हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ चिश्ती अक़दार-ए-हयात के तर्जुमान-डॉक्टर सय्यद नक़ी हुसैन जा’फ़री

हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़,सदरुल-मिल्लत-वद्दीन,वलीउल-अकबर,अबुल-फ़त्ह सय्यद मोहम्मद हुसैनी दिल्ली में पैदा हुए (4 रजब सन 721 हिज्री)। उन्होंने अपनी उ’म्र-ए-अ’ज़ीज़ के अस्सी साल इसी शहर में गुज़ारे थे। सन 801 हिज्री में या’नी तैमूर के हमले के ज़माने में जब वो दिल्ली से गुलबर्गा मुंतक़िल हुए तो अपने साथ दिल्ली को वो मरकज़ियत भी लिए गए थे जिसने इस शहर-ए-मुबारक को ख़िलाफ़त-ए-चिश्तिया के तीन अकाबिर या’नी हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (रहि·) हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया (रहि·) और हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन महमूद, चिराग़ देहली के अन्फ़ास-ए-क़ुद्सिया से मुनव्वर किया था।बा’ज़ मुवर्रिर्ख़ीन ने हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर के साथ बाक़ी तीन ख़्वाजगान-ए-चिश्त को जो दिल्ली में मह्व-ए-ख़ाब हैं, हुज़ूर ख़्वाजा-ए-आ’ज़म हज़रत मुई’नुद्दीन हसन चिश्ती अजमेरी के ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के नाम से याद किया है। लेकिन अगर ख़िलाफ़त-ए-चिश्तिया के उस ज़र्रीं-दौर को हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ पर मुंतही किया जाए तो उन सबको बजा तौर पर ख़िलाफ़त-ए-चिश्तिया के “पंजतन-ए-पाक” के नाम से भी पुकारा जा सकता है।

हज़रत ख़्वाजा गेसू-दराज़ (रहि·) जिनको हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन महमूद चिराग़ देहली, की जाँ-नशीनी का शरफ़ हासिल हुआ,चिश्तियों में दीगर अ’ज़्मतों के अ’लावा अपनी तसनीफ़ात और मल्फ़ूज़ात के लिए भी मुमताज़ हुए। ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) के सिलसिले के बुज़ुर्गों में से किसी ने कोई तसनीफ़ नहीं छोड़ी। अलबत्ता सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के मल्फ़ूज़ात फ़वाइदुल-फ़ुवाद और मख़दूम हज़रत नसीरुद्दीन महमूद (रहि·) के मल्फ़ूज़ात ख़ैरुल-मजालिस में महफ़ूज़ हैं।

हज़रत ख़्वाजा गेसू-दराज़ के मल्फ़ूज़ात भी महफ़ूज़ हैं, लेकिन मल्फ़ूज़ात के अ’लावा मुतअ’द्दिद मौज़ूआ’त पर उनकी तसनीफ़ात भी हैं। हज़रत ख़्वाजा बंदानवाज़ गेसू दराज़ ने क़ुरआन की तफ़्सीर लिखी। मशारिक़ुल-हिकम की शरहें लिखीं। इसके अ’लावा शैख़-ए-अकबर हज़रत मुहीउद्दीन अल-अ’रबी के बा’ज़ रसाइल, रिसाला-ए-क़ुशैरिया और मशारिक़ुल-अनवार के तर्जुमे अ’रबी से फ़ारसी ज़बान में किए। अस्मारुल-असरार, हज़ाएरुल-क़ुद्स और हदाएक़ुल-उन्स जैसी अहम तसनीफ़ात छोड़ीं जिनका शुमार तसव्वुफ़ की अ’हम कुतुब में किया जाता है।जवामिउ’ल-कलिम हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) के मल्फ़ूज़ात का मजमूआ’ है जिन्हें उनके फ़र्ज़न्द-ए-अकबर सय्यद मोहम्मद अकबर हुसैनी ने जम्अ’ किया है। मे’राजुल-आ’शिक़ीन हज़रत गेसू दराज़ का हिंदवी कलाम है, गो जिसकी सनद के बारे में मुहक़्क़िक़ीन में इत्तिफ़ाक़ नहीं पाया जाता।ऐसी कसीरुत्तसानीफ़ शख़्सियत और ऐसे मरजा’-ए-ख़लाइक़ और ऐसी अ’ह्द-आफ़रीं शख़्सियत का एक ज़ात में जम्अ’ होना ऐसा हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ था जो फिर नज़र न आया।कहा जाता है कि हज़रत नसीरुद्दीन महमूद ने किसी को अपना जाँ-नशीन नामज़द नहीं किया।उस के बर-ख़िलाफ़ ये रिवायत भी तवातुर से बयान की गई है कि हज़रत चिराग़ देहली ने ख़्वाजा गेसू दराज़ को बा-क़ाए’दा और बा-ज़ाबता अपना जाँ-नशीन नामज़द किया।रिवायत यूँ है कि अय्याम-ए-अ’लालत में हज़रत चिराग़ देहली ने अपने किसी मो’तमद को अपने ख़ुलफ़ा की फ़िहरिस्त बना कर पेश करने का हुक्म दिया। फ़िहरिस्त पेश की गई लेकिन उसमें सय्यद मोहम्मद हुसैनी का नाम न देखकर  मख़दूम ने दूसरी फ़िहरिस्त बनाने का हुक्म दिया। सय्यद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ का नाम उसमें भी न था। हज़रत ने किसी क़दर ना-गवारी से फ़िहरिस्त मुरत्तब करने का हुक्म तीसरी बार दिया।तीसरी फ़िहरिस्त में आख़िरी नाम मुरत्तिबीन ने सय्यद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ का लिखा था। हज़रत चिराग़ देहली ने सय्यद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ के नाम पर साद बना दिया और ये गोया उनकी जाँ-नशीनी का ऐ’लान था।

हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ की रस्म-ए-मस्नद-नशीनी का जो ज़िक्र तज़्किरों में मिलता है वो हज़रत गेसू दराज़ के मरातिब और शैख़ के लिए उनके इ’श्क़ की अच्छी मिसाल है।कहा जाता है कि हज़रत चिराग़ देहली ने अपने और अपने बुज़ुर्गों के कोई आसार नहीं छोड़े। अपनी वसिय्यत के मुताबिक़ वो तमाम चीज़ें जो उन्हें उनके बुज़ुर्गों से मिली थी, उन्होंने अपनी क़ब्र में रखे जाने का हुक्म दिया था। चुनांचे जब हज़रत चिराग़ दिल्ली का विसाल  हुआ तो उनकी मय्यत को हज़रत गेसू दराज़ ही ने ग़ुस्ल दिया और जिस पलंग पर ग़ुस्ल दिया था, उसकी निवाड़ पलंग से जुदा कर के अपनी गर्दन में डाल ली और कहा कि ये मेरा ख़िर्क़ा है।ब-क़ौल मोहम्मद अ’ली सामानी,  मुअल्लिफ़, सियर-ए-मोहम्मदी, “बा’द-ए-ज़ियारत शैख़ हज़रत नसीरुद्दीन महमूद सज्जादा-ए-विलायत पर जल्वा-अफ़रोज़ हुए और अपना हाथ बैअ’त के लिए बढ़ाया। तालिबान-ए-हक़ को तल्क़ीन-ओ-इर्शाद फ़रमाने लगे, जैसे कि शैख़ नसीरुद्दीन महमूद तल्क़ीन-ओ-इर्शाद फ़रमाया करते थे। हज़रत चिराग़ दिल्ली का विसाल 18 रमज़ान सन 757 को हुआ और ख़्वाजा गेसू दराज़ सन 801 हिज्री में गुल्बर्गा मुंतक़िल हुए।इस तरह वो तक़रीबन 44 साल तक शैख़ नसीरुद्दीन महमूद चिराग़ देहली के सज्जादा-ए-विलायत पर जल्वा-अफ़रोज़ रहे और बा’द में जाँ-नशीनी का मन्सब और शरफ़ वो अपने साथ गुल्बर्गा ले गए।गुल्बर्गा में रियासत और ख़ानक़ाह का जो टकराव  पैदा हुआ और उसमें हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) ने जिस अ’ज़ीमत और फ़क़्र का मुज़ाहरा किया, उसने हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन महमूद चिराग़ दिल्ली की जाँ-नशीनी का हक़ अदा कर दिया। कहा जाता है कि सुल्तान फ़िरोज़ शाह बहमनी जो इब्तिदा में हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) का बड़ा मो’तक़िद था, बा’ज़ वजूह से बा’द में उनसे कशीदा हो गया।सुल्तान ने ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) से उस ख़ानक़ाह से जो क़िला’ और शाही महल्लात के कुछ क़रीब वाक़े’ थी ,कहीं और अपनी मज्लिस आबाद करने की ख़्वाहिश की।उ’ज़्र ये पेश किया कि ख़ानक़ाह में आने वालों की कसरत और वहाँ के इज्तिमाआ’त बज़्म-ए-सुल्तानी में ख़लल का बाइ’स बनते हैं। ख़्वाजा गेसू दराज़ ने शहर से दूर जहाँ अब उनका रौज़ा-ए-मुनव्वरा है नई ख़ानक़ाह आबाद की लेकिन सुल्तान की ख़ुश-नूदी हासिल करने से इंकार किया।वज्ह अस्ल में ये थी कि हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ सुल्तान फ़िरोज़ शाह के छोटे भाई अहमद शाह को अ’ज़ीज़ रखते थे कि वो उनका बड़ा मो’तक़िद था और उसके लिए उन्होंने सुल्तान बनने की दुआ’ भी की थी जो फ़िरोज़ शाह के लिए ना-गवारी का बाइ’स था। हुआ वही जिसकी पेशीन-गोई ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) ने की थी।सुल्तान का छोटा भाई अहमद शाह फ़िरोज़ शाह के बा’द तख़्त-नशीन हुआ और हज़रत ख़्वाजा (रहि·) की तर्बियत के फ़ैज़ से अहमद शाह वली बहमनी के नाम से मशहूर हुआ।हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन महमूद और सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रहि·) ने सलातीन और उनकी जाह-पसंदी से जो इस्तिग़्ना बरती वो दारुल-ख़िलाफ़ा दिल्ली की रिवायत थी।

