अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की पहली क़िस्त

पारसमणि का मूल आधार है ‘कीमिया ए सआदत’ इसके लेखक मियां मुहम्मद ग़ज़ाली साहब ईरान के एक सुप्रसिद्ध सन्त थे। उनका पूरा नाम था हुज्जतुल इस्लाम अबू हमीद मुहम्मद इब्न-मुहम्मद-अल-तूसी, किन्तु सामान्यतया वे इमाम ग़ज़ाली के नाम से सुप्रसिद्ध है। इनका जन्म सन् 1054 ई. (450 हिज्री) में खुरासान प्रान्त के अन्तर्गत तूस नामक गाँव में हुआ था। इनके पूर्वज सूत का व्यापार करते थे, इसी से इन्हे ग़ज़ाली कहते हैं, क्योंकि फारसी में ‘ग़ज़ाला’ का अर्थ है कातना। किन्तु ऐतिहासिको का मत है कि ये ‘ग़ज़ाल’ नामक गाँव के रहने वाले होने के कारण ‘ग़ज़ाली’ नाम से प्रसिद्ध थे। किन्तु अब अन्तिम मत यही है कि वे सूत के व्यापारियों के वंशधर होने से ही ‘ग़ज़ाली’ कहे जाते थे।

अभी ये चार वर्ष के ही थे कि इनके पिता का देहान्त हो गया। इस समय इनके एक ज्येष्ठ भ्राता अहमद ग़ज़ाली भी थे। इनके पिता जी ने दोनो भाइयों के पालन-पोषण का भार अपने एक मित्र अबू नसर इस्माइली को सौंप दिया था। उन्हीं से इन्हें आरम्भिक शिक्षा मिली और फिर उन्होंने दोनों भाइयों को क़स्बा जुरजान की एक चटसाल में भर्ती करा दिया। इस पाठशाला की शिक्षा समाप्त करके बालक ग़ज़ाली निशापुर चले आय़े और वहाँ के बैहक़ी महाविद्यालय में भर्ती हो गये। वह मुस्लिम विज्ञान के महान् शिक्षण केन्द्रों में सबसे पहली संस्था थी। इसके अध्यक्ष थे ईमाम-अल-हरमन ज़ियाउद्दीन अब्दुल मलिक साहब। सन् 1085 (हिज्री) में मलिक महोदय का स्वर्गवास हो गया। तब मुहम्मद ग़ज़ाली साहब ने मियाँ अबुल क़ासिम अस्कानी साहब का शिष्यत्व स्वीकार किया, और यहीं उन्होंने अपना शेष विद्यार्थी-जीवन व्यतीत किया।

सन् 1091 (484 हिज्री) में स्नातक होकर ये निशापुर से बग़दाद को चले। जिस संघ (क़ाफ़ले) के साथ ये जा रहे थे, मार्ग में उनकी एक लुटेरो के दल से मुठभेड़ हो गयी। इन्होंने जिन-जिन विषयों की शिक्षा प्राप्त की थी उनकी मुख्य-मुख्य बातें कुछ कापियों में नोट की हुई थी। लुटेरो ने और चीजो के साथ वे कापियाँ भी छीन ली। तब गजाली ने बड़ी नम्रतापूर्वक उन कापियों को लौटाने के लिये प्रार्थना करते हुए कहा, “ये कागज-पत्र आप लोगों के तो किसी काम के है नहीं, किन्तु मुझे इन पर बहुत अवलम्बित रहना पड़ता है, अतः आप इन्हें लौटा दे।” इस पर लुटेरों ने वे कापियाँ लौटा दी, किन्तु साथ ही उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा, “यदि इन कागजों के बिना तुम ऐसे असहाय रह जाते हो तो फिर तुम्हारी विद्या किस काम की?” यह बात युवक ग़ज़ाली के हृदय में घर कर गयी और उस दिन से वे जो कुछ पढ़ते या लिखते थे उसके लिये लेख पर अवलम्बित नहीं रहते थे, उसे कण्ठस्थ कर लेते थें।

