
शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी

इक्सीर-ए-इ’श्क़ अ’ल्ला-म-तुलवरा हज़रत मख़्दूम शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी रहमतुल्लाहि अ’लैहि का शुमार बर्रे-ए-सग़ीर के मशाइख़-ए-चिशत के अकाबिर सूफ़िया में होता है। आप हज़रत शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी बिन शैख़ अ’लाउ’ल-हक़ पंडवी रहमतुल्लाहि-अलैह के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा हैं। आपका तअ’ल्लुक़ सूबा-ए-उत्तरप्रदेश के एक तारीख़ी क़स्बे गढ़ी मानिकपूर, ज़िला प्रतापगढ़ से है। जिसका क़दीमी नाम कड़ा मानिकपूर है।
आपकी विलादत फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ के ज़माना-ए-हुकूमत में सन 773 हज्री मुताबिक़ 1341 इ’स्वी में क़स्बा-ए-मानिकपूर में हुई। आपका ख़ानदान मदीना तय्यबा से हिज्रत कर के यमन गया और वहाँ से खल़िफ़ा-ए-बनू अ’ब्बासिया के ज़माने में मौलाना इस्माई’ल रहमतुल्लाहि अ’लैह जो कि हज़रत अमीर हसन बिन अ’बदुल्लाह बिन अमीरुल-मोमिनीन सय्यदना उ’मर बिन ख़त्ताब रज़ीअल्लाहु-अन्हुम अजमई’न की आठवीं पुश्त में थे । उन्हों ने ना-साज़गार हालात की वजह से ईरान की तरफ़ हिज्रत की और वहाँ से दिल्ली तशरीफ़ लाए और दिल्ली में कुछ अ’र्सा ठहरने के बा’द आपने कड़ा मानिकपूर की तरफ़ रख़्त-ए-सफ़र बाँधा जो उस वक़्त गवर्नरी था वहाँ के एक गांव मालिक बटेन (चौकापूर) में सुकूनत इख़्तियार की, बा’द में जब ये जगह वीरान हुई तो आपकी औलाद क़स्बा मानिकपूर में क़ियाम-पज़ीर हुईं।
शैख़ जलालुद्दीन मख़्दूम हुसामुद्दीन मानिकपूरी के जद्द-ए-अमजद मौलाना जलालुद्दीन रहमतुल्लाहि-अलैह (विलादत 1231 ई’सवी विसाल 1325 ई’सवी (जद्दश मौलाना जलालुद्दीन बूद, बह्र-ए-ज़ख़्ख़ार, वज्हुद्दीन अशरफ़ सफ़्हा नः 533) एक ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग थे और आप हज़रत सुलतानुल-मशाएख़ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही रहमतुल्लाहि-अलैह के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा शैख़ मुहम्मद रहमतुल्लाहि-अलैह के इरादतमंद थे। मौलाना जलालुद्दीन रहमतुल्लाहि-अलैह के बारे में अख़्बारुल-अख़यार में लिखा है कि
‘‘आपके बारे में मशहूर है कि इ’शा की नमाज़ पढ़ने के बा’द आप उस वक़्त तक आराम फ़रमाते जब तक आ’म तौर पर लोग जागा करते थे। जब लोग सो जाते तो आप इ’बादत के लिए खड़े हो जाते फ़ज्र की नमाज़ तक इ’बादत में मशग़ूल रहते और नमाज़-ए-चाश्त के बा’द लोगों को मसाइल-ए-शरीआ’ का दर्स देते और आपका ज़रीआ’-ए-मआ’श किताबत थी।”
