सिर्र-ए-हक़ रा बयाँ मुई’नुद्दीन
शैख़ुश्शुयूख़ तरीक़त-ए-अस्ल-ए-उसूल ब-हक़ीक़त-ए-साहिब-ए-असरार-ए-इलाही मुत्तसिफ़ ब-औसाफ़-ए-सह्व-ए-साही, वारिसुल-अंबियाइ वल-मुर्सलीन नाएब-ए-रसूलुल्लाह फ़िल-हिंद हज़रत ख़्वाजा मुई’नुल-हक़- वश्शर्रइ’ व’उद्दीन ख़्वाजा मुई’नुद्दीन हसन संजरी क़ुद्दिस सिर्हुल-अ’ज़ीज़।
इस्लाम की तारीख़ में अह्ल-ए-तसव्वुफ़ की वो चंद हस्तियाँ जिन्हों ने तमाम आ’लम-ए-इंसानियत को मुतअस्सिर किया और पैग़ाम-ए-हक़ को आ’म किया उनमें जिन अश्ख़ास का नाम बि-ला ग़ौर-ओ-फ़िक्र ज़बान-ज़द-ए-ख़ास-ओ-आ’म आता है सुल्तानुल-हिंद ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ उन्हीं अश्ख़ास में मिस्ल-ए-आफ़्ताब के हैं। चर्ख़-ए- लैल-ओ-नहार के जितने अदवार गुज़रते जा रहे हैं उतना ही ये आफ़्ताब-ए-हक़ीक़त काएनात को रौशन करता जा रहा है। वो न सिर्फि अह्ल-ए-तसव्वुफ़ बल्कि आ’लम-ए-इंसानियत के लिए जा-ए-पनाह, निशान-ए-हिदायत, मीनारा-ए-नूर और मश्अ’ल-ए-राह हैं। हिन्दुस्तानी मुवर्रिख़ीन हों यूरोपियन मुवर्रिख़ीन जब भी कोई आपकी शख़्सियत, किर्दार, अक़्वाल और कमालात को लिखने की सई’ करता है तो एक आ’लम-ए-हैरत में डूब जाता है। गोया आप हदीस-ए-मुबारका ख़लक़हु आद-म अ’ला सूरतिन की तस्वीर नज़र आते हैं। आपके फ़ज़ाइल और कमाल इतने जामे’ और कसीर हैं जिनको लिखने का हक़ अदा करना किसी भी मुसन्निफ़ या क़लम-कार के लिए मुश्किल काम है। शाह नियाज़ बे-नियाज़ फ़रमाते हैं।
ख़्वाजा-ए-ला-मकाँ-ओ-क़ुद्स-मक़ाम
आसमान-ए-आस्ताँ मुई’नुद्दीन
इमामुल-मुहद्दिसीन मुहक़्क़ि-ए-इ’ल्म-ए-हदीस मौलवी अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी के बारे में मशहूर है कि आप सरकार-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम के हुक्म पर इ’ल्म-ए-हदीस को लेकर क़रीब चार सदी क़ब्ल हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए।आपको सरकार-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ने हुक्म दिया था कि जब हिन्दुस्तान पहुँचो तो पहला क़याम अजमेर में करना। आप अजमेर शरीफ़ पहुँचे तो मफ़रूज़ा पेश किया कि मैं अपना तमाम इ’ल्म आपकी चौखट के बाहर छोड़ आया हूँ|ये दामन ख़ाली है आप जो चाहें अ’ता फ़रमा दें।
अपनी किताब अख़्बारुल-अख़्यार में लिखते हैं “आप बर्र-ए-सग़ीर के बड़े-बड़े मशाइख़ के सर-ए-हल्क़ा और सिल्सिला-ए-चिश्तिया के बानी हैं। बीस साल तक सफ़र और हज़र में ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी (रहि·) की ख़िद्मत में रहे और आपके सोने के लिबास वग़ैरा की निगरानी फ़रमाते रहे|ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी ने इस ख़िद्मत के बा’द ने’मत-ए-ख़िलाफ़त से नवाज़ा।”
