ख़्वाजा बुज़ुर्ग शाए’र के लिबास में-अ’ल्लामा ख़्वाजा मा ’नी अजमेरी
एक ज़माना से ये हिकायत नक़्ल-ओ-रिवायत के ज़ीने तय कर के बाम-ए-शोहरत पर पहुँच चुकी है कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग रहि· की ज़बान-ए-हक़ से शे’र-ओ-मज़ाक़-ए-सहीह की तक्मील होती है, चुनाँचे बारहवीं सदी के वस्त में सर-ज़मीन-ए-इस्फ़हान पर जब फ़ारसी शो’रा का एक तज़्किरा आतिश-कदा-ए-आज़र के नास से लिखा गया तो उसमें मुअल्लिफ़-ए-तज़्किरा-ए-आज़र की ज़बान-ए-क़लम पर सुल्तानुल-अस्फ़िया हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग की निस्बत ये अल्फ़ाज़ आते हैं।
“ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती (रहि·) ऊ अज़ अकाबिर-ए-सूफ़िया–ओ-अज़ सिल्सिला-ए-आ’लिया-ए-चिश्तिया मुरीद-ए-ऊ सुल्तान शहाबुद्दीन ग़ौरी-ओ-सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश-ओ-मर्क़दहु अजमेर अस्त अज़ ऊस्त”।
आ’शिक़ हमः दम फ़िक्र-ए-रुख़-ए-दोस्त कुनद
मा’शूक़ करिश्मः-ए-कि नेको अस्त कुनद
मा जुर्म-ओ-ख़ता कुनेम ऊ लुत्फ़-ओ-अ’ता
हर कस चीज़े कि लाएक़-ए-ऊस्त कुनद
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ऐ बा’द-ए-नबी बर-सर-ए-तू ताज-ए-नबी
ऐ वालिह-ए-शहाँ ज़े तेग़-ए-तू बाज-ए-नबी
आई तू कि मे’राज-ए-तू बाला-तर शुद
यक क़ामत-ए-अहमदी ज़े-मे’राज-ए-नबी
“ख़याबान-ए-इ’र्फ़ान” के नाम से फ़ारसी रुबाइ’यात का एक मज्मूआ’ हैदराबाद से शाए’ हुआ है और उसमें भी हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग के इस्म-ए-गिरामी के साथ निस्बत करते हुए मुंदर्जा बाला दोनों रुबाइ’यात की नक़्ल के अ’लावा ये क़ितआ’ भी दर्ज है।
सैल रा ना’रः-ए-अज़ आँस्त कि अज़ बह्र जुदास्त
वाँकि बा-बह्र दर आमेख़्तः ख़ामोश आमद
निक्हता दोश ब-हम गुफ़्त-ओ-शनीद अज़ लब-ए-यार
कि न हर्गिज़ ब-ज़बां रफ़्त-ओ-न दर गोश आमद
इसी तरह मलिकुल-उ’लमा उस्ताज़ी मौलाना अ’ब्दुल बारी फ़िरंगी महल्ली ने भी अपने ख़ुतबा-ए-सदारत में जो अजमेर शरीफ़ में पढ़ा गया मुंदर्जा ज़ैल शे’र को हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग की तस्नीफ़ तहरीर फ़रमाया है।
गंज बख़्श-ए-फ़ैज़-ए-आ’लम मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा
नाक़िसाँ रा पीर-ए-कामिल कामिलाँ रा रहनुमा
अब दीवान-ए-ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती (रहि·) के मुतअ’ल्लिक़ कुछ कहना, सहीह ये है कि उसके दामन-ए-शोहरत पर दाग़ लगाना है इसलिए कि आज ब-मुश्किल कोई ज़ौक़-आ’श्ना ऐसा निकलेगा जो इस हक़ीक़त से ना-वाक़िफ़ हो कि चंद ग़ज़लियात के एक मज्मूए’ को हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग की तस्नीफ़ात में बताया जाता है।
शाए’री एक फ़न्न-ए-लतीफ़ है और इससे इंसान के दिली जज़्बात की तर्जुमानी होती है।यही वजह है कि हर एक शाए’र के जज़्बात पर उसकी शाए’री के हुस्न-ओ-क़ुब्ह का दार-ओ-मदार है।सरकार-ए-रिसालत का इर्शाद है।