शैख़ अ’बदुर्रज़्ज़ाक़ उ’र्फ़ मौलाना ख़्वाजा (विलादत 1302 ई’सवी वफ़ात 1409 ई’सवी) शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी रहमतुल्लाहि-अलैह के वालिद-ए-मुहतरम थे। बड़े मुत्तक़ी बुज़ुर्ग थे, अक्सर औक़ात फ़ाक़ा किया करते थे, एक दफ़ा’ का वाक़िआ’ है कि आपके यहाँ तीन रोज़ से मुसलसल फ़ाक़ा की हालत थी, इसी दौरान एक शख़्स कोई मस्अला पूछने के लिए आया और साथ ही कुछ नक़्दी लाया, फ़त्वा उस के हवाले किया और वो नक़्दी भी वापस कर दी। जब आपके घर वालों को इस बात का इ’ल्म हुआ तो वो आप पर सख़्त बरहम हुए मग़्रिब के वक़्त मलिक ऐ’नुद्दीन मानिकपूरी आए वह एक दुआ’ पढ़ रहे थे उस में कुछ अल्फ़ाज़ मुश्किल आ गए जिनके मफ़्हूम को वो ना समझ सके तो लोगों से दर्याफ़्त किया कि इस शहर में कोई आ’लिम भी है। उनके साथियों ने मौलाना ख़्वाजा का नाम लिया तो उन्होंने मौलाना मौसूफ़ को बुलवाया और जो मुश्किल थी वो दर्याफ़्त की और जितनी नक़्दी पहले फ़त्वा लेने वाला लाया था उस से दो-चंद नक़्दी और कपड़े व खाने मज़ीद मौलाना को बतौर-ए-तोह्फ़ा अ’ता किए। मौलाना ख़्वाजा रहमतुल्लाहि-अलैह ने उसे ख़ुशी से क़ुबूल कर लिया और घर वापस लौट कर अहल-ए-ख़ाना को बताया कि मैं ने ज़रा हिम्मत कर के मशकूक माल नहीं लिया तो उस के बदले में अल्लाह ताआ’ला ने मुझे उस से दोगुना पाक माल अ’ता फ़रमाया।
मख़्दूम शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी रहमतुल्लाहि-अलैह नसबन फ़ारूक़ी हैं आपका सिलसिला-ए-नसब अमीरुल मोंमिनीन सय्यदना उ’मर बिन ख़त्ताब रज़ीअल्लाहु तआ’ला अन्हु से मिलता है।
ता’लीम और बैअ’त ईब्तिदाअन आपने मुरव्वजा उ’लूम अपने वालिद और दीगर मक़ामी असातिज़ा से हासिल किए और इस से फ़राग़त के बा’द आपने दर्स-ओ-तदरीस का सिलसिला जारी फ़रमाया मगर इस दौरान आपको एक बे-क़रारी और तिश्नगी का एहसास होता था, फिर जब ये बे-कली हद से गुज़री तो आप तलाश-ए-शैख़ में मसरूफ़ हो गए, आप ने अपनी इस कैफ़िय्यत को उस ख़त में ब्यान किया है जो आपने शैख़ निज़ामुद्दीन उ’र्फ़ मीरान शाह को लिखा है।
‘‘आप लिखते हैं कि हज़रत शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी के एक मुरीद ने मुरीद होने से पहले ख़्वाब में देखा कि सर्दी के मौसम में उस को एक बुज़ुर्ग ने वुज़ू का पानी लाकर फ़रमाया कि उट्ठो नमाज़-ए-तहज्जुद अदा करो। उस मुरीद ने उठकर नमाज़-ए-तहज्जुद अदा की। उस नमाज़ की बरकत से छः माह तक उस पर हालत-ए-जज़्ब तारी रही और दीवाँगी की हालत में रहा। फिर एक रात को हज़रत मख़्दूम जहानियाँ जहाँ गश्त सय्यद जलालुद्दीन बुख़ारी को आ’लम-ए-मुआ’मला में देखा कि वह उस मुरीद को अपनी तरफ़ खींच रहे हैं। इसी अस्ना में हज़रत शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी ने आ’लम-ए-मश्रिक़ से ज़ाहिर हो कर उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ़ खींच लिया और फ़रमाया ये मेरा है। उस के बा’द उस मुरीद ने एक रात हज़रत ख़्वाजा शैख़ फ़रीदुद्दीन मस्ऊ’द गंज शकर को आ’लम-ए-मुआ’मला में देखा कि उस का हाथ पकड़ कर किसी जगह ले गए हैं और समअ’ में मश्ग़ूल हो गए आँहज़रत के हाल के अ’क्स से उस मुरीद के दिल में क़वी जज़्ब पैदा हो गया। फिर उसी जज़्ब से मग़्लूब हो कर ग़लबा-ए-इश्तियाक़ में हज़रत शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी की ख़िदमत में हाज़िरी का इरादा किया’’