अजमेर से दिल्ली और दिल्ली से अजोधन और अजोधन से फिर दिल्ली के मुसल्लस ने तहज़ीब-ए-नफ़्स और उ’बूदीयत और इ’श्क़ के जो चराग़ जलाए उन से एक आ’लम रौशन हुआ। उन बुज़ुर्गों ने अपने सिलसिले के तश्ख़्ख़ुस (IDENTITY) के ताने-बाने बिल्कुल मुख़्तलिफ़ बनाए।उन्होंने अपने को न सिर्फ़ ये कि हुक्मराँ जमाअ’त और उस के मफ़ादात से बिल्कुल्लिया अलग और आज़ाद रखा बल्कि उन आसाइशों से भी दूर रखा जो हलाल और जाएज़ थीं।बे-महल न होगा अगर हम आज अपने तशख़्ख़ुस की CRISIS से दूर सूफ़िया के तशख़्ख़ुस की फ़िक्र का मुक़ाबला करें।आज हिन्दुस्तान में मुसलमानों का तशख़्ख़ुस चंद ज़ाहिरी अ’लामात से इ’बारत है और वही हमारा अक़ल्लियती किरदार है और वही हमारी जिद्द-ओ-जहद और परेशानियों का बाइ’स। तेरहवीं और चौधवीं सदी के हिन्दुस्तान में भी कुछ लोगों को अपने तशख़्ख़ुस की फ़िक्र थी।वो क्या फ़िक्र थी? एक ऐसी बिरादरी FRATERNITY की तर्तीब और तंज़ीम जिसके अफ़राद कम खाने, कम सोने, कम बोलने और कम मेल-जोल रखने में फ़ख़्र करते थे,जो शब-बे-दार, ईसार-पेशा, नेक-ख़ू और इन्सान दोस्त थे और जो दर्दमंदी को अपने लिए सबसे बड़ी ने’मत समझते थे।हुज़ूर ख़्वाजा-ए-आ’ज़म हज़रत मुई’नुद्दीन चिश्ती के मुरीदों और उनके मुरीदों और उन मुरीदों के मुरीदों ने इस बिरादरी की तर्तीब में अपना खून-ए-जिगर शामिल किया और एक ऐसे समाज की ता’मीर की जिसकी ख़ुशबू आज तक महसूस की जाती है।हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ का कारनामा ये है कि उन्होंने अपनी तसनीफ़ात के ज़रिआ’ अपने अकाबिर की ता’लीमात को महफ़ूज़ किया और उसकी तशहीर का सामान किया। फ़वाइदुल-फ़ुवाद, सियरुल-औलिया और ख़ैरुल-मजालिस में गुफ़्तुगू का जो अंदाज़ मिलता है उस से ज़रा मुख़्तलिफ़ अंदाज़ जवामिउ’ल-कलिम का है।कई मज्लिसों में ख़्वाजा गेसू दराज़ ये कहते हुए पाए जाते हैं कि हमारे यहाँ का तरीक़ा ये है कि या हम लोगों में इस बात को पसंद किया जाता है, या हमारे ताइफ़े में ये रस्म है वग़ैरा वग़ैरा। या’नी सेग़ा जम्आ’-मुतकल्लिम। ऐसा शायद इसलिए है कि हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ जिस अ’ज़ीमुश्शान सिलसिले की कड़ी थे जब वो कोई बात कहते हैं तो गुज़श्ता और गुज़शता से पैवस्ता रिवायत उनकी रिवायत का जुज़्व बन जाती है और वो एक तरीक़ा से चिश्ती सिलसिला-ए-अक़दार के तर्जुमान के तौर पर नज़र आते हैं। और कहीं-कहीं सिर्फ़ चिश्ती ही नहीं बल्कि सिलसिला-ए-तसव्वुफ़ और उसकी इम्तियाज़ी ख़ुसूसियात के शारेह और रम्ज़-शनाश भी बन जाते हैं:

