हज़रत मौलाना ज़ियाउद्दीन नख़्शबी- सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान
इस्म-ए-गिरामी ज़ियाउद्दीन और तख़ल्लुस नख़्शबी था। बदायूँ के रहने वाले थे। ज़िंदगी गोशा-ए-तन्हाई में गुज़ारी लेकिन अपनी इस्ति’दाद की वजह से बड़ी शोहरत हासिल की।
‘अख़्बारुल-अख़्यार’ और ‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में है कि मौलाना ज़ियाउद्दीन नख़्शबी की इरादत सुल्तानुत्तारिकीन शैख़ हमीदुद्दीन नागौरी के पोते हज़रत शैख़ फ़रीद से थी।‘अख़्बारुल-अख़्यार’ में है ”चुनीं शुनीदः शुदः अस्त कि वय मुरीद-ए-शैख़ फ़रीद अस्त कि नबीरः-ओ-ख़लीफ़:-ए-सुल्तानुत्तारिकीन शैख़ हमीदुद्दीन नागौरी अस्त वल्लाहु आ’लम” ।
‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में है। ”अज़ उ’ज़मा-ए-मशाइख़-ओ-कुबरा-ए-ख़ुलफ़ा-ए-शैख़ फ़रीदुद्दीन नबीरः-ए-हज़रत सुल्तानुत्तारिकीन हमीदुद्दीन सूफ़ी अस्त।अज़ मशाहीर-ए-औलिया-ए-हिन्दुस्तान अस्त। दर शहर-ए- बदायूँ दर ख़ुमूल ब-कार-ए-ख़ुद मशग़ूल-ओ-अज़ सोहबत-ए-ख़ल्क़ मुतनफ़्फ़िरद ब-ए’तिक़ाद-ओ-इंकार कारे न-दारद” ।
बा’ज़ तज़्किरा नवीस ने लिखा है कि वो हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद थे।लेकिन ‘अख़्बारुल-अख़्यार’ में है:
“हज़रत शैख़ निज़ामउद्दीन औलिया के ज़माना में तीन शख़्स ज़िया नाम के थे ।ज़िया सनाई जो मुंकिर-ए-शैख़ थे। ज़िया बर्नी जो शैख़ के मो’तक़िद और मुरीद थे ।ज़िया नख़्शबी जो शैख़ के न मुंकिर थे और न मो’तक़िद।
हज़रत ज़ियाउद्दीन नख़्शबी ने लोगों से अलग-थलग रह कर ज़िंदगी ज़ाविया-ए-ख़ुमूल में गुज़ारी और इस गोशा-ए-आ’फ़ियत में ज़्यादा-तर तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ का मश्ग़ला रखा इसलिए उनके हालात-ए-ज़िंदगी की कोई ज़्यादा तफ़्सील नहीं मिलती।
‘अख़्बारुल-अख़्यार’ और ‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में साल-ए-वफ़ात 751 हिज्री दर्ज है।
मुतअ’द्दिद तसानीफ़ छोड़ी हैं ।‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में उनके नाम ये बताए गए हैं। ‘सिल्कुस्सुलूक, अ’शरा-ए-मुबश्शरा, कुल्लियात-ओ-जुज़्इयात, शर्ह–ए-दु’आ-ए-सिरयानी, तूतीनामा। इंडिया ऑफ़िस के कुतुबख़ाना के फ़ारसी मख़्तूतात में हज़रत नख़्शबी की एक तस्नीफ़ ‘गुलरेज़’ का भी ज़िक्र है।उनकी तालीफ़ ‘नामूस-ए-अकबर’ भी बताई जाती है जिसमें सूफ़ियाना तर्ज़ पर आ’ज़ा-ए-जिस्म या’नी आँख, नाक, कान , हाथ और पाँव वग़ैरा के औसाफ़ बताए गए हैं । इन तमाम तसानीफ़ पर ‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ के मुसन्निफ़ अपनी राय का इज़्हार करते हुए यूँ रक़म-तराज़ हैं।
“ईं हमः कुतुब ममलू अज़ कित्आ’त-ए-रंगीन-ओ-दिलचस्प कि ब-यक तरीक़-ओ-यक तर्ज़ वाक़े’ शुदंद’’ ( सफ़हा 281)
उनमें से ‘तूतीनामा’ और ‘सिल्कुस्सुलूक’ बहुत मक़्बूल हुईं। ‘तूतीनामा’ जिसका साल-ए-तालीफ़ 730 हिज्री है ।इस में 52 इ’ब्रत-आमोज़ कहानियाँ हैं। 1792 ई’स्वी में एम.जरान्स ने इसका अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया। तुर्की ज़बान में भी इसका तर्जुमा हुआ।
‘सिल्कुस्सुलूक’ पर एक नज़र:
