शैख़-ए-तरीक़त हज़रत सय्यद अ’ल्लामा मोहम्मद अ’ली शाह मयकश रहमतुल्लाह अलै’ह-सवानेह और किरदार
हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ महबूब-ए-इलाही सय्यद मोहम्मद निज़ामुद्दीन औलिया फ़रमाते हैं “दरवेशी पर्दा-पोशी अस्त”। दरवेशी छुपाने का नाम है क़ौल-ए-मुबारक की रौशनी में दो तरह की पर्दा-पोशी मुराद है। एक लोगों के ऐ’ब छापाना और उनको ज़ाहिर न करना और दूसरा अपना अहवाल पोशीदा रखना। सूफ़िया इसी पर कारबंद रहते हैं। हज़रत सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी रहमतुल्लाह अलै’ह भी उन्हीं दरवेशों में हैं जिन्होंने ख़ुद को शाइ’री और सादगी के पर्दे में छुपाया। यही वजह है कि उनकी आ’म मक़बूलियत ब-हैसियत-ए-शाइ’र, नक़्क़ाद और अदीब ज़्यादा हुई।चे जाए कि शे’र-गोई और तसानीफ़ का मौज़ूअ’ तसव्वुफ़ ही है। हज़रत की ज़िंदगी जिस किरदार की हामिल है वो ज़िंदगी एक साहिब-ए-हाल सूफ़ी,तसव्वुफ़ की रिवायात और विरासत को आगे बढ़ाने वाले मख़्लूक़ के हादी, हुस्न-ए-ख़ुल्क़ और आ’ला इन्सानी क़द्रें रखने वाले ख़ुदा-परस्त इन्सान की होती है।
अ’ल्लामा मयकश अकबराबादी रहमतुल्लाह अलै’ह दुनिया-ए-अदब और तसव्वुफ़ की मुम्ताज़ शख़्सियत का नाम है।हिन्दुस्तान की मशहूर सूफ़ी शख़्सियत और उर्दू के उस्ताद शाइ’र की हैसियत से सारी दुनिया में जाने जाते हैं। साथ ही शैख़-ए-तरीक़त और आ’लिम-ए-दीन होने का शरफ़ भी हासिल है।यही आपकी मौरुसी पहचान भी है।
विलादत 3 मार्च 1902 में आगरा में आबाई मकान में हुई। वालिद का नाम सय्यद असग़र अ’ली शाह जा’फ़री कादरी निज़ामी था।
ख़ानदान: हज़रत सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह मयकश क़ादरी नियाज़ी आगरे के एक ऐसे मशहूर-ओ-मुम्ताज़ ख़ानदान के फ़र्द-ए-बुज़ुर्ग हैं जो ब-लिहाज़-ए-शराफ़त-ओ-नजाबत और ब-हैसियत-ए-तक़द्दुस-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन अपना जवाब नहीं रखता।और चूँकि गुज़िश्ता सदी ई’सवी में हामिल-ए-अ’नान-ए-नज़्म-ओ-नस्क़-ए-शहर भी रह चुके हैं इसलिए क़रीब क़रीब तमाम दीनी-ओ-दुनियावी वजाहतों का तुर्रा-ए-इमतियाज़ अपने सर पर लगाए हुए हैं।यही वजह है कि आगरा की कोई तारीख़, कोई फ़ैमिली,कोई ख़ानदान और कोई शख़्सियत ऐसी नहीं जो इंतिहाई अ’ज़्मत और दिली मोहब्बत के साथ इस घराने का नाम न लेती हो )
“चूँकि आगरा के तमाम सज्जादगान-ए-ख़ुसूसी का सिलसिला-ए-इरादत आपके जद्द-ए-अमजद मौलवी सय्यद अमजद अ’ली शाह रहमतुल्लाह अलै’ह तक पहुँचता है इसलिए इस आस्ताना की जबीं-साई “अर्ज़-ए-ताज में अलल-उ’मूम बाइ’स-ए-फ़ख़्र-ओ-मबाहात समझी जाती है।और जनाब मय-कश मुसल्लम तौर पर उस ख़ानदान के वारिस और जाँ-नशीन माने जाते हैं।”