जवामिउ’ल-कलिम की 17 वीं मज्लिस में मज़कूर है: –

“शाम की नमाज़ के बा’द सूफ़ियान-ए-आ’ली-मर्तबत की जमाअ’त की ख़ूबियों का ज़िक्र आया तो फ़रमाया कि एक रोज़ इमाम शाफ़िई’ और इमाम अहमद हंबल (रहि·) सर-ए-राह बैठे हुए थे।एक चरवाहा गुज़रा।इमाम शाफ़िई’ (रहि·) ने कहा मैं एक मस्एला इस आम सूफ़ी से पूछता हूँ तो इमाम अहमद हंबल ने कहा ये अ’जीब क़ौम है। इनसे कोई चीज़ न पूछिए।इनको उन्हीं के हाल पर छोड़ दीजिए। आपने कहा मैं ज़रूर पूछता हूँ और कहा कि ऐ सूफ़ी अगर किसी शख़्स की पाँच वक़्त की नमाज़ों में से एक वक़्त की नमाज़ फ़ौत हो गई हो और वो नहीं जानता कि किस वक़्त की नमाज़ फ़ौत हुई है तो क्या करे। उन्होंने कहा कि वो मर्द-ए-ग़ाफ़िल है।उस से जाकर कहो कि पाँचों वक़्त की नमाज़ दोहराए। इमाम शाफ़िई’ हाय हाय करने लगे। बे-ताब हो गए और गिर पड़े और कहा कि अगर इस गिरोह के आ’मी लोगों का ये हाल है तो भला इनके उ’लमा और ख़्वास का क्या हाल होगा। हिकायत बयान की जाती है कि ग़ुलामुल-हलील जब उस गिरोह से बद-ऐ’तिक़ाद हो कर बाहर आ गए और उनको ईज़ा पहुँचाने की ख़ातिर ख़लीफ़ा की क़ुर्बत हासिल कर ली, यहाँ तक कि वज़ीर बन गए।हर बार ख़लीफ़ा के सामने उन लोगों का ज़िक्र करते और कहते कि ये एक ऐसी क़ौम है जो अ’जीब-अ’जीब बातें करती है। ख़ूब खाते हैं, मौज उड़ाते हैं, तह ख़ानों में रहते हैं और कुफ़्रियात बकते हैं, ज़िंदीक़ और मुल्हिद हैं।एक झूटा इल्ज़ाम-तराश के वज़ीर ने ख़लीफ़ा को उन लोगों के बारे में मज़ीद वर्ग़लाया तो ख़लीफ़ा ने कहा तुम जो चाहते हो करो।उसने अबू हमज़ा ख़ुरासानी को दीवान-ख़ाने में लाया और उसके क़त्ल का हुक्म दे दिया गया और उन्हें मक़्तल में ले जाया गया।पहले जुनैद को पकड़ा गया ताकि तलवार उनकी गर्दन पर चलाई जाए।अबुल-हसन नूरी आगे बढ़े और कहा ऐ जल्लाद अव्वल मेरी गर्दन पर तलवार चलाओ। जल्लाद ने कहा ऐ शख़्स किस चीज़ के लिए आगे बढ़ते हो? जानते हो उसका नाम मौत है तो उन्होंने कहा कि हाँ जानता हूँ मगर हमारा मज़हब ईसार है।जो कुछ होता है हम अपने दोस्तों के लिए ईसार करते हैं। हयात बाक़ी है और अगरचे हमारे नज़दीक हयात दुनिया की एक साअ’त बहिश्त की चार हज़ार साल ज़िंदगी से बेहतर है। मगर चुँकि हमारा मज़हब ईसार है इसलिए मैं उसको भी अपने दोस्तों के लिए ईसार करता हूँ। हर एक शख़्स इसी तरह इक़दाम करते हुए कहने लगा कि पहले मुझे मारा जाए। आख़िर ये क़िस्सा ख़लीफ़ा तक पहुंचा।