समकालीन खाद्य संकट और ख़ानक़ाही रिवायात

आज दुनिया संगीन क़िस्म के ग़िज़ाई बोहरान से नबर्द-आज़मा है, जदीद टेक्नॉलोजी के दौर में तरक़्क़ियाती दा’वों के बा’द भी आ’लमी सतह पर ग़िज़ा की शदीद क़िल्लत के सबब भूक से होने वाली अमवात की शरह में तश्वीश-नाक हद तक इज़ाफ़ा होता जा रहा है और भूक आ’लमी मसाएल में एक संगीन सूरत इख़्तियार कर गई है।आज दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को दो  वक़्त की रोटी मुयस्सर नहीं है।जंग-ज़दा इ’लाक़ों में ये सूरत-ए-हाल क़ाबिल-ए-रहम है, जहाँ लोग अपनी भूक मिटाने के लिए घास-फूस और दरख़्तों के पत्ते खाने पर मजबूर हैं।आ’लम-कारी के इस दौर में भी इंसानी आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से का आब-ओ-दाना के ब-ग़ैर मौत के मुंह में समा जाना आ’लम-गीरियत के लिए बहुत बड़ा चैलेंज है।पेट की आग बुझाने के लिए मुतअस्सिरीन न सिर्फ़ संगीन जराएम के इर्तिकाब पर मजबूर हो रहे हैं बल्कि इंसानी स्मगलरों का लुक़्मा-ए-तर भी बन रहे हैं।एक सर्वे के मुताबिक़ दुनिया में हर रोज़ 10 लाख अफ़राद भूके सोते हैं और दुनिया का हर चौथा शख़्स फ़ाक़ा-ज़दा है।जबकि दुनिया में 3 करोड़ से ज़ाएद बच्चे भूक से मुतअस्सिर हैं।ख़ुराक की कमी की वजह से हर चार सेकंड़ में एक इंसान की मौत हो जाती है।1000 बच्चों समेत 25000 इंसान रोज़ाना मौत की अबदी नींद सो जा रहे हैं। 90 लाख से ज़्यादा ऐसे लोग हैं जो नाक़िस ग़िज़ाई क़िल्लत के सबब मलेरिया, कैंसर, ऐड्स और दीगर मूज़ी अमराज़ का शिकार हो कर अपनी जान गंवा बैठे हैं। आ’लमी इदारा-ए-सेहत की रिपोर्ट के मुताबिक़ हर बरस सौ मिलियन से ज़्यादा बच्चे पैदाइश के वक़्त कम-वज़्न होने की वजह से इस दुनिया में क़दम रखने से पहले ही मर जाते हैं। दुनिया में 50 लाख से ज़्यादा माऐं ख़त-ए-ग़ुर्बत से नीचे ज़िंदगी गुज़ार रही हैं और उनमें से 30 हज़ार माऐं हर बरस मौत से हम-आग़ोश हो जाती हैं।दुनिया के एक अ’रब 20 करोड़ इंसान यौमिया  एक डॉलर पर गुज़र बसर कर रहें हैं।आ’लमी इदारा अक़्वाम-ए-मुत्तहिदा के मुताबिक़ आज 80 ममलिक ग़िज़ाई बोहरान से शदीद तौर पर दो-चार हैं।उनमें अफ़्रीक़ी ममलिक और शिमाली कोरिया के साथ जंग-ज़दा अ’रब ममालिक शाम, इ’राक़, फ़िलिस्तीन,अफ़्गानिस्तान और बर्मा सेमेत दीगर अ’रब ममालिक में ख़ुराक की सूरत-ए-हाल इंतिहाई संगीन है।

हिंदुस्तान की सूरत-ए-हाल

अगर हम अपने मुल्क,हिंदुस्तान,की बात करें तो इंडियन चिल्ड्रेन हेल्थ अकेडमी के एक सर्वे के मुताबिक़ यहाँ ग़िज़ा की कमी, नक़्स-ए-तग़्ज़िया और ख़ून की कमी के बाइ’स रोज़ाना 4600 बच्चों की मौत हो जाती है।या’नी औसतन फ़ी-मिनट तीन बच्चे ज़िंदगी की जंग हार जाते हैं।अकेडमी के सद्र डॉक्टर सी.पी. बंसल के मुताबिक़ 50 फ़ीसद  अम्वात की वजह नक़्स-ए-तग़्ज़िया,जबकि 50 फ़ीसद अम्वात का सबब एनीमिया या’नी ख़ून की कमी है।रिपोर्ट के मुताबिक़ हुकूमत-ए-हिंद बच्चों की सेहत के मंसूबों पर जितनी रक़म ख़र्च करती है,अगर उसे ग़रीबों में तक़्सीम कर दिया जाए तो उस से मुल्क से ग़रीबी भी ख़त्म हो जाएगी और ग़िज़ा और नक़्स-ए-तग़्ज़िया के सबब होने वाली अम्वात का सिलसिला भी ठहर जाएगा।

ग़िज़ाई क़िल्लत के मसाएल से निमटने के लिए 1945 ई’स्वी में ‘तंज़ीम बरा-ए-ज़राअ’त-ओ-ख़ुराक’ नाम से एक आ’लमी इदारा वजूद में आया।192 ममलिक और एक तंज़ीम ‘यूरपी कम्यूनिटी’ इसके रुक्न हैं और 130 ममलिक में इस तंज़ीम के दफ़ातिर हैं। तंज़ीम का अहम मक़्सद ग़ुर्बत, इफ़्लास और भूक के मसाएल से निमटना है।तंज़ीम बरा-ए-ख़ुराक-ओ-ज़राअ’त की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2009 में एक अरब करोड़ लोग ख़ुराक की क़िल्लत का शिकार हैं।मुतअस्सिरीन की सब से ज़्यादा ता’दाद ऐशियाई ममालिक के लोगों की है जो 64 करोड़ 20 लाख है, जब कि तरक़्क़ी-याफ़्ता ममलिक में यह ता’दाद ढेड़ करोड़ है।दुनिया को भूक के मसाएल से नजात दिलाने के लिए अक़्वाम-ए-मुत्तहिदा की जद्द-ओ-जिहद और उसके ख़ुसूसी प्रोग्राम पर अ’मल-दरामद होते हुए निस्फ़ सदी से ज़्यादा का अ’र्सा बीत गया, लेकिन आज भी मसाएल जूँ के तूँ बल्कि रोज़-अफ़्ज़ूँ हैं।आ’लमी ख़ुराक के मसाएल से मुतअ’ल्लिक़ अ’वाम में आगाही पैदा करने और भूक,नाक़िस ग़िज़ा और ग़ुर्बत के ख़िलाफ़ बेदारी लाने के लिए दुनिया भर में 16 अक्तूबर को ख़ुराक का आ’लमी दिन मनाया जाता है, लेकिन अलमिया ये है कि हज़ार जतन के बावजूद इसके हौस्ला-अफ़्ज़ा नताएज  सामने नहीं आ पा रहें हैं।

दूसरी आ’लमी जंग के बा’द से दुनिया मुहाजिरीन और पनाह-गुज़ीनों के बद-तरीन बोहरान से दो-चार हैं।आज शाम और बर्मा से हिज्रत कर के यूरपी ममलिक में पनाह लेने वालों की दर्द-नाक दास्तान से भला कौन ना-वाक़िफ़ है।एलन कुर्दी की मौत ने पूरी इंसानी दुनिया के ज़मीर को झिंझोड़ कर रख दिया।कितने मुहाजिरीन तारीक राहों के शिकार हो गए,जबकि अन गिनत ऐसे हैं जो इंसानी स्मगलरों के चंगुल में फंस कर मुसीबत से नजात पाने की कोशिश में उस से बड़ी परेशानी में मुब्तला हो गए। पनाह-गुज़ीनों के लिए दो-चार ममलिक के सिवा दीगर ममालिक ने जिस संग-दिली का मुज़ाहरा किया है, वो इंसानियत के माथे पर एक कलंक है।

