हिन्दुस्तानी मौसीक़ी और अमीर ख़ुसरौ
इंसानी जज़्बात के इज़हार के लिए इंसान ने जिन फ़ुनून को वज़ा’ किया है उनमें से एक अज़ीमुश्शान फ़न इ’ल्म-ए-मौसीक़ी है। क़ुदरत के कारोबार में हर जगह मौसीक़ी के अ’नासिर नज़र आते हैं। चुनाँचे चश्मों का क़ुलक़ुल, झरनों का जल-तरंग, परिंदों की चहचहाहट, हवाओं की सरसराहाट, बिजली की गरज, बारिश का रिदम, मौजों का शोर, इन्हीं अ’नासिर की मसमूअ’ सूरत का इज़हार है।
‘इंसान के वो दिली जज़्बात-ओ-एहसासात जिनको वो अल्फ़ाज़ का जामा नहीं पहना सकता उनके इज़हार के लिए मौसीक़ी से बेहतर कोई इल्म नहीं है’। फ़िलासफ़ी का मक़ूला है: जिन जज़्बात-ए-दिली के इज़हार से ज़बान-ओ-अल्फ़ाज़ आजिज़ रह जाते हैं उनको नग़्मा अपने सुरों अपनी लय और अपने ज़मज़मों से अदा करता है और ऐसी ख़ूबी से अदा करता है कि नफ़्स-ए-इंसानी उस पर आ’शिक़ हो जाती है। और रूह में अ’जीब रिक़्क़त-ओ-नर्मी पैदा हो जाती है’’।
मौसीक़ी फ़ितरत की ईजाद है लिहाज़ा फ़ितरत से ही अख़ज़ करके उसको तरतीब दिया गया है और मौसीक़ी से हज़ उठाने का ख़ास्सा ख़ल्क़ी तौर हर इंसान को वदी’ईयत किया गया है, चुनाँचे गाना या गाने से लुत्फ़-अंदोज़ होना इंसानी फ़ितरत का ख़ास्सा ठहरा हत्ता कि इस फ़न से ग़ैर-नातिक़ (हैवान) भी महज़ूज़ होते और फ़रहत-ओ-इत्मिनान हासिल करते हैं और जोश-ओ-जज़्बे की एक लहर उनके वजूद में दौड़ जाती है और ग़म-ओ-मशक़्क़त में वो कमी महसूस करते हैं। चुनाँचे माँ की लोरी बच्चे के हक़ में मस्कन साबित होती है, आ’शिक़ हिज्र के सदमे को ग़ज़ल-ख़्वानी के ज़रिये बर्दाश्त करता है, रिज्ज़ से सिपाही में फ़िदाईयत का जज़्बा पैदा होता है, मेहनत-कश और मज़दूर अपने गीतों से मशक़्क़त को आसान करता है, फ़ौत-शुदाः शख़्स पर मर्सिया उसके पसमांदगान को सब्र-ओ-हौसला अ’ता करता है, शादी और ख़ुशी के मौक़ा पर ख़ुश-कुन नग़्मात से अपनी ख़ुशी का इज़हार करता है, हदी-ख़्वानी से मस्त हो कर ऊँट बिला रुकावट मीलों दौड़ता चला जाता है हत्ता कि हैवान भी अपने जज़्बात के इज़हार के लिए मुख़्तलिफ़ुन-नौअ’ आवाज़ों पर इन्हिसार करते हैं।
मौसीक़ी का फ़न चूँकि एक फ़ितरी फ़न है इस बिना पर उसके मुख़्तलिफ़ मज़ाहिर हम को हर मुल्क-ओ-क़ौम में क़दीम ज़माने से ही नज़र आते हैं और हर क़ौम में इसका एक ख़ास तर्ज़ देखने में आता है। हर क़ौम ने इस फ़न को अपने मुआ’शरे और तहज़ीब के मुताबिक़ मुनज़्ज़म व मुरत्तिब करने की कोशिश मुख़्तलिफ़ अदवार में की है ।
अल-ग़र्ज़ इंसान के जज़बात-ए-फ़ितरी ने मौसीक़ी को हर मुल़्क हर सरज़मीन और हर क़ौम मैं ख़ुद-रौ तरीक़े से पैदा किया। मगर जिन क़ौमों ने तरक़्क़ी की और जिन्होंने इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल में नुमूद हासिल की उन्होंने अपनी ज़बानों में इस फ़न को भी बा-ज़ाब्ता व मुहज़्ज़ब बना लिया और अपने हुनर से नग़मे की क़ुदरती कशिश और ज़्यादा बढ़ा दी। बनी-इसराईल, मिस्री, इश्वारी, बबली, यूनानी और रूमी सब ने अपनी अपनी बारी में इस फ़न को तरक़्क़ी दी और अपना फ़र्ज़ अदा किया।
