हज़रत गेसू दराज़ हयात और ता’लीमात-प्रोफ़ेसर निसार अहमद फ़ारूक़ी
हज़रत ख़्वाजा सय्यिद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ (रहि·) सिलसिला-ए-आ’लिया चिश्तिया निज़ामिया की ऐसी बुलंद-पाया शख़्सियत हैं जिन्हों ने इस सिलसिले का रुहानी फैज़ान जुनूबी हिंद के आख़िरी सिरे तक पहुंचा दिया। आज सर-ज़मीन-ए-दकन की सैकड़ों चिश्ती ख़ानक़ाहें हज़रत गेसू दराज़ (रहि·) की कोशिशों का समरा हैं।आपके बारहवें दादा सय्यिद अ’ली हुसैनी हिरात से दिल्ली तशरीफ़ लाए थे और यहाँ “अनार वाली मस्जिद’’ में मदफ़ून हुए थे। ये मस्जिद अब मौजूद नहीं है।वो 4 रजब 721 हिज्री 30 जुलाई 1321 ई’स्वी को पैदा हुए और एक सौ चार साल चार माह पंद्रह दिन इस आ’लम-ए-ना-पाएदार को अपने इ’ल्मी और रुहानी फ़ुयूज़-ओ-बरकात से माला-माल फ़रमा कर दोशंबा 16 ज़ी-का’अदा 825 हिज्री 31 अक्तूबर 1422 ई’स्वी की सुब्ह को अपने रफ़ीक़-ए-आ’ला से वासिल हुए। पहली बार आपने 1326 ई’स्वी 727 हिज्री में अपने वालिदैन के साथ उस वक़्त दौलताबाद का सफ़र किया जब मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने दारुल-ख़िलाफ़ा दिल्ली से दौलताबाद को मुंतक़िल किया था।आपके वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार ने 5 शव्वाल 731 हिज्री 12 जुलाई 1321 ई’स्वी को दौलताबाद ही में इंतिक़ाल फ़रमाया।हज़रत गेसू दराज़ की इब्तिदाई ता’लीम कुछ उनकी निगरानी में हुई और कुछ अपने नाना साहिब से पढ़ा। दोनों बुज़ुर्ग हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया (रहि·) के मुरीद थे।उनकी ज़बानी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया(रहि·) और हज़रत चिराग़ दिल्ली के औसाफ़ और कमालात सुन-सुन कर बचपन ही से औलियाउल्लाह की मोहब्बत दिल में बस गई थी।
हज़रत गेसू दराज़ सय्यिद सहीहुन्नसब हैं। एक-बार आपने ख़ुद फ़रमाया कि जिन्हों ने फ़र्ज़न्दान-ए-रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-आलिह-वसल्लम की रिआ’यत और अदब, इस ए’तबार से न किया कि वो सादात हैं तो उन्हें क़ियामत के दिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहि अ’लैहि वसल्लम के सामने शर्मिंदा होना पड़ेगा। मसलन मुझे देखो, अब तक किसी ने मेरी सियादत पर नज़र नहीं की।और इस लिहाज़ से मेरी रिआ’यत नहीं की कोई ये समझता है कि मैं आ’लिम हूँ। कोई समझता है कि ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ देहली का मुरीद हूँ और दूसरे फ़ज़ाइल रखता हूँ। पीर हूँ मगर सियादत का एहतिराम कोई नहीं करता। अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है:- ‘क़ुल ला-अस्अलुकुम अ’लैहि अजरन इल्लल-मवद्द-त फ़िल-क़ुर्बा’।और रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम फ़रमाते हैं: ‘अकरिमू-औलादी अस्सालिहू-न लिल्लाहि’ और दूसरी हदीस शरीफ़ है ‘मन-अक-र-म औलादी फ़-क़द अक-र-मनी व-मन अक-र-मनी फ़-क़द अक-रमल्लाह’।