उसने लोगों को दौड़ाया कि इन सबकी हिफ़ाज़त की जाए।हिफ़ाज़त की गई और ये क़ज़िया क़ाज़िउल-क़ुज़ात के हवाले कर दिया गया जो एक साहिब-ए-बयान शख़्स थे और उनकी बातें उसूल-ए-फ़िक़्ह की किताबों में ब-तौर-ए-दलील पेश की जाती हैं।उनको एक घर ले गए।उन्होंने शिबली को देखा कि उनमें ये एक दीवाना-सिफ़त आदमी है।उसी से पूछेंगे।उन्होंने कहा ऐ सूफ़ी सुनो अगर किसी शख़्स के बीस दिरम जम्अ’ हो जाएँ तो उस पर कितनी ज़कात अदा करनी चाहिए।उन्होंने कहा तीस दिरम।उसने कहा ये कैसी बात है तो कहा हमारी शरअ’ में तो यही है कि जो कुछ आए फ़ौरी ख़र्च कर दिया जाए तो कहा जब ये बात है तो बीस देने चाहिए तो फ़रमाया कि दस जुर्माने के हैं क्यूँकि शरअ’ का हुक्म ये है कि जो कुछ आए वो ख़ुदा की राह में ख़र्च करना चाहिए और ये माल जो तमाम साल जम्अ’ रहा उस पर जुर्माना आ’इद किया जा रहा है और वो दस उसी कफ़्फ़ारा में दिए जाने चाहिऐं। उस के बा’द जुनैद से पूछा गया तो ख़्वाजा जुनैद हक़ाएक़-ए-मआ’रिफ़, तौहीद-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-बारी तआ’ला बयान करने लगे। क़ाज़ी हैरान हो गए कि ये क्या बातें हैं और ये ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-बारी तआया’ला की कौन सी तौहीद है।उसने क़लम उठाया और काग़ज़ लिया ताकि उनके मज़ाहिब के बारे में हुक्म सादिर करे। इसी अस्ना में ख़्वाजा अबुल-हसन नूरी खड़े हो गए और कहा क़ाज़ी साहिब आप जैसे हैं उसी के मुताबिक़ आपने हमसे पूछा मगर हम जैसे हैं उसके बारे में आपने कुछ दरयाफ़्त नहीं किया।क़ाज़ी ने क़लम डाल दिया और पूछा आप कौन लोग हैं तो कहा कि हम जो होंगे सो होंगे मगर इसके साथ-साथ ये जानते हैं अगर एक लम्हा अल्लाह तआ’ला हमारे शाहिद-ओ-निगराँ न रहें तो हम अपनी जगह बाक़ी न रहेंगे।क़ाज़ी हाय हाय करते हुए रोने लगा और लिखा कि ये लोग मुसलमान हैं(“सफ़हात 72-75”)। उसके बा’द ख़लीफ़ा ने उनसे मा’ज़रत चाही और कहा की आप जो चाहते हैं फ़रमाईए मैं देने के लिए तैयार हूँ। ख़्वाजा जुनैद ने कहा इस के बा’द में चाहताहूँ कि न आप हमारा मुँह देखें और न हम आपका”

