ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी- आ’बिद हुसैन निज़ामी
ये 582 हिज्री की बात है।निशापुर के क़रीब क़स्बा हारून में वक़्त के एक मुर्शिद-ए-कामिल ने अपने मुरीद-ए-बा-सफ़ा को ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से नवाज़ा और चंद नसीहतें इर्शाद फ़रमा कर हुकम दिया कि अब अल्लाह की ज़मीन पर सियाहत के लिए रवाना हो जाओ।
मुरीद-ए-बा-सफ़ा ता’मील-ए-इर्शाद की ग़रज़ से रुख़्सत होने लगा तो जुदाई के तसव्वुर से मुर्शिद-ए-कामिल की आँखों में आँसू आ गए। आगे बढ़ कर मुरीद-ए-बा-सफ़ा के सर और आँखों को बोसा दिया और फ़रमाया- तू महबूब-ए-हक़ है और तेरी मुरीदी पर फ़ख़्र है।
मुरीद-ए-बा-सफ़ा ने मुर्शदि-ए-कामिल के दस्त-ए-हक़-परस्त पर मोहब्बत से बोसा दिया और उसके चेहरा-ए-अनवर को देखता हुआ बग़दाद जाने वाली सड़क पर रवाना हो गया।
बग़दाद में मुख़्तलिफ़ बुज़ुर्गों की ज़ियारत से मुशर्रफ़-ओ-मुस्तफ़ीज़ होता हुआ ये मुरीद-ए-बा-सफ़ा हिजाज़-ए-मुक़द्दस पहुँचा जहाँ मक्का मुअ’ज़्ज़मा में बैतुल्लाह शरीफ़ की हाज़िरी के बा’द सीधा मदीना मुनव्वरा आया और मस्जिद-ए-नबवी में हाज़िर होकर आस्ताँ-बोसी का शरफ़ हासिल किया।कई रोज़ मस्जिद-ए-नबवी में क़ियाम रहा। दुरूद-ओ-सलाम के तोहफ़े पेश किए। सियारुल-अक़ताब और मुनिसुल-अर्वाह की रिवायत के मुताबिक़ एक रोज़ बारगाह-ए-रिसालत से हिंदुस्तान जाने का हुक्म मिला।
बारगाह-ए-रिसालत से हिंदुस्तान जाने की बशारत पाने वाले इस मुरीद-ए-बा-सफ़ा का इस्म-ए-गिरामी ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान ग़रीब नवाज़ हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती था। और क़स्बा हारून में ने’मत-ए-ख़िलाफ़त से नवाज़ने वाले और सैर-ओ-सियाहत का हुक्म देने वाले मुर्शिद-ए-कामिल सय्यदुल-औलिया हज़रत अबुन्नूर ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी थे।
हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान 14 रजब 530 हिज्री मुताबिक़ 18 अप्रैल 1139 ई’स्वी को इ’लाक़ा-ए-सजिस्तान के एक क़स्बा में पैदा हुए।
वादिल का इस्म-ए-गिरामी सयय्द ग़ियासुद्दीन हसन और माँ का नाम-ए-नामी सय्यदा उम्मुल-वराअ’ माह-ए-नूर था। सोलहवीं पुश्त में हज़रत का शज्रा-ए-नसब सय्यदिना अ’ली-ए-मुर्तज़ा रज़ीयल्लाहु अ’न्हु से मिल जाता है। नसब-नामा इस तरह है।
- हज़रत अ’ली-ए-मुर्तज़ा कर्मल्लाहु वज्हहु। 2. हज़रत इमाम हुसैन 3. हज़रत ज़ैनुल-आ’बिदीन 4. हज़र मुहम्मद बाक़र 5. हज़रत जा’फ़र-ए-सादिक़ 6. हज़रत मूसा रज़ा 7. हज़रत तक़ी 8. हज़रत नक़ी 9. हज़रत हसन अ’स्करी 10 सय्यद मुहम्मदी 11. सय्यद इब्राहीम 12. सयय्द अ’ब्दुल-अ’ज़ीज़ 13. सयय्द नज्मुद्दीन ताहिर 14 सय्यद अहमद हुसैन 15 सय्यद कमालुद्दीन 16. ख़्वाजा ग़ियासुद्दीन हसन 17 हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान सय्यद मुई’नुद्दीन हसन संजरी (बज़्म-ए-सूफ़िया)