बग़दाद पहुँचने पर ये वहाँ के वजीर निज़ामुल्मुल्क से मिले। वह इनकी योग्यता से बहुत प्रभावित हुआ और इन्हें अपने सुप्रसिद्ध विद्यालय मदरसा-ए-निज़ामियाँ का अध्यक्ष बना दिया। इस समय इनकी आयु केवल अट्ठाइस साल की थी और ये निज़ामुल्मुल्क के सभा पंडितों में सबसे अल्पवस्यस्क थे। बगदाद में रहते समय इन्होंने आचार-सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे तथा इस्लाम धर्म के वातिनिया, इमामिया और इस्माइलिया आदि सम्प्रदायों के विवादग्रस्त विषयो पर भी पुस्तके लिखी। उन दिनों में इन्होंने बौद्धिक और दार्शनिक सिद्धान्तों में समन्वय करने के लिये बड़ा ही परिश्रम किया तथा तत्कालीन विचारधाराओं एवं विवादास्पद मतवादों का बड़े ही मनोयोग से अध्ययन एवं विवेचन किया।

सन् 1098 ई. (488 हिज्री) में इनके संरक्षक निज़ामुल्मुल्क और उसके उत्तराधिकारी मलिक शाह की हत्या हुई। तब इन्होंने बगदाद से दमिश्क़ की यात्रा की और वहाँ प्रायः दो वर्ष रहे। दमिश्क़ में इन्होंने अपना समय एक फ़क़ीर की तरह व्यतीत किया। ये अधिकतर विरक्त भाव से ध्यानाभ्यास में तत्पर रहकर मानसिक शान्ति और समाधान प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। एक दिन ये एक महाविद्यालय में गये। वहाँ एक शिक्षाशास्त्री का प्रवचन हो रहा था। उन्हें इनकी उपस्थिति का कोई पता नहीं था। अतः उन्होंने सहज भाव से प्रमाण रूप में बड़े आदरपूर्वक इनका उल्लेख किया। इन्होंने यह सोचकर कि एक विद्वान् शिक्षाशास्त्री के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर कहीं मुझे अभिमान न दबा ले, तुरन्त ही वह स्थान छोड़ दिया।

यहाँ से ये सीरिया होते मक्का और मदीना पहुँचे। इन पुण्यक्षेत्रों में बहुत दिनों तक रहे। फिर हजाज़ से मिश्र होते मोरक्को गये और वहाँ से सन् 1105 ई. (499 हिज्री) में पुनः निशापुर लौट आये। यहाँ इनके पूर्वसंरक्षक निज़ामुल्मुल्क के पुत्र फ़ख्र-उल्-मुल्क ने इन्हें अपने सुप्रतिष्ठित विद्यालय निज़ामिया मदरसा का प्रधानाध्यापक नियुक्त कर दिया। इन दिनों ये फ़ख्र-उल्-मुल्क खुरासान प्रान्त के शासक और निशापुर के एक वज़ीर थे। एक साल पश्चात् फ़ख्र-उल-मुल्क की भी हत्या हो गयी। तब ये निशापुर से अपने जन्मस्थान तूस में चले आये और फिर स्थायी रूप से वहीं रहने लगे। वहाँ इन्होंने एक छोटी सी पाठशाला और एक मठ स्थापित कर लिये और पाँच वर्ष तक अपने पास आने वाले लोगों को धर्मोपदेश करते रहे। अन्त में ता. 19 दिसम्बर सन् 1111 ई. (जुम्मद-ए-सानी 14 सन् 505 हिज्री) में पचपन वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हुआ। इस समय ये तेहरान में थे। अतः यही इनको समाधिस्थ किया गया।

