हज़रत शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह

हज़रत शैख़ सदरुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के फ़रज़ंद-ए-अर्जुमंद थे और वालिद-ए-बुज़ुर्ग़वार ही की सोहबत में अ’क़ली-ओ-रूहानी ता’लीम पाई।इसी ता’लीम की बदौलत अपने ज़माना में सर-हल्क़ा-ए-औलिया समझे जाते थे।इनके वालिद के एक मुरीद अमीर हुसैनी ने,जिसका ज़िक्र आगे आएगा, इनके रूहानी मर्तबा का ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ में किया हैः-

आँ बुलंद आवाज़ा-ए-आ’लम-पनाह

सरवर-ए-दीं इफ़्तिख़ार-ए-सद्र-गाह

आब-ए-हैवाँ क़तरः-ए-बह्र–ए-दिलश

चूँ ख़िज़र इ’ल्म-ए-लदुन्नी हासिलश

मो’तबर चूँ क़ौल-ए-ऊ अफ़आ’ल-ए-ऊ

हम बयान-ए-ऊ गवाह-ए-हाल-ए-ऊ

मुक़्तदा-ए-दीं क़ुबूल-ए-ख़ास-ओ-आ’म

दौलतश गुफ़्तः तुई ख़ैरुल-अनाम

तारीख़-ए-फ़रिश्ता में इनके रूहानी औसाफ़-ओ-कमालात की ता’रीफ़-ओ-तौसीफ़ हस्ब-ज़ैल अश्आ’र में की गई है।

आँ गुहर-ए-मा’दन-ए-हक़्क़ुल-यक़ीन

ताज़ः ज़े-आब-ए-करमश बाग़-ए-दीन

सद्र-नशीं गश्त ब-अ’र्श-ए-ब-रीं

गश्तः ख़िताबश अज़ ख़ुदा सद्र-ए-दीं

वो आ’म तौर से शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ के नाम से मशहूर थे। कहा जाता है कि जब कलाम-ए-पाक पढ़ते या ख़त्म करते तो मा’रिफ़त के नए नए असरार-ओ-रुमूज़ उन पर अ’याँ होते ।इसी लिए वो आ’रिफ़ के लक़ब से मशहूर हुए।तारीख़-ए-फ़रिश्ता में है,

“वय रा आ’रिफ़ अज़ आँ गोयंद कि हर बार ख़त्म-ए-कलामुल्लाह कर्दे सद फ़िक्र पेश-ए-ऊ आमदे-ओ-वक़्ते कि ब-तिलावत मश्ग़ूल बूदे ऊ रा फ़ौज फ़ौज मआ’नी रू नमूदे”

फ़य्याज़ीः-

वालिद-ए-बुज़ुर्गवार के विसाल के बा’द जब रुश्द-ओ-हिदायत की मसनद पर मुतमक्किन हुए तो तर्का में सात लाख नक़्द मिले। मगर ये सारी रक़म एक ही रोज़ में फ़ुक़रा-ओ-मसाकीन में तक़्सीम करा दी और अपने लिए एक दिरम भी न रखा। किसी ने अ’र्ज़ की कि आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार अपने ख़ज़ाने में नक़्द-ओ-जिंस जम्अ’ रखते थे और उसको थोड़ा थोड़ा सर्फ़ करना पसंद करते थे।आपका अ’मल भी उन्हीं की रविश के मुताबिक़ होना चाहिए था।शैख़ सदरुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह ने इर्शाद फ़रमाया कि हज़रत बाबा दुनिया पर ग़ालिब थे, इसलिए दौलत उनके पास जम्अ’ हो जाती तो उनको अ’लाइक़-ए-दुनिया का कोई ख़तरा लाहिक़ न होता, और वो दौलत को थोड़ा थोड़ा ख़र्च करते थे। मगर मुझ में ये वस्फ़ नहीं, इसलिए अंदेशा रहता है कि दुनिया के माल के सबब दुनिया के फ़रेब में मुब्तला न हो जाऊँ,इसलिए मैं ने सारी दौलत अ’लाहिदा कर दी।