इसी तरह आप फ़रमाते थे कि पीरों की औलाद का इकराम करने से बहुत फ़ैज़ होता है।आपने दिल्ली से दोबारा पाक पट्टन का सफ़र किया। दोनों बार शैख़ अ’लाउद्दीन अलंद हम-राह थे।पहला सफ़र घोड़े पर हुआ था। इस बार आपने हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर के मज़ार-ए-पुर-अनवर पर हाज़िरी दी और एक रात पूरी रौज़ा के अंदर बंद रह कर गुज़ारी। मगर बाबा साहिब की जो औलाद वहाँ थी उनका एहतिराम-ओ-इकराम जितना चाहिए था न किया।फ़रमाते थे कि हज़रत बाबा साहिब ने भी मुझ पर जितना लुत्फ़-ओ-करम करना चाहिए था न फ़रमाया।दूसरा सफ़र दिल्ली से पैदल हुआ।और इस बार आपने बाबा साहिब की औलाद का बहुत इकराम-ओ-एहतिराम किया तो बाबा साहिब की रूहानियत ने भी लुत्फ़-ओ-शफ़क़त में कमी न फ़रमाई।हज़रत गेसू दराज़ ने फ़रमाया कि-
“आँ चे अज़ पायान-ए-ऊ हासिल कर्दम हनूज़ बर आनम “(जो कुछ ने’मत उस वक़्त मुझे हासिल हुई वो अब तक मौजूद है)
736 हिज्री 1335 ई’स्वी में आप अपनी वालिदा माजिदा और बड़े भाई सय्यिद हुसैन उ’र्फ़ चंदन के हमराह फिर दिल्ली तशरीफ़ लाए। आपकी एक बहन भी थीं जो ग़ालिबन बयाना में ब्याही गई थीं।
एक बहन जो आपसे बड़ी थीं हज़रत की विलादत से क़ब्ल ही इंतिक़ाल कर गई थीं।
दिल्ली में उस वक़्त हज़रत चिराग़ दिल्ली (रहि·) ने सारी फ़ज़ा को चिश्ती अनवार से जगमगा रखा था। पहली बार आपने मस्जिद क़ुव्वतुल-इस्लाम में (जिसका एक मीनार क़ुतुबमीनार कहलाता है) जुमआ’ की नमाज़ में हज़रत चिराग़ दिल्ली (रहि·) को देखा तो दिल-ओ-जान से फ़रेफ़्ता हो गए।16 रजब 736 हिज्री यकुम मार्च 1336 ई’स्वी को उनके दस्त-ए-मुबारक पर बैअ’त की और फिर ऐसे सख़्त मुजाहदे किए कि हज़रत चिराग़ देहली ने भी फ़रमाया- इस नौजवान ने मुझे भी आ’लम-ए-जवानी की भूली हुई रियाज़तें याद दिला दीं।
इ’बादत-ओ-मुजाहदात के साथ उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की तहसील का सिलसिला भी जारी रहा।सय्यिद शरफ़ुद्दीन कैथली,क़ाज़ी अ’ब्दुल-मुक़्तदिर और मौलाना ताजुद्दीन बहादुर से आप फ़िक़्ह, तफ़्सीर, हदीस वग़ैरा पढ़ते रहे।एक दिन अपने पीर-ओ-मुर्शिद से अ’र्ज़ किया कि थोड़ा सा इ’ल्म तो मैंने हासिल कर लिया है अगर इजाज़त हो तो इसी पर बस करूँ और शुग़्ल-ए-बातिन में लग जाऊँ।हज़रत चिराग़ दिल्ली (रहि·) ने आपके इ’ल्मी कमालात का भी पूरा अंदाज़ा कर लिया था।फ़रमाया कि हिदाया, बैज़ावी, रिसाला-ए-शम्सिया, कश्शाफ़, मिफ़्ताह, सहाएफ़ वग़ैरा किताबों को सबक़न-सबक़न पढ़ लो।मुझे तुमसे बहुत से काम लेने हैं।