तस्वीर का दूसरा रुख़

ग़िज़ाई मसाएल से नबर्द-आज़मा ज़माना की दुनिया की एक दूसरी तस्वीर भी है जो हमारी तवज्जोह का तालिब है।अक़्वाम-ए-मुत्तहिदा के इदारा एफ़.ऐ.ओ की रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल 1.3 अरब टन खाना बर्बाद हो जाता है।जब कि दुनिया में 2.84 करोड़ अफ़राद भुक-मरी के शिकार हैं।या’नी बर्बाद होने वाले अनाज का अगर एक तिहाई हिस्सा भी बचा लिया जाए तो दुनिया के तमाम भूके लोगों का न सिर्फ़ पेट भर जाएगा बल्कि उनकी सेहत-मंद जिंदगी को तरक़्क़ियाती कामों में इस्ति’माल कर के तरक़्क़ी की एक नई तारीख़ रक़म की जा सकती है। एफ़. ऐ. ओ के माहिरीन के मुताबिक़ अगर हर साल बर्बाद होने वाले अनाज को बचा लिया जाए तो 2050 ई’स्वी तक दुनिया की आबादी को पेट भरने के लिए फ़क़त 32 फ़ीसद अनाज में इज़ाफ़ा करने की ज़रूरत पड़ेगी।अगर बर्बादी जारी रही तो उस के लिए अनाज की पैदावार में 60 फ़ीसद से ज़्यादा इज़ाफ़ा करना होगा तब जाकर लोगों का पेट भर पाना मुम्किन होगा।एफ़.ऐ.ओ, रिपोर्ट के कंवेनर का कहना है कि जितना अनाज हर साल बर्बाद होता है,उसे उगाने में हिंदुस्तान और कनाडा के पूरे जुग़्राफ़ियाई हिस्से के बराबर जगह लगती है। एफ़.ए.ओ ने ग़िज़ाई क़िल्लत और ग़ैर मुतवाज़िन खान-पान के पेश-ए-नज़र तंबीह करते हुए कहा कि सेहत पर ख़र्च की बोहतात और अनाज की पैदावार में कमी के सबब समाज पर इसका ज़्यादा बोझ पड़ता है।दुनिया में पाँच साल की उ’म्र के हर चार में से एक बच्चा कमज़ोर है।या’नी कुल 16.5 करोड़ बच्चे ग़िज़ाई कमी के शिकार हैं जो अपनी पूरी ज़ेहनी-ओ-जिस्मानी ताक़त का इस्ति’माल नहीं कर पाऐंगे।सर्वे के मुताबिक़ दुनिया में दो अरब से ज़्यादा लोगों में अच्छी सेहत के लिए ज़रूरी विटामिन और मा’दनियात की कमी है।साथ ही 1.4 अरब लोग मोटापे का शिकार हैं।उन मोटे लोगों में से तक़रीबन एक तिहाई आबादी को हड्डी का मरज़, शूगर और दीगर मोटापे से होने वाली बीमारियाँ लाहिक़ होने का ख़तरा है।एजेंसी का कहना है कि अगर सरमाया-दार तबक़ा ग़िज़ाई क़िल्लत को दूर करने के लिए पाँच साल तक सालाना 1.2 अरब डॉलर की सरमाया-कारी करें तो लोगों की सेहत में सुधार और बच्चों की शरह-ए-अम्वात में कमी और मुस्तक़्बिल में उनकी उ’म्र में इज़ाफ़े के इम्कानात रौशन हो जाऐंगे। इस से मुस्तक़्बिल में सालान 15.3 अरब डॉलर की बचत होगी।

बहरहाल दुनिया को इस मुसल्लमा हक़ीक़त से आँखें नहीं चुराने चाहिए कि भूक इंसान को हैवान बनाती है और इस से चोरी, डाके, क़त्ल और ऐसे-ऐसे जराएम के इर्तिकाब पर मज्बूर करती है, जिस गुनाह का इंसान तसव्वुर भी नहीं कर सकता।लेकिन इफ़्लास तमाम तसव्वुरात को हक़ीक़त में बदल देता है।आज भी अफ़्रीक़ी ममालिक के कुछ हिस्सों में एक वक़्त के खाने की क़ीमत ख़ातून को अपना जिस्म बेच कर चुकानी पड़ती है।यही वजह है कि यहाँ ऐड्स मुतअस्सिर अफ़राद की ता’दाद की बोहतात है।भूक से पैदा होने वाले जराएम की तफ़्सीलात तवालत का मुतक़ाज़ी है, जिसका ये मौक़ा’ नहीं।

मुझे ये लंबी तम्हीद इसलिए बाँधनी पड़ी ताकि भूक और ख़ुराक की क़िल्लत जैसे आ’लमी बोहरान का अंदाज़ा पूरी तरह हो सके और इस से नजात के लिए सूफ़िया-ए-किराम के तरीक़ा-ए-कार के तफ़्सीली तज्ज़िए की राह हमवार हो सके।जैसा कि ऊपर आया कि ग़िज़ाई बोहरान से नजात के लिए अक़्वाम-ए-मुत्तहिदा जैसा आ’लमी इदारा तक़रीबन निस्फ़ सदी से जेहद-ए-मुसलसल में मसरूफ़ है, लेकिन हनूज़ ख़ातिर-ख़्वाह कामयाबी से महरूम है। इस के अस्बाब पर गुफ़्तुगू करना चूँकि हमारे मक़ाले को नफ़्स-ए-मौजूअ’ से कुछ दूर कर देगा, इसलिए हम यहाँ ख़ुराक से महरूम अफ़राद तक ग़िज़ा की रसाई के लिए सूफ़िया और ख़ानक़ाहों के ज़रिऐ’ अपनाए गए रिवायती निज़ाम पर ख़ामा-फ़र्साई करेंगे।जिस पर अगर पचास फ़ीदस भी सच्चे दिल से अ’मल कर लिया जाए तो अ’जब नहीं कि दुनिया हालिया ग़िज़ाई दलदल से बाहर निलक आए।

इस्लाम और भूकः

दीन-ए-इस्लाम ने एहतिराम-ए-इंसानियत को अव्वलियत बख़्शी और तमाम तरह की तफ़रीक़ से बाला-तर होकर बर बिना-ए-इंसानियत ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ख़िदमतपर अज्र का मुज़्दा सुनाया। ये सहीह है कि इस्लाम ने ग़ुर्बत की मद्ह नहीं की लेकिन हमेशा ग़रीबों की हौस्ला-अफ़्ज़ाई की।समाज के मआ’शी इस्तिहकाम,भूक और इफ़्लास के ख़ातमे के लिए क़ुरआन-ए-मुक़द्दस और अहादीस में इंफ़ाक़ फ़ी-सबी-लिल्लाह,यतीमों की परवरिश,बे-आसरा लोगों की किफ़ालत,मज़्लूमों की दाद-रसी और मसाकीन को खाना खिलाने की बार-बार ताकीद की है।भूकों को खाना खिलाने,प्यासों के लिए पानी और हाजत-मंदों की ज़रूरत पूरी करने की तर्ग़ीब देते हुए उस पर आख़िरत में बेहतर बदला का वा’दा किया गया और ग़ुरबा-ओ-मसाकीन की ख़िदमत को ईमान की अ’लामत क़रार दिया गया।क़ुरआन में हैः

