
हज़रत शाह ‘अकबर’ दानापुरी और “हुनर-नामा”
ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाई,दानापुर के मा’रूफ़ सज्जादा- नशीन और अ’ज़ीम सूफ़ी शाइ’र हज़रत शाह मोहम्मद ‘अकबर’ दानापुरी (पैदाइश 1843 ई’स्वी वफ़ात 1909 ई’स्वी) बहुत सी ख़ूबियों के मालिक थे। उनकी हैसियत ब-यक-वक़्त एक दरवेश-ए- कामिल,ख़ुदा-मस्त,सज्जादा-नशीन, अमीर-ए-सुख़न, मज़हबी रहनुमा और हुब्बुल-वतनी से सरशार फ़ल्सफ़ी और मुजाहिद-ए-वक़्त की थी। हज़रत शाह ‘अकबर’ दानापुरी क़ौमी यक-जहती और हिन्दुस्तानी अ’वाम के मसाइल की ज़रूरतों से भी ख़ूब-ख़ूब वाक़फ़ियत रखते थे। इसकी अ’क्कासी उनकी इस नज़्म से होती है।
नज़्म ‘हुनर-नामा’ (मा’रूफ़ ब-आरास्तगी-ए-सनाअ’त) उस वक़्त की अ’क्कासी है जब हम ग़ुलाम थे और अंग्रेज़ों की हुकूमत थी । अंग्रेज़ों हिक्मत-ए-अ’मली ये थी कि हिंदू और मुसलमानों में निफ़ाक़ पैदा कर के हुकूमत क़ाएम रखी जाए। इसे एक हस्सास शाइ’र की हैसियत से शाह ‘अकबर’ दानापुरी ने पढ़ लिया था। उन्हों ने लोगों को इस फ़िरंगी हुकूमत से नजात पाने का रास्ता अपने अश्आ’र के ज़रिआ’ बताया।जिस रास्ते पर चल कर आख़िर-कार हमें आज़ादी मिल गई। उन्हें अपने नुस्ख़ा पर इतना यक़ीन था कि उन्होंने अपने ज़ेहन में आज़ादी के बा’द हिन्दुस्तान का नक़्शा भी बना रखा था जिसे हम इन अश्आ’र से समझ सकते हैं।वो फ़रमाते हैं :
फिरेंगे कैसे दिन हिंदुस्ताँ के
बला के ज़ुल्म हैं इस आसमाँ के
अगर हिंदू-मुसलमाँ मेल कर लें
अभी घर अपने ये दौलत से भर लें
गया इक़्बाल फिर आए हमारा
अभी इदबार गिर जाए हमारा
इलाही एक दिल हो जाएं दोनों
वज़ारत इंडिया की पाएं दोनों
(जज़्बात-ए-अकबर, सफ़हा 270, मत्बूआ’ 1916 ई’स्वी, आगरा
प्रोफ़ेसर सय्यद शाह अ’ताउर्रहमान ‘अ’ता’ काकवी हज़रत शाह अकबर दानापुरी के मो’तक़िद ही नहीं बल्कि उनके शैदा थे। उनके वालिद हम्द काकवी और उनके ख़ानवादे के ज़्यादा-तर अफ़राद को हज़रत शाह अकबर दानापुरी और उनके वालिद हज़रत मख़दूम शाह मोहम्मद सज्जाद (पैदाइश 1816 ई’स्वी वफ़ात 1881 ई’स्वी) से बैअ’त और इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त का शरफ़ हासिल था। लिहाज़ा अ’ता काकवी रक़म-तराज़ हैं :
“अकबर सिर्फ़ ग़ज़ल-गो ही न थे बल्कि फ़ीचरल और क़ौमी नज़्में भी ख़ूब-ख़ूब लिखी हैं। उनकी क़ौमी नज़्मों को देखकर हैरत होती है कि एक सूफ़ी ग़ज़ल-गो हो कर उनकी कितनी दूर-रस निगाहें थीं जो क़ौम को ता’लीम और सनअ’त-ओ-हिर्फ़त की तरफ़ माएल करने की कोशिश की। ऐसा रौशन ख़याल सूफ़ी और साहिब-ए-वज्द-ओ-हाल ता’लीमी, सियासी और समाजी कामों में दिल-चस्पी लेने वाला शाज़-ओ-नादिर ही मिलेगा।”