हज़रत अभी पंदरह साल के थे कि वालिद हज़रत सय्यद ग़ियासुद्दीन हसन का साया सर से उठ गया। विर्से में एक बाग़ और एक पनचक्की मिली। जिसकी आमदनी से हज़रत ख़्वाजा बसर- औक़ात करते।
हज़रत एक रोज़ अपने बाग़ में तशरीफ़ फ़रमा थे कि एक क़लंदर शैख़ इब्राहीम क़ंदोज़ी तशरीफ़ लाए।हज़रत ने निहायत तपाक से उनका ख़ैर-मक़्दम किया और एक साया-दार दरख़्त के नीचे उन्हें बिठाया।अंगूरों का एक ख़ोशा उनके सामने रखा और ख़ुद बा-अदब सामने बैठ गए।
शैख़ क़ंदोज़ी ने अंगूर के चंद दाने खाए और फिर उनके हुस्न-ए-अख़्लाक़ और मेहमान-नवाज़ी से ख़ुश हो कर जेब से खाने की कोई चीज़ निकाली और हज़रत ख़्वाजा के मुँह में डाल दी। उस चीज़ को खाते ही अनवार-ए-इलाही का नुज़ूलल हुआ और हज़रत का दिल दुनिया से बे-ज़ार हो गया। तमास जाएदाद-ए-मंक़ूला और ग़ैर-मंक़ूला फ़रोख़्त कर के मसाकीन में तक़्सीम कर दी और ख़ुद ता’लीम हासिल करने की ग़रज़ से समर्क़ंद-ओ-बुख़ारा की तरफ़ रवाना हो गए।
समर्क़ंद-ओ-बुख़ारा में उन दिनों बड़े-बड़े जय्यिद उ’लमा-ए-दीन मौजूद थे। जिन से हज़ारों तालिबान-ए-इ’ल्म फ़ैज़-याब हो रहे थे। हज़रत ने सब से पहले समर्क़ंद के नामवर आ’लिम शर्फ़ुद्दीन के सामने ज़ानू-ए-तलम्मुज़ तह किया। और हिफ़्ज़-ए-क़ुरआन के साथ मुरव्वजा उ’लूम में दस्त-रस हासिल की। उसके बा’द आप बुख़ारा तशरीफ़ ले गए।
बुख़ारा में भी हज़रत ने बहुत से असातिज़ा से इ’ल्म हासिल किया। जिन में मौलाना हुसामुद्दीन बुख़ारी ख़ुसूसियत से क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं जिनहों ने हज़रत को दस्तार-ए-फ़ज़ीलत अ’ता की और जिनकी दर्स-गाह से हज़रत ने उ’लूम-ए-ज़ाहिरिया की तक्मील फ़रमाई।
तहसील-ए-इ’ल्म से फ़ारिग़ होकर हज़रत के दिल में तक्मील-ए-बातिनी की तड़प पैदा हुई। चुनाँचे तलाश-ए-मुर्शिद में बुख़ारा से रवाना हुए।
उन दिनों निशापुर के नवाह में क़स्बा हारून हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी के रूहानी कमालात की ब-दौलत मशहूर-ए-आ’लम था। हज़रत ने उनकी शोहरत सुनी तो हारून पहुँचे, जहाँ 462 हिज्री में वो हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी को देखते ही उनके दस्त-ए-हक़ परस्त पर बैअ’त हो गए और फिर तक़रीबन बीस साल उनकी ख़िदमत-ए-अक़्दम में हाज़िर रहे।हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान का शज्रा-ए-तरीक़त सोलह वास्तों से हुज़ूर-ए-पुर-नूर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा अहमद-ए-मुज्तबा सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम से मिल जाता है। जो इस तरह है।
1 हुज़ूर-ए-पुर-नूर शाफ़’-ए-यौम-ए-नुशूर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा अहमद-ए-मुज्तबा सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम 2. शेर-ए-ख़ुदा हज़रत अ’ली रज़ियल्लाहु अ’न्हु 3. हज़रत ख़्वाजा हसन बसरी 4. शैख़ अ’ब्दुल वाहिल बिन ज़ैद 5. ख़्वाजा फ़ुज़ैल बिन अ’याज़ 6. हज़रत इब्राहीम अद्हम बल्ख़ी 7. ख़्वाजा सय्यदुद्दीन हुज़ैफ़ा अल-मर्अ’शी 8 ख़्वाजा अमीनुद्दीन अबी हुब्रा अल-बसरी 9 ख़्वाजा ममशाद अ’लवी दीनवर 10 ख़्वाजा मुहम्मद चिश्ती 13 ख़्वाजा अबू यूसुफ़ नासिरुद्दीन चिश्ती 14 ख़्वाजा मुहम्मद मौदूद चिश्ती 15 ख़्वाजा हाजी शरीफ़ ज़िंदगी 16 ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी 17 हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान सय्यद मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी।