इन्नमश्शे’रु कलामु मुअल्लिफ़िन फ़-मा वाफ़क़ल हक़्क़ा फ़-हुवा हसनुन व-मा-लम बि-मुवाफ़िक़िम-निन्हू फ़ला ख़ैरा फ़ीहि। या’नी मुरक्कब कलाम का नाम शे’र है। अगर कलाम हक़ के मुताबिक़ है तो उ’म्दा बात और अगर नहीं तो उसमें कोई ख़ैर नहीं।
नीज़ फ़रमान-ए-नबी सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम है – इन्नमश्शे’रु कलामुन फ़-मिनल-कलामि ख़बीसुन–व-तय्यिबुन। या’नी शे’र एक कलाम है और अच्छा भी होता है और बुरा भी होता है।
उम्मुल-मूमिनीन हरज़रत आ’इशा रज़ि-अल्लाहु अ’न्हा फ़रमाती हैं- अश्शे’रु-क़ैदु-कलामिन-हसनिन-ओ-क़बीहिन फ़ख़ुज़िल-हसन वत्रुकिल -क़बीह।या’नी शे’र में बेहतर और बद-तर दोनों क़िस्म का कलाम होता है ।तुम बेहतर को पसंद करो और बदतर को छोड़ दो।
अमीरुल-मुमिनीन हज़रत अ’ली रज़िअल्लाहु अ’न्हु फ़रमाते हैं: अश्शे’रु मीज़ानुल-क़ौल, शे’र बात की तराज़ू है।
(किताबुल-उ’म्दा अ’ल्लामा अबुल हसन इब्न-ए-रशीक़)
इसीलिए नफ़्स-ए-शाइ’री की दो क़िस्म की जाती है।पहली क़िस्म जिसे कलाम-ए-हसन से ता’बीर किया जाता है और एक सुख़नवर उसकी ब-दौलत मुजाहिदुल-लिसान और शागिर्द-ए-इलाही के ख़िताब से सरफ़राज़ होता है।चुनाँचे इसी नौअ’ की शाइ’री की जानिब सहाबा, औलिया, उ’लमा ने तवज्जोह फ़रमाई है।दूसरी क़िस्म की शाए’री वह है जिसे कलाम-ए-क़बीह कहा जाता है और ऐसा कलाम साहिब-ए-कलाम को अश्शो’रा यत्त्बिउ’हुम-अल-ग़ाऊन,अलम तरा अन्नहुम फ़ी-कुल्लि वादिन यहीमून के ज़ुमरा में दाख़िल करता है। ऐसी हालत में हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग को क़ुतुबुल-अक़्ताब के साथ ही साथ अगर इन्नल-लाहा कुनूज़ुन-तहतल-अ’र्शि-व-मफ़ातीहुहु अस्सुन्ना वश्शो’रा के ख़ज़ाइन का मालिक भी तस्लीम कर लिया जाए तो ये निस्बत ख़िलाफ़-ए-शान नहीं हो सकती।अलबत्ता देखना ज़रूरी है कि जिस कलाम की निस्बत तस्नीफ़-सरकार-ए-अक़्दस की जानिब की जा रही है वो कहाँ तक सहीह है इसलिए सबसे पहले दीवान पर एक तब्सरा की ज़रूरत है।
राएजुल-वक़्त दीवान-ए-मुई’नुद्दीन तक़रीबन ढ़ेड़ सौ ग़ज़लियात के मज्मुए’ का नाम है।ज़बान की सलासत,बंदिश की चुस्ती,मज़ामीन-ए- तसव्वुफ़ की बुलंद-पाएगी के ए’तबार से हर ग़ज़ल बेश-बहा मोतियों की एक लड़ी है।ऐसी हालत में एक साहिब-ए-ज़ौक़ अगर ये समझ ले कि ये कलाम हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग (रहि·) का कलाम-ए- सदाक़तुल-अय्याम है तो इससे उसके मज़ाक़-ए-सुख़न में कोई नुक़सान पैदा नहीं हो सकता और न उसकी सुख़न-फ़हमाना क़ाबिलिय्यत और लियाक़त पर कोई हर्फ़ आ सकता है क्यूँकि उस दीवान का एक एक शे’र ख़ुद साहिब-ए-दीवान के इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल की एक मुस्तक़िल शहादत है।