(सिह माही रिसाला सफ़ीना पटना, सः 27, शुमारा 3, जुलाई-ता सितंबर 1982 ई’स्वी)
शाह ‘अकबर’ दानापुरी की शाइ’री उनकी हुब्बुल-वतनी में डूबी हुई ख़्वाहिश का इज़हार है। आपने क़ौमी और सियासी नज़्में बहुत लिखी हैं जिनको देख और पढ़ कर अ’क़्लें वर्ता-ए-हैरत में डूबती चली जाती हैं कि एक सूफ़ी शाइ’र की कितनी दूर-रस निगाहें हैं जिसने क़ौम को ता’लीम और सनअ’त-ओ-हिर्फ़त की तरफ़ माएल करने की कोशिश की। आपने क़ौमी यक-जहती, मुल्क की सलामती और इस्तिहकाम का दर्द शिद्दत से महसूस किया। आपकी क़ौमी शाइ’री तक़रीबन एक सदी से ज़ाएद की तख़्लीक़ है। इन नमूनों से उनकी क़ौमी हमदर्दी की झलक मिलती है|इन अश्आ’र से वो एक क़ौमी रहनुमा शाइ’र लगते हैं। दर-अस्ल सूफ़ी का यही अंदाज़ होता है कि जब बात वतन की आती है तो वो हुब्बुल-वतनी का ऐसा सबक़ पढ़ाता है कि लोगों के लिए वो मिशअ’ल-ए-राह साबित होता है।
शाह अकबर दानापुरी की ये क़ौमी नज़्म ‘हुनर-नामा’ (आरास्तगी-ए-सनाअ’त 1885 ई’स्वी मुवाफ़िक़ 1303 हिज्री) पर तहरीर है। मुकम्मल नज़्म आपके दीवान-ए-अव्वल ‘तजल्लियात-ए-इ’श्क़’ के सफ़हा 388 से 399 पर देखी जा सकती है। इस नज़्म के चंद अश्आ’र आज भी ज़बान-ज़द-ए-ख़ास-ओ-आ’म हैं। 1960 ई’स्वी से 1967 ई’स्वी और फिर 1974 ई’स्वी तक मुंदर्जा ज़ैल अश्आ’र ‘हुनर-नामा’ के उ’न्वान से बिहार टेक्स्ट बुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमीटेड ,पटना से मंज़ूर शूदा बरा-ए-इम्तिहान सेकेंडरी स्कूल (बिहार) के ज़रिआ’ हाई स्कूल के इंतिख़ाब-ए-उर्दू (नस्र-ओ-नज़्म) के निसाब में शामिल था। क़ौमी नज़्म के साथ ही सय्यद शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी के उ’न्वान से उनकी मुख़्तसर सवानिह भी थी जो बराबर इम्तिहान में ब-तौर-ए-सवाल आया करता था। मुम्किन हो कि आज भी सैंकड़ों अहल-ए-इ’ल्म हज़रात ने इंतिख़ाब–ए-उर्दू (नस्र-ओ-नज़्म) में अपने तालिब-इ’ल्मी के दौर में ये नज़्म पढ़ी होगी। हम हुकूमत-ए-बिहार से बिल-ख़ुसूस वाबस्तगान-ए-उर्दू से गुज़ारिश करेंगे कि ऐसी नज़्म जो हमारे अस्लाफ़ ने क़ौम की तरक़्क़ी और ख़ुश-हाली की ख़ातिर लिखी थी उसे फिर से निसाब में शामिल करें ताकि नई नस्ल को अपने शानदार माज़ी के कारनामे से रू-शनास कराते हुए उनके मुस्तक़बिल को मज़ीद बुलंद-ओ-बाला बनाया जा सके। क़ारिईन की दिलचस्पी के लिए हम इस नज़्म के चुनिंदा अश्आ’र यहाँ पेश कर रहे हैं जिसमें पहले तो हदीस-ए-नबवी की रौशनी में हुनर की अहमियत बताई गई है। फिर उसमें तारीख़, फ़ल्सफ़ा और थोड़ा तज़्किरा है और आख़िर में क़ौम के लिए पंद-ओ-नसाइह भी हैं।
