ख़्वाजा मीर दर्द और उनका जीवन

दिल्ली शहर को बाईस ख्व़ाजा की चौखट भी कहा जाता है। इस शहर ने हिन्दुस्तानी तसव्वुफ़ को एक नई दिशा दी। इस ने जहाँ क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी, ख्व़ाजा निज़ामुद्दीन औलिया, नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली और हज़रत अमीर ख़ुसरौ का ज़माना देखा है, वहीं यह शहर विभिन्न मतों का भी साक्षी रहा है। इस शहर ने वहदत-उल-वजूद से ले कर वहदत-उल-शुहूद तक की यात्रा सूफ़ी-संतों के साथ-साथ की है। यह शहर कई दफ़ा उजड़ा लेकिन बार-बार उठ खड़ा हुआ। सूफ़ी-संतों ने आपसी सद्भाव की जो गंगा बहाई वह आज भी जमुना के साथ-साथ बह रही है।

सूफ़ी-संतों में संप्रदाय के लिए सिलसिला शब्द का प्रयोग होता है। सिलसिला का एक अर्थ ज़ंजीर भी है जिसकी एक कड़ी दूसरे से जुड़ी होती है। सूफ़ी जीवित जीवाश्म होते हैं। वह अपने अस्तित्व से प्रेम को छोड़ कर सब कुछ मिटा देते हैं और यही प्रेम आगे अपने शिष्यों में प्रसारित करते रहते हैं। दिल्ली के सूफ़ी-संतों ने भी एक लम्बे कालखंड में यही किया है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और हज़रत चिराग़-ए-दिल्ली द्वारा स्थापित यह आध्यात्मिक सफ़र आगे भी यूँ ही जारी रहा और आने वाले सूफ़ी-संतों ने इस ज़ंजीर में कभी ज़ंग नहीं लगने दिया।

ख़्वाजा मीर दर्द अठारहवी सदी के प्रसिद्ध सूफ़ी शाइर हैं, उर्दू के तीन प्रमुख क्लासिकल शुअरा में सौदा और मीर के साथ ख़्वाजा मीर दर्द का नाम लिया जाता है। ख़्वाजा मीर दर्द की शाइरी न सिर्फ़ तसव्वुफ़ के रंगों में रंगी हुई है बल्कि उस समय की दिल्ली के हालात का आईनाख़ाना भी मालूम पड़ती है।

आप का नाम ख़्वाजा मीर था और तख़ल्लुस ‘दर्द’ करते थे। नसबी सिलसिले में ननिहाल की तरफ़ से आप ख्व़ाजा बहाउद्दीन नक़्शबंद की औलाद में से हैं। ददिहाल में भी पीरी-मुरीदी का सिलसिला काफ़ी समय से चल रहा था। आप के पिता ख़्वाजा मोहम्मद नासिर अपने समय के प्रसिद्द सूफ़ी थे और साहिब-ए-दीवान शाइर थे। आप का तख़ल्लुस ‘अंदलीब’ था। मीर दर्द के छोटे भाई ख़्वाजा मोहम्मद मीर भी एक ख़ुश-फ़िक्र शाइर थे और आप का तख़ल्लुस ‘असर’ था। ख़्वाजा मीर असर का दीवान और एक मसनवी “ख़्वाब-ओ-ख़याल” प्रसिद्ध है। अपने घर का माहौल देख कर आप का रुझान भी शाइरी की तरफ़ हुआ। सूफ़ी जीवनशैली और शाइरी, दोनों आप की ज़िन्दगी की दरिया के दो किनारों की तरह ता-उम्र आप के साथ चले।