मगर हक़ीक़त-ए-हाल ये है कि ये दीवान ख़्वाजा के इस्म-ए-गिरामी के साथ ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ’ मंसूब है बल्कि हिरात के रहने वाले एक बुज़ुर्ग मुल्ला मुई’न काशफ़ी की ग़ज़लियात का मज्मूआ’ है जो नवीं सदी के दरवेश उ’लमा में हुए हैं।और इस क़ौल की ना-क़ाबिल-ए-तर्दीद मुहकम और अटल दलील ये है कि “मआ’रिजिन्नबूवा” के नाम से मब्सूत और ज़ख़ीम किताब साहिब-ए-मौसूफ़ की तस्नीफ़ है और बम्बई के मत्बा’-ए-करीमी में तब्अ’ हो चुकी है। उस किताब में अंबिया अ’लैहिस्सलाम के हालात-ए-मुबारका,सीरत-ए-नबवी ,सुफ़ियाना और आ’लिमाना अंदाज़ में मर्क़ूम हैं।जा बजा नस्र के साथ हसब–ए-मौक़ा’-ओ-महल ग़ज़लियात,क़ितआत,मस्नवियात और रुबाइ’यात इर्क़ाम की गई हैं । चुनाँचे हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार, मौलाना रूम (रहि·) शैख़ फ़रीदुद्दीन इ’राक़ी (रहि·) हज़रत अमीर ख़ुसरौ (रहि·) हज़रत मैलाना हसन अ’ली सिज्ज़ी (रहि·) मौलाना जामी (रहि·) जैसे जलीलु-क़द्र बुज़ुर्गों का कलाम अक्सर-ओ-बेश्तर हवाला के साथ और कभी किसी जगह ब-ग़ैर हवाला नक़्ल किया है। इसी तरह चालीस पचास अपनी ग़ज़लियात सपुर्द-ए-क़लम की हैं और क़ालल-फ़क़ीर अज़्ज़ई’फ़, फ़क़ीर मुअल्लिफ़ मी-गोयद, मुअल्लिफ़ुल-किताब ग़ुफ़ि-र लहु, फ़क़ीर मुई’न मिस्कीन मी-गोयद ग़र्ज़ इसी क़बील के अल्फ़ाज़ हर ग़ज़ल से पहले इसलिए लिख दिए हैं ताकि ये मा’लूम हो जाए कि ये कलाम मुल्ला मुई’न काशफ़ी का है। बा’ज़ मक़ामात पर अपनी ग़ज़ल के कुछ अश्आ’र भी ब-हवाला-ए-मुसन्निफ़ और कभी ब-ग़ैर हवाला-ए-मुसन्निफ़ तहरीर किए हैं और अपनी हर ग़ज़ल में कहीं मुई’न और कहीं मुई’नी तख़ल्लुस किया है।अब दीवान-ए-मुई’न उठा कर देखिए यही ग़ज़लियात ब-जिन्सिहि और ब-ऐ’नहि किसी तग़य्युर-ओ-तबद्दुल के ब-ग़ैर उसमें मुंदर्ज नज़र आएंगी। इसी तरह उस किताब “मआ’रिजुन्नबूवत” में मुल्ला मुई’न काशफ़ी ने अपने ग़ज़लियात के जो दो-दो और चार-चार शे’र मुअल्लिफ़ ग़ुफ़िर-लहु या इसी क़बील के अल्फ़ाज़ लिख कर सुपुर्द-ए-क़लम किए हैं वो तमाम शो’रा अपने बाक़ी-मांदा अश्आ’र और मक़्ता’ के साथ दीवान-ए-मुई’न में मौजूद हैं।अलबत्ता ग़ौर तलब चंद सवालात बाक़ी रह जाते हैं।
–बा’ज़ ग़ज़लें दीवान में ऐसी भी मौजूद हैं जो किताब “मआ’रिजुन्नुबूवा” में नहीं हैं।
-बा’ज़ ग़ज़लियात “मआ’रिजुन्नुबूवा” में ऐसी मर्क़ूम हैं कि हमारे पेश-ए-नज़र मतबूआ’ और क़लमी दोनों दीवानों में नहीं हैं।
-“मआ’रिजुन्नुबूवा” की बा’ज़ ग़ज़लियात क़लमी दीवान में मौजूद हैं और मतबूआ’ दीवान में नहीं हैं।
-अपनी किताब “मस्नवी के चंद अश्आ’र किताब “मआ’रिजुन्नुबूवा” में मुसन्निफ़ ने हवाला-ए-क़लम किए हैं मगर दोनों दीवानों में असर-ओ-निशान भी नहीं हैं।
पहले सवाल का जवाब निहयात आसानी के साथ दिया जा सकता है कि किताब “मआ’रिजुन्नुबूवा” की तालीफ़-ओ-तस्नीफ़ नहीं हुई थीं, इसलिए “मआ’रिजुन्नुबूवा” नहीं लिखी गईं।
दूसरे सवाल के जवाब में ब-तकल्लुफ़ ये कहना पड़ेगा कि मुल्ला मुई’न काशफ़ी के दीवान की तर्तीब ग़ालिबन उनकी रिहलत के बा’द अ’मल में आई है और दीवान मुरत्तिब और जामेअ’ की नज़र से ये ग़ज़लियात नहीं गुज़र सकीं वर्ना दीवान में ये ज़रूर मौजूद होतीं।
तीसरे क़लमी दीवान में किसी ग़ज़ल का मौजूद होना ये साबित करने के लिए काफ़ी है कि ये ग़ज़लियात मुल्ला मुई’न की तब्अ’-ज़ाद हैं। अब अगर दीवान में मौजूद न हो तो क़ूव्वत-ए-इस्बात में कोई इज़्मिहलाल पैदा नहीं हो सकता।
चौथे मस्नवी के अश्आ’र का दीवान में न होना हमारे मुद्दआ’ के ख़िलाफ़ कोई वज़्न-ओ-क़ूव्वत नहीं रखता है। इसलिए कि सिर्फ़ उस ग़ज़लियात के मज्मूआ’ का नाम रखा गया है, मस्नवियात, क़ितआ’त, रुबाइ’यात उसमें तहरीर नहीं की गईं।
बहर हाल अर्बाब-ए-नज़र पर अब ये ज़ाहिर हो गया है कि उस दीवान को ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती की ज़ात-ए-गिरामी सिफ़ात से किसी क़िस्म का तअ’ल्लुक़ और किसी नौअ’ की निस्बत नहीं है और जो निस्बत और तअ’ल्लुक़ बताया जाता है बिल्कुल ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ’ अज़ सर-ता ब-पा बे-बुनियाद और सरासर ग़ैर-मुहक़्क़क़ और ग़ैर-साबित है। तज़्किरा-ए-आतिश-कदा-ए-आज़र में जो रुबाइ’यात हैं उन दो रुबाइ’यात के अ’लावा जो क़ितआ’ दर्ज है वो दीवान-ए-मुई’न की ग़ज़ल के दो शे’र और पूरी ग़ज़ल मुल्ला मुई’नुद्दीन काशफ़ी की है।
गंज बख़्श-ए-फ़ैज़-ए-आ’लम मज़हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा
नाक़िसाँ रा पीर-ए-कामिल, कामिलाँ रा रहनुमा
इस शे’र की निस्बत जो हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग की जानिब की जाती है इसके ख़िलाफ़ कोई दलील अब तक हमारी निगाह से नहीं गुज़री। इसलिए हम कोई क़तई’ फ़ैसला नहीं नहीं दे सकते। इसी तरह:
शाह अस्त हुसैन बादशाह अस्त हुसैन
दीं अस्त हुसैन दीन पनाह अस्त हुसैन
सर दाद न-दाद दस्त दर दस्त-ए-यज़ीद
हक़्क़ा कि बिना-ए-ला-इलाह-अस्त हुसैन
इस रुबाई’ के मुतअ’ल्लिक़ भी हम कुछ नहीं कह सकते। वल्लाहु आ’लमु बिस्सवाब
अब ये नहीं मा’लूम कि ख़्वाजा बुज़ुर्ग का कलाम-ए-सदाक़त ऐसा कहाँ गया या ये कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने अपनी मुबारक ज़िंदगी के दौर में गिनती के चार अश्आ’र यही फ़रमाए हैं क्यूँ इस में शुबहा नहीं किया जा सकता कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग (रहि·) फ़न्न-ए-शे’र का मज़ाक़-ए-सहीह ज़रूर रखते थे। नव्वरल्लाहु मर्क़दहु।
**
जिसको मोहब्बत-ओ-नफ़रत अ’ता किए जाते हैं उसे वहशत नहीं दी जाती कि वो उस पर फ़रेफ़्ता हो जाए।
(ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ (रहि·)
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