अपने मल्फ़ूज़ात और अपनी तसनीफ़ात में ख़्वाजा गेसू दराज़ ने अपने मशाइख़-ए-सिलसिला और दीगर सूफ़िया की इम्तियाज़ी ख़ुसुसियात का ज़िक्र बार-बार किया है।उनकी तहरीरों को पढ़ने से ये अंदाज़ा होता है कि उन्हें सूफ़िया की आ’म मुसलमानों और आ’म इन्सानों से मुख़्तलिफ़ और मुम्ताज़ अक़दार-ए-हयात का गहरा इ’र्फ़ान और एहसास था और वो उसे अपने अहल-ए-सिलसिला के लिए मंशूर बनाना चाहते थे।

अस्मारुल-असरार और जवामि’उल-कलिम में अपने मशाइख़ के मा’मूलात-ओ-मल्फ़ूज़ात और ता’लीमात के अ’लावा हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ ने तसव्वुफ़ के बा’ज़ दक़ाइक़ और ग़वामिज़ पर मबसूत और मुफ़स्सल आ’लिमाना बहसें की हैं।उन्होंने वुज़ू, नमाज़-ए-पंज-गाना,  चाश्त,  इशराक़,  नमाज़ फ़ी-ज़वाल, मा’मूलात-ए-शब, क़ैलूला, ऐ’तिकाफ़, आदाब-ए-तआ’म, आदाब-ए-समाअ’,  एहतिराम-ए-शरीअ’त, एहतिराम-ए-शैख़, शिर्कत-ए-जिहाद, बादशाह का अख़लाक़ और शाही मुलाज़िमों के अख़लाक़ जैसे मौज़ूआ’त पर लिखा है।तज़्किया-ए-अख़लाक़ के ज़िम्न में अस्मारुल-असरार में जो बातें मिलती हैं उनका मुख़्तसर ज़िक्र दिल-चस्पी से ख़ाली न होगा।

“जब तक एक शख़्स तमाम दुनियावी चीज़ों से फ़ारिग़ न हो जाए राह़-ए-सुलूक में गामज़न न हो, और जब वो किसी का मुरीद हो कर ख़ल्वत में बैठे तो अपने और दूसरों के तमाम हुक़ूक़ अदा करे। उसके पास बीवियाँ और कनीज़ें ज़्यादा न हों, उस में मुतलक़ रिया और गु़स्सा न हो। दुनिया-दारों की मज्लिसों और महफ़िलों से दूर रहे, विरासत में जो माल और दौलत मिलने वाली हो  उस से भी बाज़ आए।अगर कोई उसका माल भी ले-ले तो उसके लिए शोर-ओ-ग़ौग़ा न करे। वो किसी दूसरे के ख़ैर-ओ-शर से वास्ता न रखे।अपने दिल से हिर्स और हवस को दूर करे।अगर दूर न हो तो मुजाहदा और रियाज़त करता रहे।उसको हमेशा अपनी मौत का मुंतज़िर रहना चाहिए।ऐसी तफ़रीह से जो जाएज़ भी हो परहेज़ करे। आज का काम कल पर न उठा रखे।किसी हाल में अपने नाम को शोहरत न दे। बाज़ार सिर्फ़ शदीद ज़रूरत के वक़्त जाए। फ़ुक़हा ने तहारत-ओ-लताफ़त की जो बातें बताई हैं, उन पर अ’मल करे। उनसे ज़्यादा पर अ’मल करना बे-कार है।गुर-संगी, तिश्नगी और शब-बे-दारी को दोस्त रखे। ग़ुलामों और कनीज़ों से सख़्ती से पेश न आए। लोगों की आमद-ओ-रफ़्त अपने यहाँ ज़्यादा न होने दे। अमीरों की सोहबत से गुरेज़ करे। अगर कोई दो वक़्त मुसलसल उस को खाना ला कर दे तो तीसरे वक़्त उसकी सोहबत से गुरेज़ करे क्यूँकि फ़ाक़ा नफ़्स की तिश्नगी के लिए ज़रूरी है।मुसीबत के वक़्त मुज़्तर और मुज़्तरिब न हो। किसी हाल में न रोए। रोए भी तो इस के लिए कि कहीं मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचने से पहले उसको मौत न आ जाए।अपनी दराज़ी-ए-उ’म्र के लिए ख़ुदावन्द-तआ’ला से दुआ’ करता रहे।राह़-ए-सुलूक में उसको तरक़्क़ी-ए-दर्जात हासिल हो।पंद-ओ-नसाएह का फ़र्ज़ अंजाम न दे क्यूँकि ये काम कामिलों का है। सुलूक पर कोई किताब लिखने की भी कोई कोशिश न करे क्योंकि ये काम आ’रिफ़ों का है। ज़्यादा-तर ख़ामोश रहे।”