(अनवारुल-आ’रिफ़ीन, तोहफ़ा-ए-तेहरान, सादात-ए-सूफ़िया,तज़्किरा-ए- मा’सूमीन,फ़ज़्ल-ए-इमाम वग़ैरा)
शज्रा-ए-नसब:
सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह इब्न-ए-सय्यद असग़र अ’ली शाह इब्न-ए-सय्यद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह इब्न-ए-सय्यद मुनव्वर अ’ली शाह इब्न-ए-सय्यद अमजद अ’ली शाह इब्न-ए-सय्यद मौलाना अहमदुल्लाह अहमदी इब्न-ए-सय्यद मौलवी इल्हामुल्लाह इब्न-ए-सय्यद ख़लीलुल्लाह इब्न-ए-सय्यद फ़त्ह मोहम्मद इब्न-ए-सय्यद इब्राहीम क़ुतुब मदनी इब्न-ए-सय्यद हसन इब्न-ए-सय्यद हुसैन इब्न-ए-सय्यद अ’ब्दुल्लाह इब्न-ए-सय्यद मा’सूम इब्न-ए-सय्यद उ’बैदुल्लाह नजफ़ी इब्न-ए-सय्यद हसन इब्न-ए-सय्यद जा’फ़र मक्की इब्न-ए-सय्यद मुर्तज़ा इब्न-ए-सय्यद मस्तफ़ा हमीद इब्न-ए-सय्यद अ’ब्दुल क़ादिर इब्न-ए-सय्यद अ’ब्दुस्समद काज़िम इब्न-ए-सय्यद अ’ब्दुर्रहीम इब्न-ए-सय्यद मस्ऊ’द इब्न-ए-सय्यद महमूद इब्न-ए-सय्यद हम्ज़ा इब्न-ए-सय्यद अ’ब्दुल्लाह इब्न-ए-सय्यद नक़ी इब्न-ए-सय्यद अ’ली इब्न-ए-सय्यद मुहम्मद असदुल्लाह इब्न-ए-सय्यद यूसुफ़ इब्न-ए-सय्यद हुसैन इब्न-ए-सय्यद इस्हाक़ अल-मदनी इब्न-ए-इमामुल-मशारिक़ वल-मग़ारिब इमाम सय्यद जा’फ़र-ए-सादिक़ इब्न-ए-इमाम सय्यद मोहम्मद बाक़र इब्न-ए-इमाम ज़ैनुल-आ’बिदीन सय्यद अ’ली बिन सय्यदुश्शुहदा इमाम हुसैन इब्न-ए-अमीरुल-मोमिनीन इमामुल-मुत्तक़ीन सय्यद अ’ली मुर्तज़ा कर्रमल्लाहु वज्हहु अ’लैहिस्सलाम अख़-ए-हज़रत अहमद मुज्तबा मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम।
बैअ’त-ओ-इरादतः
हज़रत सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह क़ादरी नियाज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह को क़ुतुब-ए-आ’लम मदार-ए-आ’ज़म हज़रत शाह नियाज़ अहमद नियाज़ बे-नियाज़ क़ादरी चिश्ती नश्कबंदी सुहरवर्दी के नबीरा-ओ-सज्जादा-नशीन-ए-दोउम सिराजुस्सालिकीन हज़रत शाह मुहीउद्दीन अहमद क़ादरी चिश्ती नियाज़ी से शरफ़-ए-बैअ’त कम-सिनी ही में हासिल हो गया था। फ़रमाते हैं कम-उ’म्री ही में हज़रत सिराजुस्सालिकीन मुहीउद्दीन अहमद निज़ामी बरेलवी से शरफ़-ए-बैअ’त नसीब हुआ जिसकी वजह से ज़िंदगी में बहुत बड़ा इंक़िलाब रू-नुमा हो गया।उनकी ज़ियारत के बा’द मुझे जुनैद बग़दादी और बायज़ीद बुस्तामी की ज़ियारत की तमन्ना न रही।आपकी सारी रुहानी तर्बियत हज़रत ने ही की। 22 बाइस साल की उ’म्र में ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से सरफ़राज़ किया।
तसव्वुफ़ की ता’लीमः ख़ानक़ाह-ए-आ’लिया नियाज़िया बरेली शरीफ़ में रह कर उसूल-ए-ज़िक्र-ओ-अश्ग़ाल सीखे और सुलूक के दर्जात तय किए।
दर्स-ए-निज़ामिया की तक्मील मदरसा आ’लिया जामे’ मस्जिद आगरा से की थी।हिन्दुस्तान के बड़े बड़े उ’लमा से दर्स-ए-हदीस लिया।फ़िक़्ह,तफ़सीर वग़ैरा में यद-ए-तूला रखते थे।इ’ल्म-ए-जफ़्र,इ’ल्म-ए-रमल भी हासिल किया ।ता’लीम-ओ-तहक़ीक़ का सफ़र यूँ तो पूरी ज़िंदगी चलता रहा ख़ासकर तसव्वुफ़ पे आपको कमाल हासिल था। तसव्वुफ़ की शायद ही कोई ऐसी किताब हो जिससे आप ना-वाक़िफ़ हों या उसमें बयान कर्दा नज़रिये से ना-बलद हों।
अ’क़ीदाः अ’ल्लामा मोहम्मद अ’ली शाह मयकश अकबराबादी को सूफ़ियाना मस्लक विरासत में मिला और आपका ख़ानदान क़ादरी सिलसिले से वाबस्ता चला आता है।आपके जद्द सय्यद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह सूफ़ी बुज़ुर्ग थे।सिलसिला-ए-क़ादरिया चिश्तिया निज़ामिया नियाज़िया से तअ’ल्लुक़ रखते थे।अहल-ए-सुन्नत-वल-जमाअ’त हनफ़ी फ़िक़्ह के मुक़ल्लिद थे।अहल-ए-बैत के आ’शिक़ और सहाबा का एहतिराम करने वाले थे।फ़रमाते हैं:
मयकश मिरा मर्तबा न पूछो
हूँ पंजतनी-ओ-चार-यारी
हज़रत मयकश अकबराबादी साहिब क़िबला वहदतुल-वजूद के मानने वाले हैं।शैख़-ए-अकबर इब्न-ए-अ’रबी रहमतुल्लाह अ’लैह के हवाले से मुन्दर्जा ज़ैल ख़्यालात का इज़हार करते हुए फ़रमाते हैं:
“सूफ़ी ख़ुसूसन शैख़-ए-अकबर इब्न-ए-अ’रबी के मुक़ल्लिदीन और जुम्हूर सूफ़िया का मस्लक ये है कि ज़ाहिर-ओ-बातिन ख़ुदा के सिवाए कोई मौजूद नहीं है।ये दिखाई देने वाला आ’लम जो ख़ुदा का ग़ैर महसूस होता है और जिसे मा-सिवा कहते हैं, मा-सिवा नहीं है। न ख़ुदा के अ’लावा और ग़ैर है बल्कि ख़ुदा का मज़हर है।ख़ुदा अपनी ला-इंतिहा शानों के साथ इस आ’लम में जल्वा-गर है।ये ग़ैरत-ओ-कसरत जो महसूस होती है हमारा वह्म और सिर्फ़ हमारी अ’क़्ल का क़ुसूर है।या’नी हमने उसे ग़ैर समझ लिया है दर-हक़ीक़त ऐसा नहीं है। हज़रत इब्न-ए-अ’रबी ने कहा है “अल-हक़्क़ु महसूसुन-अल-ख़ल्क़ु मा’क़ूलुन” या’नी जो कुछ महसूस होता है और हमारे हवास जिसको महसूस करते हैं वो सब हक़ ही है।अलबत्ता हम जो कुछ समझते थे वो मख़्लूक़ है या’नी मख़्लूक़ हमारी अ’क़्ल ने फ़र्ज़ कर लिया है दर-हक़ीक़त ऐसा नहीं है।
नज़रिया और मिज़ाजः फ़रमाते हैं ज़ाती हैसियत से मैंने न किसी मस्लक को तर्जीह देने की कोशिश की और न किसी मख़्सूस ग्रुप या गिरोह की नुमाइंदगी की है।इस्तिदलाल की बात इस से अलग है और वो किसी के भी मुवाफ़िक़ और किसी के भी ख़िलाफ़ हो सकता है। लेकिन मैं गुज़रे हुए बुज़ुर्गों का अदब और उनकी ख़िदमत में हुस्न-ए-ज़न, इख़्तिलाफ़-ए-ख़याल के बावजूद ज़रूरी समझता हूँ।और उनके बाहमी इख़्तिलाफ़ को आज़ादी-ए-ख़याल और सदाक़त का मज़हर समझता हूँ ।कोई क़ौम और मुल्क ऐसा नहीं है जहाँ हादी और पैग़ंबर न आए हों।अ’रब और इ’राक़ हो या ईरान और हिन्दुस्तान ख़ुदा की रहमत और ता’लीम से कोई महरूम नहीं रह सकता।लेकिन इन पैग़म्बरों की ता’लीमात हम तक पहुंची हैं।उनमें हमारे फ़ह्म और मो’तक़िदात-ओ-रिवायात ने भी तसर्रुफ़ किया हैजो कभी तहरीफ़ और कभी तावील की शक्ल इख़्तियार करता आया है, और यहीं से इख़्तिलाफ़ शुरूअ’ हो जाता है।ये इख़्तिलाफ़ जिस तरह एक ही मज़हब के मानने वालों में बा-हम होते हैं उसी तरह दूसरे मज़ाहिब के मुक़ल्लिदीन से भी होते हैं लेकिन हमें अपने मिज़ाजों, सूरतों और आब-ओ-हवा के इख़्तिलाफ़ात की तरह उन इख़्तिलाफ़ात को भी फ़राख़-दिली से बर्दाश्त करना चाहिए। और जब हम सारी दुनिया के हम-ख़याल नहीं तो हमें भी सारी दुनिया को अपना हम-ख़याल हो जाने की तवक़्क़ोअ’ नहीं करनी चाहिए।
बहुत बुलंद है मेरी निगाह ऐ मयकश
वो और होंगे जो ऐ’ब-ओ-हुनर को देखते हैं
इ’बादत:
पूरी ज़िंदगी ज़िक्र-ए-इलाही और इ’बादत के लिए वक़्फ़ थी। तसव्वुर-ए-ज़ात में मशग़ूल रहते।आख़िरी उ’म्र तक नमाज़ क़ज़ा नहीं हुई।कसरत-ए-ज़िक्र से एक आ’लम में डूबे नज़र आते।शुग़्ल-ओ-कसरत-ए-रियाज़त से चेहरा सुर्ख़ रहा करता।
क़लंदराना अंदाज़ः तमाम इ’ल्मी, अ’मली, रुहानी, ख़ानदानी वज़्अ’-दारियों के होते हुए आप में दुनिया से बे-रग़बती-ओ-बे-नियाज़ी थी।शोहरत, इ’ज़्ज़त-ओ-नामवारी से नफ़रत की हद तक परहेज़ करते।इख़्लास में मोहतात होना सूफ़िया का इज्तिहाद होता है।ये इज्तिहाद उनकी ज़िंदगी के हर गोशा में दिखाई देता है। दौलत, मंसब-ओ-नामवरी से बहुत दूर गोया हसब-ए-ज़रूरत रिज़्क़ से मुत्मइन हों।अपने एक शे’र में फ़रमाते हैं।
आज़ाद है कौनैन से वो मर्द-ए-क़लंदर
मयकश को न दे ताज-ए-बुख़ारा-ओ-समर्क़ंद
इ’श्क़-ए-अहल-ए-बैतः इ’श्क़-ए-अहल-ए-बैत इस्लाम में बुनियादी अ’क़ीदा है।सूफ़िया के ईमान और तरक़्क़ी-ए-दर्जात की शर्त-ए-अव्वल है।हुज़ूर का इर्शाद है जिसने मेरे अहल-ए-बैत से मोहब्बत की उसने मुझ से मोहब्बत की जिसने मुझसे मोहब्बत की उसने अल्लाह से मोहब्बत की।इसलिए ख़ानदान-ए-रसूल का इ’श्क़ उनका विर्सा भी है और ईमान का जुज़्व भी और नसबी तक़ाज़ा भी। अमीरुल-मोमिनीन सय्यदना अ’ली मुर्तज़ा कर्रमल्लाहु वज्हहु की शान में फ़रमाते हैं:
ये क़ैद-ए-नाम-ओ-निशाँ ला-इलाहा इल्लल्लाह
यहाँ अ’ली ही अ’ली हैं वहाँ अली ही अ’ली
हज़रत इमाम हुसैन की शान में फ़रमाते हैं:
ग़ुलाम उसका हूँ मयकश कि जम्अ’ हैं जिसमें
ख़ुदा-ओ-बंदा-ओ-ख़ुद-बीनी-ओ-ख़ुदा-बीनी
विसाल:
25 अप्रैल 1991 ई’स्वी को आगरा में अपने हुज्रे में विसाल फ़रमाया।
12 साल पहले ही अपनी तारीख़-ए-विसाल लिख कर मज्मूआ’-ए-कलाम “दास्तान-ए-शब’’ कत्बा-ए-क़ब्र के उ’न्वान के साथ शाए’ कर दिया था।
जो फ़र्श-ए-गुल पर सो न सका जो हँस न सका जो रो न सका
इस ख़ाक पे इस शोरीदा-सर ने आख़िर आज आराम किया
बिस्तर पर भी इ’बादत और ज़िक्र से ग़फ़लत न की।ज़ो’फ़-ओ-बीमारी ने आपके अख़्लाक़-ओ-बर्ताव में कोई फ़र्क़ नहीं किया था।
आपके अ’क़ीदत-मंदों और मुरीदों की बड़ी ता’दाद पूरी दुनिया में मौजूद है।
ख़ुल़फ़ाः-
हज़रत सय्यद मुअ’ज़्ज़म अ’ली शाह उ’र्फ़ मोहम्मद शाह क़ादरी नियाज़ी (फ़र्ज़ंद-ए-अकबर-ओ-जाँ-नशीन)
हज़रत सय्यद चिराग़ अ’ली क़ादरी
(सज्जादा-नशीन दरगाह-ए-फ़र्ज़ंद–ए-ग़ौस-ए-आ’ज़म हज़रत शाह अ’ब्दुल्लाह बग़दादी रहमतुल्लाह अ’लैह)
जनाब प्रोफ़ेसर उ’न्वान चिश्ती
( प्रोफ़ेसर जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली, मशहूर अदीब-ओ-शाइ’र)
जनाब प्रोफ़ेसर मस्ऊ’द हुसैन निज़ामी
(बरेली शरीफ़, यूपी)
जनाब क़ासिम अ’ली नियाज़ी
(हैदराबाद, पाकिस्तान)
वग़ैरा
बज़्म-ए-मयकश:
हज़रत की याद में आपके जाँनशीन हज़रत अमजल अ’ली शाह साहिब क़ादरी नियाज़ी ने 1994-1995 में बज़्म-ए-मय-कश क़ाएम की जो उर्दू अदब की ख़िदमत करने वाली शख़्सियात को ए’ज़ाज़-ओ-इकराम पेश करती है।नश्र-ओ-इशाअ’त का काम भी अंजाम दे रही है।
ख़ानक़ाह-ए-आगरा:
ख़ानक़ाह-ए-क़ादरिया नियाज़िया, आस्ताना-ए- हज़रत मयकश से हज़ारों लोगों की दीनी-ओ-दुनियावी हाजात पूरी होती है।आगरा में चार-सौ 400 साल कम-ओ-बेश इस ख़ानक़ाह को हो चुके हैं जहाँ रुश्द-ओ-हिदायत का काम जारी-ओ-सारी है।जहाँ तसव्वुफ़ के बुनियादी उसूल की पाबंदी के साथ ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ और तब्लीग़ का काम सर-अंजाम दिया जाता है।शहर-ए-आगरा में ये ख़ानक़ाह सबसे पुरानी और मुंफ़रिद मक़ाम की हामिल है।
तसानीफ़: मयकदा, हर्फ़-ए-तमन्ना,(शे’री मज्मुए’), नग़्मा और इस्लाम (जवाज़-ए-समाअ’), ‘नक़्द-ए-इक़बाल (तन्क़ीद), ‘शिर्क-ओ-तौहीद’ (मज़हब), ‘हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म’ (मज़हब), ‘मसाएल-ए-तसव्वुफ़’ (अदब)।
”हर्फ़-ए-तमन्ना, नक़्द-ए-इक़बाल’ और मसाएल-ए-तसव्वुफ़ पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी की तरफ़ से इनआ’मात मिले।वो शाइ’र के अ’लावा नक़्क़ाद और माहिर-ए-इक़बालियात-ओ-तसव्वुफ़ थे।”
हज़रत सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह अ’ल्लामा मयकश अकबराबादी पर उदबा-ओ-शो’रा का इज़्हार-ए-अ’क़ीदत
शाइ’र-ए-इन्क़िलाब जोश मलीहाबादी हज़रत मयकश अकबराबादी साहिब के हम-अ’स्र और क़रीबी लोगों में सबसे ज़्यादा बे-तकल्लुफ़ और मुख़्लिस लोगों में से थे।दौरान-ए-क़ियाम-ए-आगरा आस्ताना-ए- हज़रत मयकश पर उनका आना होता था।महफ़िल-ए-शे’र-ओ-सुख़न और तब्सिरों का दौर रहता था।वो लिखते हैं :
गोरे चट्टे, खड़ा नाक नक़्शा,शगुफ़्ता चेहरा, शाइस्ता गुफ़्तार, ज़ी-इ’ल्म, शाइ’र, सूफ़ी-साफ़ी, और उस में भी ऐसे शर्मीले कि जब कोई ख़ूब-रू औ’रत सामने आ जाती है तो उनकी अँखें झुक कर कहने लगती हैं मेरे अल्लाह किधर जा कर छुप जाऊँ।
उनके चेहरे पर, पाकीज़गी-ए-अख़्लाक़ और तहारत-ए-नफ़्स की इस क़द्र शीरीनी है कि जब उनकी तरफ़ निगाह हो तो मेरे मुँह में क़ंद की डलियाँ घुलने लगती हैं।
वो मशाइख़-ए-आगरा में से हैं।न किसी को मुरीद बनाते हैं न किसी की नज़्र क़ुबूल करते हैं।
दुनिया की दो तारीख़ी हकलाहटें हैं एक तो मूसा की हकलाहट थी जिस पर अल्लाह मियाँ को प्यार आता था। एक मसीह-ए-मय-कश की हकलाहट है, जिस पर मुझे अल्लाह मियाँ के नुमाइंदा-ए-ख़ुसूसी को प्यार आता है। मेवा कटरे में उनका घर है। बाला-ख़ाने पर रहते हैं।ज़ीना दिन के वक़्त भी घुप रहता है।क्यूँ न हो कि ज़ुलमात तय कर के हैवान-ए-नातिक़ तक रसाई होती है।
जोश साहिब ने अपने एक ख़त में मयकश अकबराबादी को बिरादर-ए-ज़ेहनी और रफ़ीक़-ए-रुहानी कह कर मुख़ातिब किया है। बाग़-ए-लखनऊ से 7 मई 1941 ई’स्वी को लिखे जाने वाले एक ख़त में जोश साहिब कहते हैं:
मयकश साहिब हमारे और आपके रास्ते किसी क़द्र एक दूसरे से जुदा और हमारी ज़िंदगियाँ किस क़द्र एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं। मगर ये अ’जीब बात है कि हम एक दूसरे की तरफ़ खिचने पर अपने को मज्बूर पाते हैं।एक दूसरे को आ’लमी तसव्वुर के धुँदलके में मह्व-ए-ख़िराम देखा करते हैं।मैं दिल में आपके ख़त आने से दो तीन रोज़ बेश्तर कह रहा था कि ये मयकश भी अ’जीब शख़्सियत के मालिक हैं जो फ़ुर्सत के लम्हों में मुद्दत से तआक़ुब करते रहते हैं ।शायद आप इस वक़्त मुझे ख़त लिख रहे होंगे और उसी की लहरें मेरे दिल से मस हुई होंगी” (जोश मलीहाबादी के ख़ुतूत, मुरत्त्बा ख़लीक़ अंजुम, अंजुमन तरक़्क़ी-ए-उर्दू,हिंद 1998 ई’स्वी)
उनका नाम है मोहम्मद अ’ली शाह, और तख़ल्लुस है मयकश, लेकिन मय को हाथ लगाने की तौफ़ीक़ उन्हें आज तक नहीं हुई।मैंने उन पर जो रुबाई’ कही थी आप भी सुन लें।
हज़रत का है ,दुनिया से निराला दस्तूर
बातिन में तही-दस्त, ब-ज़ाहिर फ़ग़्फ़ूर
मय-कश है तख़ल्लुस, और मय से है गुरेज़
बर-अ’क्स नेहंद नाम-ए-ज़ंगी काफ़ूर
उनका बेटा फ़ल्सफ़े का एम-ए है लेकिन सद-हैफ़ कि बाप का तसव्वुफ़, बेटे की तफ़लसुफ़ को निगल चुका है।तंसीख़-ए-ज़मीन-दारी ने, लाखों ज़मीन-दारों के मानिंद, उनके दिल को भी बुझा कर रख दिया है मगर मुँह से उफ़ तक नहीं करते हैं।और अपनी क़दीम वज़्अ’-दारी को निभाते चले जा रहे हैं।
1967 ई’स्वी में, उनसे मिलने आगरे गया था। अब रह क्या गया है आगरे में। ताज-महल और मयकश के अ’लावा।दोनों को जी भर के देखा और इस तरह देखा कि शायद ये आख़िरी दीदार हो।
जिगर मुरादाबादी- जिस महफ़िल में मयकश मौजूद हों उस में, मैं सदारत करूँ ये मुझे गवारा नहीं।
*अ’ल्लामा ‘नियाज़’ फ़तहपुरी
मयकश आगरे की अदब-ख़ेज़ सर-ज़मीन से तअ’ल्लुक़ रखते हैं और वहाँ की तमाम फ़न्नी वज़्न रखने वाली अदबी रिवायात से वाक़िफ़ हैं।इसीलिए उनके कलाम में वज़्न है, फ़िक्र है, मतानत है, संजीदगी है और इसी के साथ शगुफ़्तगी और तरन्नुम भी। उनके जज़्बात जितने सुथरे हैं उतना ही ठहराव उनके इज़्हार में भी पाया जाता है। निगार 1955 ई’स्वी
* अ’ल्लामा ‘सीमाब’ अकबराबादी
फ़ितरत में इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल की दुनिया लिए हुए सीरत में जल्वा-ए- यद-ए-बैज़ा लिए हुए ख़िर्क़ा ब-दोश महफ़िल-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में सज्जादा-ओ-गलीम-ओ-मुसल्ला लिए हुए ख़ुद मयकश और ख़ुद ही क़दह-नोश-ओ-मय-फ़रोश जाम-ओ-सुबू-ओ-शीशा-ओ-सहबा लिए हुए।
*हामिद हसन क़ादरी
हुल्या देखो तो ठेठ अकबराबादी और दिल टटोलो तो मक्की मदनी-ओ-बग़दादी-ओ-अजमेरी। मयकश साहिब शाइ’री में इस क़द्र सही मज़ाक़ और लतीफ़ तबीअ’त रखते हैं कि बस उसके आगे ख़ुदा का ही नाम है।
*अ’ल्लामा ‘असर’ लखनवी
“हर्फ़-ए-तमन्ना उर्दू के ज़ख़ीरे में बेश-बहा इज़ाफ़ा है। उसकी लताफ़तें बयान करने को दफ़्तर दरकार है।शे’र-ओ-नग़्मा में कैसे-कैसे रुमूज़, निकात बयान किए हैं और कैसी-कैसी पते की बातें कही गई हैं।
आज-कल 1956 ई’स्वी
*आल अहमद सुरूर
आज मयकश से मुलाक़ात में महसूस हुआ हिंद में साहिब-ए-इ’रफ़ान अभी बाक़ी हैं।लाख बर्बाद सही फिर भी ये वीराँ तो नहीं।इस ख़राबे में कुछ इन्सान अभी बाक़ी हैं।
*‘मख़्मूर’ अकबराबादी
जनाब-ए-मयकश मफ़रूज़ा-ए-अज़ली से मुझे ‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ की सोहबत में फ़रोकश नज़र आते हैं।उनका हुज़ूर-ए-क़ल्ब, उनका सुकून-ए-नफ़्स,उनका ज़ौक़-ओ-शौक़, उनकी शोरिश-ए-बातिन, उनकी बसीरत-ओ-मा’रिफ़त,उनकी दिक़्क़त-ए-नज़र और उनका तग़ज़्ज़ुल-मेयारी-ओ-याद-गारी अज्ज़ा-ए-शाइ’री हैं।
* डॉक्टर सरवर अकबराबादी
तिरे अफ़्कार से अंदाज़ा-ए-इल्हाम होता है
मोहब्बत का तख़ातुब इ’श्क़ का पैग़ाम होता है
तिरे मय-ख़ाना-ए-इरफ़ाँ का इक-इक रिंद ऐ मयकश
सुरूर-ओ-कैफ़-ओ-मस्ती का छलकता जाम होता है
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Dr. Shamim Munemi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
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