‘सिल्कुस्सुलूक’ फ़न्न-ए-मा’रिफ़त-ए-सुलूक में एक अहम तस्नीफ़ है। इसमें तसव्वुफ़ के मुख़्तलिफ़ मसाएल को अलग-अलग उ’न्वानात में बयान किया गया है ।हर मस्अला एक अ’लाहिदा सिल्क या’नी बाब में है।कुल 151 सिल्क हैं ।शुरूअ’ में तसव्वुफ़ की इस्तिलाहात की तश्रीह है। फिर सूफ़ियाना रुमूज़-ओ-निकात की तश्रीह-ओ-तौज़ीह हिकायतों के पैराया में की गई है।
मस्लन अगर ये बताना चाहते हैं कि रात के वक़्त याद-ए-हक़ ज़रूर करनी चाहिए तो लिखते हैं-
“एक दिन एक ख़्वाजा ने एक लौंडी ख़रीदी।जब रात हुई, लौंडी से कहा ऐ कनीज़क मेरा बिछौना दुरुस्त कर दे कि मैं सो रहूँ। लौंडी ने कहा ऐ मौला क्या तुम्हारा भी मौला है ।ख़्वाजा ने कहा- हाँ। लौंडी ने पूछा- क्या वो सोता है। ख़्वाजा ने कहा- नहीं ।लौंडी ने कहा- तुम्हें शर्म नहीं आती ।तुम्हारा मौला तो जागे और तुम सो रहो”।
इसी तरह अगर ये तल्क़ीन करनी चाहते हैं कि-
किसी का महकूम होना नफ़्स के महकूम होने से बेहतर है, तो उसे इसे तरह बयान करते हैं-
“एक सज्जादा-नशीं हर जुम्आ’ को अपनी ख़ानक़ाह से मस्जिद जाने के लिए बाहर निकलते थे।जिस किसी को देखते पूछते कि मस्जिद का रास्ता कौनसा है। एक-बार एक शख़्स ने कहा तुमको बरसों मस्जिद जाते हो गए लेकिन रास्ता याद नहीं। उन्होंने कहा मैं जानता हूँ मगर महकूम हो के चलना हाकिम होने से बेहतर है। चाहिए कि अपनी ज़ात को दूसरों के तुफ़ैल में समझे”।
ये अंदाज़-ए-बयान और भी दिल-पज़ीर और मुवस्सिर हो जाता है जब नासिहाना तरीक़ा पर एक-एक हिकायत ब-शुनू ब-शुनू से शुरूअ’ की जाती है ।मस्लन:
“सुनो-सुनो एक दफ़्आ’ मूसा अ’लैहिस्सलाम को हुक्म हुआ कि तुम्हारी क़ौमें जितनी नेक हैं उनको बुरों से अलग करो। मूसा अ’लैहिस्सलाम ने आवाज़ दी ।बहुत से लोग बाहर आए। हुक्म हुआ उनमें से नेकों को चुन लो। मूसा अ’लैहिस्सलाम ने उनमें से सत्तर आदमी निकाले। फ़रमान हुआ, मूसा उनमें से भी चुनो। चुनाँचे सत्तर में से सात चुने। फिर हुक्म हुआ कि उनमें से भी चुनो। तब उनमें से तीन चुने।हुक्म आया ऐ मूसा मेरे नज़्दीक ये तीनों सबसे बुरे हैं क्यूँकि जब उन्होंने सुना कि तुम नेकों को पुकारते हो तो ये अपने को नेक समझ कर बाहर आए।अ’ज़ीज़ अगर कोई इ’बादत न करे तो बेहतर है कि इ’बादत करे और फ़ख़्र करे ।शरीअ’त में मुद्दआ’अ’लैह को क़ैद करते हैं लेकिन तरीक़त में मुद्द’ई को क़ैद-ख़ाना भेजा जाता है।”
एक हिकायत और मुलाहिज़ा हो-
“सुनो सुनो एक बक़्क़ाल ने एक शख़्स को शेर पर सवार और साँप को कोड़ा बनाते हुए देखा। देख कर कहा ये आसान है लेकिन तराज़ू के दोनों पलड़ों में बैठना मुश्किल है।”
एक और हिकायत हदिया-ए-नाज़िरीन है-
“सुनो सुनो एक बुज़ुर्ग ने चाहा कि बाज़ार जा कर कुछ ख़रीदें। दुनिया को घर में तौला ।जब बाज़ार ले आए तो दीनार घर के वज़्न से कम निकला। रोने लगे लोगों ने पूछा क्यूँ रोते हैं ।फ़रमाया जब घर की चीज़ ठीक नहीं हुई तो क़ियामत में दुनिया की बातों का क्या हाल होगा” ।
इन दिल-चस्प हिकायतों में और भी ज़्यादा तासीर पैदा करने के लिए जा-ब-जा उनको अपने क़ितआ’त से भी मुज़य्यन करते हैं। मस्लन-