अब तक चिश्ती बुज़ुर्गों ने तस्नीफ़-ओ-ता’लीफ़ की तरफ़ तवज्जोह नहीं की थी।ये सिलसिला हज़रत गेसू दराज़ ही से शुरूअ’ हुआ और यही वो काम था जिसकी तरफ़ उनके शैख़ ने इशारा फ़रमाया था।
आप आ’लम-ए-जवानी ही में अपने ज़ुह्द-ओ-इत्तिक़ा, इ’बादत-ओ-रियाज़त और कमालात-ए-इ’ल्मी-ओ-रुहानी में मशहूर हो चुके थे।हज़रत चिराग़ देहली ने अपने विसाल से तीन दिन क़ब्ल 15 रमज़ानुल-मुबारक 757 हिज्री 11 सितंबर 1356 ई’स्वी को अपनी ख़िलाफ़त से भी सरफ़राज़ फ़रमाया।
हज़रत गेसू दराज़ का मिज़ाज गर्म था। गर्मी के मौसम में शिकंजी (नींबू का शर्बत)पिया करते थे।पसीना भी बहुत आता था इसलिए लिबास-ए-अ’र्क़-चीन का इस्ति’माल फ़रमाते थे।तक़रीबन 771 हिज्री 1369 ई’स्वी में आपने पचास साल की उ’म्र में अतिब्बा के मशवरे से मौलाना जमालुद्दीन मग़रिबी की पोती से निकाह भी फ़रमाया।जिनके बत्न से दो साहिब-ज़ादे सय्यिद मोहम्मद अकबर हुसैनी उ’र्फ़ मियाँ बड़े (वफ़ात-81)हिज्री मुअल्लिफ़-ए-जवामिउ’ल-कलिम हज़रत सय्यिद मोहम्मद असग़र हुसैनी उ’र्फ़ मियाँ लहरा और तीन साहिब-ज़ादियाँ तव्वुलुद हुईं।
जब दिल्ली पर तैमूरलंग की फ़ौज के यलग़ार करने की ख़बरें गर्म हुईं तो आपने 7 रबीउ’स्सानी 801 हिज्री 17 दिसंबर 1398 ई’स्वी को अपने अहल-ओ-अ’याल समेत इस शहर को ख़ैर-बाद कहा।उस वक़्त सियर-ए-मोहम्मदी के मुअल्लिफ़ मोहम्मद अ’ली सामानी भी हम-सफ़र थे।और उन्होंने इस सफ़र की पूरी रूदाद सियर-ए-मोहम्मदी में लिखी है।आप दिल्ली के भेलसा दरवाज़े से निकले और बहादुरपुर (मेवात)पहुँचे।वहाँ से ग्वालियर, चंदेरी होते-होते बड़ौदा पहुंचे।वहाँ से खम्बायत तशरीफ़ ले गए।एक-बार फिर खम्बायत से बड़ौदा तशरीफ़ लाए। इस सफ़र में भी तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ का शुग़्ल जारी रहा और हज़ारों बंदगान-ए-ख़ुदा हल्क़ा-ए-इरादत में शामिल हुए।
बड़ौदा से आप अपने वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार के मज़ार पर हाज़िरी देने के लिए दौलताबाद गए।यहाँ का गवर्नर हाज़िर-ए-ख़िदमत हुआ और सुल्तान फ़िरोज़ शाह बहमनी की जानिब से नज़्र पेश की।और दरख़्वसत की कि आप गुल्बर्गा तशरीफ़ ले चलें जो बहमनी हुकूमत का दारुस्सुलतनत था।बादशाह ने अपने तमाम उमरा और ख़ुद्दाम-ओ-हशम के साथ शहर से बाहर निकल कर इस्तिक़बाल किया और गुज़ारिश की कि आप इसी शहर को अपने मुस्तक़र होने का शरफ़ अ’ता फ़रमाएं।जिसे हज़रत (रहि·) ने मंज़ूर फ़रमा लिया और नवाह-ए-गुल्बर्गा के मौज़ा’ चँचोली में उतरे।