मगर इस फ़य्याज़ी और जूद-ओ-सख़ा के बावजूद उनके यहाँ दौलत की फ़रावानी रहती थी।एक बार शैख़ रुक्नुद्दीन फ़िरदौसी देहली से मुल्तान तशरीफ़ ले गए तो हज़रत शैख़ सदरुद्दीन से भी मिलने आए।उस वक़्त उनके यहाँ उ’लमा और फ़ुक़रा की बड़ी ता’दाद मौजूद थी।शैख़ रुक्नुद्दीन फ़िरदौसी का बयान है कि खाने का वक़्त आया, तो ऐसा पुर-तकल्लुफ़ दस्तरख़्वान बिछाया गया, जैसा बादशाहों के यहाँ हुआ करता है।ख़ुद शैख़ सदरुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह के सामने तरह-तरह के खाने और हल्वे थे। शैख़ रोज़े से थे मगर तबर्रुकन-ओ-तयम्मुनन खाने में शरीक हो गए, और शैख़ सदरुद्दीन के क़रीब ही दस्दरख़्वान पर बैठे।शैख़ रुक्नुद्दीन ने अपने मेज़बान की ख़ातिर रोज़ा तो इफ़्तार कर लिया,मगर सोचने लगे कि सिर्फ़ इफ़्तार ही पर इक्तिफ़ा किया जाए या कुछ खाया जाए।शैख़ सदरुद्दीन ने अपने नूर-ए-बातिन से उनकी इस कश्मश को महसूस कर के फ़रमाया कि जो शख़्श हरारत-ए-बातिन से तआ’म को नूर बना कर हक़ तक पहुँचा सके उसके लिए तक़्लील-ए-तआ’म की पाबंदी लाज़िम नहीं।

चूँ कि लुक़्मः मी-शवद बर तू कुहन

तन म-ज़न हर चंद ब-तवानी ब-ख़ूर

मेहमानों की ख़ातिर शैख़ दस्तरख़्वान पर हाथ न रोकते थे कि उनके हाथ रोक लेने से मेहमान कहीं तकलीफ़ में भूके न रह जाएं।

हज़रत शैख़ सदरुद्दीन शहज़ादा और मुहम्मद सुल्तानः-

हज़रत शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ के ख़वारिक़-ओ-करामात की बहुत सी हिकायतें मशहूर हैं।उनमें से एक कुछ ग़ौर-तलब है।बयान किया जाता हैं कि सुल्तान ग़यासुद्दीन बल्बन ने अपने बड़े लड़के  शहज़ादा मोहम्मद सुल्तान को मुग़लों की यूरिश रोकने के लिए मुल्तान भेजा।शहज़ादा के साथ उसकी बीवी भी थी जो सुल्तान रुक्नुदीदन इब्राहीम बिन शम्सुद्दीन अल्तमिश की लड़की थी।ये शहज़ादी अपनी नेकी, हया और हुस्न के लिए मशहूर थी। मगर शहज़ादे की शराब-ख़ोरी और बद-मस्ती से आ’जिज़ थी।मुल्तान पहुँच कर एक रोज़ शहज़ादा ने शराब के नशा में बीवी को तलाक़ दे दी और उससे अ’लाहिदगी इख़्तियार कर ली।मगर बा’द में बीवी की मुफ़ारक़त गवारा न हुई, और उ’लमा को जम्अ’ कर के मस्अला पूछा।उन्हों ने बताया कि शहज़ादी उसकी ज़ौजियत में उस वक़्त तक नही आ सकती जब तक कि हलाला न कर ले। शहज़ादा की तंग-मिज़ाजी और हमिय्यत ने इसको गवारा न किया और ग़ुस्से में उठ कर ख़ल्वत में चला गया,और क़ाज़ी अमीरुद्दीन ख़्वारज़मी को बुलाकर कहा कि बाप के ग़ैज़-ओ-ग़जब और दोज़ख़ के अ’ज़ाब से डरता हूँ, लेकिन इसकी (या’नी शहज़ादी की) मुफ़ारक़त और दूरी कभी गवारा नहीं।क़ाज़ी अमीरुद्दीन ख़्वारज़मी ने राय दी कि शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ नेक और अच्छे बुज़ुर्ग हैं।पोशीदा तौर पर उनसे शहज़ादी का निकाह कर के तलाक़ दिलवा दी जाए।शहज़ादा इस पर राज़ी हो गया और हज़रत शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ से शहज़ादी का निकाह कर दिया गाया।जब निकाह हो चुका तो शहज़ादी ने हज़रत शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ के पावँ पर गिर कर कहा कि अगर आप मुझ को फिर उस ज़ालिम और फ़ासिक़ के हवाला कर देंगे तो क़ियामत के रोज़ आपकी दामनगीर हूँगी। शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ को उसके इ’ज्ज़-ओ-ज़ारी पर रहम आ गया, और उन्होंने शहज़ादी को तलाक़ देने से इंकार कर दिया।शहज़ादा को इसकी इत्तिलाअ’ हुई तो उसके ग़ुस्सा की कोई इंतिहा न रही, और उसने अपनी फ़ौज को हुक्म दिया कि दूसरे दिन शैख़ के घर को ख़ून से रंगीन कर दिया जाए।शैख़ को इस हुक्म की ख़बर दी गई तो उनमें कोई तग़य्युर न हुआ, और अपने इरादा पर क़ाइम रहे।उसी दौरान में अचानक मुग़ल हमला-आवर हो गए।शहज़ादा की फ़ौज पस्पा हुई और वो ख़ुद उनके हाथों क़त्ल हुआ।फ़रिश्ता ने इस वाक़िआ’ को बड़ी तफ़्सील से लिखा है।