अल् ग़ज़ाली बड़े चमत्कारी और दार्शनिक थे। ये बड़े स्वतन्त्र विचारों के थे। इन्होंने पहली बार इस्लाम धर्म को दार्शनिक रूप दिया। इन्हें निःसन्देह इस्लाम धर्म का सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक कह सकते हैं। विचारों की सूक्ष्मता, स्पष्टता और शक्तिमत्ता में ग़ज़ाली की गणना पूर्व तथा पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिकों में की जा सकती है। तथापि आज से कुछ काल पूर्व तक ग़ज़ाली के ग्रन्थों को अरबी फ़ारसी जानने वाले लोगों के सिवा और कोई नहीं जानता था। थोड़े ही दिन हुए संयुक्त राष्ट्रीय शिक्षा और विज्ञान परिषद् (UNESCO) ने लेबनान गवर्नमेण्ट के सहयोग से धर्मग्रन्थों का भाषान्तर करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति की थी। उसने इनके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ एहिया-उल्-उलूम (Ihya-ul-ulum) का अँग्रेजी, फ्रैंच और स्पेनिश भाषाओं में अनुवाद किया है। इसका अँग्रेजी अनुवाद ‘O Disciple’ नाम से प्रसिद्ध है। ग़ज़ाली ने यह ग्रन्थ अपनी विदेश यात्रा के समय लिखा था। इस ग्रन्थ के नामका अर्थ है ‘विज्ञान का पुनर्निर्माण’। इससे इसका विषय भी स्पष्ट हो जाता है। यह पुस्तक सदाचार के सिद्धान्त और उनके आचारण की पद्धति का वर्णन करती है। इसे दो खण्डो में विभक्त किया गया है और प्रत्येक खण्ड में दो-दो भाग है। ये चारो भाग क्रमशः (1) अल् इबादत (प्रभु के प्रति जीव के कर्म), (2) अल् आदत (जीवन का विनियोग), (3) अल् मुहलिकात (जीवन के ध्वंसकारी तत्व) और (4) अल मुन्दजियात (संरक्षक तत्व)- इन चार विषयों का निरूपण करते हैं। इनमें से प्रत्येक भाग में दस-दस प्रकरण है। इस प्रकार सम्पूर्ण-ग्रन्थ में चालीस प्रकऱण हैं। दुर्भाग्यवश गजाली ने इस ग्रन्थ में रसूल के कुछ ऐसे परम्परागत वाक्यों को उद्धृत किया है जिनकी प्रामाणिकता बहुत संदिग्ध है। इसी से परवर्ती मुस्लिम उलेमाओं ने इस पुस्तक की बड़ी कड़ी आलोचनाएँ की हैं। इन विद्वानों में सबसे अधिक विरोधी इब्न-ए-क़य्यिम है।

इनके अन्य ग्रन्थों का विवरण सामान्यतया इस प्रकार है-

1.याकूतुत्तावील-फी-अल्-तफ़सीर- कुरान शरीफ पर इनकी टीका है। इनके ग्रंथों में यह सबसे बड़ा है। इसके भी चालीस खण्ड है।

2.क़वायदुल् अक़ायद- इसमें भगबद्विश्वास के नियमों का वर्णन है। इसकी शैली इहया-उल्-उलूम से बहुत मिलती जुलती है।

3. मक़ासिद-अल्-फ़िलासफ़ा- इसमें बहुत उच्च कोटि की यूनानी फ़िलॉसफ़ी का वर्णन किया गया है। योरोपीय विद्वानों को ग़ज़ाली के ग्रन्थों में सबसे अधिक इसी ने आकर्षित किया है। किन्तु मुस्लिम जगत् ने इसकी ऐसी उपेक्षा की है कि इस्लामी देशों के किसी भी पुस्तकालय में इसकी एक भी प्रति उपलब्ध नहीं होती। इस ग्रन्थ में यूनानी दर्शनशास्त्र का बड़ी उदारतापूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है। इसलिये ग़ज़ाली के समसामयिक मुस्लिम विद्वानों की आँखों में यह ग्रन्थ बहुत खटकता था। इसकी एक पाण्डुलिपि स्पेन के राजकीय पुस्तकालय में है। सन् 1506 ई. में ही इसका हिब्रू और लैटिन दो भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। ये दोनों अनुवाद फ्रांस के राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है।