हज़रत-ए-सय्यद-ए-सादात-ए-शहनशाह-ए-ओमम
जिनके एहसान पे सौ जान से क़ुर्बान हैं हम
बादशाह-ए-दो-जहाँ जान-ए-अ’रब फ़ख़्र-ए-अ’जम
जिनके दर पर हैं सलातीन-ए-जहाँ के सर ख़म
आप फ़रमाते हैं कासिब को हबीब-ए-बारी
बे-ख़बर उस से है इस वक़्त की उम्मत सारी
फिर ये वाज़ेह किया है कि अंबिया हों या औलिया सब हुनर-मंद और कासिब थे। मस्लन हज़रत-ए-नूह नज्जार(बढ़ई)थे। हज़रत-ए- दाऊद लोहार थे। हज़रत-ए-इद्रीस सिलाई का हुनर जानते थे। हज़रत-ए-लुक़्मान हिक्मत-ओ-दानाई में माहिर थे|और हज़रत-ए-मंसूर हल्लाज कपड़ों में रूई भरने का काम जानते थे। या’नी किसी हुनर से वाबस्ता होना शर्म-ओ-हया की बात नहीं थी मगर अफ़्सोस है कि आज क़ौम हुनर से दूर है। हज़रत-ए-अकबर क़ौम के अंदर हुनर डालना चाहते थे|उन्हें ता’लीम से आरास्ता-ओ-पैरास्ता करना चाहते थे। वो गोरे काले, अमीर-ओ-ग़रीब के फ़र्क़ से ऊपर उठ कर लोगों को हुनर-मंद देखना चाहते थे।
क़ौम के वास्ते सामान-ए-तरक़्क़ी है हुनर
बादशाहों के लिए जान-ए-तरक़्क़ी है हुनर
अहल-ए-हिर्फ़त के लिए कान-ए–तरक़्क़ी है हुनर
बाग़-ए-आ’लम में गुलिस्तान-ए-तरक़्क़ी है हुनर
क़द्र जिस मुल्क में इसकी न हो बर्बाद है वो
जिस जगह अहल-ए-हुनर होते हैं आबाद है वो
अंबिया जितने थे सब अहल-ए-हुनर थे यक्सर
नूह नज्जार थे ये जानते हैं जुमला बशर
थे जो दाऊद उन्हें कहते हैं सब आहंगर
नहीं ख़य्याती में इद्रीस से कोई बढ़-कर
ऐ’ब-पोशी को समझते हैं जिहालत से हम
दूर हो जाते हैं गोया कि शराफ़त से हम
आदमी जितने हैं बे-शुब्हा बनी-आदम हैं
बशरिय्यत में हम उनसे न वो हमसे कम हैं
मुत्तहिद सूरत-ओ-सीरत में सभी बा-हम हैं
पर हुनर-मंद जो फ़िर्क़े हैं वही आ’ज़म हैं
काले-गोरे की नहीं अहल-ए-हुनर में तमीज़
आदमी शय नहीं कोई ये हुनर से है अ’ज़ीज़
जितनी क़ौमें हैं हुनर ही से हैं वो माला-माल
जितने नौकर हैं वो छूटे कि हुए बस कंगाल
ये हुनर वो है कि जिसको कभी आए न ज़वाल
फ़ल्सफ़ी होने का कुछ नहीं हासिल फ़िलहाल
मालदारी जो हो मतलूब हुनर को सीखो
हो जो सर्वत तुम्हें मर्ग़ूब हुनर को सीखो