शहर-ए-गुल्बर्गा के अकाबिर, अशराफ़,पेशा-वर, ग़ुरबा, मसाकीन हज़ारों की ता’दाद में आपकी क़दम-बोसी के लिए आने लगे।बड़े उमरा और अकाबिर तो आ कर हज़रत के क़दमों पर गिर जाते थे मगर पेशा-वर ग़रीबों को इसका मौक़ा’ न मिलता था।वो जौक़-दर-जौक़ सहरा में खड़े रहते थे इस उम्मीद पर कि हज़रत की पालकी इधर से गुज़रेगी तो हम पा-बोसी करेंगे।
दकन में हज़रत का रुहानी फ़ैज़ान गोशे-गोशे में फैल गया।ये हज़रत ही की तवज्जोह थी कि सुल्तान अहमद शाह ने शरीअ’त के क़वानीन को नाफ़िज़ किया और आज तक अहमद शाह वली के नाम से मशहूर है।
आपकी तसानीफ़ की ता’दाद 105 बताई जाती है।उनमें तफ़्सीर-ए-मुल्तक़ित भी है। हदीस में मशारुल-अनवार की शरह है। तसव्वुफ़ में अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़,फ़ुसूसुल-हिकम और क़ुशैरिया की शरहें हैं। दीवान-ए-फ़ारसी है। मक्तूबात हैं। सीरतुन्नबी पर एक किताब है।दूसरी फ़िक़्ह-ए-अकबर की शरह है।ग़र्ज़ एक तवील फ़िहरिस्त है।ये किताबें अक्सर फ़ारसी में और बा’ज़ अ’रबी में हैं।इनके अ’लावा आपका हिंदवी कलाम भी है।ख़ानक़ाह में अ’वाम से हिंदवी ही में गुफ़्तुगू फ़रमाते थे।
तालिबीन की रुहानी तर्बियत और इर्शाद-ओ-हिदायत के साथ दर्स-ओ-तदरीस का सिलसिला आख़िर ज़माने तक जारी रहा।
मल्फ़ूज़ात
आपके मल्फ़ूज़ात के कई मजमूए’ तर्तीब दिए गए।एक मजमूआ’-ए-मल्फ़ूज़ात सय्यिद इब्नुल-रसूल उ’र्फ़ मियाँ मँझले ने दिल्ली में मुरत्तब करना शुरूअ’ किया था और गुल्बर्गा में इसकी तक्मील हुई।ये अब नहीं मिलता।
दूसरा मजमूआ’ मल्फ़ूज़ात-ए-क़ाज़ी इ’ल्मुद्दीन अजोधनी ने 811 हिज्री में मुरत्तब किया था।तीसरा मजमूआ’ शैख़ुल-इस्लाम छतरा ने और चौथा मंज़ूम मजमूआ’ मलिक-ज़ादा उ’स्मान जा’फ़र ने तैयार किया।लेकिन इस वक़्त सिर्फ़ जवामिउ’ल-कलिम हमारे पास है जो हज़रत सय्यिद मोहम्मद अकबर हुसैनी (वफ़ात812 हिज्री) ने फ़राहम किए थे।और ये बेश-बहा मा’लूमात का ख़ज़ाना है।इस का उर्दू तर्जुमा भी रौज़ा बुज़ुर्ग की जानिब से शाए’ हो चुका है।मगर फ़ारसी मत्न में ग़लतियाँ बहुत हैं और ज़रूरत है कि उसका अच्छा एडिट किया हुआ ऐडीशन छापा जाए।
ख़ानक़ाह
हज़रत की ख़ानक़ाह के रहने वालों में एक दूसरे का मोहतसिब था। एक से कोई लग़्ज़िश होती थी तो दूसरा उसे टोक देता था और कहता था कि तसव्वुफ़ में ऐसा होता है? मशाइख़ के अ’मल से ये साबित है जो तुम कर रहे हो वो नही।वो शख़्स फ़ौरन बाज़ रहता और मा’ज़रत करता था।अगर कोई नया आदमी ख़ानक़ाह में आता था जिसे तरीक़-ए-मशाइख़ का इ’ल्म न होता था या वो यारान-ए-ख़ानक़ाह की बात न सुनता था तो उसे हज़रत की ज़बान से नसीहत करा दी जाती थी।कोई किसी की रिआ’यत न करता था।‘अल-हुब्बु लिल्लाहि वल-बुग़्ज़ु लिल्लाह’ वाला मुआ’मला था।