4. तहाफ़तुल फ़िलासफ़ा – यह पुस्तक भी यूनानी दर्शनशास्त्र पर ही लिखी गयी है। किन्तु इसमें उसके विरोधी सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है और यह दिखलाया गया है कि मानव जीवन पर यूनानी दर्शन का किस प्रकार विरोधी प्रभाव पड़ता है। इस ग्रन्थ के फ्रेंच और जर्मन अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं।

5. मीज़ान-उल्-अमल- यह भी एक दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें ग़ज़ाली ने यह प्रदर्शित किया है कि मानव जीवन पर तर्कशास्त्र का क्या प्रभाव पड़ता है और यह निष्कर्ष निकाला है कि ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से मानव जीवन तर्क द्वारा प्रेरित होता ही है तथा वास्तव में यह तर्कसिद्ध परिणामों के सिवा और कुछ नहीं है। सन् 1836 ई. में एक यहूदी दार्शनिक ने इस पुस्तक का हिब्रू अनुवाद प्रकाशित किया है।

6. अल्-मुनक़िज़-मिन-अल्-ज़लाल- यह धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण करने वाला एक उच्च कोटि का ग्रन्थ है। इसने भी योरोपीय विचारो को बहुत आकर्षित किया है। ग़ज़ाली के जीवन में विविध प्रकार के धार्मिक विचारों और शिक्षाओं के अनुशीलन से जो परिणाम हुए तथा गम्भीर मनन और चिन्तन से उसमें जो-जो परिवर्तन हुए वे सब इस ग्रन्थ में प्रदर्शित किये गये हैं। मुस्लिम जग्त् में इस ग्रन्थ का भी विशेष आदर नहीं हुआ। बारबियर डी मेनार्ड (Barbier de Maynard) ने अठारहवीं शती के उत्तरार्द्ध में इस ग्रन्थ का एक फ्रेंच अनुवाद प्रकाशित किया है।

7. अल तित्र-अल-मसबूक- यह राज्यशासन के नियमों को निरूपण करने वाला एक वृहत् ग्रन्थ है। इसे ग़ज़ाली ने बगदाद के खलीफा मुस्तज़हर बिल्लाह (Mustauxher Billah) के आदेश से लिखा था।

8. सिर्र-अल् आलमीन व कश्फ़ माफ़िद्दारैन- यह भी खलीफा मुस्तज़हर के आदेश से लिखा हुआ शासन सम्बन्धी ग्रन्थ ही है। इसे सन् 1896 ई. में हेनरिच माल्टर (Henraich Malter) ने हिब्रू में अनुवाद करके प्रकाशित किया था।

9. मुस्तज़हरी- इस पुस्तक को भी ग़ज़ाली ने खलीफा मुस्तज़हर की आज्ञा से लिखा था। इसमें बातिनिया सम्प्रदाय का विरोध किया गया है, जो उस समय बहुत प्रबल हो उठा था। इसका नामकरण भी उन्होंने खलीफा के नाम पर ही किया था।

10. अल्-ताबीर-फी-इल्म-अत्ताबीर- यह स्वप्न विचार-सम्बन्धी अत्यंत रोचक ग्रन्थ है। योरोप में इसका विशेष प्रचार है तथा फ्रेंच और जर्मन दोनों भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं।

11. मज़मून-ए-सग़ीर- इस ग्रन्थ में गजाली ने आत्मा और देह के सम्बन्ध से विभिन्न जातियों का वर्णन किया है।

12. मुस्तसफ़ा- यह पुस्तक इस्लाम धर्म के दर्शन, तर्क, सदाचार और धर्म शास्त्र सम्बन्धी विधानों के विषय में है। इसका निर्माण सन् 1110 ई. में हुआ था। यह गज़ाली की रचनाओं में सम्भवतः अन्तिम है।

इसी प्रकार अल् ग़ज़ाली ने और भी अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है। उनके सम्पूर्ण ग्रन्थ सतहत्तर बताये जाते हैं। ग़ज़ाली कविता भी करते थें। उन दिनों फ़ारसी ईरान की राजभाषा थी तथा फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि उमर ख़य्याम इनके समकालीन थें। अतः इन्होंने बड़े उत्साह से फ़ारसी काव्य रचना की थी। इनकी कविताएँ मुख्यतया धार्मिक भाव अथवा सूफ़ी सिद्धान्तों के आधार पर होती थी।