सूफ़ी विचारधारा में तवक्कुल (ईश्वर पर निर्भरता) का विशेष महत्व है। अपनी ओर से कोई साधन न जुटा कर, केवल ज़ात (परमसत्ता) ही पर निर्भर रहना ही तवक्कुल है। आप को ईश्वर पर इतना भरोसा था कि आप ने जीवन भर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। यह दिल्ली में बादशाह शाह आलम का ज़माना था। शहर में चारो तरफ़ बद-अमनी और शोरिश फैली हुई थी। शरीफ़ लोगों का यहाँ रहना दुश्वार हो रहा था। बिल-आख़िर लोगों ने दिल्ली छोड़ना शुरु कर दिया और जिसे जहाँ आसरा मिला उसी सम्त चला गया। उस ज़माने में लखनऊ इल्म-ओ-फ़न के हिसाब से दिल्ली बना हुआ था। जब दिल्ली के शुअरा ने देखा कि यहाँ रह कर खाना भी दुश्वार हो रहा है तो सब ने लखनऊ का रास्ता इख़्तियार किया। ख़्वाजा मीर दर्द ने देहली न छोड़ने का फ़ैसला किया। आप ने फ़रमाया – जो ख़ुदा यहाँ है वही ख़ुदा दूसरी जगह होगा। मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने यह पूरा वाक़या इन शब्दों में बयान किया है –
“मुल्क की बर्बादी, सल्तनत की तबाही, आए दिन की ग़ारत के सबब अक्सर उमरा-ओ-शुरफ़ा के घराने घर और शहर छोड़ कर निकल गए। उन के पा-ए-इस्तक़बाल को जुंबिश न आई। आप ने अल्लाह पर तवक्कुल रखा और जो सज्जादा बुज़ुर्गों ने बिछाया था,उसी पर बैठे रहे।”
सूफ़ी-संतों का साहित्य एक अज़ीम सरमाया है जिस से आने वाली पीढियाँ फ़ैज़ हासिल करती रही हैं और करती रहेंगी। ख़्वाजा मीर दर्द ने कई किताबें लिखी हैं जिन में प्रमुख हैं –
दीवान-ए-उर्दू, दीवान-ए-फ़ारसी, वारदात-ए-दर्द, इसरार-उल-सलात और हुर्मत-ए-गिना आदि।
रिसाला इसरार-उल-सलात 29 वर्ष की उम्र में लिखा गया। इल्म-उल-किताब एक सौ ग्यारह रिसालों का मुज्मुआ है जिस में नाला-ए-दर्द, आह-ए-दर्द आदि शामिल हैं। यह किताब सूफ़ी साहित्य की एक महत्वपूर्ण किताब है।

आप सूफ़ी थे और पीरी-मुरीदी का सिलसिला आप के ख़ानदान में पहले से चला आ रहा था। आप के यहाँ सूफ़ी मजलिसें भी हुआ करती थी जिस में क़व्वाल कलाम पढ़ते थे। ख़्वाजा मीर दर्द को ख़ुद संगीत में महारत हासिल थी। इन मजलिसों में शरीक होने का शौक़ बादशाह शाह आलाम को भी था लेकिन उस के आग्रह के बाद भी ख़्वाजा ने उसे मज्लिस में शरीक होने की इजाज़त नहीं दी। उन्होंने फ़रमाया – फ़क़ीरों की मज्लिस में बादशाहों का क्या काम ? जब बादशाह ज़ाहिरी शिरकत से मायूस हो गया तो एक दिन बिना बुलाये ख़ानक़ाह आ पहुंचा। ख़्वाजा अब क्या फ़रमाते सो ख़ामोश रहे। इत्तिफ़ाक़ से बादशाह के पैर में दर्द था। जब वह मज्लिस में बैठा तो उस ने अपने पाँव फैला दिए। दर्द ने फ़रमाया – यह आदाब-ए-महफ़िल के ख़िलाफ़ है। बादशाह ने अर्ज़ किया – हज़रत ! मेरे पैरों में दर्द है। ख़्वाजा ने फ़रमाया – तो फिर तशरीफ़ लाने की क्या ज़रुरत थी?
ख़्वाजा साहब के उर्दू दीवान की ख़ासियत यह है कि ज़्यादातर ग़ज़लें छोटी बहरों में हैं पर तसव्वुफ़ इन में बूँद में समंदर की तरह समाया हुआ है –
जग में आ कर इधर-उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा
जान से हो गए बदन खाली
जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा

ख़्वाजा मीर दर्द ने जो कुछ भी कहा है वह इतना साफ़-साफ़ है कि समझने में कोई परेशनी नहीं होती लेकिन जब शेर की तह में जाते हैं तो तसव्व्फ़ के गहरे समंदर में डूबे बेशक़ीमती ख़यालों के मोती हाथ आने लगते हैं। हज़रत ने अपने कलाम में मा’रिफ़त के साथ-साथ इंसानी ज़िन्दगी, फ़ना-ओ-बक़ा आदि महत्वपूर्ण सूफ़ी विषयों पर जी खोल कर रंग लुटाया है। अंदाज़-ए-बयानी में फ़क़ीरी और बेनियाज़ी अपने उत्कर्ष पर दिखती है-
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वुज़ू करें

कलाम-ए-दर्द, अदबी हैसियत से ख़्यालात की बुलंदगी, जज़्बात की पाकीज़गी, तख़य्युल की नफ़ासत और ज़बान की लताफ़त, हर पहलू से मुकम्मल है। हम पहले भी कह आये हैं कि जिस तरह उर्दू शाइरों की फ़ेहरिस्त में मीर और सौदा का नाम हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा वहाँ ख़्वाजा मीर दर्द का नाम भी उन के साथ ज़रूर लिखा जायेगा। यह भी रोचक है कि तीनो शाइर हम-ज़माना रहे।

ख़्वाजा मीर दर्द का विसाल दिल्ली में 1785 ई. को हुआ। आप के कई शागिर्द प्रसिद्ध हैं जिन में क़ायम चांदपूरी का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने आप के साथ-साथ सौदा से भी इस्तिफ़ादा किया था।
ख़्वाजा मीर दर्द की दरगाह दिल्ली में ही स्थित है। रख-रखाव ठीक से न होने की वजह से यह दरगाह उपेक्षा का शिकार रही है। इस नज़र-अंदाज़ी का आँखों-देखा हाल हज़रत शाह अकबर दानापूरी की प्रसिद्ध किताब ‘सैर-ए-देहली’ में मिलता है। शाह अकबर दानापूरी 1894 ई. में दिल्ली तशरीफ़ लाये थे। उस समय से ही दरगाह में बदइंतिज़ामी की शिकायतें शुरु हो गई थी। आज कई कत्बे धुंधले हो चुके हैं। भला हो शाह साहब का जिन्होंने अपनी किताब में सब सहेज लिया।
हज़रत शाह अकबर दानापुरी अपनी किताब “सैर-ए-देहली” (1894 ई.) में तहरीर फ़रमाते हैं –


“अब हम हज़रत ख़्वाजा मीर दर्द के मज़ार की ज़ियारत को जाते हैं! यहाँ से वो जगह नज़र आ रही है, मिर्ज़ा वली बेग साहब हमारे साथ हो गए हैं वो बा’ज़ और मक़ामात का भी निशान देते जाते हैं, फ़ासला बहुत कम था, हम जल्द पहुँच गए, ये सब मज़ारात चूना-गच्ची के हैं जैसे कि हज़रत शाह अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ और उनके अज्दाद के हैं लेकिन मज़ारात के सरहाने बड़ी-बड़ी लौहें संग-ए-सुर्ख़ की नस्ब हैं और उनमें ब-ख़त्त-ए-नस्ख़-ओ-नस्ता’लीक़ बहुत कुछ लिखा हुआ है मगर सब मज़ारात ज़ेर-ए-आसमान नीली हैं हत्ता कि दरख़्तों का भी साया नहीं वाक़ई’ फ़ुक़रा और ग़ुरबा के लिए इस से ज़ियादा बुलंद और ख़ुश-नुमा कोई गुंबद मज़ार के लिए मौज़ूँ नहीं।
ख़ुदा दराज़ करे उ’म्र चर्ख़-ए-नीली की
ये बेकसों के मज़ारों का शामियाना है
(ख़्वाजा हैदर अली ‘आतिश’)