मगर तअ’ज्जुब है कि फ़रिश्ता ने इस रिवायत को सही समझ कर अपनी तारीख़ में किस तरह क़लम-बंद किया।उसने सुल्तान ग़यासुद्दीन बल्बन के ज़िक्र में शहज़ादा मोहम्मद सुल्तान के अख़्लाक़-ए-हसना और औसाफ़-ए-हमीदा की जो तसवीर खींची है उससे इस रिवायत की तक़ज़ीब होती है।

फ़रिश्ता लिखता हैः-

“बल्बन के फ़रज़न्दों में सब से बेहतर और अफ़ज़ल शहज़ादा मुहम्मद सुल्तान ख़ान शहीद है।ये शहज़ादा ग़यासुद्दीन बल्बन का बड़ा प्यारा और महबूब-तरीन फ़रज़न्द था।तमाम उ’म्दा सिफ़तें और पसंदीदा आ’दतें जो एक शहज़ादा में होनी चाहिए सब हक़ सुब्हानुह तआ’ला ने उसको मरहमत की थीं।ये शहज़ादा अपनी फज़ीलत, दानिश और हुनर में बे-मिस्ल था।उसकी मज्लिस हमेशा बड़े बड़े फ़ाज़िलों और शाइ’रों से आरास्ता रहती थी, और वो उनको हर तरह की इ’नायतों और मेहरबानियों से सरफ़राज़ करता था।ज़माना उसके जूद-ओ-करम की वजह से बहार और चमन बना हुआ था,और उसका(या’नी ज़माना का) जैब-ओ-दामन, नसरीन और नस्तरन से पुर था।अमीर ख़ुसरो और ख़्वाजा हसन जैसे लोग मुल्तान में उसके नदीम-ए-ख़ास रहे।वो दूसरे दरबारियों से ज़्यादा उन दोनों की इ’ज़्ज़त करता था और उनकी नज़्म-ओ-नस्र से महज़ूज़ होता था।वो इस क़द्र मुहज़्ज़ब और शाइस्ता था कि अगर किसी मज्लिस में तमाम दिन और रात बैठना पड़ा तो भी अपना ज़ानू ऊँचा न करता था।क़सम के वक़्त सिर्फ़ हक़्का का लफ़्ज़ उसकी ज़बान पर होता।शराब की मज्लिस और बद-मस्ती में भी उसकी ज़बान से कोई ना-मुलाएम लफ़्ज़ न निकलता।