व-युत्इ’मू’नत्तआ’-म-अ’ला हुब्बिहि-मिस्कीनव-व-यतीमव-व-असीरा-इन्नमा नुत्मिउ’कुम- लि-वज्हिल्लाहि-ला-नुरीदु मिनकुम- जज़ाअवं-व-ला-शकूरा। (सूरा-ए-दह्रः 14)

और अल्लाह की मोहब्बत में मिस्कीन और यतीम और क़ैदी को खाना खिलाते हैं और उन से कहते हैं कि हम तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह की ख़ातिर खिला रहे हैं।हम तुम से न कोई बदला चाहते हैं न शुक्रिया।

व-मा-अदराक-मल-अक़-ब-तु-फ़क्कु-रक़्बतिन अव-इत्आ’मिन फ़ी-यौमिन ज़ी-मस्ग़बतिन यतीमन ज़ा-मक़्रबतिन-अव-मिस्कीनन ज़ा मत्रबतिन (सूरा-ए-बलदः 16)

और आपको क्या मा’लूम कि वो घाटी क्या है।गर्दन का छुड़ाना। भूक के दिन खिलाना।किसी रिश्ता-दार यतीम को किसी ख़ाक-नशीन को।

इंसान को मआ’शी ख़ुश-हाली के बा’द तंग-दस्ती और उ’स्रत की वज्ह क़ुरआन में ये बयान की गई है :

कल्ला- बल ला-तुक्रिमूनल-यतीम-व-ला-तुहाज़्ज़ून-अ’ला तआ’मिल-मिस्कीनि-व-ताकुलूनत्तुरा-स-अकलल लम्मा। (सूरा-ए- फ़ज्र 19)

हर्गिज़ नहीं बल्कि तुम यतीम की इ’ज़्ज़त नहीं करते और न मिस्कीन को खाना खिलाने की तर्ग़ीब देते हो और मय्यत का तर्का सब समेट कर खा जाते हो।

वा’बुदुल्लाह-व-ला-तुश्रिकू-बिहि-शय्यन व-बिल-वालिदैनि एह्सानन- व-बिज़िल-क़ुर्बा-वल-यतामा वलमसाकीनि वलजारिज़िल-क़ुर्बा वल-जारिल-जुनुबि-वस्साहिबि-बिल-जंबि व-इब्निस्सबीलि- व-मा मलकत ऐमानुकुम। (सूरा- अन्निसाः 36)

और अल्लाह तआ’ला की इ’बादत करो।किसी को उसका शरीक मत बनाओ।वालिदैन, अइ’ज़्ज़-ओ-अक़ारिब,यतीमों,मिस्कीनों और क़रीब-ओ-दूर के पड़ोसियों,हम-नशीन और हम मज्लिस लोगों, मुस्फ़िरों और दूसरे तमाम मुलाज़िमों के साथ नेकी-ओ-एहसान का सुलूक करो।

क़ुरआन-ए-मुक़द्दस में कई मक़ामात पर कफ़्फ़ारा के तौर पर भूकों और मिस्कीनों को खाना खिलाने का हुक्म दिया गया है।

हुज़ूर सादिक़-ओ-मस्दूक़ सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम ने फ़रमाया कि दीन तो सरासर ख़ैर-ख़्वाही का नाम है और तमाम मख़्लूक़ को ख़ुदा का कुंबा क़रार दिया।जैसा कि मिश्कात शरीफ़ में हैः

अल-ख़ल्क़ु अ’यालुल्लाहि फ़-अहब्बुल-ख़ल्क़ि-इलल्लाहि मन अह्सन अ’ला अ’यालिहि।या’नी सारी मख़्लूक़ अल्लाह का कुंबा है।और इसलिए अल्लाह तआ’ला के नज़्दीक तमाम मख़्लूक़ में सब से ज़्यादा महबूब और पसंदीदा वो आदमी है जो उसके कुंबे (मख़्लूक़) के साथ नेकी करे।(मिश्क़ातुल-मसाबीह,बाब-शेअ’बुल-ईमान)

रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम न सिर्फ़ ग़ुरबा-ओ-मसाकीन और पड़ोसियों का बे-हद ख़याल फ़रमाया करते थे बल्कि ताकीद फ़रमाई थी कि अगर तुम रात को शिकम-सेर हो कर सोए और तुम्हारा पड़ोसी भूका सोया तो तुम्हारा खाना तुम्हारे लिए हलाल नहीं,अगर्चे वो यहूदी ही क्यूँ न हो।यहूदी इस लिए फ़रमाया कि वो मुसलमानों के जानी दुश्मन थे।आप अपने पड़ोसियों का किस दर्जा ख़याल फ़रमाते थे,उसका अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि एक मर्तबा जब आप अपने हुज्रे में तशरीफ़ लाए तो देखा कि हज़रत-ए-आ’इशा (रज़ि) सालन पका रही हैं।आपने फ़रमाया हुमैरा क्या पका रही हो?(आप प्यार से हज़रत-ए-आ’इशा को हुमैरा कहा करते थे)।उन्हों ने अ’र्ज़ कीः “या रसूल्लाह गोश्त पका रही हूँ’’।आप ने फ़रमायाः “उस में पानी ज़्यादा ड़ाल दो”।इस्तिफ़्सार पर फ़रमाया कि “गोश्त की ख़ुश्बू पड़ोसियों के घर जा रही है।उनका दिल भी मचल रहा होगा।इसलिए अगर गोश्त कम पड़ जाए तो कम-अज़ कम सालन ही उन्हें दे दो”। इसी तरह ताजदार-ए-विलायत हज़रत अ’ली रज़ि· ने एक साएल की ज़रूरत की तक्मील के लिए हसनैन-ए-करीमैन को रेहन रख दिया था।हज़रत अ’ब्दुल्लाह बिन उ’म्र किसी मिस्कीन की शिर्कत के बग़ैर खाना नहीं खाते थे।ख़लीफ़ा-ए-दोउम हज़रत उ’म्र फ़ारूक़ ने पहला “दारुल-क़ुज़ा” बनाया, जब कि ज़च्चा-बच्चा की बेहतर निगहदाश्त के लिए इस्लामी रियासत में पैदा होने वाले हर नव-मौलूद के लिए बैतुल-माल से वज़ीफ़ा मुक़र्र करने का हुक्म दिया।ख़िद्मत-ए-इंसानी ऐसा पहलू है, जिस की नज़ीर पेश नहीं की जा सकती।