मुर्शिद-ए-कामिल से बैअ’त के बारे में हज़रत ने अपनी किताब “अनीसुल-अर्वाह” में ख़ुद तहरीर फ़रमाया है। उनकी ज़बान-ए-हक़ तर्जुमान से सुनिए।
“ मुसलमानों का ये दुआ’ गो मुई’नुद्दीन संजरी ब-मक़ाम-ए-बग़दाद शरीफ़ ख़्वाजा उ’स्मान जुनैद की मस्जिद में अपने मुर्शिद-ए-पाक हज़रत ख़्वाजा हारूनी क़ुद्दिसा-सिर्रहु की दौलत-ए-पा-बोसी से मुशर्रफ़ हुआ। उस वक़्त रू-ए-ज़मीन से मशाइख़-ए-किबार हाज़िर थे। जब इस दरवेश ने सर-ए-नियाज़ ज़मीन पर रखा तो पीर-ओ-मुर्शिद ने इर्शाद फ़रमाया “ दो रक्अ’त नमाज़ अदा कर” मैं ने नमाज़ अदा की तो फ़रमायाः “क़िब्ला रू बैठ”। मैं बैठ गया। फिर हुक्म दिया “ सूरा-ए-बक़्रा पढ़”। मैंने पढ़ी। फ़रमान हुआ। इक्कीस बार दुरूद शरीफ़ पढ़”। मैने पढ़ा। फिर आप खड़े हो गए और मेरा हाथ पकड़ कर आसमान की तरफ़ मुँह किया और फ़रमायाः “आ, ताकि मैं तुझे ख़ुदा तक पहुँचा दूँ”।
बा’द अज़ाँ क़ैंची लेकर दुआ’-गो के सर पर चलाई और गलीम-ए-ख़ास अ’ता फ़रमाई। फिर इर्शाद हुआ। “बैठ जा”। मैं बैठ गया तो फ़रमाया”। हमारे ख़ानवादे में एक शबाना-रोज़ के मुजाहिदे का मा’मूल है। तू आज रात और दिन मश्ग़ूल रह।” ये दरवेश ब-मोजिब-ए-फ़रमान-ए-आ’ली मश्ग़ूल रहा। दूसरे दिन जब हाज़िर-ए-ख़िदमत हुआ तो इर्शाद फ़रमाया। “आसमान की तरफ़ देख”। मैने देखा। दर्याफ़्त फ़रमाया कहाँ तक देखा है?” अ’र्ज़ किया ।अ’र्श-ए-अ’ज़ीम तक। फिर फ़रमाया “ज़मीन की तरफ़ देख”। मैंने देखा।इस्तिफ़्सार फ़रमाया। कहाँ तक देखा है? अ’र्ज़ किया।तह्तुस्सुरा तक। फ़रमाया। अब हज़ार बार सूरा-ए-इख़्लास पढ़”। मैंने पढ़ा । फ़रामाया अब आसमान की तरफ़ देख”। मैंने देखा। पूछा”। अब कहाँ तक देखा है?” अ’र्ज़ किया। हिजाब-ए-अ’ज़्मत तक। फ़रमायाः “आँखें बंद कर” मैंने बंद कर लीं। फ़रमाया “खोल”। मैंने खोल दीं। फिर मुझे अपनी उँगलियाँ दिखा कर सावाल किया “ क्या देखता है?” मैंने अ’र्ज़ किया। अठारह हज़ार आ’लम।
बा’द अज़ाँ सामने पड़ी हुई एक ईंट उठाने का हुक्म दिया। मैने ईंट उठाई। तो उसके नीचे अशर्फ़ियों का ढ़ेर था। फ़रमाया उसे लेजा और फ़ुक़रा में तक़्सीम कर दे। मैंने हुक्म की ता’मील की। वापस लौट कर आया तो इर्शाद हुआ कि “चंद रोज़ हमारी सोहबत में गुज़ार” अ’र्ज़ किया फ़रमान-ए-आ’ली सर आँखों पर”। (अनीसुल-अर्वाह)
बीस बरस अपने मुर्शिद की ख़िदमत-ए-अक़्दस में हाज़िर रहने के दौरान हज़रत ख़्वाजा साहिब अपने मुर्शिद के साथ मक्का शरीफ़, मदीना मुनव्वरा, बदख़्शाँ और बुख़ारा वग़ैरा मक़ामात पर गए। उस सफ़र का हाल भी ख़ुद हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान ही की ज़बानी सुनिए।