एक दूसरे मक़ाम पर हज़रत शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी ने तहरीर फ़रमाया है कि-
‘‘उस ज़माने में मेरे जज़्ब की ये कैफ़ियय्त हो गई थी कि अल्लाहु-अकबर कहना भी दुश्वार हो गया था और जब अल्लाहु-अकबर कहता तो बे-ताब हो कर गिर पड़ता, देखने वाले भी मेरी हालत पर अफ़्सोस करते और कहा करते कि ये नौजवान बड़ा अच्छा और अ’क़्लमंद था मगर अफ़्सोस कि बे-चारा पागल हो गया और उसी कैफ़ियय्त में हज़रत की ख़िदमत में हाज़िरी के लिए निकल पड़ा। हज़रत शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी मुझ से ख़्वाब में फ़रमाया करते कि फ़िक्र न करो मैं तुम्हारे साथ हूँ चुनाँचे मैं मंज़्लि-ब-मंज़्लि चलता रहा यहाँ तक कि दरिया के किनारे पर आकर कश्ती में सवार हो गया उस कश्ती में एक गुदड़ी-पोश दरवेश भी मेरे साथ बैठा था जब कश्ती किनारे पर लगी तो वह गुदड़ी वाला दरवेश दरिया में छलांग मार गया और हम सब की नज़रों से ग़ाएब हो गया फिर उस का हाल किसी को मा’लूम न हो सका। उस के बा’द जब शैख़ की ख़िदमत में पंडोह (सूबा बंगाल का एक गांव) हाज़िर हुआ तो देखा कि शैख़ की और उस गुदड़ी वाले फ़क़ीर की शक्ल यकसाँ थी। दोनों की सूरत में ज़रा भी फ़र्क़ न था।”
जब पंडोह पहुँचे तो नमाज़-ए-जुमआ’ के बा’द बैअ’त से मुशर्रफ़ हुए उस के बा’द ग़ैब से एक हाथ ज़ाहिर हुआ और उस मुरीद के हाथ पर जा पहुंचा। मुरीद ने हैरान हो कर हज़रत-ए-शैख़ से दरयाफ़्त किया ये किस का हाथ है? तो शैख़ ने फ़रमाया कि मेरे मशाएख़-ए-उ’ज़्ज़ाम का हाथ है उन्होंने भी तुझे क़ुबूल कर लिया। पस आँहज़रत ने उसे चौदह माह अपने पास रखकर कई चिल्ले कराए और मुजाहिदात में मशग़ूल रखा। उस के बा’द मुरीद ने शैख़ से अ’र्ज़ किया मेरा दिल ज़ाकिर हो गया है तो शैख़ ने फ़रमाया कि ज़ालिका फ़ज़्लुल्लाहि यूतीहि मंय-यशा (ये अल्लाह का फ़ज़्ल है अ’ता करता है जिसे चाहता है)
इस के बा’द फ़रमान हुआ कि हज़रत शैख़ सिराजुद्दीन (अख़ी सिराज, आईना-ए-हिंद, मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा सुल्तानुल-आ’रिफ़ीन शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही) की ज़ियारत के लिए जाओ। चुनाँचे वह मुरीद वहाँ चले गए। शैख़ अख़ी सिराज, आईना-ए-हिंद ने उस पर बहुत नवाज़िश फ़रमाई और बातिनी तौर पर ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त अ’ता किया और शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम से सिफ़ारिश की कि ये मुरीद बहुत लायक़ है। शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम ने पूछा कि ऐ फ़र्ज़ंद नूर-ए-दीदा बल्कि दीदा-ए-नूर के क्या मा’ना हैं? इस पर उस मुरीद ने अ’र्ज़ किया कि हज़रत मुझ से ज़ियादा जानते हैं तो शैख़ ने फ़रमाया कि मैं नूर में हूँ और तू मेरा नूरदीदा (आँख का नूर) है फिर फ़रमाया कि मैं ने तुझे बरहना तल्वार अ’ता की है। उस के बा’द फ़रमाया कि हक़ तआ’ला ने तुझे इस्तिग़राक़ अ’ता फ़रमाया है और मैं हक़ तआ’ला से तुम्हारे इस्तिग़राक़ की तरक़्क़ी की दुआ’ करता हूँ और हमारे मशाएख़-ए-चिश्त ने इस शे’र में अपने अस्हाब को इस्तिग़राक़ की तलक़ीन की है।
चुनाँ दर इस्म-ए-ऊ कुन जिस्म पिन्हाँ
कि मी-गर्दद अलिफ़ दर इस्म पिन्हाँ
(अ’त्तार)
(तर्जुमा)हक़ तआ’ला के इस्म-ए-ज़ात में इस तरह गुम हो जाओ, जिस तरह ‘‘बिसमिल्लाह’’ में अलिफ़ गुम हो जाता है।
इस के बा’द उस मुरीद को रात के वक़्त ग़ैब से आवाज़ आई कि बरात-ए-इ’श्क़ हमने तुम्हें ने’मतें शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम के ब-दौलत अ’ता की। एक और रात हातिफ़-ए-ग़ैबी ने आवाज़ दी कि हम ने तुम्हें सब ने’मतें शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम के ब-दौलत दी हैं। अब जानना चाहिए कि वह मुरीद ख़ुद शैख़ मख़्दूम हुसामुद्दीन की ज़ात-ए-बा-बरकात है
आप फ़रमाते हैं कि मुझे अक्सर किताबें अज़बर थीं लेकिन जब शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो सब कुछ भूल गया।
जभी जा के मकतब-ए-इ’श्क़ में सबक़-ए-मक़ाम-ए-फ़ना लिया
जो लिखा पढ़ा था ’नियाज़’ ने सो वो साफ़-दिल से भुला दिया
(हज़रत शाह नियाज़ बरेलवी)

लेकिन अब मैं एक बेहतरीन इ’ल्म का मालिक हूँ जो किताबों के इ’ल्म से ब-दर-जहा बेहतर है इस इ’ल्म के ज़रीआ’ हर नेकी को मा’लूम कर लेता हूँ। अगर कोई चाहे तो फ़िक़्ह की मशहूर किताब ‘‘हिदाया’’ को सुलूक के तरीक़ा पर कह सुनाऊँ। आप फ़रमाते हैं कि मेरे ख़िलाफ़त मिलने के बा’द दर्स-ओ-तदरीस के सिलसिला को छोड़ने पर वालिद-ए-बुजु़र्गवार को इब्तिदाअन ना-गवार हुई और वो मुझ से नाराज़ हो गए लेकिन जब उस की इ’त्तिलाअ’ मेरे शैख़ को हुई तो उन्होंने फ़रमाया- फ़क़ीर ये चाहता है कि वो अपने ताबेअ’ हो कर रहे और साहिब-ए-अ’क़्ल की ये तमन्ना होती है कि वह अपने होश-ओ-हवास दुरुस्त रखे, लेकिन जवाँ-मर्द वह है जो दोनों काम करता है। इस के अ’लावा मैंने अभी बहुत कुछ कहा था जो मुझे याद नहीं रहा पहले कहते वक़्त सोच समझ कर कहता था लेकिन अब इस मुहावरे का मिस्दाक़ हूँ अल-माउ बिहालिहि वर-रजुलु बिहालिहि (तर्जुमा) ग़ुस्ल करने वाला अपने हाल पर रहा और पानी भी अपने हाल पर रहा
आप ने फ़रमाया कि मैं इब्तिदा में हर रोज़ सुब्ह-सवेरे क़ुरआन-ए-करीम के पंद्रह पारे तिलावत करता था और उस के बा’द नमाज़-ए-चाश्त तक तमाम औराद-ओ-वज़ाइफ़ मुकम्मल करता, क़ुरआन-ए-करीम पढ़ते वक़्त तफ़्सीर-ए-मदारिक को अपने पास रखता था, जब किसी लफ़्ज़ के मतलब-ओ-मा’नी में इश्काल होता तो फ़ौरन तफ़्सीर उठा कर देख लेता, इस तरह क़ुरआन-ए-करीम पढ़ने में बड़ा सुरुर आता था, एक दिन ग़ैब से आवाज़ आई कि आपका इस तरह पढ़ना बहुत अच्छा है यूँही पढ़ते रहा करो।