ग़िज़ाई बोहरान और सूफ़िया की हिक्मत-ए-अ’मलीः

सूफ़िया-ए-किराम ने भूख के ला-यनहल मसाएल और ग़िज़ाई तहफ़्फ़ुज़ के लिए लंगर की रिवायत क़ाएम की,जिस के ज़रिऐ’ बड़ी आसानी के साथ भूक के मारे ग़ुरबा,मसाकीन और मोहताजों की शिकम-पर्वरी का एक सिलसिला चल पड़ा।ख़ानक़ाहों में लंगर की तक़्सीम का सिलसिला कब से शुरुअ’ हुआ, इस सिलसिले में हतमी तौर से कुछ नहीं कहा जा सकता।लेकिन मेरा ख़याल है कि जब ख़ानक़ाहें वजूद में आई हैं,तभी ये सिलसिला भी शुरुअ’ हुआ होगा।क्यूँकि ख़ानक़ाह की ता’मीर का एक अहम मक़्सद ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की हाजत-रवाई भी रही है।सूफ़िया सीरत-ए-नबवी को अ’मली ज़िंदगी का लाज़मी हिस्सा बनाते हुए ख़िद्मत-ए-इंसानी को ख़ुश्नूदी-ए-इलाही का सब से मक़्बूल ज़रिआ’ समझते थे।चूँकि भूक इंसान को हैवान बना देती है इसलिए सूफ़िया ने सब से ज़्यादा तवज्जोह इसी पहलू पर दी और अपनी ख़ानक़ाहों के दरवाज़े हर क़िस्म के इम्तियाज़ात से मुस्तसना रखते हुए ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के लिए खोल दिया,जहाँ एक ही दस्तरख़्वान पर शाह-ओ-गदा पहलू-ब-पहलू बैठ कर पेट की आग बुझाते थे। उमरा-ओ-शोरफ़ा उनके लंगर को बाइ’स-ए-फ़ख़्र-ओ-मुबाहात तसव्वुर करते थे जब कि ग़ुरबा-ओ-मसाकीन एक ने’मत। इ’ज़्ज़त-ए-नफ़्स का ऐसा ख़याल कि सूफ़िया और उनके ख़ुलफ़ा-ओ-ख़ुद्दाम उनकी मेज़बानी करते और उनकी दिल-जोई में कोई कसर उठा न रखते।सूफ़िया-ए-किबार की ज़िंदगी के मुतालए’ से ये बात वाशिगाफ़ होती है कि उन्हों  ने अपने लिए हमेशा फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा को तर्जीह दी,मगर मख़्लूक़-ए-ख़ुदा के राहत-ओ-आराम और अश्या-ए-ख़ुराक से महरूम अफ़राद तक रसाई के लिए कोशाँ रहे।सूफ़िया के यहाँ न सिर्फ़ भूकों की भूक मिटती थी बल्कि उन्हें रहने के लिए छत भी मुहय्या होती थी।अब आने वाले सफ़हात में मशाहीर सूफ़िया-ओ-मशाएख़ ने ग़रीबों की हाजत-रवाई और मुआ’शरे के शिकस्ता-हाल अफ़राद के लिए अपने ख़ानक़ाही निज़ाम-ए-लंगर के ज़रिए’ जो ग़िज़ाई बोहरान के हल में मिसाली किर्दार अदा किया है उसकी एक झलक मुलाहिज़ा होः

हज़रत शैख़ अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी (रहि·)

आपकी बड़ी तम्न्ना ये थी कि कोई भूका न रहे।आप फ़ुक़रा और मसाकीन की ख़िदमतकुशादा-पेशानी से फ़रमाते थे।नादार और मुसीबत-ज़दा इंसानों की दिल-जोई फ़रमाते और हुस्न-ए-सुलूक से पेश आते।आप फ़राख़ी और तंगी हर हाल में ख़र्च करने का आ’दी थे।नज़्र-ओ-फ़ुतूहात के यौमिया लाखों रूपये आते थे लेकिन सारी रक़म उसी दिन राह-ए-ख़ुदा में तक़्सीम फ़रमाते थे। रोज़ाना की आमदनी दिन के उजाले में तक़्सीम हो जाती थी। ग़रीबों और मिस्कीनों को अपने साथ बिठाते और खाना खिलाते और जो भी बन आती उनकी ख़िदमत करते थे।फ़रमाते अल्लाह माल-ओ-दौलत को प्यार नहीं करता बल्कि उसे तक़्वा और अ’माल-ए-सालिहा महबूब है।आपके लिए हर रोज़ चार पाँच रोटियाँ बनाई जातीं, जो दिन के आख़िरी हिस्से में आपके सामने पेश की जातीं।आप उसे टुकड़ों में कर के हाज़िरीन में तक़्सीम फ़रमाते और अपने लिए छोड़ रखते।फ़रमाया करते थे कि अगर सारी दुनिया मेरे क़ब्ज़े में हो तो भूकों को खाना खिला दूँ।ये भी फ़रमाया करते थे कि मेरी हथेली में सुराख़ है।कोई चीज़ इस में ठहरती नहीं।फ़रमाया करते थे मै ने तमाम आ’माल-ए-सालिहा की छान-बीन की है।उन में सब से अफ़ज़ल अ’मल भूकों को खाना खिलाना है।(सीरत-ए-ग़ौसुल-आ’ज़म)

हज़रत सय्यद अहमद कबीर रिफ़ाई’

आपने ग़रीबों और मिस्कीनों के लिए बा-ज़ाब्ता रोज़ीना मुक़र्र कर रखा था।यतीमों की किफ़ालत,मरीज़ों की अयादत,ज़ख़्मियों की मरहम-पट्टी,मज़्लूमों की नुसरत आपके मा’मूलात में शामिल थीं।आपकी शफ़क़त-ओ-मेहरबानी इंसानों से मुतजाविज़ हो कर हैवानात-ओ-हश्रातुल-अर्ज़ तक पहुँच गई थी।अलमआ’रिफ़िल-मुहम्मदिया में हैः

अपनी ज़रूरत के लिए किसी से कोई ख़िदमत नहीं लेते थे।आप फ़रमाते थे अगर मैं दूसरों से ज़्यादा ख़िदमत लूँ तो ख़ादिम कहाँ रहा। दस्तरख़्वान पर दो क़िस्म का खाना नहीं होता था। और आधी रोटी और एक रोटी से ज़्यादा कभी नोश नहीं फ़रमाते।इसकी तौजीह फ़रमाते कि अगर इस से ज़्यादा खाऊँ तो मैं आसूदा सोऊँ और ग़रीब-ओ-मसाकीन भूके सोएं।ख़ुदावंद-ए-क़ुद्दूस मुझ से मुवाख़ज़ा फ़रमाएगा कि तू आसूदा रहा और मख़्लूक़ भूकी रही।(तज़्किरा-ए-रिफ़ाई’, सफ़हा74)

हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दीः

आपको हर वक़्त बनी-नो-ए-’इंसान की ख़ैर-ख़्वाही और उसकी फ़ौज़-ओ-फ़लाह की फ़िक्र दामन-गीर रहती।आपके पास हज़ारों नज़्राने आते लेकिन आप सब ग़ुरबा-ओ-मसाकीन में तक़्सीम फ़रमाते।सालिकीन की कसीर ता’दाद आपकी ख़ानक़ाह में मौजूद रहती जिनके क़याम-ओ-तआ’म का सारा इंतिज़ाम आप ख़ुद करते। (अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़)

हज़रत दातागंज बख़्श सय्यद अ’ली हुज्वैरीः

आप फ़रमाते हैः “कि एक मर्तबा मैं इ’राक़ में दुनिया को हासिल करने और उसे (हाजत-मंदों में) लुटा देने में पूरी तरह मश्ग़ूल था।जिस की वज्ह से मैं बहुत क़र्ज़-दार हो गया।जिस किसी को भी किसी चीज़ की ज़रूरत होती,वो मेरी तरफ़ ही रुजूअ’ करता और मैं इस फ़िक्र में रहता कि सबकी आरज़ू कैसे पूरी करूँ। अंदरीं हालात एक इ’राक़ी शैख़ ने मुझे लिखा कि ऐ अ’ज़ीम फ़र्ज़द! अगर मुम्किन हो तो दूसरों की हाजत ज़रूर पूरी किया करो, मगर सब के लिए अपना दिल परेशान भी नहीं किया करो।क्यूँकि अल्लाह रब्बुल-आ’लमीन ही हक़ीक़ी हाजत-रवा है और वो अपने बंदों के लिए ख़ुद ही काफ़ी है”। (कश्फ़ुल-महजूब)

ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरीः

आप खाना बहुत कम तनाउल फ़रमाते।रियाज़त के ज़माने में लगातार सात-सात दिन तक रोज़े रखते और सिर्फ़ पाँच मिस्क़ाल की टिकिया से रोज़ा इफ़्तार करते।लेकिन आपकी ख़ानक़ाह भूकों और मिस्कीनों के लिए एक अ’ज़ीम पनाह-गाह थी।फ़क़्र-ओ-दरवेशी के बावजूद उनकी ख़ानक़ाह में शाहाना फ़यय्याज़ियों का दरिया बहता था।मत्बख़ में रोज़ाना इतना खाना पकता था कि तमाम ग़ुरबा-ओ-मसाकीन सैर हो जाते थे।आप फ़रमाते थे कि दरवेशी ये है कि किसी आने वाले को महरूम और मायूस न किया जाए।अगर कोई भूका है तो उसे पेट भर कर खाना खिलाया जाए और अगर कोई नंगा है तो उसे मुनासिब और नफ़ीस लिबास पहनाया जाए।ये सिलसिला अजमेर में आज भी जारी है।जहाँगीर बादशाह ने आपकी बारगाह में एक देग पेश की थी जो छोटी देग के नाम से मशहूर है।कहा जाता है कि उसमें अस्सी मन चावल पकता है। (सियरुल-अक़्ताब, सफ़हाः104,बज़्म-ए-सूफ़िया, सफ़हाः66)

हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी रहि·

फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा और ना-दारी के बावजूद लंगकर-ख़ाने में जो चीज़ होती फ़ौरन तक़्सीम कर देते।जिस रोज़ कोई चीज़ न होती तो ख़ानक़ाह के ख़ादिम से फ़रमातेः “अगर पानी हो तो उसी का दौर चलाओ कि कोई रोज़ बख़्शिश और अ’ता से ख़ाली न जाए।” (राहतुल-क़ुलूब, सफ़हाः75)

हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानीः

अक्सर ख़ुद खाना पकाते थे और दस्तरख़्वान की ख़िदमत ख़ुद किया करते थे।दरवेशों बिल-खुसूस तआ’म खाने के वक़्त क़ौफ़-ओ-हुज़ूर की रिआ’यत का हुक्म देते और ताकीद करते।अगर्चे दस्तरख़्वान पर बड़ा इज्तिमाअ’ होता मगर जब उनमें से कोई ग़फ़्लत से लुक़्मा खाता तो आप बराह-ए-शफ़्क़त-ओ-तर्बियत उसे आगाह फ़रमाते।दस्तरख़्वान पर चराग़ ख़ास तौर पर मेहमान के पास रखते ताकि उसे आसानी हो।अगर वो सो जाता और मौसम  सर्द होता तो घर में ख़्वाह एक कपड़ा ही होता वो मेहमान पर डाल देते।(तज़्किरा-ए-मशाएख़-ए-नक़्शबंदिया, सफ़हाः109)

एक मर्तबा मुल्तान में सख़्त क़हत पड़ा।वाली-ए-मुल्तान को ग़ल्ला की ज़रूरत पेश आई।शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने एक बड़ी मिक़्दार अपने हाँ से उसके पास भेजी।जब ग़ल्ला उसके पास गया तो उसके अंबार से नुक़रई टिकिया के सात कूज़े भी निकले।वाली-ए-मुल्तान ने शैख़ को उस की इत्तिलाअ’ दी तो उन्हों ने फ़रमाया कि हम को पहले से मा’लूम था, लेकिन ग़ल्ला के साथ उसे भी हम ने बख़्शा। (बज़्म-ए-सूफ़िया, सफ़हाः120,121)

हज़रत शाह रुक्नुद्दीन आ’लम मुल्तानीः

जब सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िल्जी के अ’हद-ए-हुकूमत में देहली तशरीफ़ लाए तो जिस रोज़ आप आए उस रोज़ बादशाह ने दो लाख टंके आप की नज़्र किए।और फिर जब देहली से रुख़्सत होने लगे तो पाँच टंके दिए।मगर आपने ये तमाम रक़म जिस रोज़ मिली उसी रोज़ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा में तक़्सीम कर दी। (सियरुल-औलिया)

हज़रत ख़्वाजा बाक़ी बिल्लाहः

हज़रत ख़्वाजा बाक़ी बिल्लाह रज़ि· बहुत ही ग़रीब-पर्वर थे।एक दफ़आ’ लाहौर में सख़्त क़हत-साली वाक़े’ हुई।उस ज़माने में आप लाहौर तशरीफ़ रखते थे।कई रोज़ तक आपने खाना नहीं खाया।जब आपके सामने खाना लाया जाता तो फ़रमाते “इंसाफ़ से बई’द है कि कोई भूका प्यासा गली-कूचों में जान दे और हम खाना खाएं”।फिर आप जिस क़दर खाना होता सब का सब भूकों के लिए भिजवा देते और क़ूत-ए-रूहानी पर गुज़ारा कते।

(ज़ुब्दतुलमक़ालात, ब-हवाला-तज़्किरा-ए-मशाएख़-ए-नक़्शबंदिया, सफ़हाः171)

हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज़-ए-शकरः

आपने बा-ज़ाब्ता जमाअ’त-ख़ाना की ता’मीर कराई थी जिसमें आने जाने वालों की हर ज़रूरत का ख़याल रखा जाता था।जमाअ’त-ख़ाने का एहतिमाम वहाँ के रहने वाले ख़ुद करते थे।जमाअ’त-ख़ाना में हर हाजत-मंदों और ज़रूरत-मंदों का हुजूम रहता।आपकी ख़ानक़ाह के दरवाज़े निस्फ़ शब तक खुले रहते और आपकी ख़िदमत में हाज़िर होने वाले हर शख़्स को कुछ न कुछ दे के लौटाया जाता ।लंगर-ख़ाने की तरफ़ से तरह-तरह  के खाने दस्तरख़्वान पर चुने जाते तो मेहमान खाते लेकिन ख़ुद तनाउल न फ़रमाते। ज़्यादा-तर ज्वार की रोटी पसंद फ़रमाते।जब ज़ाएरीन मिठाई लाते तो मिठाइयों का अंबार लग जाता लेकिन ये मिठाइयाँ अजोधन के बच्चों और दरवेशों में तक़्सीम कर दी जातीं।कोई महरूम न रहता।इ’बादत-ओ-रियाज़त के बा’द सिर्फ़ ख़ल्क़ुल्लाह की ख़िदमत ही की फ़िक्र रखते।आप के लंगर से रोज़ाना सैकड़ों अफ़राद शिक़म-सैर होते। यहाँ वक़्तिया मर्द-ओ-ज़न,ज़ई’फ़,यतीम और जवान अपनी रोज़ी हासिल करते थे।लंगर की तक़्सीम और एहतिमाम की ज़िम्मादारी बारह बरसों तक आप के भाँजे हज़रत अ’लाउद्दीन साबिर पाक ने बड़ी शान-ए-बे-नियाज़ी के साथ निभाई और मामूँ की इजाज़त के बग़ैर बारह बरसों तक लंगर तक़्सीम करते रहे। लेकिन एक निवाला भी नहीं खाया। (बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर, सफ़हाः52,53 तज़्किरा साबिर-ए-पाक, सफ़हाः36)

हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलियाः

आपकी ख़ानक़ाह से फ़ैज़ का दरिया बहता था।ग़ुरबा,मसाकीन और हाजत-मंदों की एक भीड़ थी जो आपकी ख़ानक़ाह से वाबस्ता थी।आप के ख़लीफ़ा ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के ब-क़ौल सुब्ह से शाम तक ख़ल्क़-ए-ख़ुदा आती रहती।इ’शा की नमाज़ के वक़्त भी ये सिलसिला जारी रहता था मगर माँगने वालों की ता’दाद नज़्र देने वालों से ज़्यादा ही होती थी।जो कोई चीज़ नज़्र लाता था, वो कुछ न कुछ अ’तिया पाता था। (ख़ैरुल-मजालिस, सफ़हाः 257- हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, सफ़हाः41,42)

हर जुमआ’ को नमाज़ से पहले सारे गोदाम इस तरह ख़ाली कर दिए जाते जैसे झाड़ू फेर दी गई हो।ख़ुद हमेशा रोज़े रखते।दस्तरख़्वान पर तरह-तरह की ने’मतें चुनी जातीं, लेकिन आप एक या आधी रोटी कुछ सब्ज़ी या थोड़े से चावल के सिवा कुछ न खाते।सहरी भी बहुत कम नोश फ़रमाते।अक्सर ब-ग़ैर सहरी के रोज़ा रखते।आप से कहा जाता कि आपकी ग़िज़ा बहुत कम है अगर सहरी में भी आप कुछ न खाएंगे तो कमज़ोर हो जाएंगे।आप जवाब देते “चंदीं मिस्कीनाँ-ओ-दरवेशाँ दर कुंजहा-ए-मसाजिद-ओ-दुक्कानहा गुर्सन:-ओ-फ़ाक़ः-ज़दः उफ़्तादःअंद, ईं तआ’म दर हल्क़-ए-मन चे गूनः फ़रो रवद-” (सियरुल-औलिया, सफ़हाः128)

आपका दस्तरख़्वान किसी बादशाह के दस्तरख़्वान से कम न था। दोनों वक़्त दस्तरख़्वान लगता और क़िस्म-क़िस्म की ने’मतें चुनी जातीं। ये दस्तरख़्वान मुसावात-ए-मुहम्मदी का आईना-दार था। अमीर और ग़रीब, मक़ामी और परदेसी, परहेज़-गार और गुनहगार सब एक साथ बैठ कर खाना खाते।आपके लंगर की ख़ुसूसियत ये थी कि यहाँ लोगों के लिए न सिर्फ़ पेट भर खाने का एहतिमाम था बल्कि उनहें अपने साथ ले जाने की भी इजाज़त थी।इस लिए ग़ुरबा-ओ-मसाकीन खाना खाने के बा’द अपने घर भी ले जाते थे।हिंदुस्तान का जलीलुल-क़द्र सुल्तान जो मुल्क के बादशाहों और राजा महाराजों से ख़राज वुसूल करता था, यहाँ नज़्राना दिया करता था और उन नज़्रानों की आमदनी से हज़ारों मुफ़्लिसों और नादारों की परवरिश होती थी। (हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, सफ़हाः41,42)

रौज़तुल-अक़्ताब के मुअल्लिफ़ के मुताबिक़ः तीन हज़ार अह्ल-ए-इ’ल्म और मुरीदों को हज़रत ख़्वाजा के यहाँ से वज़ीफ़े मिला करते थे। (बज़्म-ए-सूफ़िया, सफ़हाः256)

फ़ुतूहात और नज़्रानों का शुमार न था।कहीं से कपड़े के थान आ रहे हैं। कभी रुपये और अशरफ़ियाँ थाल में भरी नज़्र की जा रही हैं।कहीं से खाने के ख़्वान आ रहें हैं। सुब्ह से शाम तक नज़्राने आते और हज़रत सब तक़्सीम फ़रमा देते। एक पाई भी बचती तो बे-क़रार हो जाते और जब तक तक़्सीम न हो जाती बे-चैन रहते। (ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया, सफ़हाः 37)

हज़रत शाह अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ हाँस्वी

तवाज़ो’ तबीअ’त में बहुत थी। ख़ानक़ाह में फ़ुक़रा आते और क़याम करते थे।उनकी बड़ी सैर चश्मी से ख़ातिर की जाती।बीस-पचीस पचास-पचास फ़ुक़रा एक वक़्त में होते थे। सब को अनाज और पकाने का सामान जिस क़द्र माँगते दिया जाता। इसी वज्ह से आप मक़रूज़ रहा करते थे। जितनी आमदनी होती उसका एक हिस्सा अपनी ज़ात पर ख़र्च करते और बाक़ी  से फ़ुक़रा से सुलूक फ़रमाते।बल्कि अक्सर आमदनी में फ़ुक़रा से सुलूक में ख़र्च फ़रमा देते। इसी बुनियाद पर मक़रूज़ रहते थे। बा’द-ए-विसाल क़र्ज़ अदा किया गया।

(तज़्किरा हज़रत सय्यद साहब हाँस्वी, सफ़हाः114,118)

हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन महमूद चिराग़ देहलवीः

आपके हाँ फ़ारिग़ुल-बाली के ज़माने में मेहमान और मुरीद के लिए दस्तरख़्वान पर अच्छे-अच्छे खाने होते। ख़ुद तो साएमुद्दह्र होते, लेकिन मेहमानों को बड़े लुत्फ़-ओ-करम से लज़ीज़ खाने खिलाते।मेहमानों को लज़ीज़ खाना खिलाते वक़्त पंद-ओ-नसीहत का सिलसिला जारी रखते। एक बार दस्तरख़्वान पर उ’म्दा पुलाव था।हाज़िरीन को बड़ी शफ़क़त-ओ-मुहब्बत से खिला रहे थे। दस्त-ए-मुबारक से पुलाव बर्तनों में डालते और ताकीद फ़रमाते यारो ख़ूब ख़ाओ। (अख़्बारुल-अख़्यार)

हज़रत ख़्वाजा शाह मुहम्मद सुलैमान तोंस्वीः

आपने जब तोंसा शरीफ़ में मुस्तक़िल सुकूनत फ़रमाई तो उस वक़्त हालत ये थी कि रहने के लिए कोई मकान न था। फ़क़त एक झोंपड़ी थी, जिस में आप फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा से शुग़्ल फ़रमाते थे ।मगर अ’र्से के बा’द बड़े-बड़े उमरा, ओज़रा, नवाब और जागीर-दार आपकी क़मद-बोसी के लिए हाज़िर होने लगे तो कुछ फ़ुतूह (नज़्रानों) का सिलसिला भी शुरुअ’ हो गया और दुनिया की हर ने’मत आपके क़दमों में आती गई। लेकिन उन तमाम ने’मतों के बावजूद इस्तिग़ना और मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत का ये जज़्बा था कि आपके क़ाएम-कर्दा आसताना-ए-आ’लिया सुलैमानिया में हज़ारों तलबा,दरवेश,मेहमान और मुसाफ़िर हर रोज़ लंगर से खाना खाते थे।खाने के अ’लावा भी ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी की हर चीज़ मौजूद होती थी और बीमारी की हालत में अद्वियात भी लंगर से बिला मुआ’वज़ा मिलती थीं।एक मर्तबा लंगर-ख़ाने के एक बावर्ची ने अ’र्ज़ किया किः “हुज़ूर! इस महीने में पाँच सौ रुपये सिर्फ़ दरवेशों की दवाई पर ख़र्च हो गया है”। आपने फ़रमायाः “अगर पाँच हज़ार रुपये भी ख़र्च हो जाएं तो मुझे इत्तिलाअ’ न दी जाए। दरवेशों और तालिब-इ’ल्मों की जान के मुक़ाबले में रुपये-पैसे की कोई हक़ीक़त नहीं है।” (तज़्किरा-ए-ख़्वाजगान-ए-तोंस्वी-ओ-नाफ़िउ’स्सालिकीन)

आपने तोंसा शरीफ़ में अ’ज़ीम इ’ल्मी-ओ-दीनवी दर्स-गाह क़ाएम की, जहाँ पचास से ज़ायद उ’लमा-ओ-सूफ़िया फ़ारसी,अ’रबी,हदीस,तफ़्सीर, फ़िक़्ह,तसव्वुफ़, साइंस,तिब्ब-ओ-हिंद्सा वग़ैरा की ता’लीम देते थे।तलबा की ता’दाद उन मदारिस में ढ़ेड़ हज़ार से ज़ायद थी।तलबा,उ’लमा और फ़ुक़रा को लंगर-ख़ाने से खाना,कपड़े,जूते,किताबें,अद्विया और दिगर तमाम ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी मिलती थीं।आपको दर्स-ओ-तदरीस का बे-हद शौक़ था।मुरिदीन-ओ-ख़ुलफ़ा को कुतुब-ए-तसव्वुफ़ की ता’लीम देते थे।आप के ख़ुलफ़ा न बर्र-ए-सग़ीर पाक-ओ-हिंद के तूल-ओ-अ’र्ज़ में और उस से बाहर अपनी ख़ानक़ाहें क़ायम कीं।दीनी मदारिस का इज्रा किया। लंगर-ख़ाने क़ायम किए।आप इंतिहाई फ़य्याज़ और सख़ी वाक़े’ हुए थे। आपकी ख़ानक़ाह से हज़ारों ग़ुरबा-ओ-मसाकीन और मुहताज परवरिश पाते थे। इ’लाज के लिए बा-ज़ाब्ता तबीब मुक़र्र किया था और लंगर के एहतिमाम के लिए अलग-अलग अश्ख़ास मुक़र्र किया था।नज्मुद्दीन सुलैमानी आप के लंगर-ख़ाने के मुतअ’ल्लिक़ लिखते हैं कि

“तोंसा में मुस्तक़िल रिहाइश इख़्तियार करने के बा’द यहाँ भी लंगर का सिल्सिला शुरुअ’ किया।प्यारा नाम का हिंदू बक़्क़ाल था।उसे अपने लंगर का मो’तमिद मुक़र्र किया।फ़ुक़रा के उमूर के लिए इज्रा-ए-पर्वाना का काम मियाँ अ’ली महमूद के सुपुर्द फ़रमाया और मुस्तौफ़ी हिसाब मियाँ बरख़ुर्दार चाकी को वकील-ए-सरकार और तदबीर-ए-सलाह-कार नूर ख़ाँ गोरमानी को मुक़र्र किया।उनके फ़ौत होने के बा’द मियाँ गुल मुहम्मद फ़क़ीह दामान को मुशीर-ए-बा-तदबीर मुक़र्र किया।मुंशी-गिरी का ओ’हदा सिद्दीक़ मुहम्मद कासबी को अ’ता फ़रमाया।नीज़ हजाम,तरखान,लोहार, मोची, ख़ार-कश, कलाल,धोबी और कुटाना मुस्तक़िल तौर पर लंगर के रोज़ीना ख़्वार या मुलाज़िम थे।उन्हें माहाना तनख़्वाह मिलती थी।बीमारों के इ’लाज के लिए तबीब भी मुक़र्र थे। लाँगरी के ओ’हदा पर पहले महमूद का तक़र्रुर फ़रमाया।उनके बा’द क़ुबूल को लाँगरी मुक़र्र किया और फिर ख़ुदा-बख़्श लाँगरी मुक़र्र हुए।”

(ख़ातम-ए-सुलैमानी, सफ़हाः66 ब-हवाला मुल्तान की अदबी-ओ-तहज़ीबी ज़िंदगी में सूफ़िया-ए-किराम का हिस्सा, सफ़हाः327)

हज़रत ख़्वाजा बंदा नवाज़ गेसू दराज़ः

जब बादशाह ख़ानक़ाह आता तो उस दिन ज़्यादा खाना पकाने का हुक्म देते और जब दस्तरख़्वान बिछाया जाता और दस्तरख़्वान पर और लोग भी शरीक होते। बादशाह खाना खाता और बाक़ी-मांदा ब-तौर-ए-तबर्रुक अपने साथ ले जाता।मुक़र्रा कंदूरी (लंगर) से ज़्यादा आप बादशाह को न देते।(या’नी जितना दूसरों को देते उतना ही बादशाह को भी देते।) दस्तरख़्वान पर हर शख़्स के सामने चार रोटियाँ रखी जातीं।एक गहरी रिकाबी में सालन होता।दो-दो आदमी साथ खाते।हर शख़्स के सामने आश (सूप) का भी एक प्याला होता।खाने के दरमियान पानी नहीं दिया जाता।जब लोग खा कर फ़ारिग़ हो जाते तो हर शख़्स अपना बचा हुआ हिस्सा आश का प्याला उठा कर साथ ले जाता।लंगर ख़त्म हो जाने के बा’द बंदा नवाज अपने फ़र्ज़दों के साथ बैठ कर तनाउल फ़रमाते। लोगों के आगे से जो रोटी के टुकड़ बच जाते वो सब इकट्ठे किए जाते और उन टुकड़ों के ढ़ेर में से चंद टुकड़े लेकर नोश फ़रमाते।

(तज़्किरा,ख़्वाजा गेसू दराज़, सफ़हाः175,176)

हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमद नूरीः

आपको ग़ुरबा-ओ-मसाकीन का बे-हद ख़याल रहता था।कितने ग़ुरबा ख़ुद्दाम थे, जिनकी किफ़ालत आप फ़रमाते थे और वो भी अ’जब शान से कि ये किसी को मा’लूम न हो। बहुत से ग़ुरबा की तनख़्वाहें मुक़र्र थीं जो पोशीदगी के साथ उन तक पहुँचती थीं। ग़ुरबा-ओ-मुहताजीन की ख़ुद भी मुआ’वनत फ़रमाते और दूसरे को हुक्म होता कि उनकी मदद करे। (तज़्किरा-ए-नूरी, सफ़हाः170)