उसकी ख़ुश-गवार इ’ल्मी मज्लिम में शाहनामा, दीवान-ए-ख़ाक़ानी, अनवरी, ख़म्सा-ए-निज़ामी और अमीर ख़ुसरो के अ’श्आ’र पढ़े  जाते थे।अर्बाब-ए-फ़हम-ओ-दानिश उसकी शे’र-फ़हमी के मो’तरिफ़ थे।अमीर ख़ुसरो फ़रमाते थे कि मैं ने सुख़न-फ़हमी, बारीक-बीनी ज़ौक़–ए-सहीह और मुतक़द्दिमीन और मुतअख़्ख़िरीन के अ’श्आ’र की याद-दाश्त में सुल्तान मोहम्मद के जैसा किसी को न पाया। उसके पास एक बयाज़ थी।सुल्तान ग़यासुद्दीन बल्बन ने ये बयाज़ अमीर अ’ली जामदार को दी जिसके बा’द ये अमीर ख़ुसरो को मिली।उस ज़माना के तमाम शो’रा ने उस बयाज़ को देखा, और उन मुंतख़ब अश्आ’र को अपनी अपनी बयाज़ में नक़ल किया और ऐसे नवजवान शहज़ादा की वफ़ात पर रंजीदा हुए।जिस ज़माना में सुल्तान मुहम्मद मुल्तान में मुक़ीम था शैख़ उ’स्मान तिर्मिज़ी जो अपने वक़्त के बहुत बड़े बुज़ुर्ग थे वहाँ तशरीफ़ लाए। उसने उनकी बड़ी ता’ज़ीम और ख़ातिर-दारी की।उनकी ख़िदमत में नज़्र और हदिया पेश किया और बहुत इसरार किया कि वो मुल्तान में क़ियाम फ़रमाएं और उनके लिए एक ख़ानक़ाह ता’मीर कराई जाए, और उसके मसारिफ़ के लिए गाँव वक़्फ़ किए जाएं।मगर शैख़ उ’स्मान तिर्मिज़ी ने इसको क़ुबूल न किया और वहाँ से चल खड़े हुए।एक रोज़ शैख़ उ’स्मान और शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी के साहिबज़ादे शैख़ सदरुद्दीन शहज़ादा की मज्लिस में तशरीफ़ रखते थे।मज्लिस में अ’रबी पढ़े जाते थे। किसी शे’र को सुन कर उन बुज़ुर्गों और मज्लिस के तमाम दरवेशों पर वज्द तारी हो गया, और वो रक़्स करने लगे।मुहम्मद  सुल्तान शहीदान के सामने दस्त-बस्ता खड़ा रहा, और बराबर ज़ार-ओ-क़तार रोता रहा।अगर कोई शख़्स उसकी मज्लिस में कोई नसीहत-आमेज़ शे’र पढ़ता तो वो दुनिया को दिल से भुला कर उसको बड़े शौक़ से सुनता और उस पर रिक़्क़त तारी हो जाती।”

फ़रिश्ता के मुंदर्जा बाला बयान की लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ तस्दीक़ मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी की तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही से भी होती है जो बल्बन के अ’हद की सब से ज़्यादा मो’तबर और मुस्तनद तारीख़ है।मौलाना ज़याउद्दीन बर्नी ने शहज़ादा मुहम्मद सुल्तान की बीवी के तलाक़ और फिर शैख़ सदरुद्दीन से उसके निकाह का  ज़िक्र मुत्लक़ नहीं किया है बल्की वो शहज़ादा के उन तमाम महसिन-ओ-औसाफ़ को लिख कर जिनका फ़रिश्ता ने ज़िक्र किया है ,इन अल्फ़ाज़ में शहज़ादा की वफ़ात का मातम करता है:-

“मैं ने बार बार अमीर ख़ुसरो और अमीर हसन को हसरत और अफ़्सोस के साथ कहते सुना कि अगर हम लोगों और दूसरे अर्बाब-ए-हुनर की क़िस्मत यावर होती तो शहीद ज़िंदा रहता और बल्बनी तख़्त पर मुतमक्किन होता, और हम और तमाम अर्बाब-ए-हुनर उसके फ़ज़्ल के दरिया में ग़र्क़ हो जाते, लेकिन अर्बाब-ए-फज़्ल-ओ-कमाल की क़िस्मत छोटी थी।ज़माना ने उनकी तरफ़ कभी इंसाफ़ की आँखों से नहीं देखा और न कभी उनको साहिब-ए-दौलत-ओ-इस्तिताअ’त देख सकता है।ग़द्दार और सिफ़्ला-नवाज़ फ़लक में इतनी ताक़त कहाँ से आ सकती थी कि एक मेहरबान हुनर- शनास और हुनर-परवर बादशाह को शाही तख़्त पर बैठने देता, और अर्बाब-ए-हुनर को फ़रोग़ होता। फ़लक के काम में ये शुतुर-गुर्बगी है कि ज़माना की बे-नज़ीर-ओ-अ’दीमुल-मिसाल शख़्सियतों को हाजत-मंद और ज़रूरत-मंद बनाए रखता है और गुम-नाम  और नाकाम लोगों को जिनके हल्क़ में गंदा पानी और नापाक चीज़ें होनी चाहिए, वो नाज़-ओ-ने’मत के साथ परवरिश करता है। रीछ और सूअर को तो मुरस्सा और मुकल्लल और अं’दलीब-ओ-बुलबुल को क़फ़स में ज़िल्लत के साथ मजबूर-ओ-महबूस और मायूस रखता है”।