विलादत-ए-तारीख़ ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान के बारे में प्रोफ़ेसर शम्सी तेहरानी लिखते हैं कि हज़रत ख़्वाजा का सन-ए-पैदाइश क़दीम तज़्किरा-निगारों ने नहीं लिखा है ।प्रोफ़ेसर ख़लीक़ अहमद निज़ामी का क़ौल है कि हज़रत शैख़ अ’ब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह अ’लैह ने आपका सन-ए-वफ़ात 233 हिज्री तस्लीम किया है।(अख़्बारुल-अख़्यार,फ़ारसी, सफ़हा 22) मौलाना जमाली ने लिखा हैः “ख़्वाजा-ए-बुज़ुर्ग की उ’म्र शरीफ़ 97 साल हुई| (सियरुल-आ’रिफ़ीन, फ़ारसी, सफ़हा 16) इस बुनियाद पर हिसाब लगाने से आपका सन-ए-पैदाइश 536 हिज्री क़रार पाता है।
(Some Aspects of Religion and Politics in India During the Thirteen Century. By K.A.Nizami, P.182)
प्रीचिंग ऑफ़ इस्लाम मुसन्निफ़ा टी-डब्लयू आर्नल्ड उर्दू तर्जुमा दा’वत-ए-इस्लाम अज़ शैख़ इ’नायतुल्लाह सफ़हा 279 शाए’-कर्दा महकमा-ए-औक़ाफ़,हुकूमत-ए-पंजाब लाहौर की सनद पर ख़्वाजा बुज़ुर्ग की तारीख़-ए-पैदाइश 14 रजब 530 हिज्री मुताबिक़ 18 अप्रैल 1139 ईस्वी क़रार पाती है।तक़्वीमी क़ाएदे से 530 हिज्री मुताबिक़ 1135 ई’स्वी सहीह है और 1139 ईस्वी ग़लत है।मौलाना अ’ब्दुल बारी मा’नी अजमेरी अ’लैहिर्रहमा ने लिखा है कि 535 हिज्री मुताबिक़ 1135 ईस्वी में हमारे ख़्वाजा पैदा हुए|बहुत से तज़्किरा-निगारों ने 535 हिज्री, 536 हिज्री और 537 हिज्री को जुदा-जुदा आपकी पैदाइश का सन क़रार दिया है। (हमारे ख़्वाजा, सफ़हा1)
ता’लीम और मुर्शिद की तलाश
इ’ल्म के हुसूल के लिए कई पैदल सफ़र भी फ़रमाए। समरक़ंद, बुख़ारा में रह कर ज़ाहिरी उ’लूम की तक्मील की| क़ुरआन हिफ़्ज़ किया और समरक़ंद में ही ‘सर्फ़’ ‘नह्व’ ‘फ़िक़्ह, उसूल-ए-फ़िक़्ह, हदीस, तफ़्सीर और दूसरे उ’लूम-ए-अ’क़्ली की तह्सील की। एक मुहद्दिस का क़ौल है की हज़रत ख़्वाजा साहिब (रहि·) ने तीन साल मदीना तय्यिबा में रह कर हदीस का दर्स भी दिया।
सियरुल-आ’रिफ़ीन में लिखा है कि जब आपकी उ’म्र पंद्रह बरस की हुई तो आपके वालिद-ए-बुजु़र्गवार ख़्वाजा ग़ियासुद्दीन क़ुद्दिस-सिर्रहु ने जो निहायत ही मुत्तक़ी-ओ-परहेज़गार थे, वफ़ात पाई। आपका एक बाग़ था जिसकी आमदनी से बसर-औक़ात होती थी ।वहाँ एक मज्ज़ूब रहते थे जिनका नाम इब्राहीम था। एक दिन उनका गुज़र हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग के बाग़ में हुआ। आपने उनको निहायत इ’ज़्ज़त-ओ-तकरीम के साथ दरख़्त के नीचे बिठाया।अंगूरों का ख़ोशा पेश किया और अदब से उनके सामने बैठ गेए।इब्राहीम ने बग़ल से ख़ली निकाली और चबा कर हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग के मुँह में डाल दी। उसे खाते ही आपके बातिन में नूर-ए-मा’रफ़त चमकने लगा। चुनाँचे आप घर-बार और मुल्क, अम्लाक से मुतनफ़्फ़िर हो गए। दो तीन दिन के अंदर आपने अपना बाग़ और सामान फ़रोख़्त कर के दरवेशों में तक़्सीम कर दिया और तलब-ए-हक़ में रवाना हो गेए। मुद्दत तक आप समर्क़ंद और बुख़ारा में रहे।कलाम-ए-पाक हिफ़्ज़ किया और ज़ाहिरी इ’ल्म हासिल किया।