“सुनो सुनो वह्ब बिन मुनब्ह कहते हैं कि का’ब अहबार मस्जिद में सब सफ़ों के पीछे खड़े होते। उनसे पूछा गया कि इस में क्या भेद है। फ़रमाया मैंने तौरेत में देखा है कि उम्मत-ए-मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम में ऐसे लोग होंगे, कि जब वो मस्जिद में सज्दे करेंगे, और उन्होंने सर भी न उठाया होगा कि उनसे पीछे वालों को ख़ुदा-बख़्श देगा। मैं इसी सबब से सब के पीछे खड़ा होता हूँ ताकि उनके सज्दे से मेरा काम बन जाए।”
क़ितआ’:
नख़्शबी दर्मियाँ ब-बीं ख़ुद रा
क़तराए रा चे सैले मी-ख़्वानी
हमः कस दर तुफ़ैल-ए-तु गर्दद
गर तू ख़ुद रा तुफ़ैल-ए-कस दानी
“एक-बार एक ख़लीफ़ा ने एक बूढ़ी औ’रत के लड़के को क़ैद कर दिया ।बूढ़ी औ’रत ने ख़लीफ़ा के पास पहुँच कर फ़रियाद की और कहा कि मेरे लड़के को रिहा कर दीजिए। ख़लीफ़ा ने कहा कि मैं ने हुक्म दिया है कि जब तक मैं ख़लीफ़ा हूँ तेरा लड़का क़ैद से रिहा नहीं किया जाएगा। बूढ़ी औ’रत ने ये सुनकर आसमान की तरफ़ देखा, और दर्द-भरी आवाज़ से बोली। ऐ सुल्तान-ए-आ’लम! दुनिया की क़ैद-ओ-रिहाई तेरी क़ुदरत में है, लेकिन तेरे ख़लीफ़ा ने जो हुक्म दिया है क्या तू ने उसको सुना नहीं।मा’लूम कि अब तू क्या हुक्म देगा। बूढ़ी औ’रत की ये बात ख़लीफ़ा ने सुनी तो उसके दिल में बड़ी नर्मी पैदा हुई, और उसके लड़के को क़ैद-ख़ाना से बाहर लाने का हुक्म दिया ।उसको एक ख़िल्अ’त दिया, और घोड़े पर सवार कर के बग़दाद की गलियों में फिरा दिया और साथ-साथ ये मुनादी की जाती थी कि हाज़ा अ’ताउल्लाहि तआ’ला अ’लर रग़मि ख़लीफ़ति-व-मक़ामिहि-व-महल्लिहि(ये ख़लीफ़ा इसके दर्जे और मर्तबे के अ’लर्रग़्म अल्लाह तआ’ला की अ’ता है)।”
क़ितआ’:
नख़्शबी हुक्म-ए-ख़ल्क़ चीज़े नीस्त
मर्द-ए-ईं रह कुजास्त दर आ’लम
दर जहान गुफ़्त-ए-हेच कस न-शवद
हुक्म हुक्म-ए-ख़ुदास्त दर आ’लम
सुनो सुनो बनी इस्राईल में एक ज़ाहिद था। सत्तर साल इ’बादत की ।एक दिन किसी हाज-तरवाई के लिए दु’आ माँगी लेकिन दु’आ क़ुबूल नहीं हुई। अपने नफ़्स से बरहम हुआ कि ऐ नफ़्स अगर तेरी इ’बादत में इख़्लास होता तो मेरी दु’आ ज़रूर क़ुबूल होती। हक़ तआ’ला के यहाँ से उस ज़माना के पैग़ंबर के पास फ़रमान आया कि इस ज़ाहिद से कहो नफ़्स पर एक साअ’त का ए’ताब सत्तर साल की अ’दावत से बेहतर है।
क़ितआ’:
नख़्शबी दर इ’ताब-ए-ख़ुदी बाश
वर्ना ख़ुद बातिन-ए-तू ख़ूँ गर्दद
हर कि बा-नफ़्स-ए-ख़ुद इ’ताबे कर्द
अज़ इ’ताब-ए-हमः मज़मूँ गर्दद
मौलाना अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी ‘सिल्कुस्सुलूक’ को बड़ी शीरीं-ओ-रंगीं किताब बताते हैं। ‘अख़्बारुल-अख़्यार’ में रक़म-तराज़ हैं।
‘सिल्कुस्सुलूक’-ए-ऊ ब-ग़ायत किताब-ए-शीरीं-ओ-रंगीं अस्त ब-ज़ुबान-ए-लतीफ़ मूअस्सिर मुश्तमिल बर हिकायत-ए-मशाइख़-ओ-कलिमात-ए-इशाँ-ओ-अक्सर तस्नीफ़ात-ए-वय ममलूस्त ब-क़ितआहाए कि हमः ब-यक तरीक़ः-ओ-यक- नहज(सफ़हा 97 ता 98)
नोटः- ये तमाम हिकायतें दारुल-मुसन्निफ़ीन आ’ज़मगढ़ के क़लमी नुस्ख़ा ‘सिल्कुस्सुलूक’ से ली गई हैं । ‘अख़्बारुल-अख़्यार’ स 98 ता 100 में इन हिकायतों के बहुत से इक़्तिबासात मिलेंगे।
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