ग़ज़ाली ने जिन ग्रन्थ रत्नो का निर्माण किया है उनमें ‘कीमिया-ए-सआदत’ उनकी एक प्रमुख रचना है। यह सचमुच धर्ममय जीवन की प्राप्ति के लिये एक दुर्लभ कीमिया (रसायन) ही है। इस अमूल्य ग्रन्थ का ही हिन्दी-भाषान्तर कराकर लखनऊ के सुप्रसिद्ध प्रकाशक मुन्शी नवलकिशोर जी ने ‘पारसभाग’ नाम से प्रकाशित किया था। पारसभाग की भूमिका में उसे हिन्दू धर्म पुस्तकों का सार, वेदान्तमतानुसार तथा ऋषिप्रणीत ग्रन्थों के आधार पर लिखा बताया गया है। यह नीति सम्भवतः इसी उद्देश्य से बरती गयी है जिससे हिन्दू साधकों में इसका प्रचार हो तथा किसी विधर्मी सन्त की कृति समझकर इसके प्रति उनकी अश्रद्धा न हो। इसमें सन्देह नहीं, इसका हिन्दी-अनुवाद हिन्दू साधकों के हित की दृष्टि से ही कराया गया होगा और इस उद्देश्य की सफलता की दृष्टि से यह नीति क्षम्य भी कही जा सकती है, किन्तु फिर भी साहित्यिक और ऐतिहासिक दृष्टि से तो इस ग्रन्थ रत्न के मौलिक आधार और उसके लेखक का उल्लेख रहना ही अधिक उपयुक्त होता।

अस्तु, पारसभाग के प्रकाशको का कुछ भी उद्देश्य रहा हो, इसमें सन्देह नहीं, हिन्दू साधकों को उससे अपने साधन में बड़ी सहायता मिली और इस ग्रन्थ का उनमें प्रचार भी खूब हुआ। बहुत लोग तो अन्य धर्म ग्रन्थों के समान ही इसका नित्यपाठ और मनन करने लगे। आज भी किन्ही-किन्ही आश्रमों में नित्यप्रति इसका प्रवचन होता है तथा अनेकों सन्त और साधक इसका नियमपूर्वक स्वाध्याय एवं मनन भी करते हैं। किन्तु जिस समय यह ग्रन्थ लिखा गया था तब से अब तक भाषा एवं लेखन शैली में बड़ा अन्तर पड़ गया है। अतः ग्रन्थ की उपयोगिता निर्विवाद होने पर भी वर्तमान जनता के लिये इसकी भाषा रुचिकर नहीं थी। इससे कुछ मित्रों के आग्रह से मैंने इसकी भाषा का संशोधन करके इसे आधुनिक शैली से लिख दिया है।

मूल ग्रन्थ फ़ारसी में है। उसका अनुवाद ‘अक़्सीर-ए-हिदायत’ नाम से उर्दू में भी हो चुका है और उसके लेखक है मियाँ फ़ख़रुद्दीन साहब। उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा है कि यह ‘कीमिया-ए-सआदत’ का केवल भावानुवाद ही है। पारसभाग तो उसकी अपेक्षा भी अधिक स्वतन्त्रता से लिखा गया है। मुस्लिम देवताओं के स्थान पर हिन्दू देवता तथा मुस्लिम रीति-रिवाजों के स्थान पर हिन्दू रीतियों का भी उल्लेख है। मूल में जो कुरान शरीफ के वाक्य है उन्हें इसमें ‘भगवान के वचन’ बोलकर लिखा गया है तथा हदीस के उद्धरणों को ‘महापुरुष के वचन’ कहा है। मैं फ़ारसी से तो सर्वथा अनभिज्ञ हूँ उर्दू भी नाममात्र को ही जानता हूँ इसीलिये मुझे तो पूर्णतया पारसभाग पर ही अवलम्बित रहना पड़ा है। हिन्दी भाषा जनता को तो पारसभाग से ही प्रेम रहा है और उसी से उसे लाभ भी पहुँचा है। अतः मैंने उसी को मूल आधार मानकर यह ‘पारसमणि’ प्रस्तुत की है। इसे लिखते समय मैंने प्रायः वाक्यशः पारसभाग का अनुसरण किया है, तथापि कहीं-कहीं अनावश्यक समझकर कोई वाक्य छोड़ भी दिये हैं और प्रसंग को स्पष्ट करने के लिये कोई-कोई नवीन वाक्य भी लिख दिया है। किन्तु भाव में कहीं किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं  किया।

