हँसना इसलिए कि उनमें वह जज़्बात कलअ’दम हैं और उस लज़्ज़त से ना-वाक़िफ़ और मा’ज़ूर हैं।

इतना ज़रूर है कि ख़्वाह-म-ख़्वाह की उछल कूद फ़िल-वाक़े’ हँसने के लाइक़ है और फ़ित्रतन हँसी आती है जैसा कि आज-कल रिवाज है। अगरचे हँसना नहीं चाहिए इसलिए कि:

हर बे-शः गुमाँ म-बर कि ख़ालीस्त
शायद कि पलंग ख़ुफ़्तः बाशद

मगर अह्ल-ए-दिल हज़रात के अ’लावा ख़ुश-ए’तिक़ाद अ’क़्ल-ए-सलीम वाले भी समझ लेते हैं कि उस का हाल, दर्द,सोज़,जज़्बात,हरकात-ए-ग़ैर इख़्तियारी हैं या तस्न्नोअ’-ओ-तकल्लुफ़ है। ऐसा हाल लाने वाले बुज़ुर्गों की बाबत साहिब-ए-नग़ाइमुल-अश्वाक़ फ़रमाते हैं कि
तर्जुमा: अगर किसी ने इन बातों को अपना पेशा बना लिया हो और ख़ुद उठता हो और ख़ुद गिरता हो तो उसको न सँभालना चाहिए और अगर देखें कि ज़ोर करता है और दूसरों को तकलीफ़ देता है तो उसको मह्फ़िल से निकाल देना चाहीए। वज्द में एक दूसरे की तवाज़ो’ करना हालत-ए-समाअ’ से नहीं है बल्कि उससे ख़ारिज है। बा’ज़ सूफ़ी हाल में एक दूसरे के पाँव पर गिरते हैं और एक दूसरे का हाथ और दामन पकड़ते हैं, ताकि उस को भी ब-ग़ैर हाल के वज्द में ले आएँ और उसको इस्रार कहते हैं। इस्रार कुजा ये लोग वज्द में भी मश्ग़ूल नहीं होते। इन हरकतों से वक़्त ज़ाए’ करते हैं। जो शख़्स दूसरे के इशारे से हाल लाने लगे वो मुक़ल्लिद है (बल्कि नक़्क़ाल)। और अगर कोई हाल लाने वाला इस तरह धक्का दे कि दूसरे को तकलीफ़ पहुँचे तो यक़ीनन जान लेना चाहिए कि वो हाल लाने वाला हाल में नहीं है और ना-अह्ल है।

क़दीम से सुन्नत-ए-मशाइख़ है कि साहिब-ए-हाल की ता’ज़ीम को खड़े हो जाते हैं। इमाम ग़ज़ाली ने भी यही फ़रमाया है। जो बैठा रहे वो शक़ी और मुनाफ़िक़ है। ग़ैरत-ए-औलिया से शामत-ए-अ’ज़ीम में गिरफ़्तार होगा(मैकश उफ़िया अ’न्हु)। मगर ऐसे हाल लाने वालों की ता’ज़ीम का क्या हुक्म है, जो उस वक़्त तक ख़िराम-ए-नाज़ फ़रमाया करें जब तक उनकी थकन जो दो ज़ानू बैठने से हो जाती है, दूर न हो जाए (मैकश उफ़िया अ’न्हु)। “ब-मुजर्रद इस के कि किसी शे’र पर ज़ौक़ हो अपने इख़्तियार से हर्गिज़ खड़ा न होना चाहिए और तहम्मुल करना चाहिए। मगर जब कि हाल और वक़्त का तसर्रुफ़ ग़ालिब आ जाए और बे-इख़्तियार हो जाए। जब हाल ग़ालिब हो जाए तो वक़्त और जोश के मिक़्दार के मुवाफ़िक़ हरकत करनी चाहिए और जब हाल जाता रहे तो तकल्लुफ़-ओ-तस्ननुअ’ से कोई हरकत नहीं करनी चाहिए और बैठ जाना चाहिए।उस वक़्त अगर एक क़दम भी बग़ैर ज़ौक़ के उठाएगा तो आसमान से ऐसी बला उतरेगी जो उस दैर की हलाकत का सबब होगी। (नग़ाइम)।
 झूठे हाल की शनाख़्त ये नहीं है कि एक बे-पढ़े लिखे को अ’रबी फ़ारसी अश्आ’र पर वज्द हो इसलिए कि बहुत सी कैफ़िय्यात और तासीरात गाने में ऐसी भी हैं जो अल्फ़ाज़-ओ-मज़ामीन से अर्फ़ा’ और आ’ला हैं और उनका तअ’ल्लुक़ मुजर्रद नग़्मात से है, न मज़ामीन-ओ-अश्आ’र से जैसा कि पहले अ’र्ज़ कर चुका हूँ। ये भी कह सकते हैं कि वज्द एक अम्र-ए-वह्बी है न कसबी। अल्फ़ाज़ के फ़ह्म में भी अक्सर ऐसा होता है कि शाइ’र का मफ़्हूम कुछ और होता है और सुनने वाला अपने मज़ाक-ए-तब्अ’ और हाल के मुनासिब और मा’नी अख़ज़ कर लेता है। इह्या-उल-उ’लूम में है
इन्नल-अजमीया क़द यग़्लुबु अ’लैहिल-वज्दु अ’लल अब्यातिलमंज़ूमति बि-लुग़तिल-अ’रबी फ़इन्ना-बा’ज़ा-हुरूफ़िहा युवाज़िनुल-हुरूफ़। (ग़ज़ाली)।