मा’मूलात-ए-शबः फ़रमाते हैं- “सालिकों की नींद भी एक ख़ास क़िस्म की होती है।वो सोएँ तो अपने वजूद से बा-ख़बर रहें और सोते वक़्त ये सोचें कि नींद अल्लाह तआ’ला से मुतअ’ल्लिक़ है, अल्लाह तआ’ला की तौफ़ीक़ से है और अल्लाह ही के लिए है और अल्लाह ही की जानिब से है। जो नींद अल्लाह को भुला दे वो क़ाबिल-ए-मज़म्मत है।बा’ज़ सूफ़िया को नींद में ऐसी बातें मा’लूम होती हैं जिनसे वो बे-दारी में मुत्तलाअ’ नहीं होते।”

इ’शा की नमाज़ के बारे में कहते हैं: मग़रिब की नमाज़ के बा’द और नमाज़ों के पढ़ने से अगर तबीअ’त में गरानी महसूस हो तो थोड़ी देर आराम कर लें, फिर इ’शा की नमाज़ पढ़ें। बा’ज़ सूफ़िया के नज़दीक इ’शा की नमाज़ के लिए आधी रात मुस्तहब वक़्त है।आराम के बा’द इ’शा की नमाज़ पढ़ने में निशात पैदा होता है और बक़िया तमाम रात नफ़ल पढ़ने, ज़िक्र-ओ-फ़िक्र करने में ज़ौक़ हासिल होता है।

सूफ़िया के हाँ बिल-उ’मूम और चिश्ती मशाइख़ के यहाँ बिल-खुसूस ख़र्च करना और कुछ बाक़ी न रखना भी एक इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत नज़र आती है। क़ुरआन में ज़कात का ज़िक्र बार-बार आता है और तक़रीबन उसी एहमियत के साथ जिस एहमियत के साथ नमाज़ का ज़िक्र आया है। लेकिन ज़कात देने की ताकीद के अ’लावा अन्फ़िक़ू का लफ़्ज़ भी बार-बार इस्ति’माल हुआ है।या’नी ख़र्च करो अल्लाह के रास्ते में और नेक कामों में और उन पर जिनका हम पर हक़ है वग़ैरा-वग़ैरा।ऐसा मा’लूम होता है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के सहाबा और ताबिई’न के दौर के बा’द ख़र्च करने का इ’र्फ़ान और हौसला मशाइख़-ए-चिश्त के ही हिस्से में आया।ख़याल गुज़रता है कि उन बुज़ुर्गों ने दुनिया वालों के बीच में रहने का फ़ैसला भी इसीलिए किया था की ख़र्च करने का मौक़ा’ हाथ आए और इस तरह क़ुरआन के अहकाम पर अ’मल हो सके। फ़वाइदुल-फ़ुवाद में मज़कूर है कि हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ (रहि·) ने फ़रमाया – “तर्क-ए-दुनिया ये नहीं है कि कोई शख़्स कपड़े उतार कर बरहना हो जाए या लँगोट बांध कर बैठ जाए।तर्क-ए-दुनिया ये है कि वो लिबास भी पहने, खाना भी खाए, अलबत्ता उसके पास जो कुछ आए उसे ख़र्च करता रहे, जम्अ’ न करे, उस की तरफ़ राग़िब ना हो और दिल को किसी चीज़ से वाबस्ता न करे।”

जवामिउ’ल-कलिम में मज़कूर है कि एक-बार मौलाना ज़ैनुद्दन दौलताबादी, ख़लीफ़ा मौलाना बुर्हानुद्दीन ग़रीब ने बंदगी-ए-ख़्वाजा से अ’र्ज़ किया कि इस ग़रीब के मरज़-ए-दिल की सेहत के लिए दुआ’ फ़रमाएं तो बंदगी-ए-ख़्वाजा ने अपने दाँतों से उंगली पकड़ ली और फ़रमाया कि मौलाना दिल को मरीज़ न कहिए। क़ुरआन में दिल के मरज़ को शक और निफ़ाक़ कहा गया है।चुनाँचे अल्लाह तआ’ला का इर्शाद है। फ़ी-क़ुलूबिहिम-मरज़ुन फ़-ज़ादहुमुल्लाहु मरज़ा।

इन मौज़ूआ’त के अ’लावा जिन मबाहिस पर हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) ने क़लम उठाया है उनमें वहदतुल-वजूद, हक़ीक़त-ए-मोहम्मदिया, रूयत-ए-हक़-तआ’ला ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।ख़्वाजा साहिब के महबूब मौज़ूआ’त में इ’श्क़ और सुलूक भी हैं। ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) के मस्लक-ए-इ’श्क़ के रम्ज़-शनास उनके शैख़ हज़रत नसीरुद्दीन महमूद चिराग़ देहलवी (रहि·) भी थे।अख़बारुल-अख़यार में हज़रत अ’ब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी (रहि·) ने और मुअल्लिफ़-ए-बज़्म सूफ़िया ने ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया के हवाले से नक़ल किया है कि एक-बार आपके पीर-ओ-मुर्शिद पालकी में तशरीफ़ ले जा रहे थे। चूँकि आपके बाल बहुत दराज़ थे, इसलिए पालकी के निचले हिस्से में उलझ गए।आप चाहते तो पालकी रोक कर अपने बाल सुलझा सकते थे। सख़्त तक्लीफ़ के बावजूद अपने मुर्शिद की मोहब्बत और एहतिराम की वजह से कुछ न बोले और ब-दस्तूर पालकी उठाए रहे।आख़िर चिराग़ देहली को इसका इ’ल्म हुआ।उन्होंने बरजस्ता ये शे’र कहा।

हर कि मुरीद-ए-सय्यद-ए-गेसू दराज़ शुद

वल्लाह ख़िलाफ़ नीस्त कि ऊ इ’श्क़-बाज़ शुद

हक़ीक़त-ए-मोहम्मदिया के उ’न्वान के तहत हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ (रहि·) ने जिस आ’रिफ़ाना-अंदाज़ में हुज़ूर सरवर-ए-काएनात मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम का ज़िक्र किया है उसकी एक मिसाल यूँ है।

“मोहम्मद रा अ’ब्दुल्लाह-ओ-आमिना न-ज़ादह अस्त ,मोहम्मद रा अबू तालिब न-परवर्दा अस्त, मोहम्मद ख़दीजा-ओ-आ’इशा रा

ज़न न कर्दा अस्त ,मोहम्मद रा रुख़्सार-ओ-दंदान कस न-शिकस्त-ओ-मोहम्मद रसूलुल्लाह रा कसन नशानाख़्ता अस्त…।”

मे’राजुल-आ’शिक़ीन जिसमें हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ का हिंदवी कलाम मिलता है, इस लिहाज़ से उर्दू की अहम तसनीफ़ है कि इस में ख़्वाजा गेसू दराज़ ने हज़रत ख़्वाजा अमीर ख़ुसरो की तरह ख़ालिस आ’म-फ़हम मुहावरों और अ’लामतों की मदद से तसव्वुफ़ के बड़े रुमूज़ बयान किए हैं।चक्की नामा हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ का इस्ति’आरा और एक ऐसा CODE है जो अ’वाम से उनकी तर्सील का सुराग़ देता है।

देखो वाजिद तनकी चक्की पीड़ चातुर होके सक्की

सौनक इबलीस खिंच खिंच थक्की के या बिस्मिल्लाह अल्ला हो

अलिफ़ अल्ला उसका दिसता म्याने मुहम्मद होकर बसता

पंछी तलब योंकू दिसता के या बिस्मिल्लाह

बन्दानावाज़ बंद हुसेनी सो बंदगी में रहते या बिस्मिल्लाह अल्ला हो

हज़रत अमीर ख़ुसरो जो हज़रत ख़्वाजा गेसू  दराज़ के पेश-रौ थे एक नई ज़बान और इस्तिआ’रे की मदद से आ’ला और मुश्किल तसव्वुरात की तर्सील के इमकानात तलाश कर चुके थे।हज़रत अमीर ख़ुसरो की पैरवी के साथ-साथ हज़रत ख़्वाजा गेसू दराज़ ने अपने मशाइख़ की ता’लीमात और उनकी अक़दार-ए-हयात की तद्वीन और तर्तीब का जो बे-मिसाल कार-नामा सर-अंजाम दिया उस की हैसियत चिश्ती निज़ामी सिलसिला-ए-अक़दार के लिए मंशूर की सी है।

साभार – मुनादी पत्रिका

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