इसके सिवा इस ग्रन्थ के खण्ड और उपखण्डों के विभाजन में भी यत्किंचित् फेर-फार किया है। मूल ग्रन्थ कार ने इसे चार उन्वान और चार रुक्नों में विभक्त किया है तथा उनमें से प्रत्येक उन्वान और रुक्न में अनेक असले हैं। इसी तरह पारसभाग में लेखक ने भी इसमें चार अध्याय और चार प्रकरण रखे हैं तथा इनमें से प्रत्येक अध्याय और प्रकरण में अनेक सर्ग है। इसके प्रथम चार अध्यायों को ग्रन्थ की भूमिका कह सकते हैं उनमें सामान्यता मुस्लिम सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। हिन्दू पाठकों के लिए साम्प्रदायिक दृष्टि से वह विशेष उपोयगी नहीं हो सकता। तथा प्रकरणों में चित्त के विभिन्न गुण और दोषों का विवेचन है। वास्तव में ग्रन्थ का प्रधान यही है और इस साधन खण्ड के कारण ही हिन्दू साधकों में इस ग्रन्थ का इतना आदर हुआ है। किन्तु पारसमणि में अध्याय और प्रकरणों का भेद न रखकर समान रूप से आठो विभागों को आठ उल्लासों के रूप में रखा गया है तथा सर्गों की संज्ञा ‘किरण’ रखी गयी है। मणि की समय समय पर जो प्रभा दिखायी देती है उसी को यहाँ ‘उल्लास’ कहा गया है तथा उस प्रभा की किरणें ही इन उल्लासों की किरणें हैं। इस विभाजन में एक अन्तर और भी किया गया है। पारसभाग के प्रथम अध्याय में जो दूसरे, तीसरे औऱ चौथे सर्ग हैं उन तीनों को सम्मिलित करके दूसरी किरण लिखी गयी है। इसी से जहाँ पारसभाग के प्रथम अध्याय में दस सर्ग है वहां इस ग्रन्थ के प्रथम उल्लास में आठ किरणें है। इसके विपरीत पारसभाग के चतुर्थ प्रकरण के चौथे सर्ग को विभक्त करके इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास की चौथी और पाँचवी किरणें बनायी गयी है। यह विभाग उर्दू अनुवाद के आधार पर किया गया है। पारसभाग में यहाँ एक बड़ी विचित्र भूल हुई है। उसमें चौथे और पाँचवे सर्ग को तो मिला दिया गया है और फिर ‘पाँचवा सर्ग’ बोलकर कोई विभाग नहीं किया गया। चौथे के पश्चात् छठा सर्ग ही लिखा गया है। इस प्रकार गणनाक्रम में भूल होने से जिस प्रकार पारसभाग का चौथा प्रकरण नवे सर्ग में समाप्त होता है उसी प्रकार पारसभाग का अष्टम उल्लास भी नवी किरण में ही समाप्त होता है। उर्दू अनुवाद में इसके आगे एक असल और भी है। उसमें मुस्लिम सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु का वर्णन किया गया है। पारसभाग के लेखक ने उसे सम्भवतः हिन्दुओं के लिये अनुपयोगी समझकर छोड़ दिया है। पारसमणि का आधार तो पारसभाग ही है। अतः हमने भी उसे सम्मिलित करना आवश्यक नहीं समझा।

-श्री स्वामी सनातन देव जी महाराज

जारी…

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