जब आपने देखा कि इस से भी मक़्सद हासिल नहीं हुआ तो वहाँ से आप मुर्शिद की तलाश में इ’राक़ (अ’रब) तशरीफ़ ले गेए। जब आप क़स्बा-ए-हारून जो नीशापुर के नवाह में है पहुँचे तो हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी क़ुद्दि-स-सिर्रहु की ज़ियारत नसीब हुई। आप ढाई साल तक अपने मुर्शिद की ख़िद्मत में रह कर तर्बियत हासिल की और रियाज़त-ओ-मुजाहिदात में मश्ग़ूल रहे। जब आप मर्तबा-ए-तक्मील तक पहुँचे तो ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी रहमतुल्लाह अ’लैह ने आपको ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त देकर रुख़्सत कर दिया। लेकिन ख़्वाजा बुज़ुर्ग ख़ुद अनीसुल-अर्वाह में तहरीर फ़रमाते हैं कि ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी की ज़ियारत के लिए मैं बग़दाद पहुँचा और बीस साल आपकी ख़िद्मत में रह कर ज़ाहिरी और बातिनी सफ़र तय किए उसके बा’द ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से मुशर्रफ़ हुआ।
हुक्म-ए-अल्लाह और ख़्वाजा ग़रीब नवाज़:
सियरुल-अक़्ताब ने तफ़्सील से लिखा हैकि एक मर्तबा हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अपने पीर-ओ-मुर्शिद ख़्वाजा उ’स्मान हिरूनी के साथ मक्का मुअ’ज़्ज़मा गए तो पर्नाला-ए-रहमत के नीचे खड़े हो कर हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हिरूनी (रहि·) ने अपने मुरीद के लिए दुआ’ की तो आवाज़ आई मुई’नुद्दीन मेरा दोस्त है। मैंने उसे अपने मक़्बूल और बर्गुज़ीदा बंदों में शामिल किया।
क़ौल-ए-रसूलुल्लाह और ख़्वाजा ग़रीब नवाज़:
वहाँ से मदीना मुनव्वरा सरवर-ए-काएनात के रौज़ा-ए-मुनव्वरा पर हाज़िर हुए और अपने मुरीद को सलाम करने के लिए फ़रमाया हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन (रहि·) ने सलाम किया और रौज़ा-ए-मुनव्वरा से जवाब आया “व-अ’लैकुमुस्सलाम या क़ुतुबल-मशाइख़” । दूसरी दफ़ा’ फिर हाज़िरी हुई और इस बार रौज़ा-ए-मुक़द्दसा से आवाज़ आई मुई’नुद्दीन को बुलाओ। आप हाज़िर हुए।सलाम पेश किया। आपको इर्शाद हुआ ऐ क़ुतुबल-मशाइख़ चले आओ। फ़रमाया मुई’नुद्दीन तुम मेरे दीन के मददगार हो। फौरन हिन्दुस्तान जाओ वहाँ अजमेर नाम का एक शहर है। तुम्हारे दम-क़दम से वहाँ इस्लाम का बोल-बाला होगा ।एक अनार अ’ता किया। फ़रमाया इस में देखो। इस में मा’लूम हो जाएगा कहाँ जाना है। सियरुल-अक़्ताब की इस रिवायत से साबित होता है कि आप हुक्म-ए-रसूल से ही हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए थे। दूसरा कोई और मक़्सद नहीं था।
हज़रत सय्यद मुहम्मद अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी मय-कश अकबराबादी (रहि·) ख़्वाजा साहिब की बारगाह में अ’क़ीदत पेश करते हुए कहते हैं-
सलाम आपके ज़ाहिर पे ऐ शहंशाह-ए-हिंद
सुजूद आपके बातिन पे या ग़रीब-नवाज़
हबीबए-ज़ात-ए-इलाही अनीस-ए-रूह-ए-नबी
जलीस-ए-मह्फ़िल-ए-नाज़-ओ-अमीर-ए-बज़्म-ए-नियाज़
ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ का विसाल :
5 रजब 632 हिज्री इ’शा की नमाज़ के बा’द ख़्वाजा बुज़ुर्ग मा’मूल के मुताबिक़ हुज्रे का दरवाज़ा बंद करके ख़ुदा के ज़िक्र में मश्ग़ूल हुए। रात-भर ख़ुद्दाम हज़रात विर्द-ओ-ज़िक्र की आवाज़ सुनते रहे। सुब्ह होने तक ये आवाज़ें बंद हो गई । सूरज निकलने के बा’द भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो ख़ुद्दाम ने दस्तकें दीं।आख़िर मज्बूरन दरवाज़ तोड़ कर अंदर दाख़िल हुए। देखा के आप पर्दा फ़र्मा चुके हैं।
आपकी पेशानी-ए-मुबारक पर लिखा है हाज़ा हबीबुल्लाहि मा-त-फ़ी हुब्बिल्लाह या’नी ख़ुदा के दोस्त ने ख़ुदा की मुहब्बत में जान दी।
(सियरुल-औलिया 48 सफ़हा, सियरुल अक़्वाल सफ़हा155)
कुछ बुज़ुर्गों ने देखा के जिस रात ख़्वाजा मुई’नुद्दीन हसन संजरी (रहि·) का विसाल हुआ हुज़ूर रसूलुल्लाह ख़्वाब में फ़रमा रहे हैं ख़ुदा का दोस्त मुई’नुद्दीन संजरी आ रहा है। हम उसके इस्तिक़बाल के लिए आए हैं।
दा’वत-ए-अख़्लाक़ और ख़्वाजा साहिबः
अख़्लाक़-ओ-आ’दात में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की सीरत का आईना थे। ख़ानक़ाह में आने वाले हर एक इन्सान की रुहानी और ज़ाहिरी ज़रूरियात पुर फ़रमाते थे। अब भी आपके आस्ताना से मन्नत -ओ-मुराद पूरी होती ही है लेकिन कोई बिना लंगर के नहीं जाता ।सब पर आपकी यक्सर तवज्जोह बिला फ़र्क़-ए-मस्लक-ओ-मज़हब रहती है। इन्सान दोस्ती, मुसावात का दर्रस आपकी ता’लीम का अहम जुज़्व है।
हुज़ूर ग़रीब नवाज़ की बारगाह में महात्मा गांधी का नज़्राना-ए-अ’क़ीदतः
गांधी जी जब 1922 में दरगाह पर हाज़िर हुए तो आपने तक़रीर करते हुए कहा कि लोग अगर सच्चे जज़्बे के साथ ख़्वाजा साहिब के दरबार में जाएं तो आज भी उनके बातिन के बहुत सी ख़राबियाँ हमेशा के लिए ना-पैद हो सकती हैं और आदमी अपने अंदर ग़ैर-मा’मूली क़ुव्वत का इद्राक कर सकता है। मुझे ये देखकर दुख होता है कि आ’म तौर पर लोग सिर्फ़ दुनियावी मक़ासिद लेकर ख़्वाजा साहिब के पास जाते हैं और ये नहीं सोचते कि उनकी पूरी ज़िंदगी अंदर की ता’लीम देते गुज़री।उन्होंने रूह की रौशनी को बाक़ी रखने के लिए जो पैग़ाम दिया उसे कोई नहीं सुनता। नहीं तो ये एक दूसरे से लड़ने झगड़ने की बात क्यूँ करते।
ख़्वाजा साहिब ने सच्चाई के हथियार से लोगों का मन जीत लिया। उनकी ज़िंदगी में अ’दम-तशद्दुद की साफ़ झलक थी ।अफ़्सोस हम लोग उनकी ज़िंदगी को अपने लिए आदर्श नहीं बनाते।
इसी तरह जवाहर लाल नेहरू, डॉक्टर राधा कृष्णन, डॉक्टर राजेंद्र प्रशाद वग़ैरा ने बहुत कुछ कहा है जिससे मा’लूम होता है कि सुल्तानों, हुक्मरानों, मज़हबी रहनुमाओं सभी ने आपकी अ’ज़्मत का ऐ’तिराफ़ किया है।
अ’ल्लामा सय्यद अबुल हसन अ’ली नदवी जो नद्वतुल-उ’लमा लखनऊ के सद्र और मशहूर आ’लिम थे बड़ी सच्ची बात कही है कि-
“हिन्दुस्तान में जो कुछ ख़ुदा का नाम लिया गया वो सब अह्ल-ए-चिश्त और उनके मुख़्लिस-ओ-आ’ली हिम्मत बानी-सिल्सिला हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती के हसनात और कारनामों में शुमार किए जाने के क़ाबिल है। इसलिए शुब्हा नहीं कि मुल्क में चिश्तियों का हक़ ज़्यादा क़दीम है।“
सिल्सिला-ए-चिश्तिया की ख़ुसूसियत ही इ’श्क़,इ’बादत और इन्सान-दोस्ती है
बे-निशाँ रा निशाँ मु मुई’नुद्दीन
आफ़्ताब-ए-जहाँ मुई’नुद्दीन
हज़रत शाह नियाज़ बे-नियाज़ (रही·) क़ादरी चिश्ती
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