दुनिया की दीगर क़ौमों की तरह हिन्दुस्तान में भी क़दीम ज़माने से मौसीक़ी का फ़न मौजूद है और आज से पाँच हज़ार साल पहले सिंध की वादी में इसके आसार पाए जाते हैं। उस ज़माने में ‘‘अल-गूज़ह’’ और ‘‘मूचंग’’ नामी आला-साज़ के मुख़्तलिफ़ नमूने दुनिया-भर में फैले और उस ज़माने से आज तक सिंध मशरिक़ी पंजाब, बलुचिस्तान और मग़रिबी पंजाब के देहातों में अल-गूज़ह और मूचंग का इस्तिमाल जारी है। दो हज़ार साल इस इलाक़े में द्राविड फलते-फूलते रहे फिर आर्य क़ौम ने इस इ’लाक़े पर क़ब्ज़ा किया और इस इ’लाक़े की तहज़ीब को और जिला बख़्शी एक हज़ार क़्ब्ल-ए-मसीह में मुख़तलिफ़ वेद तसनीफ़ की गईं उनमें से साम-वेद का ख़ास ताअ’ल्लुक़ मौसीक़ी से था। चाँद ख़ाँ साहेब अपनी किताब ‘मौसीक़ी और अमीर ख़ुसरौ’ में प्रोफ़ेसर वसंत के हवाले से लिखते हैं।
‘‘कहा जाता है कि सामगाँ में पहले तीन सुरों का इस्तिमाल किया जाता था जिस को उद्वांत, अनोदानत और सुर्त कहते थे ’। आगे एक-एक सुर और बढ़ते गए इसके बाद सातवीं सदी ईसवी में मतंग मुनि ने अपनी किताब ‘ग्रंथ वरदा दृश्य’ लिखी जिसमें सुर का ज़िक्र किया गया है। आठवीं सदी ईसवी में ‘संगीत मकरंद प्रकाश ‘लिखी गई जिसमें राग को मर्द और रागियों को औ’रत बताया गया फिर बारहवीं सदी ईसवी में जय देव ने ‘गीतगोविंद’ नामी ग्रंथ लिखा और बारहवीं सदी में ही सारंग देव ने ‘रतनाकर’ लिखी। मगर बदकिस्मती से ये तमाम किताबें फ़न-ए-मौसीक़ी में कुछ इज़ाफ़ा न कर सकीं और उनके उलूम-ओ-मआ’रिफ़ तारीख़ बन कर रह गए।
अरब और ईरान के लोग क़दीम ज़माने से ही हिन्दुस्तान में तिजारत की ग़रज़ से आते रहे हैं मगर सन 7 ईसवी में मोहम्मद बिन क़ासिम के सिंध पर हमले और फ़त्ह से उसकी नौइयत में तबदीली आ गई। अब मुसलमान बा-क़ाइ’दा उस मल्क के एक ख़ित्ते के हुकमरान हो गऐ लेकिन यह हुकूमत उसी ख़ित्ते तक महदूद रही। फ़िर सन 1017 ईसवी में महमूद ग़ज़नवी ने पेशावर से मथुरा तक का इलाक़ा फ़तह कर लिया और बाक़ायदा हुकूमत की दाग़-बेल डाल दी उसी के साथ-साथ हिन्दुस्तान में सूफ़ियों की आमद का सिल्सिला भी शुरू हुआ, शैख़ इस्माईल सन 1005 इ., शाह सुल्तान रूमी सन 1035 ई. में बंगाल में आए। शैख़ अबदुल्लाह सन 1065 ई. और सय्यद अबुलहसन अली हुजवेरी (दातागंज बख़्श) वग़ैरा सूफ़यों की आमद हुई फिर शौख़ मुई’नुद्दीन चिशती मोहम्मद ग़ौरी के अहद में सन 1196 ई. में हिन्दुस्तान आए और अजमेर में क़्याम किया और आपके ही फ़ैज़ से हिन्दुस्तान में सिल्सिला-ए-चिश्तिया को ख़ूब फ़रोग़ हासिल हुआ। डाक्टर सुनील गोस्वामी ने चिश्तिया सिल्सिला के फ़रोग़ की एक वजह ये बयान की है कि ग़ौरी, ग़ुलाम, ख़लजी, तुग़लक़ सिल्सिले के तमाम