“मेरे हज़रत (ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी रहि·) बग़दाद से रवाना हुए तो मैं भी उनके साथ रवाना हुआ।मक्का मुअ’ज़्ज़मा पहुँच कर ज़ियारत और तवाफ़-ए-ख़ाना-ए-का’बा से फ़ारिग़ हो कर मेरे हज़रत ने मेरा हाथ पकड़ कर ख़ुदा के सुपुर्द किया और मीज़ाब-ए-रहमत के नीचे खड़े होकर मेरे हक़ में मुनाजात फ़रमाई। निदा आई! “हम ने मुई’नुद्दीन हसन को क़ुबूल किया”।
मक्का मुअ’ज़्ज़मा से मेरे हज़रत मदीना मुनव्वरा गए। रौज़ा-ए-अक़्दस हुज़ूर सरवर-ए-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम पर हाज़िर हुए। हज़रत ख़्वाजा ने मुझसे फ़रमायाः “बारगाह-ए-अक़्दस-ओ-आ’ली में सलाम अ’र्ज़ कर”। मैंने सलाम अ’र्ज़ किया। रौज़ा-ए-मुतह्हरा से आवाज़ आई।
ये आवाज़ सुन कर हज़रत ख़्वाजा-ए-अ’जम ने इर्शाद फ़रमायाः मुई’नुद्दीन अब तेरा दर्जा कमाल को पहुँच गया।
मक्का मुअ’ज़्ज़मा और मदीना मुनव्वरा की ज़ियारतों से मुशर्रफ़ होने के बा’द मेरे हज़रत ने हुक्म दिया। “चलो, बदख़्शा चलो”।
हिजाज़ से रवाना हुए। मैं अपने हज़रत का अस्बाब सर पर रख कर साथ चलता रहा। जब मेरे हज़रत बदख़्शा पहुँचे तो एक दरवेश से मिलने गए। जो हज़रत जुनैद बग़दादी की औलाद मे से थे। और उनकी उ’म्र एक सौ चालीस बरस की थी। बदख़्शाँ से मेरे हज़रत बुख़ारा आए और वहाँ के उ’लमा-ओ-मशाइख़ से मिले।
अल-ग़र्ज़ मेरे हज़रत इसी तर दस साल सफ़र मे रहे और दस साल के बा’द फिर बग़दाद में आए।यहाँ चंद रोज़ क़ियाम कर के फिर सफ़र शुरुअ’ किया और दस बरस तक सफ़र करते रहे और मैं अपने हज़रत का अस्बाब सर पर रखे साथ-साथ फिरता रहा। आख़िर हज़रत ने बीस साल की मुसाफ़रत के बा’द बग़दाद में क़ियाम फ़रमाया। (अनीसुल-अर्वाह)
ऊपर ज़िक्र आ चुका है कि हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी से ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त हासिल करने के बा’द हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान एक अ’र्सा तक बिलाद-ए-इस्लामिया की सिहायत फ़रमाते रह और इस दौरान में सैंकड़ों औलिया-अल्लाह से मुलाक़ात की। बा’ज़ तज़्किरों में है कि इसी सफ़र में इस्फ़हाम में हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी ने आपके दस्त-ए-हक़-परस्त पर बैअ’त की। लेकिन ये दुरुस्त नहीं। “दलीलुल-आ’रिफ़ीन” की पहली मज्लिस में हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन साहिब ख़ुद फ़रमाते है कि मैं बग़दाद में इमाम अबुल-लैस समरक़ंदी की मस्जिद में हज़रत ग़रीब नवाज़ की बैअ’त से मुशर्रफ़ हुआ।
रौज़ा-ए-रसूल मक़्बूल सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सलल्लम से हज़रत को हिंदुस्तान जाने की बशारत मिली तो बग़दाद, हिरात, तबरेज़, बल्ख़ से होते हुए ग़ज़नी के रास्ते हिंदुस्तान आए और 588 हिज्री में लाहौर पहुँच कर हज़रत शैख़ अ’ली हुज्वेरी के मज़ार-ए-पुर-अनवार पर चिल्ला-कश हुए। लाहौर से हज़रत मुल्तान तशरीफ़ ले गए जहाँ कुछ अ’र्सा मुक़ीम रह कर उन्हों ने हिंदुस्तान में बोली जाने वाली ज़बानें (संस्कृत और प्राकृत) सीखीं और फिर देहली से होते हुए 589 हिज्री अजमेर आ गए।