ख़ुद अमीर ख़ुसरो शहज़ादा मुहम्मद सुल्तान के साथ मुगलों की मुहिम में थे, और शहज़ादा की शहादत के बा’द मुग़लों के हाथों गिरफ़तार हो कर महबूस भी रहे।शहज़ादा की शहादत पर एक ख़ूँ-चकाँ मर्सिया भी कहा था मगर कहीं उसकी बीवी के तलाक़-ओ-निकाह का ज़िक्र नहीं कया है।मीर हसन ने भी शहज़ादा की वफ़ात-ए-हसरत-आयात पर आँसू बहाए हैं लेकिन उसमें भी शहज़ादा की बीवी के हलाला का कहीं ज़िक्र नहीं।अमीर ख़ुसरो  और अमीर हसन के मरासी-ओ-मातम-नामे इस क़द्र मक़्बूल हुए कि लोग शहज़ादा की याद ताज़ा रखने के लिए उनको बराबर अपने मुतालिआ’ में रखते थे।चुनाँचे तैमोरी दौर के मुवर्रिख़ मुल्ला अ’ब्दुल क़ादिर-अल-बदायूनी ने मीर हसन और अमीर ख़ुसरो के मरासी को अपनी मुंतख़बुत्तवारीख़ में चौबीस सफ़हों में नक़ल किया है।मगर शहाज़ादा मुहम्मद सुल्तान और शैख़ सदरुद्दीन की कशीदगी और नागौरी का कहीं इशारा तक नहीं है अल्बत्ता तबक़ात-ए-अकबरी में इस वाक़िआ’ का कुछ ज़िक्र है,मगर मुअल्लिफ़ को ख़ुद इसकी सेहत में शक है इसलिए इस रिवायत की इब्तिदा गोयंद से की है।या’नी ये अ’वाम की रिवायत है। राक़िमुस्सुतूर की भी राय है कि ये वाक़िआ’ महज़ अ’क़ीदत-मंद अ’वाम की रिवायत है, जिसकी कोई अस्लियत नहीं है।

सोहबत-ए-कीमिया-असरः

हज़रत शैख़ सदरुद्दीन की कीमिया-असर सोहबीत और तर्बियत से मसनद-ए-अहल-ए-कमाल पैदा हुए जो मुख़्तलिफ़ मक़ामात में मख़्लूक़-ए-ख़ुदा के ज़ाहिरी-ओ-बातिनी अख़्लाक़ को आरास्ता करने में मश्ग़ूल थे।शैख़ जमाल खंदाँ उनसे तर्बियत पाने के बा’द ऊथ में क़ियाम-पज़ीर हुए और वहाँ की मुख़्लूक़ को फ़ैज़याब करने के बा’द उसी सर-ज़मीन में आसूदा-ए-ख़्वाब हैं।एक दूसरे ख़लीफ़ा शैख़ हुसामुद्दीन मुल्तानी को बदायूँ में रहने का हुक्म मिला था, चुनाँचे आख़िर वक़्त तक यहीं रहे और यहीं उनका मज़ार है।एक और ख़लीफ़ा मौलाना अ’लाउद्दीन ख़ुजंदी हज़रत सदरुद्दीन की ख़िदमत में चौदह साल तक रहे।इनका सब से बड़ा वस्फ़ ये था कि वो रोज़ दो मर्तबा कलाम-ए-पाक ख़त्म करते थे।इनके मुर्शिद उनको महबूबुल्लाह कहा करते थे।इनके ख़ुलफ़ा में शैख़ अहमद बिन मुहम्मद क़ंद्धारी अल-मा’रूफ़ ब-शैख़ अहमद मा’शूक़ पर सब से ज़ियादा ज़ज्ब-ओ-सुक्र की कैफ़ियत तारी रहती।इस कूचा में आने से पहले वो घोड़ों और दूसरी चीज़ों के ताजिर थे।दौलत की फ़रावानी की वजह से ऐ’श-ओ-इ’श्रत में मश्ग़ूल रहते थे।महफ़िल-ए-निशात में शराब से भी शुग़्ल करते थे।एक मर्तबा तिजारत के सिलसिला में क़ंद्धार से मुल्तान आए तो हज़रत शैख़ सदरुद्दीन की ज़ियारत के लिए भी हाज़िर हुए।शैख़ ने अपना झूटा लुक़्मा उनको  खाने को दिया।उसको खाते ही उन पर अ’जीब कैफ़ियत तारी हो गई।उसी वक़्त तिजारत का सारा सामान फ़ुक़रा-ओ-मसाकीन में तक़्सीम कर दिया और मुर्शिद की ख़ानक़ाह में उ’ज़्लत-नशीन हो गए, और सात साल तक तर्बियत पाते रहे।हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अ’लैह उनके बारें में फ़वाइदुल-फ़ुवाद में फ़रमाते हैं कि-

