मसनवी की कहानियाँ -5

एक बादशाह का दो नव ख़रीद ग़ुलामों का इम्तिहान लेना(दफ़्तर-ए-दोम)

एक बादशाह ने दो ग़ुलाम सस्ते ख़रीदे। एक से बातचीत कर के उस को अ’क़्लमंद और शीरीं- ज़बान पाया और जो लब ही शकर हो तो सिवा शर्बत के उनसे क्या निकलेगा। आदमी की आदमियत अपनी ज़बान में मख़्फ़ी है और यही ज़बान दरबार-ए-जान का सर-ओ-पर्दा है।

जब उस ग़ुलाम की फ़िरासत का इम्तिहान ले चुका तो दूसरे को पास बुलाया। बादशाह ने देखा कि उस के काले काले दाँत हैं और गंदा-दहन है। अगरचे बादशाह उसके बुशरे को देखकर ना-ख़ुश हुआ था लेकिन उस की क़ाबिलियत-ओ-औसाफ़ की टटोल करने लगा। पहले तो उसने काम में लगा दिया कि जा और नहा धो के आ और इस दूसरे से कहा कि तू अपनी ज़ेरकी बता। तू एक नहीं सौ ग़ुलामों के मुसावी है। तू वैसा नहीं मा’लूम होता जैसा कि तेरे साथी ने कहा और हमारा दिल तुझसे सर्द कर दिया। उसने तो तुझे चोट्टा, बदमाश, हिजड़ा, नामर्द और जाने क्या-क्या कहा। ग़ुलाम ने जवाब दिया कि वो हमेशा सच्चा पाया गया है उस से ज़ियादा सच्चा मैंने किसी को नहीं देखा। उस की फ़ितरत में रास्त-गोई दाख़िल है इसलिए उसने जो कुछ मेरे मुतअ’ल्लिक़ कहा है अगर ऐसा ही मैं उस के मुतअ’ल्लिक़ कहूं तो तोहमत होगी । मैं उस भले आदमी की ऐ’ब-जोई ना करूँगा बजाए इस के बेहतर है कि अपने ही को मुत्तहिम रखूँ। ऐ बादशाह मुम्किन है कि वो मुझमें जो ऐ’ब देखता है शायद मैं ख़ुद अपने में ना देखता हूँ।बादशाह ने कहा तू भी उस के ऐ’ब जैसे कि उसने तेरे ऐ’ब बयान किए बे-कम-ओ-कास्त बयान कर ताकि मुझे यक़ीन हो कि तू ग़म-ख़्वार और मेरी सल्तनत-ओ-हुक्मरानी का मददगार रह सकता है। ग़ुलाम ने कहा कि ऐ बादशाह उस में मेहर-ओ-वफ़ा और मुरूवत-ओ-सदाक़त है और सबसे बढ़कर ये कि उस में जवाँ-मर्दी-ओ-सख़ावत ऐसी कि वक़्त पर जान भी दे डाले। चौथा ऐ’ब ये कि वो ख़ुद-बीं नहीं बल्कि ख़ुद ही अपना ऐ’बजू है। ऐ’ब कहना और ऐ’ब तलाश करना अगरचे बुरा है लेकिन वो सब के साथ नेक और अपने साथ बुरा है। बादशाह ने कहा कि अपने हम-राही की मद्ह में मुबालग़ा ना कर और दूसरे की मद्ह के ज़िम्न में अपनी मद्ह पेश ना कर क्योंकि अगर मैं आज़माइश के लिए उस को तेरे मुक़ाबिल कर दूँ तो तुझको शर्म-सारी हासिल होगी।

ग़ुलाम ने कहा, नहीं वल्लाह मेरे साथी और दोस्त के औसाफ़ मेरे कहने से से-गुना ज़ियादा हैं। जो कुछ मैं अपने दोस्त के मुतअ’ल्लिक़ जानता हूँ जब तुझे बावर नहीं आता तो मैं क्या अ’र्ज़ करूँ।

इस तरह बहुत सी बातें कर के बादशाह ने इस बदसूरत ग़ुलाम को आज़मा लिया और जब वो पहला ग़ुलाम हम्माम से आया तो उस को पास बुलाया। बद-सूरत ग़ुलाम को वहाँ से रुख़्सत कर दिया और ख़ूबसूरत की शक्ल-ओ-सीरत की ता’रीफ़ कर के कि कहा कि मा’लूम नहीं तेरे साथी को क्या हो गया था कि उसने पीठ पीछे तेरी निस्बत बहुत कुछ बातें कहीं।

ग़ुलाम ने कहा कि जहांपनाह उस बे-दीन ने मेरे हक़ में जो कुछ कहा उस का ज़रा सा इशारा तो दीजिए। बादशाह ने कहा कि सबसे पहले तेरी दो-रुई का वस्फ़ उसने किया कि तू ज़ाहिर में दवा और बातिन में दर्द है। जब उसने बादशाह से ये सुना तो एक दम ग़ुस्सा दरिया की तरह चढ़ आया। उस का चेहरा मारे ग़ुस्से के तमतमाने लगा और उसने अपने साथी की निस्बत जो कुछ मुँह में आया कह डाला। जब बार-बार हज्व करता ही चला गया तो शहंशाह ने उस के होंटों पर हाथ रख दिया कि बस अब हद हो गई। बादशाह ने कहा कि लो सुन मैंने तुझमें और उस में पूरी पूरी पहचान कर ली। तेरी जान बदबू है और उस का दहान बदबू है पस ऐ सड़ांढी जान वाले तू दूर बैठ ताकि वो अमीर और तू उस का मातहत रहे।

इसीलिए दुनिया के बुज़ुर्गों ने कहा है कि ”ज़बान की हिफ़ाज़त इन्सान की राहत है”। हदीस शरीफ़ में आया हैकि ज़ाहिरदारी की तस्बीह (जप) को कोड़ी के ऊपर सब्ज़ा जानो। यक़ीन करो कि अच्छी और भावनी सूरत बुरी-ख़स्लतों के साथ हरगिज़ काबिल-ए-क़द्र नहीं । और चाहे सूरत हक़ीर और नापसंदीदा हो लेकिन जब अख़्लाक़ अच्छे हों तो उस के क़दमों में मर जाना बेहतर है

लिहाज़ा ऐ शख़्स तू कब तक आबख़ोरे के ज़ाहिरी नक़्श-ओ-निगार पर फ़रेफ़्ता रहेगा। नक़्श-ओ-निगार को छोड़ और पानी को देख कि वो कैसा है । आख़िर कह तो सही तू कब तक सूरत- परस्ती करेगा। मा’नी का तलबगार हो और मा’नी को ढूंढ।

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