हज़रत को अपने यारान-ए-ख़ानक़ाह का इस दर्जा ख़याल था कि अगर आपका कोई पोता या नवासा भी उनसे सख़्त-कलामी करता था तो आप ग़ुस्सा हो जाते थे और फ़रमाते थे कि ये फ़ुक़रा अपनी मोहब्बत से मेरे चारों तरफ़ जम्अ’ हो गए हैं उन्हें क्यूँ परेशान करते हो। आपके ख़ौफ़ से सब उन फ़ुक़रा का लिहाज़ करते थे।एक दिन आपके दामाद मियाँ सालार और मौलाना नूरुद्दीन के दरमियान कुछ तुर्श-गुफ़्तुगू हो गई।मौलाना नूरुद्दीन ख़ानक़ाह से निकल कर मियाँ बड़े के रौज़े में जा बैठे।ये बात शैख़ को मा’लूम हुई तो सय्यिद सालार से बहुत नाराज़ हुए और फ़रमाया कि ख़ानक़ाह के लाएक़ वो है तुम जैसे नहीं। जाओ उन्हें अभी मनाकर लाओ।सय्यिद सालार ने किसी को वास्ता बना कर मौलाना नूरुद्दीन से सुल्ह की और उन्हें ख़ानक़ाह में लेकर आए।
औलाद
हज़रत अपने और अपने फ़र्ज़न्दों के फ़क़्र का हाल सब के सामने बड़े फ़ख़्र से बयान फ़रमाते थे।और कहते थे मैंने मियाँ बड़ा और मियाँ लहरा की परवरिश फ़क़्र में की है,इ’मारत में नहीं। क़ाज़ी फ़ख़्रुद्दीन मियाँ बड़ा की ख़िदमत में बरसों रहे। उन्होंने कहा कि मैंने कभी मियाँ बड़े की ज़बान से दुनिया की कोई हिकायत नहीं सुनी।या तो वो हक़ाएक़-ओ-मआ’रिफ़ की बात करते थे या उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की।इसी तरह मियाँ लहरा ने कभी अपनी वालिदा माजिदा से भी किसी खाने की फ़रमाइश नहीं की कि ये पकाओ ये न पकाओ।जो कुछ वो भेज देती थीं वो खा लेते थे।रात को अक्सर मियाँ लहरा जंगल और सहरा की तरफ़ निकल जाते थे। कभी घर आते तो बाला-ख़ाने पर रहते थे।घर में चारपाई, बिस्तर सब होता था मगर आप चारपाई खड़ी कर देते और ज़मीन पर लेट जाते थे।अगर ग़ुस्ल की ज़रूरत होती तो दो तीन दिन के रखे हुए ठंडे पानी से ग़ुस्ल कर लेते थे।हज़रत गेसू दराज़ का हुलिया-ए-मुबारक जो उनके पोते हज़रत अबुल-फ़ैज़ मिनल्लाह हुसैनी ने बयान किया था वो ये है:
“हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ की वज़्अ’ तुर्कों जैसी थी। हड्डियाँ चौड़ी और बड़ी थीं।जिस्म दराज़ और उस्तुवार था।इंतिक़ाल से सात या दस साल पहले पैरों से मा’ज़ूर हो गए थे।खड़े नहीं हो सकते थे।मस्जिद में या अपने घर में या किसी फ़र्ज़ंद के घर में जाना होता था तो कुर्सी पर तशरीफ़ रखते थे और ख़ुद्दाम उसे उठा कर ले जाते थे।हज़रत अबुल-फ़ैज़ ने फ़रमाया कि मैंने दादा साहिब को बैठा हुआ ही देखा है।खड़े हुए देखना याद नहीं।”