हुकमरान सुन्नी मुस्लमान थे। उनके दिल पर ब-तरबीयत-ए-शैख़ मुई’नुद्दीन चिश्ती उनके शागिर्द (मुरिद) क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी, उनके शागिर्द (मुरीद) बाबा फ़रीदुद्दीन गंजशकर और उनके शागिर्द (मुरीद) शैख़ निज़ामुद्दीन चिश्ती हुकूमत करते रहे चिश्ती सिल्सिला में समाअ’ (क़व्वाली) को एक ख़ुसूसी अहमियत हासिल है जिस बिना पर इस सिल्सिले के सोफियों ने मौसीक़ी को ख़ास अहमियत दी इसकी वजह ये थी कि सूफ़ीया फ़लसफ़ा-ए-इश्क़ को मानने वाले थे।
ख़्वाजा हसन बस्री का क़ौल है: ‘‘अलज़ाहिद सय्यार व अल-आशिक़ तय्यार’’ ज़ाहिद बहुत तेज़ चलने वाला है और आशिक़ बहुत तेज़ उड़ने वाला है और इश्क़ को जिला बख़्शने में समाअ’ का अपना ही एक मक़ाम है। सूफ़िया का क़ौल है कि ‘‘अल-इश्क यज़ीदो बिस्समाअ’’ समाअ’ से इश्क़ में ज़्यादती होती है। चुनाँचे सूफ़ियों के तमाम सलासिल में समाअ’ को एक ख़ास अहमियत हासिल है और ख़ुसूसन सिल्सिला-ए-चिश्तिया ने इसके फ़रोग़ में बहुत नुमायाँ किरदार अदा किया। डाक्टर सुनील गोस्वामी लिखते हैं:
हिन्दुस्तानी मौसीक़ी को चिश्ती सिल्सिले के सूफ़ियों ने बहुत मुतअस्सिर किया शैख़ मुई’नुद्दीन चिश्ती और उनके मो’तक़िदीन ने हिन्दुस्तानी ज़बान और मा’मूलात को अपनाया। इसके अ’लावा उनका अपना एक सूफ़ियाना ढंग था। सूफ़ी लोग तरीक़ा-ए-इश्क़-ए-मुसाफ़िर थे और इश्क़िया जज़बात के इज़हार के लिए मौसीक़ी एक उ’म्दा ज़रीया है। सूफ़ियों की ख़ानक़ाहों में महफ़िल और जलसों का इन्इ’क़ाद होता था। ये क़व्वाली का ही एक रूप होता था। क़व्वाली की सिन्फ़ की इबतिदा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी के वक़्त में हुई। सूफ़ी लोग अपने साथ अरबी और फ़ारसी मौसीक़ी भी लाए थे। उन्होंने हिन्दुस्तानी मौसीक़ी को जाँचा-परखा और अरबी ईरानी मौसीक़ी को हिन्दुस्तानी मौसीक़ी में मुदग़म करके उसे ऐसी सूरत अ’ता की जो सारी दुनिया के लिए मर्कज़-ए-कशिश बन गई इसी सिल्सिला-ए-चिश्तिया की एक अज़ीम शख़्सियत हज़रत अमीर ख़ुसरौ की है जोकि हज़रत शौख़ निज़ामुद्दीन के मुरीद व ख़लीफ़ा थे। जिनकी ज़ात-ए-बा-बरकात इतनी जामेउ’ल-कमालात व वस-सिफ़ात और मुतनव्वेअ’ थी कि जिसकी मिसील-ओ-नज़ीर शाज़ है। सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान लिखते हैं “मेरा अ’क़ीदा तो ब-क़ौल अ’ल्लामा शिब्ली ये है कि हिन्दुस्तान में छः सौ बरस से आज तक इस दर्जा का जामेउ’ल-कमालात नहीं पैदा हुआ और सच पूछो तो इस क़दर मुख़्तलिफ़ और गूनागूँ औसाफ़ के जामेअ’ ईरान और रुम की ख़ाक ने भी दो ही चार पैदा किए होंगे”
आपका इस्म-ए-गरामी यमीनुद्दीन, कुनिय्यत अबुल-हसन, तख़ल्लुस ख़ुसरौ था। आप 1235 ई. मुताबिक़ 651 हि. में ब-क़ौल वहीद मिर्ज़ा पटियाली में और ब-क़ौल मुम्ताज़ हुसैन दिल्ली में पैदा हुए। आप बलंद-पाया नस्र-निगार, अज़ीमुश्शान शाए’र, मुख़्तलिफ़ ज़बानों के आ’लिम, अदीमुल-मिसाल मौसीक़ी-कार, सिपाही, दरबारी और अज़ीमुल-मरतबत सूफ़ी थे। अमीर ख़ुसरौ की शोहरत की वजह जहाँ दीगर उलूम-ओ-फ़नून में हैं वहीं फ़न्न-ए-मौसीक़ी में नई-नई ईजादात ने उनकी शोहरत को बाम-ए-उरूज तक पहुँचा दिया और फ़न्न-ए-मौसीक़ी में वो एक नए स्कूल के बानी तस्लीम किए गए। प्रोफ़ेसर मुम्ताज़ हुसैन रक़म तराज़ हैं :
जब दरबार में और उमरा के घरों पर इसका (मौसीक़ी) ज़ोर कम हुआ तो ख़ानक़ाहों में महफ़िल-ए-समाअ’ और वज्द का ज़ौक़ बढ़ा। एक से एक साहब-ए-हाल क़व्वाल और गायक राग-रागनियाँ शेख़ की महफ़िल-ए-समाअ’ में तसनीफ़ करते इन्हीं में हमारे हज़रत अमीर ख़ुसरौ भी थे।
अमीर ख़ुसरौ को फ़न्न-ए-मौसीक़ी में एक नायक की हैसियत हासिल थी अगरचे नायक के लक़ब के बारे में जो दो रिवायतें अमीर ख़ुसरौ के मुताल्लिक़ तारीख़ में दर्ज हैं उन पर मुहक़्क़क़ीन ने शुब्हा का इज़हार किया है। मगर तमाम मुहक़्क़क़ीन ने अमीर ख़ुसरौ को फ़न्न-ए-मौसीक़ी में मोसल्लम माना है और बहुत से रागों और कई साज़ों का मूजिद तस्लीम किया है। अमीर ख़ुसरौ ने फ़न्न-ए-मौसीक़ी पर कोई मुस्तक़िल किताब तहरीर नहीं की मगर आपने अपने एक शे’र में इस तरफ़ इशारा फ़रमाया है अगर मेरे नक़ात-ए-मौसीक़ी को ज़ब्त-ए-तहरीर में लाया जाता तो मेरे तीन दीवान की तरह उस के भी तीन दफ़्तर बन जाते।
नज़्म रा कर्दम सेह दफ़्तर वर ब-तहरीर आमदे
इल्म-ए-मौसीक़ी सेज दीगर बुवद अर बावर बुवद
प्रोफ़ेसर मुमताज़ हुसैन लिखते हैं: ‘‘क़िरानुस-सा’दैन, देवल-रानी ख़िज़्र ख़ाँ, नोह-सिप्हर और ए’जाज़-ए-ख़ुसरवी के मुताले’ से भी उनके इस फ़न का आलिम होना मुतहक़्क़िक़ होता है। ए’जाज़ ख़ुसरवी में तो एक पूरा मक़ाला इल्म-ए-मौसीक़ी के उसूल-ओ-फ़रोग़’ से मुताल्लिक़ लिखा है और अपने ज़माने के मशहूर मौसीक़-कारों के फ़न की क़द्र-ओ-क़ीमत का मुवाज़ना व मुक़ाबला, बाख़र्ज़ और फ़र्ग़ाना के मौसीक़-कारों से किया है ।
अमीर ख़ुसरौ की महारत फ़न्न-ए-मौसीक़ी में मोस्ल्लम है। मगर साथ ही साथ फ़न्न-ए-मौसीक़ी और आलात-ए-मौसीक़ी में उनकी इख़तिराआ’त हमेशा मुख़्तलिफ़-फिह रही हैं। इसकी पहली वजह ये है कि अमीर ख़ुसरौ के मौसीक़ी के बारे में ख़ुद उनकी तसानीफ़ में कोई वाज़ेह सबूत नहीं मिलता कि क्या वो उसके मुख़्तराअ’ हैं या नहीं? इसके बरअ’क्स उन्होंने अपने ज़माने में राएज मौसीक़ी और आलात-ए-मौसीक़ी का ज़िक्र ख़ूब वाज़ेह अंदाज़ में अपनी तसानीफ़ में किया है। अब्दुलहलीम जा’फ़र ख़ाँ (सितार-नवाज़) अपने एक मज़मून ‘ब-नाम-ए-अमीर ख़ुसरौ और हिन्दुस्तानी मौसीक़ी’ में इस तरफ़ इशारा किया है। वो लिखते हैं :
“अफ़सोस कि कोई मुआ’सिर किताब या मुस्तनद तहरीर ऐसी दस्तियाब नहीं जिससे यक़ीन के साथ कहा जा सके कि अमीर ने क्या ईजाद किया क्या तसर्रुफ़ किया और किस चीज़ को थोड़ी बहुत तबदीली के साथ क़बूल कर लिया?”
अमीर ख़ुसरौ की तरफ़ मंसूब इख़तिराआ’त को दो हिस्सों में तक़सीम किया गया है। अव़्वल फ़न्न-ए-मौसीक़ी, दोएम आलात-ए-मौसीक़ी।
फ़न्न-ए-मौसीक़ी:
मौसीक़ी में अमीर ख़ुसरौ की इख़तिराअ’ के सिलसिले में ‘राग-दर्पण’ नामी किताब में कुछ तफ़सीलात दी गई हैं और उसी को तमाम मुहक़्क़ेक़ीन ने नक़्ल किया है। राग दर्पण इस्तिनादी हैसियत से मजरूह किताब है और इसकी बयान-करदा फ़ेहरिस्त पर मिन्न-ओ-अ’न यक़ीन करना और सही राय क़ायम करना बहुत मुश्किल है। डाक्टर वहीद मिर्ज़ा की नक़्ल-करदा फ़िहरिस्त हसब-ए-ज़ेल है
1- मजीर : ये राग गाज़ और एक फ़ारसी राग से मुरक्कब है।
2- साज़कोई : पूरबी, गोरा, कनकली और एक फ़ारसी राग से मुरक्कब है।
3- एमन: हिंडोल और बनटरीज़ से मुरक्कब है।
4- उश्शाक: सारंग और बसंत और नवा।
5- मुआफ़िक़: तोड़ी, मालवी, (क़ज़ा) दूदगाह व हुसैनी।
6- ग़नम: पूरबी में कुछ तग़य्युर से बना।
7- ज़ील्फ़: घट राग में शहनाज़ को मिलाया।
8- फ़रगना: कनकली और गोरा में फ़र्ग़ाना मिलाया।
9- सरपर्दा: सारंग, बिलावल और रास्त से मुरक्कब है।
10- बाख़र्ज़ : वीसकार में एक फ़ारसी राग मिलाया।
11- फ़ेरोदस्त : कानहड़ा, गोरी, पूरबी और एक फ़ारसी राग।
12- मनम : (मुनइ’म) कल्याण में एक फ़ारसी राग मिलाया
इनके अ’लावा क़ौल, तराना, ख़याल, नक़्श, निगार, बसीत, तिल्लाना, सोहला भी, ब-क़ौल राग-दर्पण अमीर ख़ुसरौ की ईजाद हैं ।
आलात-ए-मौसीक़ी:
आलात-ए-मौसीक़ी में उमूमन सितार, तब्ला और ढोलक की इख़तिरा’अ अमीर ख़ुसरौ की तरफ़ मंसूब की जाती है। मुहक़्क़िक़ीन ने उनके बारे में मुख्तलिफ़ुन-नौअ’ राय दी हैं।
हासिल-ए-कलाम अमीर ख़ुसरौ ने मुख़्तलिफ़ उ’लूम-ओ-फ़ुनून की तरह फ़न्न-ए-मौसीक़ी में भी नित नए इख़तिराआ’त करके हिन्दुस्तानी मौसीक़ी के जुमूद को तोड़ा, उसकी ख़ुशूनत को नर्मी की तरफ़ माएल किया और हिन्दुस्तानी मौसीक़ी में नए अबवाब शामिल किए। ज़बान-ओ-अदब की तरह मौसीक़ी पर उनके एहसानात को कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
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