हज़रत शैख़ अ’लाउ’द्दीन क़ुरैशी-ग्वालियर में नवीं सदी हिज्री के शैख़-ए-तरीक़त और सिल्सिला-ए-चिश्तिया के बानी
हिन्दुस्तान की तारीख़ भी कितनी अ’ज़ीब तारीख़ है। यहाँ कैसी कैसी अ’दीमुन्नज़ीर शख़्सियतें पैदा हुईं। इ’ल्म-ओ-इर्फ़ान के कैसे कैसे सोते फूटे। मशाएख़िन-ए-तरीक़त ने यहाँ अल्लाह के नबियों के बरकात को भी महसूस किया। बा’ज़ ने नामों की निशान-देही भी की और एक उसूल के तौर पर ये बात भी कह दी कि सरकार-ए-दो-आ’लम, सय्यिदुर्रुसल हज़रत मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम की आमद-ए-शरीफ़ा से क़ब्ल यहाँ जो अ’दीमुन्नज़ीर शख़्सियतें गुज़री हैं और यहाँ के बसने वाले उनका नाम अदब-ओ-इहतिराम से लेते हैं, उनके मुतअ’ल्लिक़ कभी कोई गिरा हुआ फ़िक़्रा न इस्ति’माल करना चाहिए। हो सकता है कि वो अपने दौर के नबी और रसूल हों।
हिंदुस्तान से अ’रब का तअ’ल्लुक़ एक क़दीम तअ’ल्लुक़ है। मशाएख़ीन-ए-तरीक़त ने अपनी बे-दाग़ ज़िंदगी यहाँ अ’वाम के सामने रखी। यहाँ की बोलियों में उनसे कलाम किया। उन मशाएख़ीन-ए-तरीक़त में सुल्तानुल-हिंद हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ रहि· को बे-इंतिहा शोहरत और मक़बूलियत हासिल है। और उनका सिल्सिला तमाम सलासिल में ज़्यादा मक़्बूल सिल्सिला है। वो चिश्तिया सिल्सिले के बानी हैं। हिंदुस्तान का कोई ख़ित्ता ऐसा नहीं जहाँ इस सिल्सिले के क़दम न पहुँचे हों। ग्वालियर ने भी उनके नुक़ूश-ए-पाक की ज़ियारत की है। अब की तहक़ीक़ का नतीजा है कि सिल्सिला-ए-चिश्तिया का ग्वालियर में सबसे पहले तआ’र्रुफ़ कराने वाले हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी हैं जो ग्वालियरी अपने जा-ए-पैदाइश की वजह से कहलाते हैं। उनका विसाल सन 1533 ई’स्वी में हुआ और काल्पी उनकी दाएमी आराम-गाह बनी।
हिन्दुस्तान की तारीख़ में ग्वालियर को जो अहमियत हासिल है वो अर्बाब-ए-नज़र से पोशीदा नहीं। ये बात भी ज़ाहिर होती है कि मुसलमान इतनी बड़ी ता’दाद में यहाँ बस गए थे कि रज़िया सुल्ताना (1236-1239) को यहाँ महकमा-ए-क़ुज़ा क़ाएम करना पड़ा और मिन्हाज सिराज मुसन्निफ़-ए-तबक़ात-ए-नासिरी को ग्वालियर का पहला क़ाज़ी मुक़र्र किया और शरीअ’त-ए-इस्लामी के मुताबिक़ उनके मुक़द्दमात के फ़ैसले होने लगे।यक़ीनन उस दौर में मसाजिद और मदारिस का क़याम भी अ’मल में आया होगा। नासिरुद्दीन महमूद शाह (1965-1966 ई’स्वी) के अ’ह्द में उलुग़ ख़ान ने ग्वालियर पर फ़ौज-कशी की। उसके बा’द तारीख़ बतलाती है कि जलालुद्दीन फ़ीरोज़ शाह ख़िल्जी (1990-1995) ने ग्वालियर का मुहासरा किया और एक इ’मारत मक़्बरा के नाम से ता’मीर कराई।मक़्बरा के मा’नी, गोर , मज़ार, रौज़ा और दरगाह के हैं। अगर मज़ार ता’मीर किया गया तो किसका? रौज़ा बना तो किस बुज़ुर्ग का? दरगाह क़ाएम हुई तो किस मशाएख़-ए-तरीक़त की? मेरे सामने तारीख़ का कोई बड़ा ज़ख़ीरा नहीं जो इस मुअ’म्मा को हल कर सकूँ लेकिन इ’मारत का नाम बतलाता है कि यक़ीनन ये किसी मशाएख़-ए-तरीक़त का मज़ार होगा जिनके फ़ुयूज़-ए-रूहानी से फ़ीरोज़ शाह ख़िल्जी को इस्तिफ़ादा की सआ’दत हासिल हुई होगी। वो कौन बुज़ुर्ग थे, क्या इस्म-ए-शरीफ़ था और किस सिल्सिला से तअ’ल्लुक़ रखते थे? अगर ये राज़ खुल जाता तो ग्वालियर की रूहानी तारीख़ में एक शानदार इज़ाफ़ा होता। इसके बा’द ग्वालियर का जो नाम आता है वो उसके शानदार मुस्तहकम क़िला’ की वजह से आता है जिस से क़ैद-ख़ाना का काम लिया जाता था। मुसलमान सलातीन में सबसे पहले अ’लाउद्दीन ख़िल्जी के अ’ह्द में उस क़िले’ से क़ैद-ख़ाने का काम लिया गया। और जहाँगीर के अ’ह्द में हज़रत इमाम-ए-रब्बानी मुजद्दिद-ए-अल्फ़-ए-सानी शैख़ अहमद फ़ारूक़ी सरहिंदी रहि· ने भी क़ौद-ओ-बंद की सुऊ’बतें इसी क़िला’ में बर्दाश्त कीं। ग्वालियर एक बाज-गुज़ार रियासत की हैसियत से क़ाएम रहा। दरमियान में एक दौर ज़रूर ऐसा आया जबकि यहाँ के फ़रमाँ-रवा राजा थे लेकिन रियासत का हल्क़ा कोई वसीअ’ न था। ये बात मेरे मौज़ूअ’ से ख़ारिज है। देखना ये है कि तहक़ीक़ के ऐ’तबार से पहला मशाएख़-ए-तरीक़त कौन है जिसने ग्वालियर को फुयूज़-ए-रूहानी का मर्कज़ बना दिया और रूहाना दुनिया को नई ज़िंदगी बख़्शी। तारीख़-ओ-तज़्किरा की रौशनी में मेरे सामने जो पहला नाम आता है, वो सिल्सिला-ए-चिश्त के एक बुज़ुर्ग शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी का नाम-ए-नामी है। उस ज़माने में मुल्क की हुकूमत सय्यद ख़ानदान के हाथ में थी मगर ग्वालियर का फ़रमाँ-रवा राजा था।
हज़रत अ’लाउद्दीन रहि· हज़रत बंदा नवाज़ गेसू दराज़ रहि· से बैअ’त थे। हज़रत गेसू दराज़ की शख़्सियत मोहताज-ए-तआ’रुफ़ नहीं। वो हज़रत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के ख़लीफ़ा थे।हज़रत चिराग़ देहलवी रहि· को हज़रत निज़ामुद्दीन महबूब-ए-ईलाही रहि· बदायूनी से ख़िलाफ़त हासिल हुई। महबूब-ए-इलाही हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर रहि· से बैअ’त थे। वो हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी रहि· के महबूब-तरीन ख़लीफ़ा थे और हज़रत बख़्तिया-ए-काकी रहि· को सुल्तानुल-हिंद ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ हज़रत मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी क़ुद्दिसल्लाहु सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ से ख़िलाफ़त हासिल थी। ये सिल्सिला रौशन और ताबिंदा सिल्सिला है। इससे ये बात ज़ाहिर है कि सिल्सिला-ए-चिश्त को ग्वालियर में तआ’रुफ़ कराने वाले आप ही हैं। फिर आपकी फ़ैज़-रिसानी का सिल्सिला ग्वालियर से बढ़ते बढ़ते काल्पी तक पहुँचता है और काल्पी ही आपकी सन 853 हिज्री मुवाफ़िक़1533 ई’स्वी से दाएमी आराम-गाह बनती है।मगर ग्वालियर की निस्बत बाक़ी रहती है और शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी ग्वालियरी के नाम से याद किए जाते हैं।
आपके मुतआ’ल्लिक़ हज़रत शाह अ’ब्दुल हक़ साहिब मुहद्दिस देहलवी रहि· अपनी मशहूर तस्नीफ़ अख़बारुल-अख़्यार में जो कुछ तहरीर फ़रमाते है वो सफ़हा 158 मतबा’ मुहम्मदी देहली पर मुलाहिज़ा फ़रमाया जा सकता है। नीज़ साहिब-ए-तारीख़-ए-औलिया लिखते हैं किः
“शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी कुद्दिसल्लाहु सिर्रहु मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा ख़्वाजा सय्यद मुहम्मद बंदा नवाज़ गेसू दराज़ के हैं और शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी ग्वालियरी के नाम से मशहूर हैं। जामे-ए-’ उ’लूम-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन थे। तजरीद-ओ-तफ़्रीद में तमाम उ’म्र गोशा-नशीनी में गुज़ारी और सिवाए अल्लाह किसी से कोई काम नहीं रखा और ख़ादिमीन को हमेशा यही ताकीद फ़रमाते रहे कि ख़ाशाक-ओ-ग़िलाज़त दरवाज़ा पर जम्अ’ किया करो ताकि कोई आने न पाए और मुख़िल्ल-ए-औक़ात न हो। वफ़ात आपकी सन 853 हिज्री मुवाफ़िक 1533 ई’स्वी में हुई और मज़ार आपका काल्पी में है।”
हर दो कुतुब ‘ग़मगीन रहि· अकादमी’ में मौजूद हैं। जिल्द 564 और 592। लेकिन ये कैसी अ’जीब बात है कि ग्वालियर के अर्बाब-ए-फ़ज़्ल-ओ-कमाल इस अ’दीमुन्नज़ीर शख़्सियत से ना-वाक़िफ़ और बाहर की दुनिया उनके फ़ुयूज़-ए-रूहानी की मो’तरिफ़ और सिर्फ़ मो’तरिफ़ ही नहीं बल्कि आज तक उनसे रूहानी फ़ैज़ हासिल कर रही है। अभी कल की बात है कि इत्तिफ़ाक़न जनाब चाँद खाँ अ’क़ीदत केश, हज़रत सत्तार शाह बाबा रहि· सय्यद मुहम्मद शाह रिंद की मई’य्यत में फ़क़ीर मंज़िल तशरीफ़ लाए। हज़रत अ’लाउद्दीन क़ुरैशी ग्वालियरी का ज़िक्र आया तो रिंद साहिब ने फ़रमाया कि काल्पी में हज़रत को बहुत ज़्यादा अहमियत हासिल है। आपकी ख़ानक़ाह के मुल्हक़ इस्लामी मदरसा एक अ’र्सा से क़ाएम है और सालाना उ’र्स भी शानदार तरीक़ा से होता है।आने वाले फ़ैज़-ए-रूहानी करते हैं। वो ग्वालियरी के नाम से मशहूर हैं।ये बात अह्ल-ए-ग्वालियर के लिए मसर्रत-ख़ेज़ है कि ग्वालियर का एक फ़र्ज़न्द किस तरह साढ़े पाँच सौ साल से क़ुलूब-ए-इंसानी पर हुकूमत कर रहा है मगर अफ़्सोस इस बात पर है कि अह्ल-ए-ग्वालियर इस से ना-वाक़िफ़ हैं।
शाएद कोई कहने वाला ये कहे कि ग्वालियर हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी रहि· का मर्ज़बूम है मगर दाएमी आराम गाह नहीं। अगर उनकी आराम-गाह यहाँ होती तो जिस तरह हज़रत ख़्वाजा ख़ानून नागौरी रहि· ग़ौसुल-औलिया शाह मुहम्मद ग़ौस ज़ुहूराबदी, शाह अ’ब्दुल ग़फ़ूर, बाबा कपूर रहि· काल्पवी, हज़रत जी ख़ुदा-नुमा ग़म्ग़ीन देहलवी रहि·, हज़रत ख़्वाजा उमराव साहिब अकबराबादी, शैख़ मसीहुद्दीन अल-मा’रूफ़ छँगा शाह बाबा रहि· इलाहाबादी को ग्वालियर ने अपना सरताज तस्लीम कर लिया। बस इसी तरह हज़रत अ’लाउद्दीन क़ुरैशी को भी ग्वालियर के तमाम मशाएख़िन-ए-तरीक़त का पेशावा तस्लीम कर लेते ये नज़रिया अहलुल्लाह के साथ सहीह नहीं। मर्ज़बूम को हमेशा अहमियत हासिल रहती है और दुनिया हर अह्ल-ए-कमाल के लिए कहती रहती है कि वो फ़ुलाँ जगह की ख़ाक से निकले। ख़ुद रहमत-ए-काएनात, सय्यिदुर्रुसुल फ़ख़्र-ए-मौजूदात सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम भी मक्की-ओ-मदनी कहलाते हैं। मक्की मर्ज़बूम की हक़ीक़त ज़ाहिर कर रही है।
इन हक़ाएक़ की रौशनी में हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन क़ुरैशी रहि· वो पहले बुज़ुर्ग हैं कि जिन्होंने ग्वालियर में सिल्सिला-ए-चिश्तिया की मश्अ’ल रौशन की और रूहानियत की शाह-राह खोली। ग्वालियर के तमाम मशाएख़-ए-तरीक़त उनकी खोली हुई शाह-राह पर चलने वाले हैं।अल्लाह तआ’ला हम सबको उनकी शाह-राह पर चलने की तौफ़ीक़ अ’ता फ़रमाए।
–हज़रत मौलाना सरदार रज़ा मुहम्मद साहिब हज़रत जी, ग्वालियर)
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