इस मक़ाम पर सबसे पहले मैं अफ़सोस के साथ ये कहना चाहता हूँ कि ख़्वाजा नासिर वज़ीर मरहूम जो हज़रत ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ के सज्जादा-नशीन-ए-हाल थे, निहायत लाइक़-ओ-मतीन-ओ-संजीदा शख़्स थे, वो दानापुर में मुझ से मिलने आए थे, उनके इंतिक़ाल के बा’द इस बुक़्’आ-ए’-मुतबर्रका की ये हालत हो गई, इस वक़्त जो मुतवस्सिल इस ख़ानदान के हैं वो अपने अज्दाद की रूहों को ईज़ा पहुँचा रहे हैं। जो मज़ारात पर दरख़्त साया किए हुए थे, उनको भी काट कर बेच डाला बा’ज़ मज़ार की लौह भी उखाड़ कर फ़रोख़्त कर डालीं, वाक़ई’ हज़रत ‘सादी’ ने बहुत दुरुस्त फ़रमाया है-
ज़नान-ए-बारदारा ऐ मर्द-ए-होशियार
अगर वक़्त-ए-विलादत मार ज़ायंद
अज़ाँ बेहतर ब-नज़दीक-ए-ख़िरद-मंद
कि फ़रज़ंदान-ए-ना-हमवार ज़ायंद
अनुवाद –
(ऐ अ’क़्लमंद! अ’क़्ल-मंदों के नज़्दीक ना-लाइक़ फ़रज़ंद जनने से बेहतर है कि हामिला औ’रत साँप जने।)

ख़्वाजा मीर दर्द मर्जा-ए-फ़ुनून-ओ-मज्मा’-ए-उ’लूम थे, शो’रा की सफ़ में मुसल्लम-उस-सुबूत उस्ताद, फ़ुक़रा के हलक़ा में शैख़-ए-कामिल, अहल-ए-सियादत के तबक़ा में सहीहुन्नस्ब सय्यद, इ’ल्मी सरमाया भी अगर बहुत न था तो ऐसा कम भी न था, फ़न्न-ए-इंशा में उनकी क़ाबिलियत रिसालाहा-ए-नाला-ए-दर्द, आह-ए-सर्द, दर्द-ए-दिल, शम’-ए-महफ़िल के मुताल’आ से ब-ख़ूबी ज़ाहिर हो जाती है, ये सब रिसाले क़ाबिल-ए-दीद हैं, तवक्कुल उन का देहली में मशहूर है, फ़ाक़ा उनके ख़ानदान में तर्का-ए-नुबुव्वत समझा गया था, हज़ार अफ़सोस कि ऐसे ख़ानदान की औलाद और ना-हमवार, ख़ूब ग़ौर किया तो मा’लूम हुआ कि ये बुरी सोहबतों का असर है।
सोहबत-ए-सिफ़्लः चू अंगुश्त नुमायद नुक़्सान
गर्म सोज़द बदन-ओ-सर्द कुनद जामः सियाह
अनुवाद –
(बेवक़ूफ़ों की सोहबत का नुक़्सान ये है कि उनकी सोहबत बदन को जलाती है और काले कपड़े को सर्द करती है)

या क़ौमी! क़ूलू इन्ना-लिल्लाहि व-इन्ना इलैहि राजिऊ’न। अगरचे उस इहाते में मज़ारात बहुत से हैं मगर सबसे ऊँचा मज़ार जो मक़बरे के वस्त में है वो ख़्वाजा मोहम्मद नासिर मुतख़ल्लिस ब-अं’दलीब का है, ये ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ के वालिद और पीर हैं, आपकी विलादत 25 शा’बान 1105 हिज्री में है, इस मिसरा’ से आपकी तारीख़-ए-विलादत निकलती है।
“वारिस-ए-इ’ल्म-ए-इमामैन-ओ-अ’ली”
1105 हिज्री