16 ज़ी-क़ा’दा 825 हिज्री यकुम नवंबर 1422 ई’स्वी को इ’शा के बा’द आप पर भी दूसरे सूफ़िया-ए-चिश्त की तरह इस्तिग़्राक़ का ग़लबा हो गया था।इ’शा की नमाज़ इशारों से पढ़ी।थोड़ी देर के बा’द ख़ुद्दाम से पूछा कि मैंने नमाज़ पढ़ ली है? उन्होंने अ’र्ज़ किया जी हाँ।मगर आपने दुबारा नमाज़ अदा की।तहज्जुद के वक़्त इतना होश न रहा कि नमाज़-ए-तहज्जुद पढ़ सकें।मगर हाज़िरीन ने कान लगा कर सुना तो आप ये आयत पढ़ रहे थे।
‘रब्बना वला तुहम्मिलना मा-ला ता-क़-त-लना बिहि वअ’फ़ू अ’न्ना वग़्फ़िरलना वर-हम्ना अं-त-मौलाना फ़ंसुर्ना अ’लल-क़ौमिल-काफ़िरीन’
लोग ये सुनकर ज़ार-ज़ार रोने लगे और कहने लगे कि हज़रत ने साहला-साल तहज्जुद की नमाज़ में ये आयत पढ़ी है। इस वक़्त भी वही तिलावत फ़रमा रहे हैं।
इंतिक़ाल से एक या दो दिन क़ब्ल आपने वसिय्यत फ़रमाई थी कि दफ़्न के वक़्त हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ देहली का मक्तूब-ए-मुबारक मेरे दाहिने हाथ में रख दें।ये वो ख़त था जो हज़रत चिराग़ दिल्ली ने उस वक़्त लिखा था जब आप अपनी बहन से मिलने के लिए बयाना गए हुए थे।उस ख़त में इश्तियाक़-ए-मुलाक़ात का इज़हार था और हज़रत गेसूदराज़ को बुलाया था।
और फ़रमाया कि मेरे दूसरे हाथ में हज़रत चिराग़ दिल्ली की तस्बीह रख दें और मुरीद करते वक़्त जो कुलाह उन्होंने मरहमत फ़रमाई थी वो मेरे सर पर रख दें।इस तरह मुझे दफ़्न करें।चुनाँचे वसिय्यत की ता’मील की गई।
मियाँ यमीनुर्रहमान ने हज़रत के विसाल की ख़बर मियाँ लहरा को पहुँचाई कि मख़दूम का इंतिक़ाल हो गया तो उन्होंने कमाल-ए-इस्तिक़ामत से फ़रमाया वो कैसे मर सकते हैं।कहीं ख़ुदा को मौत आती है? या’नी वो अस्ल नज्दा थे और जिसे विसाल-ए-हक़ नसीब हो गया हो वो ज़िंदा-ए-अबद हो जाता है और ज़ात-ए-हक़ के साथ अबद तक बाक़ी रहता है।ये इंतिक़ाल-ए-सुवरी है। इंतिक़ाल-ए-मा’नवी नहीं है।इन्ना औलिया-अल्लाहि ला-यमूतू-न बल यंतक़िलू-न मिन दारिन-इला दारिन।जब हज़रत गेसू दराज़ को ग़ुस्ल दिया गया तो मियाँ लहरा आए और ग़ुस्ल का पानी लेकर उससे वुज़ू किया। इसी तरह क़ाज़ी राजा ने भी आब-ए-ग़ुस्ल से वुज़ू किया और हज़रत के जनाज़े की नमाज़ अदा की।तदफ़ीन के बा’द मियाँ लहरा अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के दर्स में मशग़ूल हो गए।
हक़ीक़त ये है कि गेसू दराज़ के फ़ज़ाइल-ओ-कमालात का अंदाज़ा हम जैसे बे-इ’ल्म-ओ-सियाह-नामा तो क्या कर सकते हैं। अहल-ए-नज़र भी उनकी रिफ़्अ’तों को पूरी तरह नहीं पा सकते।
(हज़रत गेसू दराज़ के वतन दिल्ली में मुंअ’क़िदा उनके जश्न-ए-विलादत में पढ़ा गया)
साभार – मुनादी पत्रिका
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