ख़िलाफ़तः शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी ने ख़िलाफ़त मिलने का ज़िक्र अपनी किताब अनीसुल-आ’शिक़ीन में किया है।-
‘‘चुनाँचे इस फ़क़ीर और उस के भाई दोनों ने क़ुतुबुल-आ’लमीन सुल्तानुल-आ’शिक़ीन निज़ामुद्दीन वश्शरा’ के उ’र्स में अपने पीर-ए-दस्तगीर से ख़िलाफ़त पाई थी और मुरीद-ओ-मजाज़ हुए थे। चुनाँचे उस मज्लिस में हज़रत शहाबुद्दीन रामा’नी, शैख़ महमूद ग़ज़्नवी, शैख़ अ’ली यमनी, शैख़ महमूद वराक़ और सय्यद सदरुद्दीन बिहारी और मशाएख़-ओ-अइम्मा-ए-किराम अलैहिमुर्रहमा वार्रिज़्वान हाज़िर थे कि हज़रत क़ुतुब-ए-आ’लम ने ये अहकामात-ए-दो-जहाँ फ़ैज़-ए-इलाही से हम फ़क़ीरों को अ’ता फ़रमाई। 18 रबीउ’लअव्वल शरीफ़ उ’र्स क़ुतुब-ए-आ’लम शैख़ निज़ामुद्दीन 804 हिज्री मुताबिक़ 18 अक्तूबर 1401 ई’स्वी अल-हम्दुलिल्लाहि अ’लन-ने’मा”
(अनीस-उल-आ’शिक़ीन, शैख़ हुसामुद्दीन, उर्दू तर्जुमा, सफ़ा 25، ख़ानक़ाह-ए-हुसामिया गढ़ी मानिकपूर प्रतापगढ़ यूपी)
ख़िर्रक़ा-ए-ख़िलाफ़त अ’ता फ़रमाने के बा’द शैख़ नूर क़ुतुब-ए-आ’लम पंडवी ने आप को मानिकपूर रवाना किया और वहाँ जा कर इर्शाद-ओ-तलक़ीन करने की इजाज़त दी और नसीहत की कि ‘‘सख़ावत में आफ़्ताब की तरह तवाज़ो’ में पानी की तरह तहम्मुल में ज़मीन की तरह रहना और मख़्लूक़ के ज़ुल्म-ओ-सितम को बर्दाश्त करते रहना’’
(मिरातुल-असरार, शैख़ अ’ब्दुर्ररहमान चिश्ती, उर्दू तर्जुमा, सफ़्हा1173)
शैख़ हुसामुद्दीन मानिक-पूरी रहमतुल्लाहि अ’लैहि ने 14 रमज़ानुल-मुबारक 853 हिज्री मुताबिक़ एक नवंबर1449 ई’स्वी ब-रोज़ हफ़्ता को विसाल फ़रमाया।‘‘बमुल्क-ए-लम-यज़ल पाए-बुर्द शाह हुसाम’ माद्दा-ए-तारीख़-ए-विसाल है

तसानीफः शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी की अब तक पाँच किताबें मिली हैं। इन पाँचों किताबों का मौज़ूअ’ तसव्वुफ़ है। जो हसब-ए-जैल हैं
(1) अनीसुल-आ’शिक़ीन– ये सालिकान-ए-राह़-ए-तरीक़त के लिए एक बुनियादी किताब है जो चार फस्लों पर मुश्तमिल है। फ़स्ल-ए-अव्वल तसव्वुफ़ की मा’रिफ़त और उस की हक़ीक़त के बयान में, फ़स्ल-ए-दोउम राज़-ए-इ’श्क़ और उस की तबीअ’त-ओ-सरिशत के बयान में, फ़स्ल-ए-सेउम आ’शिक़-ए-आ’रिफ़ की सिफ़त और उस के अंदाज़-ओ-सुलूक के बयान में, फ़स्ल-ए-चहारुम वसूल इलल्लाह ताआ’ला और उस के रास्ते के बयान में,
किताब के अबवाब से ही उस की अहमियत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये किताब सालिकान-ए-तरीक़त के लिए क्या हैसियत रखती है। 2017 ईसवी में इस किताब का उर्दू तर्जुमा ख़ानक़ाह-ए-हुसामिया से शाए’ हो चुका है
(2)रिसाला-ए-महविया- ये एक मुख़्तसर रिसाला है। जैसा कि इस के नाम से ज़ाहिर है इस में महवियत का बयान है कि कैसे एक सालिक अपने नफ़्स को मिटा कर विसाल की मंज़िल पर गामज़न हो सकता है। इस किताब का भी फ़ारसी से उर्दू तर्जुमा2018 ईसवी में ख़ानक़ाह-ए-हुसामिया से शाए’ हो चुका है