और रिहलत आपकी रोज़-ए-शंबा बा’द-अल-अ’स्र क़रीब शाम दोवम शा’बान 1174 हिज्री को वाक़े’ हुई, तरीक़ा आपका नक़्शबंदिया मुजद्ददिया है, चूँकि आपके मुर्शिद-ए-पाक का नाम-ए-मुबारक शाह गुलशन था इसलिए आपने अपना तख़ल्लुस अं’दलीब किया और एक बहुत बड़ी मब्सूत किताब तसव्वुफ़ में लिखी और उसका नाम नाला-ए-अं’दलीब रखा और उसकी शरह निहायत वाज़ेह हज़रत ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ ने लिखी है जिसका नाम इ’ल्म-उल-किताब है।
दूसरा मज़ार हज़रत ख़्वाजा मोहम्मद नासिर के पहलू में मग़रिब की तरफ़ आपके फ़रज़ंद-ए-रशीद हज़रत ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ का है, आपके मज़ार-ए-मुबारक की लौह पर लिखा हुआ है।

“हुवन्नासिरु नूरुन्नासिरीन-अव्वलुल-मुहम्मदीन थे ख़्वाजा मीर अ’ली मोहम्मदी अल-मुतख़ल्लिस ब-‘दर्द’ तहय्यातुल्लाहि अ’लैहि व-वालिदैहि व-अ’ला मन-तवस्सल इलैही”
और ये एक रुबाई’ लौह के नीचे लिखी है-
रुबाई’

ख़ुर्शीद-ए-ज़मीर ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ अस्त
हम मीर-ओ-फ़क़ीर ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ अस्त
हम बदर-ए-मुनीर ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ अस्त
हम मुर्शिद-ओ-पीर ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ अस्त

विलादत आपकी नुव-ज़दहुम ज़ीक़ा’दा 1133 हिज्री रोज़-ए-शंबा को वाक़े’ हुई और रेहलत आपकी 24 सफ़र क़ब्ल सुब्ह-ए-सादिक़ 1199 हिज्री को वाक़े’ हुई, उ’म्र-ए-शरीफ़ 66 बरस हुई।
तीसरा मज़ार जो हज़रत मीर ‘दर्द’ के पहलू में मग़रिब की तरफ़ को है वो आपके छोटे भाई जनाब ख़्वाजा ‘असर’ साहब का है, उस मज़ार-ए-मुबारक की लौह पर रुबाई’ लिखी है।
रुबाई’

अज़ बस-कि ग़ुलाम-ए-ख़्वाजा मीरेम असर
ज़ेर-ए-अक़्दाम-ए-ख़्वाजा मीरेम असर
अज़ रहमत-ए-हक़ ज़िंदा-ए-जावेद शवम
हर-गाह ब-नाम-ए-ख़्वाजा मीरेम असर

इन्ना-लिल्लाहि व-इन्ना इलैहि राजिऊ’न व-बिरिज़ाइहि रिज़्वानुन-व-बि-लिक़ाइहि राजिऊ’न-रज़ी-अल्लाहु त’आला अ’न्हु व-अर्ज़ाहु अ’न्ना।
क्या कहें यहाँ बहुत दिल लगा लेकिन धूप निहायत सख़्त थी, दो घंटे भी न बैठ सके, नेक-बख़्त औलाद ने दो पेड़ भी साया के वास्ते न छोड़े हालाँकि ये मक़ाम हज़रत ख़्वाजा मीर ‘दर्द’ के बाग़ के नाम से मशहूर है।

औलाद-ए-नबी कि बर-तरीक़तश न-बुवद
चूँ आयः–ए-मंसूख़-ए-कलामुल्लाह अस्त
अनुवाद:-
(नबी की औलाद जो उनके तरीक़े पर न हो वो कलामुल्लाह की मंसूख़ आयत की तरह है)”

सूफ़ी-संतों ने दिलों के साथ-साथ भाषाओं के बीच भी पुल बनाये हैं। इन सूफ़ी-संतों के कलाम को बिना पढ़े समझे हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का ज्ञान अधूरा है।

  • सुमन मिश्र

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