“एक बार चिल्ला के जाड़े में आधी रात को वो बाहर आए, और पास ही बहते हुए पानी में जा कर खड़े हो गए।और कहने लगे कि इलाही मैं उस वक़्त तक इस जगह से बाहर न निकलूँगा जब तक मुझको ये न मा’लूम हो जाए कि मैं क्या हूँ।उनके कान में आवाज़ आई कि तुम वो हो कि तुम्हारी वजह से क़ियामत के रोज़ बहुत से लोग दोज़ख़ से महफ़ूज़ रहेंगे।शैख़ अहमद ने कहा कि सिर्फ़ इस बात पर इक्तिफ़ा नहीं कर सकता हूँ। फिर आवाज़ सुनी कि तुम वो हो कि क़ियामत के रोज़ तुम्हारी इ’नायत की वजह से बहुत से लोग बहिश्त में जाएंगे।शैख़ अहमद ने कहा कि इस से भी तसल्ली नहीं हुइ।मैं मा’लूम करना चाहता हूँ कि मैं क्या हूँ।आवाज़ आई कि हम ने हुक्म कर दिया है कि सारे दरवेश और आ’रिफ़ हमारे आ’शिक़ हों, मगर तुम मा’शूक़ हो।ये सुन कर ख़्वाजा अहमद पानी से निकल कर शहर की तरफ़ गए।रास्ता में जो शख़्स उनसे मिलता “अस्सलामु-अ’लैकुम या शैख़ अहमद मा’शूक़” कहता।”

फ़वाइदुल-फ़ुवाद में है कि हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अ’लैह मज़्कूरा बाला वाक़िआ’ बयान कर के ज़ार-ओ-क़तार रोने लगे।किसी ने उस मज्लिस में कहा कि शैख़ अहमद नमाज़ नहीं पढ़ते थे।ख़्वाजा साहब ने फ़रमाया कि हाँ जब उनसे कहा जाता था, कि वो नमाज़ क्यूँ नहीं पढ़ते, तो कहते थे कि नमाज़ पढ़ूँगा मगर सूरा-ए-फ़ातिहा नहीं पढ़ूँगा।उस पर ऐ’तराज़ होता कि ये नमाज़ दुरुस्त न होगी।और जब उनसे और इसरार किया जाता तो कहते कि सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़ूँगा मगर “इय्या-क-ना’बुदू-वइय्या-क-नस्तई’न” छोड़ दुंगा।फिर उनसे कहा जाता कि इस आयत को भी पढ़ना होगा।इस रद्द-ओ-क़दह के बा’द वो नमाज़ के लिए खड़े हो जाते मगर सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़ते वक़्त जब मज़्कूरा-बाला आयत ज़बान पर आती उनके हर बुन-ए-मू से ख़ून जारी हो जाता, और नमाज़ तोड़ देते।और हाज़िरीन को मुख़ातिब कर के कहते कि ऐसी हालत में नमाज़ कैसे जाएज़ हो सकती है। वल्लाहु अ’लम बिस्सवाब।

इ’ल्मी यादगारः-

हज़रत शैख़ सदरुद्दीन ने इन रूहानी यादगारों के अ’लावा एक इ’ल्मी यादगार कुनूज़ुल-फ़वाइद­ भी छोड़ी है।ये उनके मल्फ़ूज़ात का मज्मुआ’ है, जिसको उनके एक मुरीद ख़्वाजा ज़ियाउद्दीन ने तर्तीब दिया था।राक़िमुस्सुतूर की नज़र से ये किताब नहीं गुज़री।मगर अख़्बारुल-अख़्यार में इसके तवील इक़्तिबासात हैं। उन्हीं की मदद से हम शैख़ सदरुद्दीन की सूफ़ियाना ता’लीमात का ख़ाका नाज़िरीन के सामने पेश करते हैं।

ता’लीमातः-

फ़रमाते थे कि हदीस-ए-क़ुदसी में है कि ला-इलाहा-इलल्लाह हिस्नी,फ़-मन दख़लहु अमि-न अ’ज़ाबी या’नी अल्लाह तबारक-व-तआ’ला की तरफ़ से इर्शाद है कि ला-इलाहा-इलल्लाह मेरा क़िला’ (हिस्न) है जो कोई इस के अंदर दाख़िल हुआ वो मेरे अ’ज़ाब से महफ़ूज़ हो गया।इस क़िला’ की तस्रीह करते हुए फ़रमाते हैं कि क़िला’ की तीन क़िस्में हैं। ज़ाहिर-बातिन और हक़ीक़त। हिस्न-ए-ज़ाहिर ये है कि बंदा ख़ुदा के सिवा किसी से न ख़ौफ़-ज़दा हो, और न किसी से कोई उम्मीद रखे। अगर तमाम दुनिया के लोग उसके दुश्न हो जाएं तो उससे मुतरद्दिद न हो। अगर दुनिया वाले उसके दोस्त हो जाएं तो उससे ख़ुश न हो, क्यूँकि ख़ुदा-वंदा तआ’ला के हुक्म के ब-ग़ैर नफ़ा’-ओ-ज़रर और ख़ैर-ओ-शर का ज़ुहूर नहीं होता।हिस्न-ए-बातिन ये है कि यक़ीन हो कि मौत से पहले जो कुछ भी पेश आता है वो बिल्कुल आ’रज़ी और आनी-ओ-फ़ानी है और दुनिया की किसी चीज़ को सबात नहीं।इसलिए इसकी हस्ती-ओ-नीस्ती क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं।हिस्न-ए-हक़ीक़त ये है कि दिल में न बहिश्त की आरज़ू हो, और न दोज़ख़ का ख़ैफ़ हो।सिर्फ़ अल्लाह ही अल्लाह हो।दिल में जब ये सच्चाई रासिख़ हो जाती है, तो बहिश्त ख़ुद-ब-ख़ुद पीछे पीछे चली आती है।

एक और मौक़ा’ पर मुरीदों से फ़रमाया, कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम की पैरवी की पहली शर्त ये है कि जिस पर  ईमान लाए, उस पर ईमान ला कर बंदा साबित क़दम रहे, और शक-ओ-शुब्हा के बजाए रग़्बत, मोहब्बत और मा’रिफ़त के साथ दिल में ये ऐ’तिक़ाद रखे कि अल्लाह तबारक-व-तआ’ला अपनी ज़ात में अकेला और अपनी सिफ़ात में यगाना है।वो तमाम सिफ़ात-ए-कमालिया से मुत्तसिफ़ है।अस्मा,सिफ़ात और अफ़्आ’ल के लिहाज़ से क़ीदम है और औहाम-ओ-इफ़्हाम की इद्राक से बाला -तर है।हुदूस,अ’वारिज़ और अज्साम की अ’लामतों से पाक है।तमाम आ’लम उसी का पैदा किया हुआ है।उसकी ज़ात-ओ-सिफ़ात में चूँ-ओ-चिरा करना जाएज़ नहीं, और वो ख़ुद किसी चीज़ से मुशाहिदा है, और न कोई चीज़ उस से मुशाबिह है। तमाम पैग़मबरों में अफ़्ज़ल हैं, और जो कुछ आपने फ़रमाया है, सही और दुरुस्त है, और उसमें कोई तफ़ाउत नहीं।ख़्वाह ये बातें अ’क़्ल में आएं या न आएं।अगर न आएं तो भी इनको तस्लीम कर लेना चाहिए, ताकि ऐ’तिक़ाद दुरुस्त रहे क्यूँकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ने ख़ुदा के हुक्म को जाना उसकी कैफ़ियत और कुन्ह मा’लूम करने की कोशिश न की।अगर ख़ुदावंदा तआ’ला के हुक्म की तावील आयात और अहादीस के मुताबिक़ हो तो तावील करना जाईज़ है।ईमान की सेहत की अ’लामत ये है कि अगर बंदा नेक काम करे तो उसको ख़ुशी महसूस हो, और अगर उस से बुराई सर-ज़द हो तो उसको बुराई बुराई मा’लूम हो।बंदा के ईमान की इस्तिक़ामत की अ’लामत ये है कि वो इ’ल्म के बजाए ज़ौक़-ओ-हाल की बिना पर अल्लाह और रसूल को महबूब रखे।

एक दूसरे मौक़ा’ पर मुरीदों को नसीहत की, कि कोई साँस ज़िक्र के ब-ग़ैर बाहर न निकलना चाहिए, क्यूँकि बुज़ुर्ग ने कहा है कि जो कोई ज़िक्र के ब-ग़ैर साँस लेता है, वो अपना हाल ज़ाए’ करता है।ज़िक्र के वक़्त वस्वसा और हदीस-ए-नफ़्स से गुरेज़ करना चाहिए और जब ये सिफ़त पैदा हो जाएगी तो वस्वसे और हदीस-ए-नफ़्स ज़िक्र के नूर से जल जाएंगे, और दिल में नूर-ए-ज़िक्र उतर जाएगा, और उसमें ज़िक्र की हक़ीक़त मुतमक्किन हो जाएगी।फिर ज़िक्र-ए-मज़्कूर के मुशाबिह के साथ होगा, और दिल नूर के यक़ीन से मुनव्वर हो जाएगा और यही तलिबों, और सालिकों का मक़्सूद है।