इसी तरह बा’ज़ अ’रबी पढ़े ए’तिराज़ करते हैं कि क़ुरआन-ए-मजीद पर कैफ़िय्यत क्यों नहीं होती गाने की तख़्सीस क्यों है।
इमाम ग़ज़ाली ने इस के छ: जवाब दिए हैं। इसी तरह और मुसन्निफ़ीन ने भी जवाब दिए हैं मगर मैं मुख़्तसरन अ’र्ज़ करता हूँ कि अव्वल तो क़ुरआन-ए-मजीद की ज़बान समझने से और जो ज़बान समझते हैं वो मज़ामीन समझने से अक्सर क़ासिर हैं।दूसरे कुरान-ए-मजीद में उ’मूमन क़िसस,अह्काम-ए-तर्ग़ीब-ओ-तर्हीब के मज़ामीन हैं। एक वो आ’शिक़-मिज़ाज जिसके मुनासिब-ए-हाल कैफ़िय्यात हुज़न-ओ-शौक़, फ़िराक़-ओ-सोज़-ओ-गुदाज़ हैं, उन आयात से उसके जज़बात में किस तरह इश्तिआ’ल पैदा हो सकता है ब-ख़िलाफ़ इसके अश्आ’र कि वो महज़ जज़्बात की तर्जुमानी का नाम हैं। इसके अ’लावा गाने में अश’आर और अश्आ’र में वज़्न ‘‘लै’’ साज़ ये ऐसी चीज़ें हैं जो तनासुब और मौज़ूनिय्यत के लिहाज़ से जादू हैं।

फिर भी अगर कोई ख़ुश-इल्हान क़ारी क़ुरआन पढ़ता है तो ये निस्बत दूसरे के पढ़ने के बहुत ज़्यादा असर होता है। ये इसकी साफ़ मिसाल है कि मज़मून के अ’लावा ख़ुश-आवाज़ी और मौज़ूनिय्यत को वज्द में बहुत कुछ दख़्ल है। शायद इसी लिए हज़ूर सल्ललाहु अलै’हि-व-सल्लम ने फ़रमाया लैसा मिन्ना मन-लम यतग़न्ना-बिल-क़ुरआन (जो क़ुरआन को तरन्नुम से न पढ़े वो हम में से नहीं।व-हस्सिनिल-क़ुरआ-न बि-अस्वातिकुम (क़ुरआन को अपनी आवाज़ों से ज़ीनत दो)। मैं ये अ’र्ज़ नहीं करता कि क़ुरआन के मज़मून पर कैफ़िय्यात नहीं होती या नहीं हो सकती बल्कि होती है, मगर उन अह्ल-ए-हाल को जो हक़ाइक़-ए-क़ुरआनी के माहिर हैं वो उन मा’नी का इदराक करते हैं, जिनकी मुतहम्मिल इ’बारत-ए-ज़ाहिर नहीं हो सकती, बल्कि वो तो अश्आ’र से कुछ ज़्यादा पुर-सोज़ मतालिब का इस्तिख़राज करते हैं और हज़ उठाते हैं। मगर ये अश्शाज़ु कल-मा’दूम के हुक्म में हैं  इसलिए बह्स में नहीं आ सकते न कुल्लिया में शामिल हो सकते हैं, बल्कि मुस्तस्ना हैं।
 हर मज़्मून का तअ’ल्लुक़ मख़्सूस कैफ़िय्यात से होता है और हर जज़्बे का ज़ुहूर और इंतिहा उस जज़्बे के क़ूव्वत-ओ-ज़ो’फ़ के ब-क़द्र है, पस जो कैफ़िय्यात कि मज़ामीन-ए-फ़िराक़-ओ-विसाल से पैदा होती हैं वो अहकाम-ए-नमाज़-ओ-ज़कात से पैदा नहीं हो सकतीं। मदरसा-ए-अ’क़्ल-ओ-ख़राबात-ए-इ’श्क़ बराबर नहीं हो सकते।

अब मैं उ’ज़्र-ए-तक़्सीर में फ़ित्रत के मुक़द्दस क़दमों पर मुनफ़इ’ल जबीन-ए-नियाज़ रखता हूँ, जिसके मा’सूम नग़्मों की आग़ोश में इन्सान परवरिश हुआ है। ‘कुल्लू-मौलूदिन यूलादु अ’लल-फ़ित्रति।
ऐ मुजस्सम-ए-इ’स्मत मुझे अपने उसी मा’सूम नग़्मे में गुम कर दे जिससे मेरी नुमूद हुई थी।

मैं पाक-बाज़-ए-उल्फ़त दीवाना-ए-फ़ना हूँ
मिटना ही चाहता था मिटना ही चाहता हूँ
– (मैकश)

व-आख़िरु दा’वाना-अनिल-हम्दुलिल्लाहि रब्बिलआ’लमीन
अल्लाहुम-म-सल्लि-व-सल्लिम-व-बारिक अ’ला मोहम्मदिन-व-आलिहि-व-अह्ल-ए-बैतिहि-व-अस्हाबिहि-व-औलिया-ए-उम्मातिहि अ’ला मुर्शिदना अ’जमई’न बि-रह्मतिका या अर्हमर्राहिमीन।

आगरा,मेवा कटरा
26۔ जुलाई1924-ई’स्वी-मुताबिक़23 ज़िल-हिज्जा 1342 हिज्री
(शब-ए-यक-शंबा)

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