(3) रफ़ीक़ुल-आ’रिफ़ीन इला इर्शादितुरुक़ि-ओ-मक़सदिल-आ’शिक़ीन– ये शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी की मुस्तक़िल तसनीफ़ नहीं है बल्कि ये उनके मलफ़ूज़ात का मजमूआ’ है जिसे शैख़ फ़रीद-बिन-सालार-बिन-मुहम्मद महमूद अल-इ’राक़ी ने जमा’ किया है। यह किताब चालीस अबवाब पर मुश्तमिल है। तौबा, इरादत, ख़ल्वत, ज़िक्र-ओ-इर्शाद, मनाज़िल-ओ-सुलूक, मुराक़्बा, इ’श्क़-ओ-शौक़-ओ-इश्तियाक़, मुशाहिदा, तौहीद-ओ-मा’रिफ़त, समाअ’, यक़ीन, तवक्कुल, क़नाअत, इन्फ़ाक़ ईक़ान-बिल-क़द्र, तर्क-ए-दुनिया, इन्किसार-ए-नफ़्स, ईमान,ख़ौफ़-ओ-रजा, ग़ैरत शब-बेदारी, तक़्वा, सौम, नमाज़-ए-जुमा’ और रोज़-ए-जुमा’ के फ़ज़ाइल, नमाज़-ओ-दुआ’ बराए क़ज़ा-ए- हाजत, नमाज़-ए-मा’कूस, सतर फ़क़्र, तहम्मुल-ओ-तवाज़ो’, सोहबत-ओ-मदारात, लिबास, नफ़्स को ज़लील करना, फ़ुतूह, सदक़ा, रिज़ा-ओ-तस्लीम, उन्स, विसाल वग़ैरा
(ग़ैर मतबूआ)
(4)मक्तूबात-ए-मानिकपूरीः ये शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपूरी के120 ख़ुतूत का मजमूआ’ है जिसको शैख़ शहाबुद्दीन ने जमा’ किया। तमाम ख़ुतूत तसव्वुफ़–ओ-मा‘रिफ़ के मबाहिस पर मुश्तमिल हैं। (ग़ैर मतबूआ’)
(5) ख़ुलासतुल-औराद– ये किताब मुख़्तलिफ़ सलासिल में मुरव्वज और औराद-ओ-वज़ाइफ़ का मजमूआ’ है। (ग़ैर मतबूआ’)
अक़्वाल
क़ौलः रफ़ीक़ुल-आ’रिफ़ीन में आप फ़रमाते हैं कि मुरीदों को अपने मशाएख़ से वही निसबत है जैसे कपड़े को पैवंद और सादिक़-ओ-पुख़्ता कार मुरीद की मिसाल उस पैवंद की तरह है जो कपड़े के धुलने के साथ ख़ुद भी धुल कर पाक-ओ-साफ़ हो जाता है। इसी तरह जो फ़ैज़ शैख़ को मिलता है उस से मुरीद भी बहरावर होता है और जो मुरीद अपने शैख़ के हुक्म पर अ’मल नहीं करता(सुस्ती और काहिली की बिना पर) ना कि जान-बूझ कर वो रस्मी मुरीद है या’नी उस की मिसाल ऐसी है जैसे एक सफ़ैद कपड़े में सियाह पैवंद, अगरचे शैख़ का फ़ैज़ उस आ’सी मुरीद को भी मिलता है लेकिन उस को उतना नहीं मिलता जितना कि फरमाबरदार और इताअ’त गुज़ार को मिलता है। ये दौलत भी कोई मामूली दौलत नहीं
क़ौलः सालिक ज़िक्र करते करते आ’शिक़ बन जाता है और फ़िक्र करते करते आ’रिफ़ बन जाता है
क़ौलः फ़ैज़-ए-इलाही नागाह पहुंचता है मगर दिल-ए-आगाह पर पहुंचता है। इस लिए सालिक को मुंतज़िर रहना चाहिए कि पर्दा-ए-ग़ैब से क्या कुशूद होती है
क़ौलः फ़िराक़ कहाँ है या तो वो ख़ुद है या उस का नूर है या फिर उस के नूर का परतव है
क़ौलः आप फ़रमाते हैं दरवेश के पास चार चीज़ें होनी चाहिए, दो साबित और दो शिकस्ता, दीन और यक़ीन साबित पांव और दिल-शिकस्ता,
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
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