एक और मौक़ा’ पर मुरीदों को तल्क़ीन की कि अल्लाह तआ’ला जब किसी बंदा के साथ भलाई का इरादा करता है, तो उसको बंदा-ए-सई’द लिख देता है, और उसको ज़बान के ज़िक्र के साथ क़ल्ब की मुवाफ़क़त की तौफ़ीक़ अ’ता करता है, और ज़बान के ज़िक्र से क़ल्ब के ज़िक्र की जानिब तरक़्क़ी देता है, यहाँ तक कि अगर ज़बान ज़िक्र से ख़ामोश रहती है तो क़ल्ब ख़ामोश नहीं होता।यही ज़िक्र-ए-कसीर है और इस ज़िक्र तक बंदा उस वक़्त तक नहीं पहुँचता जब तक कि वो निफ़ाक़ से बरी न हो, जिसका इशारा मोहम्मदुर-रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम के इस क़ौल में है कि मेरी उम्मत के अक्सर मुनाफ़िक़ इसके क़ारी हैं। इस निफ़ाक़ से मुराद ग़ैर-ए-ख़ुदा के साथ वक़ूफ़ और तअ’ल्लुक़-ए-बातिन है।इस से परहेज़ ज़रूरी है।बातिन का लगाव सिर्फ़ ख़ुदा के साथ होना चाहिए।पस जब बंदा को तजरीद-ए-ज़ाहिरी या’नी ना-पसंदीदा चीज़ों से अ’लाहिदगी की तौफ़ीक़ होती है और वो बुरे वसाविस और अख़्लाक़-ए-मज़्मूमा से पाक-ओ-साफ़ हो कर तफ़्रीद-ए-बातिन से मुअ’ज़ज़्ज होता है, तो क़रीब होता है कि उसके बातिन में नूर का ज़िक्र मुतजल्ली हो जाए, और शैतानी वसाविस और नफ़्सानी ख़्वाहिशात उससे दूर हो जाएं, और उसके बातिन में नूर के ज़िक्र का जौहर नुमायाँ हो जाए, यहाँ तक कि उसका ज़िक्र मुशाहिदा-ए-मज़्कूर को तजल्ली दे।और ये वो मर्तबा-ए-बुलंद और अ’तिया-ए-उ’ज़मा है कि इसके हुसूल के लिए उम्मत के अस्हाब-ए-हिम्मत और अर्बाब-ए-बसीरत की गर्दनें बढ़ती हैं।

वफ़ातः-

हज़रत सदरुद्दीन का विसाल मुल्तान में 3 माह-ए-ज़िल्हिज्जा को ज़ुहर-ओ-अ’स्र के दर्मियान हुआ।तारीख़-ए-फ़रिश्ता में साल-ए-वफ़ात सन 776 हिज्री है, जो ग़लत मा’लूम होता है। सफ़ीनतुल-औलिया, और मिर्क़ातुल-असरार में सन 684 हिज्री दर्ज है। सफ़ीनतुल-औलिया के मुसन्निफ़ का बयान है कि

“वरूद-ए-मुल्तान ब-ख़ानक़ाह-ए-वालिद-ए-बुज़ुर्गवार-ए-ख़ुद हीजदः साल बा’द अज़ ईशां ब- इर्शाद-ओ-तक्मील-ए-तालिबान-ओ-मुर्शिदान इश्तिग़ाल दाश्तंद”।  

हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया के साल-ए-वफ़ात का सहीह तअ’य्युन नहीं हो सकता है, अगर सन 656 हिज्री तस्लीम कर लिया जाए तो हज़रत शैख़ सदरुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह का साल-ए-विसाल 624 हिज्री हो सकता है। मिर्अ’तुल असरार के मुअल्लिफ़ का बयान है कि वफ़ात के वक़्त उ’म्र 69 साल की थी। मगर बा’ज़ तज़्किरों में 73 साल भी बताया  जाता है, इसलिए तारीख़-ए-विलादत का तअ’य्युन मुश्किल है, गो बा’ज़ रिवायतों के मुताबिक़ शब-ए-जुमआ’ सन 611 हिज्री बताया गया है।मर्क़द-ए-मुबारक मुल्तान ही में हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया के पहलू में है।

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