भूक से नजात के लिए सूफ़िया का ला-ज़वाल कारनामाः

सूफ़िया-ए-किराम ने एक ख़ुशहाल समाज तश्कील और ख़ुराक की कमी के मस्अले से नजात के लिए जो ख़िदमात अंजाम दी हैं, उसे शुमार में नहीं लाया जा सकता।ये महज़ चंद मिसालें हैं जो भूक से बद-हाल मुआ’शरे के लिए उनकी ख़िदमात की तर्जुमानी है। इसकी तफ़्सील एक दफ़्तर का तालिब है। सूफ़िया की तारीख़ के मुतालए’ से ये वाज़ेह हो जाता है कि उन्हों ने ख़ुद अपनी ज़िंदगी फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा और उ’स्रत में बसर की। रूखा-सूखा और आधे पेट खाया, लेकिन ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की ज़रूरतों का हद-दर्जा पास-ओ-लिहाज़ रखा। ख़ुराक से महरूम अफ़राद तक ग़िज़ा की रसाई के लिए लंगर का सिल्सिला जारी किया। समाज से ग़ुर्बत को ख़त्म करने और मुआ’शरे के मआ’शी इस्तिहक़ाम के लिए सलातीन, उमरा और रुऊसा की जानिब से आने वाले तमाम फ़ुतूहात-ओ-नज़्राने को ग़ुरबा-ओ-मसाकीन और मोहताजों में तक़्सीम फ़रमाते।[आज भी मुल्क-ओ-बैरून-ए-मुल्क की ख़ानक़ाहों में लंगर का रोज़ाना, हफ़्ता-वार, माहाना और ख़ास मवाक़े’ पर एहतिमाम होता है और वहाँ के सज्जादगान उसी शान-ए-बे-नियाज़ी का मुज़ाहरा करते हैं और एक ही दस्तरख़्वान पर बैठ कर उमरा, ग़ुरबा और मोहताजों की जमाअ’त शिकम-सैर होती है।] छत से महरूम अफ़राद के लिए सूफ़िया की ख़ानक़ाहें आशियाना का मुतबादिल होतीं। मरीज़ों, के लिए अस्पताल, भूकों के लिए ख़ुराक की आमाजगाह और ता’लीम से महरूम लोगों के लिए मुफ़्त ता’लीम हासिल करने का एक मर्कज़ थी। सूफ़िया की ख़ानक़ाहों में न सिर्फ़ मुफ़्त खाने का एहतिमाम था बल्कि वहाँ ता’लीम-ओ-तर्बियत का भी ख़ूब-ख़ूब एहतिमाम होता था।सूफ़िया-ए-किराम की अक्सरियत अपने ज़माने के माहिर-ए-तिब भी हुआ करती थी।इसलिए वहाँ आने वाले बीमारों के लिए नुस्ख़े भी तज्वीज़ फ़रमाते थे।सूफ़िया के सवानिही तज़्किरों और मल्फ़ूज़ात में उनके बयान कर्दा तिब्बी नुस्ख़ा-जात और मुख़्तलिफ़ अमराज़ के हवाले से तज्वीज़ कर्दा इ’लाज़ को सुबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है।ख़िद्मत-ए-ख़ल्क़ के हवाले से तमाम सलासिल से वाबस्ता सूफ़िया-ओ-बुज़ुर्गान-ए-दीन के तरीक़ा-ए-कार तक़रीबन मुश्तरक रहे हैं। वो मेहमान-नवाज़ी, भूकों को खाना खिलाने, और ग़ुरबा-ओ-मसाकीन में अश्या-ए-ज़रूरत ख़ास तौर पर ख़ुराक की तक़्सीम को क़ुर्ब-ए-ख़ुदावंदी का अहम ज़रिआ’ तसव्वुर करते थे और ग़िज़ाई क़िल्लत से नजात के लिए कम खाने और भूकों को खिलाने, ज़ख़ीरा-अंदोज़ी से बचने की तल्क़ीन करते क्यूँकि बिस्यार ख़ोरी या पेट भर कर खाने से एह्तिराज़ और ज़रूरत-मंदों में ख़ुराक के दस्तियाब ज़ख़ाएर की मुंसिफ़ाना तक़्सीम पर मब्नी इस हिक्मत-ए-अ’मली से मुस्तफ़ाई मुआ’शरे में ग़िज़ाई क़िल्लात,ज़ख़ीरा-अंदोज़ी और नाजाईज़ मुनाफ़ा’-ख़ोरी पर क़ाबू पाने, तहफ़्फ़ुज़-ए-ख़ुराक, अमराज़-ए-शिकम और उस से जन्म लेने वाली पेचीदगियों के तदारुक और मुनासिब मिक़्दार में खुराक तक हर फ़र्द की आसान रसाई जैसे अहम फ़वाइद हासिल होते हैं। इस तरह मुआ’शरा दाख़िली बद-अमनी-ओ-बे-चैनी का शिकार होने की बजाए समाजी इस्तिहकाम की जानिब गामज़न रहता है।

ये सूफ़िया-ए-किराम की पाकीज़ा ता’लीमात की ही देन है कि आज भी दुनिया में सालों भर मीलाद की महफ़िलें, बुज़ुर्गान-ए-दीन के आ’रास और ग्यारहवीं शरीफ़, ख़त्म-ए-क़ुरआन-ओ-दीगर मवाक़े’ पर तबर्रुकात के तौर पर लाखों रुपये की मिठाइयाँ, खाना, कपड़े, सबील और दीगर अश्या-ए-ज़रुरत ग़ुरबा, मसाकीन और मुहताजों में तक़्सीम की जाती हैं।

आज क़ौमी-ओ-बैनुल-अक़्वामी सतह पर भूक जैसी मुसीबत के लिए अरबों खरबों की लागत से मुख़्तलिफ़ मंसूबे चलाए जा रहे हैं, फिर भी भूक से होने वाली अम्वात और ग़ुर्बत की शरह में कमी नहीं आ पा रही है।जंग-ज़दा इ’लाक़ों में लोग नान-ए-शबीना को तरस रहे हैं और छोटे-छोटे बच्चे गली-कूचों मं पेट की आग सर्द करने के लिए कूड़ा चुनते नज़र आ रहे हैं। गंदीग के अंबार से चुन-चुन कर सड़े गले खाना खाते हुए अफ़राद भी नज़र आते हैं। ये मंसूबे क्यूँकर कामयाबी से हमकनार नहीं हो पारहे हैं। इस के अस्बाब पर तफ़्सील से बह्स करने के बजाए सिर्फ़ ये कहना काफ़ी होगा कि सूफ़िया ने जो इंसानियत का अ’ज़ीम कारनामा अंजाम दिया है, उस की  बुनियाद खुलूसियत-ओ-लिल्लाहियत पर थी और आज ये चीज़ें नदारद हैं।अगर हुकूमत इन अहमियत की हामिल मंसूबों के लिए सूफ़िया की ख़ानक़ाहों को मुंतख़ब करे तो कुछ अ’जब नहीं की ग़िज़ाई क़िल्लत समेत मुतअ’द्दिद मसाएल से बहुत जल्द नजात मिल जाए। आज फिर भूक से दम तोड़ते बच्चों, बूढ़ो, जवानों, मुहताजों, यतीमों, बेवाओं और मसाकीन की नज़रें वो ख़ानक़ाहें ढ़ूँड रही हैं, जो उनके लिए जा-ए-पनाह थीं। तहफ़्फ़ुज़-ए-ख़ुराक को यक़ीनी बनाने और समाज को दाख़िली-ओ-ख़ारिजी इंतिशार से महफ़ूज़ रखने के लिए ख़ानक़ाहों के गद्दी-नशीनों को एक बार फिर अपनी ख़ानक़ाहों में लंगर के निज़ाम की नश्अत-ए-सानिया करनी होगी ताकि एक बार फिर से समाज में मुसावात-ए-मुहम्मदी का पर्चम लहराए और ग़ुरबा, मसाकीन और मुहताजों की हाजत-रवाई और मसीहाई का एक नया बाब खुल सके।नीज़ ग़िज़ाई क़िल्लत के बत्न से समाज में जन्म लेने वाले इंसानियत कुश जराएम का जनाज़ा निल सके।इसके लिए उम्मत के बा-सर्वत और इक़्तिदार पर बिराजमान अफ़राद को भी ख़ुलूस के साथ अपनी ज़िम्मादारी की अदाएगी के लिए फ़राख़-दिली का मुज़ाहरा करना होगा।

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(सब-एडीटरः रोज़नामा, इंक़लाब,पटना, (बिहार)

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