लोग स्कूलों की ता’लीम के नतीजे में और अंग्रेज़ों की इत्तिबाअ’ में कोट-पैंट पहन कर टाई लगा कर छुरी-कांटे से खाने में इ’ज़्ज़त महसूस करते हैं। सर-ए-इफ़्तिख़ार बुलंद करते हैं और पैग़म्बरों की सुन्नत या’नी हुनर को आ’र समझते हैं। नौकरी के पीछे भाग रहे हैं। आज इस क़ौम की ज़बूँ-हाली के पीछे यक़ीनन ये दो बातें हैं|पहला ता’लीम और दूसरा हुनर। इन दोनों चीज़ों से ये क़ौम आज दूर हो चुकी है। न ता’लीम है न कोई हुनर। ग़ैरों ने हमें निकम्मा बना दिया या फ़िर हम अपनी कोताहियों से ग़ैर-ज़िम्मेदार हो गए और हुनर से कोसों दूर हुए। वाज़ेह हो कि किसी भी क़ौम या फिर इन्सान की ता’मीर उस वक़्त होती है जब उसके अंदर आ’ला ता’लीम हो या फिर कोई हुनर। जानना चाहिए कि जहाँ ता’लीम की शम्अ’ नहीं जलती वहाँ सिर्फ़ बाज़ार लगता है। लोग जम्अ’ होते हैं और एक दूसरे को गालियाँ दी जाती हैं। हालाँकि जूते सीने का काम नौकरी और मुलाज़मत से कहीं बेहतर है। हज़रत ‘अकबर’ फ़रमाते हैं:
नौकरी से नहीं दुनियामें कोई शय बद-तर
कफ़श-दोज़ी का भी उससे बहुत अच्छा है हुनर
जिसको कोई हुनर नहीं आता शाह ‘अकबर’ दानापुरी उसको कूड़ा कहते हैं:
इ’ल्म के बा’द अगर है तो है दुनिया में हुनर
ये न हो ज़ात में जिसकी तो है कूड़ा वो बशर
आज़ादी के हवाले से शाह ‘अकबर’ दानापुरी फ़रमाते हैं:
लुत्फ़-ए-आज़ादी तो ये है कि तरक़्क़ी हो आ’म
काम वो हो कि हो हासिल जिसे इस्बात-ए-दवाम
दूसरे मुल्क पे मौक़ूफ़ न हो अपना काम
मय-ए-यूरोप से भरा जाए न इस क़ौम का जाम
शहर अपना हो, ज़मीं अपनी हो, घर अपना हो
हाथ अपना हो, हुनर अपना हो, ज़र अपना हो
बू ज़फ़र शाह जो नादार हुए ग़द्र के बा’द
उमरा-मोरिद-ए-बेदार हुए ग़द्र के बा’द
लखनऊ, दिल्ली जो बर्बाद हुए ग़द्र के बा’द
पेशा वालों ही से आबाद हुए ग़द्र के बा’द
बात इन शहरों की फिर रख ली हुनर वालों ने
क्या किया,कुछ न किया ला’ल-ओ-गुहर वालों ने
आख़िरी बंद मुलाहिज़ा फ़रमाएं कि हुनर सीखने की कैसी ज़ोर-दार ताकीद फ़रमाई है:
मुतवक्किल जो बना चाहो हुनर को सीखो
बे-तरद्दुद जो ज़िया चाहो हुनर को सीखो
दीन-ओ-दुनिया में भला चाहो हुनर को सीखो
हक़ के महबूब हुआ चाहो हुनर को सीखो
बे-हुनर से न नबी ही न ख़ुदा राज़ी है
शाह राज़ी है न ‘अकबर’ न गदा राज़ी है
(तजल्लियात-ए-इ’श्क़, सफ़हा 388,मत्बूआ’ 1897 ई’स्वी, आगरा)
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Dr. Shamim Munemi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi