बर्र-ए-सग़ीर में अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के रिवाज पर चंद शवाहिद-(आठवीं सदी हिज्री तक)-डॉक्टर आ’रिफ़ नौशाही

शैख़ुश्शुयूख़ शहाबुद्दीन उ’मरी बिन मोहम्मद सुहरवर्दी (वफ़ात 32हिज्री) के बा’द शैख़ुश्शुयूख़ की इ’रफ़ान पर मा’रूफ़-ए-ज़माना अ’रबी किताब अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ बर्र-ए-सग़ीर पाकिस्तान-ओ-हिंद में कैसे पहुंची, यहाँ क्यूँकर रिवाज पाया, किन अकाबिर मशाइख़-ए-हिंद और सूफ़िया की ख़ानक़ाहों में पढ़ी और पढ़ाई जाती रही, ये कई पहलूओं से एक दिल-चस्प मुतालिआ’ है।हमने कोशिश की है कि अ’वारिफ़ की तस्नीफ़ के बा’द तक़रीबन दो सदियों तक बर्र-ए-सग़ीर में इसके रिवाज के बारे में चंद शवाहिद पेश करें।अगर्चे अ’वारिफ़ आठवीं सदी हिज्री के बा’द भी यहाँ मक़्बूल रही है और उसपर हाशिए, शरहें और तर्जुमे लिखे गए मगर ये सब मा’लूमात फ़राहम करना हमारे मज़्मून की मुतअ’य्यन ज़मानी हुदूद से बाहर है।

शैख़ुश्शुयूख़ के अफ़्कार की बर्र-ए-सग़ीर तक रसाई में उनके खलीफ़ा की मसाई’ को दख़्ल हासिल है, जिनके बारे में शैख़ुश्शुयूख़ से मंसूब ये क़ौल क़ाबिल-ए-तवज्जोह है। ‘ख़ुलफ़ाई फ़िल-हिन्दि कसीरतुन’ या’नी हिंद में मेरे ख़ुलफ़ा कसरत से हैं।बर्र-ए-सग़ीर में शैख़ुश्शुयूख़ के बिला-वास्ता मुरीदों में शैख़ तुर्क ब्याबानी (देहली),शैख़ ज़ियाउद्दीन रूमी (देहली), क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी (देहली), शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी (बंगाल), बहाउद्दीन ज़करिया (मुल्तान), मौलाना मज्दुद्दीन मोहम्मद और सय्यद नूरुद्दीन मुबारक गज़नवी का नाम लिया जाता है। इस फ़िहरिस्त के मुताबिक़ शैख़ुश्शुयूख़ के मुरीदों की ज़्यादा ता’दाद देहली में जम्अ’ दिखाई देती है। लेकिन हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (वफ़ात1176 हिज्री) ने सिलसिला-ए-सुहरवर्दिया का रिवाज कश्मीर और सिंध में बताया है।ज़ाहिर है वक़्त गुज़रने के साथ-साथ सिलसिलों के असरात और नुफ़ुज़ की हुदूद बदलती रहती हैं।

बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी

क़दीम सिंध और मौजूदा पंजाब (पाकिस्तान) में सिलसिला-ए-सुहरवर्दिया के मुमताज़-तरीन शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तान (566-666 हिज्री) ने ख़ुरासान, बुख़ारा, मक्का-मुकर्रमा और मदीना-मुनव्वरा का सफ़र कर के सैंकड़ों मशाइख़ और उ’लमा से कस्ब-ए-फ़ैज़ किया था। इसी दौरान वो शैख़ुश्शुयूख़ की ख़िदमत में भी पहुँचे और सतरह रोज़ तक उनके पास रह कर ख़िर्क़ा और सज्जादा हासिल किया और वापस हिन्दुस्तान आए।तमाम मुतक़द्दिम तज़्किरा-निगारों ने उस मुलाक़ात का हाल बिल-इत्तिफ़ाक़ लिखा है।शैख़ बहाउद्दीन ने हिन्दुस्तान पहुँच कर एक दफ़्आ’ फिर शैख़ुश्शुयूख़ की ख़िदमत में हाज़िर होने का इरादा किया और इस ग़र्ज़ से सफ़र शुरूअ’ भी कर दिया, मगर उनके बिरादर-ए-तरीक़त शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी ने आगे जाने से मनअ’ कर दिया और उन्हें वापस भेज दिया और कहा कि शैख़ुश्शुयूख़ का यही हुक्म है कि वापस चले जाओ।इस रिवायत से हम ये नतीजा अख़्ज़ कर सकते हैं कि शैख़ुश्शुयूख़ और बहाउद्दीन के दरमियान सिर्फ़ एक ही बिल-मोशाफ़हा मुलाक़ात हुई है।ये मुलाक़ात तज़्किरा-नवीसों के ब-क़ौल बग़दाद में हुई।

हम यहाँ शैख़ुश्शुयूख़ का शैख़ बहाउद्दीन के नाम एक इजाज़त-नामे का मत्न पहली दफ़्आ’ शाए’ कर रहे हैं।शैख़ुश्शुयूख़ ने ये इजाज़त-नामा 21 ज़िल-हिज्जा 627 हिज्री में हरम शरीफ़ मक्का-मुकर्रमा में लिखा।शैख़ुश्शुयूख़ की आ’दत थी कि वो हर साल बग़दाद से हज की ग़र्ज़ से मक्का-मुकर्रमा जाते थे।उन्होंने आख़िरी हज 628 हिज्री में किया।बहाउद्दीन का मक्का-मुकर्रमा जाना और वहाँ मुक़ीम रह कर इ’ल्म हासिल करना और हज अदा करना तज़्किरों से साबित है। लेकिन न तो किसी तज़्किरे से और न ही इस इजाज़त-नामे से ये साबित होता है कि बहाउद्दीन 627 हिज्री में मक्का में थे। बल्कि इस इजाज़त-नामे के मज़्मून से ज़ाहिर है कि शैख़ुश्शुयूख़ को मक्का में शैख़ बहाउद्दीन की हिंदुस्तान में फैज़-रसानी की ख़बर मिली तो वो ख़ुश हुए।उन्हें (चंद साल पहले) बग़दाद में शैख़ बहाउद्दीन से मुलाक़ात भी याद थी जिसमें उन्होंने बहाउद्दीन को बहुत क़ाबिल पाया। शैख़ुश्शुयूख़ ने बहाउद्दीन की इन तमाम ख़ुसुसियात को मद्द-ए-नज़र रखते हुए अपनी तमाम मस्मूआ’त, मजाज़ात, मजमूआ’त और अ’वारिफ़ रिवायत करने की इजाज़त मर्हमत फ़रमाई।ये क़यास किया जाना चाहिए कि बर्र-ए-सग़ीर में अ’वारिफ़ के वुरूद और इशाअ’त की दलालत पर ये अव्वलीन दस्तावेज़ है।इजाज़त-नामे का अ’रबी मत्न और उर्दू तर्जुमा हस्ब-ए-ज़ैल है:

हाज़िहि सुरतु इजाज़तिश्शैख़ुल इमाम शहाबुल-मिल्लत व-द्दीनि-अस्सुहरवर्दी लिश्शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया क़ुद्दिसा सिर्रहुमा

बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम

“अल-हम्दुल्लिलाहि रब्बिल-आ’लमीन व-स्सलातु अ’ला रसूलिहि मोहम्मद व-आलिहित्ताइबीन-अत्ताहिरीन-लक़द इस्तबशरत बिमा-मनहल्लाहु लिश्शैख़िल-अजल्ल अल-आ’लिमु-अल-आ’रिफ़ बहाउल-हक़-वद्दीन ज़ैनुल-इस्लाम जमालुल-फ़क़्र ज़करिया बिन मोहम्मद ज़ादहुल्लाहु तआ’ला मिन फ़ज़लिहि व-बलग़नी मन-त-श-र  फ़ीन्नास फ़ी-नवाही-ए-वतनिही मिन बरकति-सोहबतिहि वल्लाहु तआ’ला मनहहुल-हज़-अल-कबीर वस्सोहबतहु-अल-यसीर लिमा का-न  इ’न्दाहु मिन हुस्निल-इसतिअ’दादि फ़-नफ़अ’हुल्लाहु तआ’ला बिस्सोहबति व-नफ़अ’हु बिहि-व-क़द सअल्तुल्ला-ह तआ’ला लहु मज़ीदल-इज्तिहा-द वलहज़्ज़ु बि-हाज़ल-इ’ल्मन्नाफ़ि-अ’ अल-मुई’-न अ’ला सुलूकि तरीक़तिल-इस्तिक़ामति-फ़-अज़न्तु लहु अयं यलबिसल-ख़िर्क़ा-त-व-यतूब-बि-मन अरा-द व-अजर-त लहु अयं यरवी अ’न्नी जमी-अ’ मसमुआ’ती व-मजाज़ाती व-रिवायति-मज्मूआ’ती व-मिन ज़ालि-क अल-किताबुल-मुतरजम बि-अ’वारिफ़िल-मआ’रिफ़ि व-नावल-तुहु लि-यरवी  या’नी अश्शैख़ बहाउद्दीन बा’ज़ल-किताब बा’-द अयं युतालिअ’हु व-नस-अलुल्लाहु हुस्नल-फ़ह-म वल-मौक़ूफ़ वल्लाहुल-मु वफ़फ़िक़ुल-मुई’न-लिस-सवाबि व-सल्लल्लाहु अ’ला ख़ैरि ख़ल-क़िही मोहम्मदिन व-आलिहि अज्मई’न

व-ज़ालिक-फ़ी यौमिल-हादी वल-इ’शरीन-मिन शहरिन ज़िलहिज्जति-सन-त सब्अ’ व-इ’शरीन-व-सित्ता- मिएति बि-मक्कति रसुलिल्लाहि  तआ’ला फ़िल-ह-र-मिश्शरीफ़ ज़ादल्लाहु तआ’ला शरफ़न व-ता’ज़ीन बि-इज़्नी कतब-व-कतबहु उ’मर बिन मोहम्मद बिन अ’ब्दुल्लाह अस्सुहरवर्दी”

उर्दू तर्जुमा:

शैख़ इमाम शहाबुल-मिल्लत वद्दीन सुहरवर्दी का शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया क़ुद्दिसा सिर्रहुमा के लिए इजाज़त-नामा।

ता’रीफ़ जहानों के परवरदिगार के लिए है और दुरूद उसके रसूल मोहमद सल्लल्ललाहु अलैहि वसल्लम और उनके पाक-ओ-ताहिर ख़ानदान पर, शैख़-ए-अजल्ल, आ’लिम-इ-आ’रिफ़, बहाउल-हक़ वद्दीन, इस्लाम की ज़ीनत और फ़िर्क़ों के जमाल ज़करिया बिन मोहम्मद। अल्लाह उस पर अपना मज़ीद फ़ज़्ल करे, से मुतअ’ल्लिक़ ये ख़ुश-ख़बरी मुझ तक पहुँची जो उसके वतन के लोगों में उसकी हम-नशीनी की बरकत की वज्ह से आ’म हुई है।अल्लाह तआ’ला ने उसे क़लील सोहबत ही में फ़ैज़-ए-कसीर अर्ज़ानी फ़रमाया है।इसलिए उस में हुस्न-ए-इस्ति’दाद मौजूद है।अल्लाह उसे (अह्ल-ए-सुलूक) की हमन-शीनी से फ़ैज़-याब करे और वो इस हमन-शीनी से बहरा-वर हो।

मैंने अल्लाह तआ’ला से उसके लिए मज़ीद कोशिश और सूद-मंद इ’ल्म की बरकत से जो राह-ए-रास्त पर चलने में मदद-गार होता है, मज़ीद बहरा-याब होने की दुआ’ की है और उसे इजाज़त दी है कि ख़िर्क़ा पहने और जिसे चाहे तौबा कराए।

मैंने उसे ये इजाज़त भी दी कि जो कुछ मैंने सुना है (मस्मूआ’त) और जिसकी मुझे इजाज़त है (मजाज़ात) वो मुझसे रिवायत कर सकता है।

मैंने उसे इजाज़त दी कि वो मेरे तमाम मज्मूओं’(तहरीरों) और मेरी किताब जिसका नाम अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ है, रिवायत करे।मैंने उसे ये किताब दी ताकि शैख़ बहाउद्दीन उसके मुतालिए’ के बा’द उसकी रिवायत करे।

मैं ख़ुदा से (उस के लिए) अच्छी समझ बूझ के लिए दस्त-ब-दुआ’ हूँ। वही सीधे रास्ते पर तौफ़ीक़ अ’ता करने वाला और मदद करने वाला है।ख़ुदा का दुरूद उसकी बेहतरीन तख़्लीक़ मोहम्मद सल्लल्ललाहु अ’लैहि वसल्लम और उनकी तमाम आल पर हो।

ये इजाज़त-नामा इक्कीस माह ज़िल-हिज्जा साल 672 को मक्का में ख़ुदा उसको अपनी हिफ़ाज़त में रखे हरम-शरीफ़ में,ख़ुदा इसकी इ’ज़्ज़त और शरफ़ बढ़ाए, जारी किया गया। उसके बा’द मेरी इजाज़त से लिखा गया और (मैं) उ’मर बिन मोहम्मद बिन अ’ब्दुल्लाह सुहरवर्दी ने लिखा।

शैख़ बहाउद्दीन के अहफ़ाद और मुरीदों ने भी अ’वारिफ़ की नश्र-ओ-इशाअ’त में हिस्सा लिया।मसलन बहाउद्दीन के एक बिला-वास्ता मुरीद दाऊद ख़तीब अच्चा (मौजूदा तलफ़्फ़ुज़) अच ने 639 हिज्री में अ’वारिफ़ को फ़ारसी में मुंतक़िल किया।ये अ’वारिफ़ के क़दीम-तरीन फ़ारसी तर्जुमों में से एक है।शैख़ बहाउद्दीन के बेटे शैख़ सदरुद्दीन मुल्तानी (वफ़ात 735 हिज्री) अ’वारिफ़ का दर्स देते थे।शैख़ बहाउद्दीन के पोते रुकनुद्दीन अबुल-फ़त्ह भी अ’वारिफ़ पढ़ाते थे।शैख़ वजीहुद्दीन सनामी (वफ़ात 738 हिज्री) ने उन्हीं की ख़िदमत में अवा’रिफ़ पढ़ी थी।

फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर

शैख़ गंज शकर 569-664 हिज्री) अ’वारिफ़ का दर्स देते थे। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने अ’वारिफ़ के पाँच अबवाब उन्हीं से पढ़े थे। गंज शकर का पढ़ाने का अंदाज़ बहुत दिल-नशीन था और कोई दूसरा उन जैसा अ’वारिफ़ नहीं पढ़ा सकता था। बारहा ऐसा हुआ कि सुनने वाला उनके ज़ौक़-ए-बयान में ऐसा मह्व हुआ कि ये तमन्ना करते पाया गया कि काश उसी लम्हे मौत आ जाए तो बेहतर है। एक दिन ये किताब शैख़ की ख़िदमत में लाई गई तो इत्तिफ़ाक़ से उसी दिन उनके हाँ लड़का पैदा हुआ। शैख़ुश्शुयूख़ के लक़ब की मुनासबत से उस का लक़ब “शहाबुद्दीन” रखा गया।

शैख़ गंज शकर के पास अ’वारिफ़ का एक मुआ’सिर नुस्ख़ा था जो उन्होंने जमालुद्दीन हांस्वी को अ’ता-ए-ख़िलाफ़त के साथ मर्हमत फ़रमाया था।हांस्वी उसे शैख़ की बहुत बड़ी ने’मत समझते थे। बा’द में उन्होंने (हांस्वी ने) ये नुस्ख़ा सुल्तानुल-मशाइख़ निज़ामुद्दीन औलिया को ईसार कर दिया और साथ ये कहा कि मुझे उम्मीद है की मेरे अख़लाफ़ में से कोई आपके दामन-ए-इरादत से वाबस्ता होगा। ये तमाम दीनी और दुनयवी ने’मतें जो आपको हासिल हैं उसे देने से दरेग़ नहीं करेंगे।चुनाँचे शैख़ हांस्वी के पोते क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर जब सुल्तानुल-मशाइख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो दीगर ने’मतों के साथ अ’वारिफ़ का नुस्ख़ा भी उन्हें अ’ता कर दिया।मर ख़ुर्द किर्मानी (वफ़ात 711/2-1311 हिज्री) की ज़िंदगी में ये नुस्ख़ा क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर के बेटे नूरुद्दीन की तहवील में था और उसे पूरे एहतिराम के साथ सँभाल कर रखे हुए थे।

रुकनुद्दीन बिन इमादुद्दीन दबीर काशानी

काशानी (ज़िंदा 738 हिज्री) तसव्वुफ़ पर जब अपनी मा’रूफ़ किताब शमाइलुल-अत्क़िया लिख रहे थे तो उन्होंने तफ़्सीर, हदीस ,फ़िक़्ह ,तसव्वुफ़ और मल्फ़ूज़ात की जिन मुतअ’द्दिद किताबों से इस्तिफ़ादा किया। उनमें अ’वारिफ़ और उसका तर्जुमा भी शामिल था।

मख़दूम जहानियाँ जहाँ-गश्त

जलालुद्दीन बुख़ारी मुलक़्क़ब ब-मख़दूम जहानियाँ (707-785 हिज्री) उच के रहने वाले थे।उन्होंने उच के दो असातिज़ा शैख़ जमाल मुहद्दिस ख़नदान और शैख़ बहाउद्दीन क़ाज़ी उच से ता’लीम हासिल की थी।शैख़ जमाल ख़नदान-रू अच के बड़े उ’लमा और मशाइख़ में से थे और उनके दर्स में अ’वारिफ़ का दौरा रहता था।मख़दूम जहानियाँ जब सियाहत के दौरान इ’राक़ पहुँचे तो वहाँ शैख़ुश्शुयूख़ के एक उ’म्र-रसीदा ख़लीफ़ा से मुकम्मल अ’वारिफ़ पढ़ी और अ’वारिफ़ का नुस्ख़ा मुसन्निफ़ अपने साथ हिन्दुस्तान लाए।मख़दूम के मल्फ़ूज़ात ख़ुलासतुल-अल्फ़ाज़ जामिउ’ल-उ’लूम मुरत्तबा सय्यद अ’लाउद्दीन अ’ली बिन सा’द बिन अशरफ़ बिन अ’ली अल-कुरैशी इल-हुसैनी अद्देहलवी (तारीख़-ए-तर्तीब 782 हिज्री) में मख़दूम साहिब की ज़बान से मुतअ’द्दिद ऐसे मल्फ़ूज़ात नक़्ल हुए हैं जिनसे ख़ुद मख़दूम के अ’वारिफ़ से गहरे तअ’ल्लुक़ का पता तो चलता ही है, ये भी मा’लूम होता है कि उनके ख़ानदान और इ’लाक़े (उच) में भी उस किताब का किस क़द्र रिवाज था।बल्कि मोहम्मद अय्यूब क़ादरी की राय में मख़दूम ने ख़ुलासतुल-अल्फ़ाज़ में अ’वारिफ़ की जा-बजा तशरीहात की हैं।अगर उन सब मक़ामात को यकजा कर लिया जाए तो ख़ुद ब-ख़ुद अ’वारिफ़ की एक मुख़्तसर शरह तैयार हो सकती है।हम ख़ुलासतुल-अल्फ़ाज़ से बा’ज़ ऐसे वाक़िआ’त पेश कर रहे हैं जो हमारे मक़ाले के मौज़ू की ताईद करते हैं।

मख़दूम जहानियाँ कहते हैं कि मैं मदीना से चला तो शैख़-ए-मदीना अ’ब्दुल्लाह मतरी और शैख़-ए-मक्का अ’ब्दुल्लाह याफ़ई’ और दीगर मशाइख़ ने मुझसे कहा कि सर-ज़मीन-ए-इ’राक़ के शहर शोकारा में शैख़ुश्शुयूख़ के एक ख़लीफ़ा रहते हैं  बहुत बूढ़े, शरफ़ुद्दीन महमूद शाह तस्तरी। उनसे मिलो।। चुनाँचे वापसी-ए-सफ़र पर मैं सर-ज़मीन-ए-इ’राक़ पहुँचा तो शोकारा शहर में उस बुज़ुर्ग से मिला जो शैख़ुश्शुयूख़ के ख़लीफ़ा थे। जिस दिन मैंने उनसे मुलाक़ात की उनकी उ’म्र एक सौ बत्तीस साल थी। जामे’ मस्जिद में वो लाठी टेक कर पैदल चलते थे। मैंने मुकम्मल अ’वारिफ़ उनसे पढ़ी। उसी तरह (मेरे और अ’वारिफ़ के) मुसन्निफ़ शैख़ुश्शुयूख़ के दरमियान सिर्फ़ एक वास्ता है।

मख़दूम जहानियाँ कहते हैं कि मैंने अ’वारिफ़ शैख़-ए-मदीना अ’ब्दुल्लाह मतरी से उस नुस्खे़ से पढ़ी जो उन्होंने मुसन्निफ़ या’नी शैख़ुश्शुयूख़ से पढ़ा था।उसके बा’द शैख़-ए-मदीना अ’ब्दुल्लाह मतरी ने वफ़ात के वक़्त (वफ़ात 765हिज्री) वसिय्यत की कि अ’वारिफ़ का ये नुस्ख़ा शैख़-ए-मक्का अ’ब्दुल्लाह याफ़ई’ (वफ़ात 768 हिज्री) को पहुँचा दिया जाए और शैख़ याफ़ई’ ने कहा कि ये नुस्ख़ा सय्यद जलालुद्दीन को पहुँचाया जाए।पस शैख़-ए-मक्का अ’ब्दुल्लाह याफ़ई’ अ’वारिफ़ का वो नुस्ख़ा एक हाजी के ज़रिआ’ (हिन्दुस्तान) भेजा और उसने मुझे पहुँचाया।अब वो नुस्ख़ा मेरे बेटे महमूद के पास है जो वो किसी को नहीं देता।ये नुस्ख़ा बे-हद सहीह और मक़्बूल है।उस में न कमी है न ज़्यादती।मख़दूम जहानियाँ ने अपने मल्फ़ूज़ात में मुतअ’द्दिद बार शैख़ अ’ब्दुल्लाह मतरी के हाँ एक साल तक अ’वारिफ़ पढ़ने का ज़िक्र किया है। (देखिए सफ़हात 34-419)۔

मख़दूम जहानियां ख़ुद भी अच में अ’वारिफ़ का दर्स देते थे और उसकी तशरीह क़ुरआन-ओ-हदीस की रौशनी में की जाती थी।एक दफ़्आ’ कुछ शोरफ़ा-ए-इ’राक़ की ख़िदमत में उच आए तो मख़दूम ने उनकी ख़िदमत की और फ़रमाया तुमको दोनों ज़ौक़ हासिल हो गए। ज़ौक़-ए-मा’नवी तो ये कि तुमने अ’वारिफ़ का सबक़ सुना और ज़ौक़-ए-सुवरी ये कि तुमने शीरीनी खाई।

मख़दूम जहानियाँ के मल्फ़ूज़ात से मा’लूम होता है कि उच की औ’रतें भी अ’वारिफ़ का दर्स लिया करती थीं।एक दफ़आ’ मख़दूम ने अपने मुरीदों को उच में रहने वाली एक मुआ’सिर आ’लिमा औ’रत की हिकायत बयान की जिसने मख़दूम जहानियाँ की अहलिया से अ’वारिफ़ पढ़ी थी।

निज़ामुद्दीन औलिया बदायूनी

हम पहले ज़िक्र कर आए हैं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया 634-725 हिज्री ने अ’वारिफ़ के पहले पाँच अबवाब का सबक़ हज़रत गंज शकर से लिया था।ज़ियाउद्दीन बर्नी ने तारीख़-ए-फ़ीरोज़ शाही में उन किताबों का ज़िक्र किया है, जिन्हें पढ़ने की तल्क़ीन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने हाँ आने वाले अशराफ़, अकाबिर और तालिब-इ’ल्मों को किया करते थे।उनमें अ’वारिफ़ भी शामिल थी।बर्नी का कहना है कि जो तलबा और अशराफ़-ओ-अकाबिर शैख़ की ख़िदमत में आते थे, उनमें कुतुब-ए-सुलूक और अहकाम-ए-तरीक़त पर रसाइल पढ़ने की बेशतर रग़्बत पाई जाती थी।क़ुव्वतुल-क़ुलूब, इह्याउल-उ’लूम, तर्जुमा-इ-इह्याउल’-उलूम, अ’वारिफ़, कश्फ़ुल-महजूब, शरह-ए- तआ’रुफ़, रिसालतुल-कुशैरी, मिर्सादुल-इ’बाद, मक्तूबात-ए-ऐ’नुल-क़ुज़ात, लवाएह-ओ-लवामिअ’,क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी और फ़वाइदुल-फ़ुवाद ,अमीर हसन (शैख़ के मल्फ़ूज़ात) की वज्ह से के बहुत से ख़रीदार पैदा हो गए थे और लोग कुतुब-फ़रोशों से ज़्यादा-तर सुलूक और हक़ाइक़ की किताबों का पूछते थे।

अ’वारिफ़ के दो मुआ’सिर नुस्ख़े बर्र-ए-सग़ीर में

हम ऊपर ज़िक्र कर आए हैं कि शैख़-ए-मदीना अ’ब्दुल्लाह मतरी की वसिय्ययत के मुताबिक़ अ’वारिफ़ का नुस्ख़ा मुसन्निफ़ मख़दूम जहानियाँ के लिए हिन्दुस्तान भेजा गया।एक अहम नुस्ख़ा शैख़ हामिद बिन फ़ज़्लुल्लाह जमाली देहलवी सुहरवर्दी (वफ़ात 942 हिज्री) बिलाद-ए-अ’रब से हिन्दुस्तान लाए थे।जब जमाली 897 से 901 हिज्री तक बिलाद-ए-इस्लामिया और हिजाज़ के सफ़र पर थे तो बग़दाद में शैख़ुश्शुयूख़ के एक ख़लीफ़ा शहाबुद्दीन अहमद ने अ’वारिफ़ का एक ऐसा नुस्ख़ा जमाली को अ’ता किया जो शैख़ुश्शुयूख़ की नज़र से गुज़र चुका था।ये नुस्ख़ा जमाली के ज़ाती कुतुब-ख़ाने की ज़ीनत बना।जमाली जब उस सफ़र से वापसी पर मुल्तान पहुंचा तो बहाउद्दीन ज़करिया के मज़ार पर गया।वहाँ उसकी मुलाक़ात मौलाना कमालुद्दीन अची से हुई जिन्हें अ’वारिफ़ का बेशतर हिस्सा ज़बानी याद था।

अ’वारिफ़ की शुरूह

सय्यद सदरुद्दीन अबुल-फ़तह मोहम्मद देहलवी अल-मा’रूफ़ गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ (720-825 हिज्री) ने अ’वारिफ़ पर हाशिया लिखा।अ’ली बिन अहमद अल-मा’रूफ़ मख़दूम अ’ली महायमी। (776-835 हिज्री) ने अ’वारिफ़ की शरह अल-ज़वारिफ़ के नाम से तहरीर की।

Twitter Feeds

Facebook Feeds