अजमेर उन दिनों राजपूत सामराज का मज़बूत सियासी मर्कज़ था। हिंदुओं का सबसे बड़ा तीर्थ भीं यहीं था जिसकी वजह से ये उनका इंतिहाई अहम मज़हबी गढ़ भी था। दूर-दूर से हिंदू मज़हब रुसूम पूरी करने के लिए यहाँ जम्अ’ होते थे।
हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान अजमेर तशरीफ़ लाए और झील अना साग़र के किनारे क़ियाम फ़रमाया। चौहान राजपूतों का सरदार राजा पृथ्वीराज राय पिथौरा उस वक़्त अजमेर में मौजूद था।
अजमेर में हज़रत ख़्वाजा शान-ओ-शकोह से बे-नियाज़, इंकिसारी और सादगी को अपना शिआ’र बनाए, एक छोटी सी झोंपड़ी में बैठे रहते। फ़क़्र-ओ-फ़ाक़े का ये आ’लम था कि इफ़्तार मे पाँच मिश्क़ाल से ज़्यादा जौ की रोटी कभी मुयस्सर न आई लेकिन अल्लाह ने आपकी नज़र-ए-कीमिया-असर में ये तासीर बख़्शी थी कि जिस पर पड़ जाती वो गुनाहों से ताएब हो कर नेकी और परहेज़गारी को अपना शिआ’र बना लेता। तारीख़-ए-मशाइख़-ए-चिश्त में रिसाला अहवाल-ए-पीरान-ए-चिश्त के हवाले से लिखा है कि शैख़ मुई’नुद्दीन की नज़र जिस फ़ासिक़ पर पड़ जाती वो उसी वक़्त ताएब हो जाता और कभी गुनाह के क़रीब नहीं फटकता। इस्लामी सल्तनत का मर्कज़ जब देहली मुंतक़िल हुआ तो हज़रत ख़्वाजा ने अपने ख़लीफ़ा-ए-अ’जम हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहि· को सिल्सिला की इशाअ’त के लिए वहाँ भेजा।
हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान हुक़ूक़ुल्लाह के साथ हुक़ूकुल-इ’बाद का भी बहुत ज़्यादा ख़याल रखते थे। पड़ोसियों में से किसा का इंतिक़ाल हो जाता तो जनाज़ा के हम-राह ज़रूर तशरीफ़ ले जाते।नमाज़-ए-जनाज़ा और तद्फ़ीन के बा’द जब तमाम लोग घरों को रुख़्सत हो जाते तो हज़रत तन्हा क़ब्र पर ठहर जाते और देर तक उसके लिए मग़्फ़िरत की दुआ’ करते रहते।
एक बार हज़रत के एक हम-साया का इंतिक़ाल हुआ तो हसब-ए-मा’मूल जनाज़ा के साथ गए। हज़रत ख़्वाज़ा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहि· भी हम-राह थे। तद्फ़ीन के बा’द जब तमाम लोग घरों को लौट गए तो हज़रत फ़रमाते हैं कि मैंने देखा कि यकायक आपका चेहरा-ए-मुबारक मुतग़य्यर हो गया। लेकिन जल्द ही अस्ली सूरत में आ गया। और हज़रत ख़्वाजा अल-हम्दुलिल्लाह कहते हुए उठ खड़े हुए।क़ुतुब साहिब ने वज्ह पूछी तो फ़रमायाः क़ब्र में अ’ज़ाब के फ़रिश्ते आए थे लेकिन फ़ौरन ही रहमत-ए-इलाही नाज़िल हुई।
ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के कामों में हज़रत हमेशा पेश-पेश रहते थे। एक रोज़ अजमेर के एक काश्तकार ने हज़रत से फ़र्याद किया कि मेरे खेत यहाँ के हाकिम ने ज़ब्त कर लिए हैं। वो कहता है कि जब तक फ़रमान-ए-शाही पेश न करोगे खेत वापस नहीं मिलेंगे। मैं इम्दाद का ख़्वासतगार हूँ क्योंकि उन्हीं खेतों पर मेरी मआ’श का दार-ओ-मदार है।
हज़रत ने फ़रमायाः अगर तुम्हें फ़रमान-ए-इस्तिमरारी मिल जाए, फिर तो हाकिम तुम से कुछ झगड़ा न करेगा।
काश्तकार ने कहाः आप ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहि· के नाम एक सिफ़ारिशी मक्तूब तहरीर फ़रमा दें। क्या अ’जब कि जैसा हुज़ूर फ़रमा रहे हैं वैसा ही हो जाए। हज़रत क़ुतुब साहिब सुल्तान शम्सुददीन अल्तमश के पीर हैं। वो जो कुछ इर्शाद फ़रमा देंगे, बादशाह दिल-ओ-जान से क़ुबूल-ओ-मंज़ूर फ़रमाएगा।
हज़रत ने कुछ देर तअम्मुल के बा’द फ़रमाया हाँ मेरी सिफ़ारिश से तेरा काम तो हो जाएगा मगर अल्लाह तआ’ला ने मुझे तेरे इस काम के लिए मामूर फ़रमा दिया है। तू मेरे साथ देहली चल। चुनाँचे आप उसी वक़्त उस काश्तकार को हमराह ले कर देहली रवाना हो गए।
हरज़रत देहली तशरीफ़ लाने से पेश्तर क़ुतुब साहिब को अपनी आमद से मुत्तला’ फ़रमा दिया करते थे। लेकिन इस मर्तबा आप बिला-इत्तिलाअ’ देहली तशरीफ़ ले आए। जिस वक़्त हज़रत देहली के क़रीब पहुँचे किसी शख़्स ने आपको पहचान लिया और फ़ौरन क़ुतुब साहिब को इत्तिलाअ’ दी की कि हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान देहली तशरीफ़ ला रहे हैं। हज़रत क़ुतुब साहिब रहि· ने बादशाह को तशरीफ़-आवरी की इत्तिलाअ’ दी और ख़ुद पीर-ओ-मुर्शिद के इस्तिक़बाल के लिए चल दिए।सुल्तान अल्तमश भी आपके इस्तिक़बाल के लिए शहर से बाहर पहुँच गया।
क़ुतुब साहिब मुज़्तरिब थे कि हज़रत ने इस मर्तबा तशरीफ़-आवरी की इत्तिलाअ’ क्यूँ नहीं दी। मौक़ा’ पाते ही अ’र्ज़ किया कि हुज़ूर ख़ादिम-ए- बारगाह को तशरीफ़-आवरी से पेश्तर ही इत्तिलाअ’-देही से मुशर्रफ़-ओ-मुम्ताज़ फ़रमाया करते। इस मर्तबा बिला इत्तिलाअ’ तशरीफ़-आवरी का क्या सबब है?
हज़रत ने फ़रमाया कि मैं इस ग़रीब के काम के लिए आया हूँ। फिर क़ुतुब साहिब को कुल हाल सुनाया। क़ुतुब साहिब ने अ’र्ज़ कियाः ग़रीब नवाज़ अगर आपका ये ख़ादिम भी बादशाह से कह देता तो उसकी क्या मजाल थी कि इस शख़्स की मुराद पूरी न होती। ग़रीब-नवाज़ ने महज़ इस काम के लिए ख़ुद क्यूँ इस क़द्र तकलीफ़ गवारा फ़रमाई।
हज़रत ने फ़रमायाः ये बात दुरुस्त है। मगर हर मुसलमान रहमत-ए-हक़-तआ’ला से क़ुर्बत रखता है।जिस वक़्त ये शख़्स मेरे पास आया इंतिहाई मलूल और हज़ीं था। मैंने मुराक़िब होकर बारगाह-ए-अहदियत में अ’र्ज़ किया तो मुझे हुक्म हुआ कि उसके रंज-ओ-ग़म में शरीक होना भी इ’बादत है। यही वज्ह है कि मैं ख़ुद यहाँ तक चल कर आया। अगर मैं वहीं से इस शख़्स की सिफ़ारिश तहरीर कर देता तो इस सवाब से महरूम रहता जो हर क़दम पर इसकी ख़ुशी से मुझे हासिल हुआ है।
हज़रत ख़्वाजा साहब रहि· की करामतों और उनके अख़्लाक़-ए-हसना के बे-शुमार वाक़िआ’त किताबों में दर्ज हैं। उनके बातिनी फ़ैज़ान के करिश्मे लोग अब भी देखतें हैं।
हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान का विसाल अजमेर में 6 रजब 632 हिज्री में हुआ। उन्हें उसी हुज्रे में दफ़्न किया गया जहाँ वो इ’बादत किया करते थे। वफ़ात के वक़्त उनकी उ’म्र-ए-मुबारक 102 बरस की थी।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi