हज़रत सय्यद शाह अमीन अहमद फ़िरदौसी
किसी भी शै को मुमताज़ और ख़ुश-गवार बनाने के लिए ग़ैर मा’मूल सिफ़त का होना ज़रूरी होता है ख़ाह वो शाहाँ-ए-ज़माना हो या सूफ़िया-ए-किराम जिनकी हसीन तर ज़िंदगी या’नी अख़्लाक़-ओ-किर्दार की बिना पर वो शहर-ए-जहाँ ये बस्ते हैं मुम्ताज़ होती है,इस तरह इमतिदाद-ए-ज़माना के बा’द रफ़्ता-रफ़्ता उन शाहों के रसूख़ में कमी आने लगती है और एक दिन ये शाहान-ए-ज़माना भी अपनी चंद झल्कियों के साथ मादूम होजाते हैं,वहीं दूसरी तरफ़ सूफ़िया-ए-किराम कि हज़ार बरस बा’द भी आपके मो’तक़िद इसी शान-ओ-शिकवा के साथ हाज़िर हो कर अपनी मन की मुराद पाकर आपकी शख़्सियत को मो’तआ’रिफ़ कराते रहते हैं.
उन्हीं मुक़्तदिर सूफ़ियों में एक नाम हज़रत मख़्दूम-ए-जहाँ शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद यह्या मनेरी सुम्मा बिहारी मुतवफ़्फ़ा 782 हिज्री जिनके मक्तूबात-ओ-मल्फ़ूज़ात से ख़ासान-ओ-मियान हर ज़माने में फ़ैज़याब होते चले आरहे हैं बल्कि शाहान-ए-ज़माना के साथ साथ मोह्तरम अस्हाब-ए-अफ़्क़र की मख़्सूस जमाअ’त ने भी मक्तूबात-ए-सदी को अपने लिए अख़्लाक़-ओ-अख़्लास और तज़किया-ए-नफ़्स का बेहतरीन नुस्ख़ा क़रार देकर मो’तक़िदीन के दिलों को आबाद-ओ-शाद किया. इस में कोई दो-राय नहीं कि बा’द की शख़्सियात ने ता’लीमात-ए-मख़्दूम को आ’म न बल्कि ख़ूब से ख़ूब किया लेकिन रिह्लत-ए-मख़्दूम के चार-सौ चुहत्तर बरस बा’द जब ज़रूरत थी बिहार शरीफ़ को आ’लिम बा-अ’मल की,शाइ’र बे-बदल की, जो सूफ़ियाना किर्दार के साथ आ’रिफ़ाना शाइ’री में भी अदीमुल्मिसाल हो,मस्नवी गोई में कमाल हो,वो मुख़्तलिफ़ अस्नाफ़-ए-सुख़न के लिए मशहूर हो बिल-ख़ुसूस ज़रूरत थी औलाद बिंत-ए-मख़दूम जहाँ के ख़ानवादों की जो हुस्न-ओ-जमाल लिए फ़रेफ़्ता बे-मिसाल थे,मस्नद-ए-रुश्द-ओ-हिदायत के साथ वो बे-शुमार करामतों के लिए आ’म-ओ-ख़्वास में मक़बूल थे या’नी ज़रूरत थी ख़ानकाह-ए-मुअ’ज़्ज़म हज़रत मख़्दूम जहाँ के ऐसे सज्जादा अमीन शर्फ़ की जो हर ए’तबार से अमीन-ओ-यगाना-ए-अ’स्र हो और ये ख़्वाहिश बारहवीं सदी हिज्री के वस्त में गुल-ए-सरसबद ख़ानवादा-ए-फ़र्द वसीत हज़रत जनाब हुज़ूर सय्यद शाह अमीन अहमद फ़िर्दोसी अल-मोतख़ल्लिस बिहि सबात शौक़ बिहारी क़ुद्सुल्लाहि ता’ला सर्रहुल-अ’ज़ीज़ के ज़रिया’ पूरी हुई.
सय्यद शाह अमीन अहमद की पैदाइश ‘हयात-ए-सबात’के मुताबिक़ 23 रजबुल-मुर्रजब 1248 हिज्री शंबा की गुज़री हुई शब में हुई,नाम अमीन अहमद,लक़ब जनाब हुज़ूर,वालिद-ए-माजिद हज़रत सय्यद शाह अमीरुद्दीन फ़िर्दोसी अल-मोतख़ल्लिस बिहि ज़लूम,वज्द बिहारी ने अख़तर मजद और ‘‘बख़्शिश-ए-इलाही’’ से माद्दा तारीख़ (1248) अख़ज़ किया है,इब्तिदाई ता’लीम ख़ानदान के मुक़्तदिर बुज़ुर्गों से हासिल की और उसकी तकमील सूबा-ए-बिहार के मशाहीर उ’ल्मा से की,ता’लीम के बा’द मुताअ’ला का शौक़ काफ़ी रहा बल्कि इब्तिदाई दौर ही से क़दीम कुतुब के दिल-दादा हुए कहा जाता है कि उसी में आप अपनी ज़ाहिरी बीनाई से महरूम हो गए लेकिन बातिनी बीनाई ने आपको मज़ीद बसारत बख़्शी, तहरीरी मआ’मलात में ख़ुश-नवीस थे ख़त-ए-नस्तालीक़ लिखने में एक ख़ुशनुमा अंदाज़ था इ’ल्मी ज़ौक़ तहरीरी मआ’मलात में ख़ूब रखते,मआ’सिर उ’ल्मा-ओ-मशाइख़ में तसनीफ़-ओ-तालीफ़ के लिहाज़ से सफ़-ए-अव्वल में शुमार किए जाते.
आपके ज़माना-ए-तिफ़्ली का वाक़िआ’ है जिस से आपकी ज़ेहनी सलाहीयत-ओ-सलाबत और याद-दाश्त-ए-क़वी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है की वालिद-ए-माजिद ने दो जुज़्व की मस्नवी कहीं से देखने को मँगवाई थी उस को जनाब-ए-हुज़ूर अपने मुताअ’ला के लिए ख़ल्वत में लेकर आए और जो साहब शरीक-ए-जल्सा थे उनको पढ़ कर सुनाया फिर वहीं ख़ल्वत में मस्नवी को रख दी,थोड़े दिनों बा’द ख़ुद वालिद साहिब ने इस मस्नवी को तलब किया और इत्तिफ़ाक़-ए-वक़्त ढूँढने पर कहीं न मिली,सख़्त इज़्तिराब हुआ मगर आपने फ़रमाया कि थोड़ी देर में मस्नवी लेकर हाज़िर होता हूँ और दवात, काग़ज़-ओ-क़लम लेकर बैठ गए मिन-ओ-अ’न मस्नवी लिख डाली. इसी अस्ना में असल मस्नवी मिल गई जब नक़ल को असल मस्नवी से मिलाई गई तो सिर्फ दो-चार मिस्र’ओं में कुछ अलफ़ाज़ का हेर-फेर था वर्ना मा’नी एक थे.
फ़ारसी ज़बान से आपको तिब्बी मुनासिबत थी ख़ुद फ़रमाते हैं कि दीवान-ए-हाफ़िज़ की चँद ग़ज़लें पढ़ी थीं कि पूरी इस्ति’दाद फ़ारसी की हो गई,ख़ानदानी रविश की अगर बात करें तो मा’लूम होता है कि वालिद से बहुत जायदाद मिली थी परवरिश रईसाना हुई, तर्बीयत अमीराना रही मगर कभी भी उसे समेट कर न रखा बल्कि उसे तक़सीम कर कर ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम रहते क्यूँ कि जिस ज़ात के साथ इतने वसीअ’ तआ’ल्लुक़ात होँ उसकी शरई’ ज़िंदगी कैसी होगी उस का अंदाज़ा ख़ुद लगाऐं.
अल-ग़र्ज़ एक दफ़ा ब-यक वक़्त तीन साहब-ज़ादों को ज़हर देकर मासूमों की ज़िंदगी छीन ली गई अ’लावा साहिब-ज़ादा-ओ-साहब-ज़ादी के इंतक़ाल करने से दिल मायूस हुआ मगर आपने उफ़ तक न की और दुश्मनों से कुछ बदला न लिया महज़ सब्र से काम लिया ऐसे जिगर-ख़राश वाक़िआ’त आपकी ज़िंदगी में बेशतर होती रही मगर सब्र-ए-अय्यूब आप पर पूरी तरह ग़ालिब था, साहब-ए-मिरअतुल-कौनैन लिखते हैं कि अपनी ज़िंदगी रियाज़त-ओ-फ़िक्र में काटी,साबिर ऐसे कि यादगार-ए-हज़रत अय्यूब अ’लैहिस्सलाम कहूँ तो हर्गिज़ मुबालग़ा न होगा,का सब बे-मिस्ल, मुर्ताज़ बे-अ’दील,शैख़-ए-वक़्त, यगाना-ए-रोज़गार हैं, ऐसे ऐसे मसाइब दुनियावी-ओ-बला-ए-आसमानी में मुब्तला हुए कि अगर आसमान पर भी वो सदमे गुज़रते तो पेश-अज़ नुशूर-ओ-टुकड़े टुकड़े हो जाता मगर रज़ा-ए-मा’बूद में ऐसे साबिर-ओ-साबित-क़दम रहे कि आदमी क्या फ़रिश्ते भी हसद करें.
आपकी ज़ात ऐसी जामेअ’ सिफ़ात-ए-मलकूती है कि सुब्हान-अल्लाह सुब्हान-अल्लाह हक़-ए-जल्ल-ओ-अ’ला आपके वजूद बा-वजूद को ज़िला-ख़्वारान के नसीबों से ता-देर गाह क़ायम-ओ-बर्क़रार रखे कि ज़ात-ए-वाला सिफ़ात एक ज़ीना-ए-ख़ुदा-सरी का तालिबान-ए-हक़ के लिए उस वक़्त उस ज़माना में है . आपकी पाँच शादियाँ हुईं जिससे औलाद हुई जो इ’ल्म-ओ-फ़ज़ल के ए’तबार से ऊंचा मक़ाम रखते हैं, इ’ल्मी मज्लिस और अ’मली ख़िदमात में अक्सर पेश पेश रहते, जनाब हज़ूर ता’लीम-ए-ज़ाहिरी में जब कामिल-ओ-अकमल हुए तो ता’लीम-ए-बातिनी की जानिब मुतवज्जेह हुए चुनांचे हज़रत सय्यद शाह जमाल अ’ली बल्ख़ी (सज्जादा निशीन:ख़ानक़ाह हज़रत मख़्दूम शोऐ’ब फ़िर्दोसी,शैख़-पुरा,बिहार शरीफ़) के दस्त बा-मेमंत पर सिल्सिला-ए-आ’लीया फ़िर्दोसिया मैं बैअ’त हुए ख़िलाफ़त से नवाज़े गए.
पीर-ओ-मुर्शिद ने ता जमाना-ए-हयात ब-दर्जा इ’नायत-ओ-शफ़क़त मबज़ूल फ़रमाते रहे और अपने फ़ैज़ान-ए-सोह्बत से माला-माल करते रहे कभी कभी ब-ज़रिया’ ख़त-ओ-किताबत भी इर्शाद-ओ-फ़तह-ए-बाब फ़रमाते रहे, रफ़्ता-रफ़्ता आपकी शख़्सियत में निखार पैदा होता गया,पीर-ओ-मुर्शिद की रहनुमाई से जल्द अपने अ’ह्द की मुम्ताज़ शख़्सियत क़रार दिए गए,पीर की रिह्लत के बा’द हज़रत सय्यद शाह विलायत अ’ली हमदानी अबुल-उ’लाई (इस्लामपुर,बिहार शरीफ़) और अपने वालिद हज़रत सय्यद शाह अमीरुद्दीन फ़िर्दोसी (साबिक़ सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह-ए-मोअ’ज़्ज़म हज़रत मख़्दूम जहाँ,बिहार शरीफ़ वग़ैरा से भी ख़िलाफ़त और ख़ुसूसी तवज्जो हासिल रहा.
इन बुज़ुर्गों ने आपकी शोहरत-ओ-बुजु़र्गी की बशारत-ए-कमसिनी ही में दे दी जो बा’द में सादिक़ुल-क़ौल साबित हुई कि जनाब हज़ूर की शौह्रत-ओ-पाकीज़गी का फ़ैज़ान दूर-दूर तक पहुँचा, हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ गोशों में आपके तर्बीयत-याफ़ता तलामिज़ा के अ’लावा कसीर ता’दाद में मुरीदीन की जमाअ’त-ओ-खल़िफ़ा की कसरत पाई जाती थीं जिनमें मौलाना सय्यद शाह फ़ज़ीलत हुसैन पटना,सय्यद शाह अबू मोहम्मद अशरफ़ हुसैन अशर्फ़ी अल-जीलानी,शैख़ मोहम्मद इस्माई’ल यमनी,हाजी हैदर अ’ली काबुली सुम्मा मक्की वग़ैरा मोकम्मल हलक़ा-ए-इरादत का अहाता करना नाशाद के बस की बात नहीं वाज़िह हो कि जिस तरह इरादत में आप का दायरा-ए-वसीअ’-ओ-अ’रीज़ था वही मोक़ाम-ओ-मर्तबा इ’ल्म-ओ-अदब-ओ-फ़न्न-ए-सुख़्न में था,वालिद की सोह्बत-ए-बा-बरकत ने इब्तिदा से ही शे’री माहौल क़ायम किया कसरत-ए-मुताअ’ला और सोह्बत-ए-वालदैन करीमैन की वजह से किसी के सामने ज़ानू-ए-तलम्मुज़ तै नहीं किया जिसको ख़ुद इक शे’र में ज़ाहिर करते हैं
हूँ में इक तिल्मीज़-ए-रहमानी फ़ैज़-ए-रूही से कि गाह
शे’र-गोई में मुँह न देखा किसी उस्ताद का
मगर ब-क़ौल-ए-मुस्लिम शो’रा-ए-बिहार कि मशहूर है कि हज़रत सय्यद शाह अमीनुद्दीन अहमद मा’रूफ़ जनाब हुज़ूर सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह-ए-मख़्दूमुल मुल्क बिहारी जब कोई कलाम फ़ारसी में तहरीर फ़रमाते तो सबसे पहले हज़रत (सय्यद शाह अब्दुल करीम) रुक्न देखने को देते जिनसे जनाब हुज़ूर क़ुदस सिरा के ताल्लुक़ात और मरासिम ख़ास अलख़ास थे.
दूसरी जगह साहिब तज़किरा मुस्लिम शो’रा-ए-बिहार रक़मतराज़ हैं कि आपकी क़ादिरुल-कलामी ज़माने में मशहूर है,मस्नवी गोई में आप बे-अ’दील थे वक़्त के क़ादिरुल-कलाम शा’इर हुए और वालिद की निगरानी में ये सिल्सिला ब-आसानी पार कर गए,शा’इरी में ग़ालिब और मीर दहलवी की रिफ़ाक़त करते ब-क़ौल ख़ुद जनाब-हुज़ूर शौक़ बिहारी –
तर्ज़-ए-ग़ालिब मुझे अब शौक़ है मर्ग़ूब
इब्तिदा में तो कुछ मोअ’तक़िद मीर भी था
अल-ग़र्ज़ मस्नवी गोई में कमाल हासिल था,मुतअ’द्दिद मस्नवियाँ आपकी तबह्हुर-ए-इ’ल्मी पे दाल है, सिल्सिलातुल-अलाली,रौज़तुन्नई’म वग़ैरा के अ’लावा गुल-ए-बहिश्ती जनाब मीर नजात असफ़्हानी मुतवफ़्फ़ा 1136 हिज्री की शकल में लिखी गई है जो मतबअ’ अनवार मोहम्मदी लखनऊ से शाए’ हो कर मक़बूल-ए-अनाम हुई जिनमें हज़रात ख़्वाजगान-ए-क़ुद्स इस्राहुम की शान में मनक़बतें पेश की गईं ख़ुसूसन हमारे सरकार-ओ-सरदार हज़रत सय्यद शाह अमीर अबुल-उ’ल्ला अकबराबादी मुतवफ़्फ़ा 1061 हिज्री जो हिन्दुस्तान के औलिया-ए-किबार में शामिल हैं राक़िम इसी ख़ानकाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया का फ़र्ज़िंद है,जनाब हुज़ूर ने शान-ए-अबुल-उ’ल्ला में ख़ूब मदह-सराई की उस के अ’लावा हमारे हज़रत अमीर अबुल-उ’ला रज़ी-अल्लाहु-ता’ला अन्हु के फ़ज़ल-ओ-कमाल और अज़मत-ओ-जलाल को जनाब सबात ने रग़बत-ओ-शौक़ के साथ मंजूम किया है,मस्नवी के अख़िर में मुआ’सिर सूफ़ी सुख़न-फ़हम हज़रात के क़ता तारीख़ मौजूद है जिनमें हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह मोहम्मद सज्जाद अबुल-उ’लाई अल-मुतख़ल्लिस बिहि साजिद दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1298 हिज्री,हज़रत सय्यद शाह यह्या अबुल-उ’आलाई अ’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा 1302 हिज्री क़ुद्स इस्रारहुम वग़ैरा काबिल-ए-ज़िक्र हैं.
हज़रत सबात के कलाम में हक़ायक़-ओ-मआ’रिफ़ की तालीम मिलती,इ’श्क़-ए-मजाज़ी और इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी की भी झलक नुमायाँ है,आपके यहाँ सूफ़ियाना ख़्यालात बड़े दिलकश पैराए में पाया जाता है,तसव्वुफ़ में इ’श्क़-ओ-मस्ती की बड़ी क़दर है इस लिए कि इसी से मनाज़िल-ए-सुलूक तै होते हैं,फ़ारसी और उर्दू कलाम महफ़ूज़ है जिसकी झलक सेह-माही मख़्दूम उर्दू में कभी ज़ौक़ से तो कभी शौक़ से मिलती है.
वाज़िह रहे कि ‘‘जनाब हुज़ूर शाह अमीन अहमद फ़िर्दोसी सुब्ह-ए-तहय्यात-ओ-आसार’’ के उ’न्वान से हज़रत मौलाना डॉक्टर सय्यद शाह अरशद अ’ली शरफ़ी फ़िर्दोसी साहब मद्दज़िल्लुहु बिहार शरीफ़ ने पटना यूनिवर्सिटी से तहक़ीक़ी मक़ाला लिखकर 1982 ई’स्वी में पी,ऐच,डी की डिग्री हासिल की,हमारे पीरान-ए-सिल्सिला-ओ-तरीक़ा अबुल-उ’लाइया से जनाब हुज़ूर को देरीना मुहब्बत हो चुकी थी,हज़रत शाह विलायत अ’ली हमदानी के तवस्सुल से ये सिल्सिला आप पर भी बारिश-ए-रहमत की तरह पूरे जोश-ओ-ख़ुरोश के साथ बरस रहा था.
ब-क़ौल साहब-ए-तारीख़ सिल्सिला फ़िर्देसिया जो शख़्स आपकी मर्ज़ी पर छोड़ देता उसकी बैअ’त सिल्सिला फ़िर्देसिया में लेते और अबुल-उ’लाई ता’लीम देते बल्कि दूसरी जगह तो रक़म-तराज़ हैं कि हज़रत सय्यद शाह वसीअ’ अहमद उ’र्फ़ बराती पर अबुल-उ’लायत का बड़ा ग़लबा था और क्यूँ न हो जिनके दादा या’नी हज़रत अमीरुद्दीन फ़िर्दोसी को अबुल-उ’लाई ता’लीम हज़रत शाह अबुल-हसन अबुलल-उ’लाई ख़ल्फ़ हज़रत ख़्वाजा सय्यद शाह अबुल-बरकात अबुल-उ’लाई अ’’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा 1256 हिज्री (मदफ़न: बारगाह-ए-इ’श्क़,तकिया शरीफ़,पटना) से अख़ज़ किया हो बल्कि उनका ज़िक्र साक़ी नामा में यूँ किया है।
मिम-बा’दे ज़े-फ़ज़ल मुइ’माँ तू
दमे जामे अबुल-हसन से एक चलो
आँखों की मेरी वो रौश्नाई
साहिब-ए-नशा अबुल-उ’लाई
हयात-ए-सबात का मुसन्निफ़ रक़म-तराज़ है कि मुंशी लयाक़त हुसैन साहिब मुख़्तार का बयान है कि आप फ़रमाते थे कि अबुल-उ’लाइया तरीक़ा में बड़ा क़वी असर है और बहुत ज़्यादा फ़ायदा हासिल होता है. अव्वल तो ये कि उस तरीक़ा में आना ज़रूरी नहीं, दूसरे ये कि इस क़दर मुजाहिदा-ओ-रियाज़त-ए-शाक़्क़ा लाज़िमी नहीं, ज़्यादा मेहनत करेगा ज़्यादा फ़ायदा उठाएगा, कम मेहनत करेगा तो भी महरूम न रहेगा मसलन इस तरीक़ा का ज़ाकिर-ओ-शाग़िल नमाज़-ए-इ’शा के बाद’ मुख़्तसर सा वज़ीफ़ा पढ़कर और तीन बार ज़िक्र-ए-अबुल-उलाइया बा-शरायत अदा करके सो रहे और दूसरे तरीक़ा वाला मआ’ नमाज़-ए-तहज्जुद-ओ-ज़िक्र-ओ-औराद सुब्ह कर दे, सुब्ह की नमाज़ को जब दोनों खड़े होंगे तो अहवाल-ओ-मा’नी-ओ-फ़ैज़ान-ओ-याफ़्त के ए’तबार से क़लबी हालात दोनों की मसावी होगी.
यही नहीं बल्कि जब कभी मुरीदीन-ओ-मोअ’तक़िदीन की ख़ासी जमाअ’त अजमेर मोअ’ल्ला हाज़िरी की नीयत से जाता तो उसे मुत्तलाअ’ फ़रमाते कि अकबराबाद (आगरा) ठहर कर जाना और आगरा में हज़रत अमीर अबुल-उ’ला के हुज़ूर में हाज़िर होना और अ’र्ज़ करना कि पीर ने मुझको आपकी बारगाह में भेजा है तब अजमेर की राह लेना जब हुज़ूर की ख़्वाहिश हो,अगर बारगाह-ए-अबुल-उ’ला से इजाज़त मिले तो अजमेर जाओ वर्ना लौट आओ,लोगों ने अ’र्ज़ की या हज़रत इजाज़त का हाल कैसे मा’लूम होगा? फ़रमाया वो इस तरह कि इस इरादा में इस्तिहकाम पैदा होगा बग़ैर गए हुए दिल न मानेगा,बल्कि ख़ुद भी बड़ी अ’क़ीदत के साथ हमारे सरकार की बारगाह अनाज़ में हाज़िर हुआ करते इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की मिसाल सिल्सिला फ़िर्दोसिया और सिल्सिला अबुल-उ’लाइया में आपने लिख दी, सफ़र दर वतन तो रहता ही था जब ग़लबा-ए-शौक़ बढ़ता तो फिर अकबराबाद हाज़िर होते और हमारे हुज़ूर की इ’नायत करदा इ’श्क़-ओ-मस्ती को अपने अंदर महसूस करते जहाँ-जहाँ हज़रात अबुल-उ’लाई आराम फ़रमा रहे होते तो बड़ी अ’क़ीदत से हाज़िर होते और अ’क़ीदत की झोली में मोहब्बत का जाम भर कर वापस आते,यही वजह थी जो इस ख़ानवादा की ये रिवायत बन गई कि जो साहिबान-ए-सिल्सिला-ए-फ़िर्दोसिया अजमेर जावे वो हमारे हज़रत के आस्ताना-ए-मलाइक से गुज़र कर जावे.
अल-ग़र्ज़ कि जना हुज़ूर के अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात बड़े वसीअ’-ओ-अ’रीज़ थे,ख़ालिस उ’ल्मा हों या मशाइख़ ग़र्ज़ कि मुख़्तलिफ़ मकातीब के लोग आपकी बुजु़र्गी-ओ-अख़लाक़ी किर्दार से हमेशा मुस्तफ़ीज़-ओ-मुस्तनीर होते रहे,अ’क़ाएद के मआ’मलात में बड़े मोह्तात रहते,नामूस-ए-रिसालत और तहफ़्फ़ुज़-ए-रिसालत का ख़ास ख़्याल रखते,ज़ो’फ़-ओ-पीर के बावजूद अ’क़ाएद-ए-अह्ल-ए-सुन्नत की ख़ातिर हमा वक़्त कोशाँ रहते,उ’ल्मा-ओ-मशाइख़ न सिर्फ़ उनकी तकरीम निसबत-ए-मख़्दूम की वजह से करते बल्कि ख़ुद की ज़ाती लयाक़त-ओ-सलाबत-ए-दीनी की वजह से सब उनकी शख़्सियत के मोअतरिफ़ थे, हम-असर उ’ल्मा फ़रमाते थे कि हिन्दुस्तान में सोज़-ओ-गुदाज़ जनाब हुज़ूर के सिवा दूसरे में नहीं पाता हूँ.
उ’लमा-ए-अह्ल सुन्नत का हसीन क़ाफ़िला जब शहर-ए-अ’ज़ीमाबाद वारिद हुआ तो मज्लिस-ए-अह्ल-ए-सुन्नत के सदर ब-इत्तिफ़ाक़-ए-आरा जनाब हुज़ूर मुंतख़ब हुए,बकीयतुस्सलफ़,हुज्जतुल-ख़ल्फ़,ज़ुब्दुल-उ’ल्मा सलालतुल-अकाबिरुल-ओ’रफ़ा जैसे अल्क़ाब से आप याद किए जाने लगे,जब आप पर इफ़्तिरा और तोह्मत का बोह्तान लगाना शुरूअ’ हुआ और शख़्सियत को मजरूह करने की ना-पाक कोशिश की गई तो आपने अपने मुरीद क़ाज़ी अब्दुल-वहीद फ़िर्दोसी के नाम इक मक्तूब इर्साई’ल किया जो तोह्फ़ा-ए-हन्फ़िया के शुमारे शा’ए किया गया जिसे यहाँ दर्ज किया जाता है –
बा’द दाअ’वात-ए-तरक़्क़ी-ए-दर्जात मुताअ’ला बा’द,अल-हम्दुलिल्लाह बिहिमा नौ ख़ैरीयत है,ख़ैरीयत आपकी और जमीअ’ मुताल्लिक़ीन की ख़ुदा-ए-करीम की दरगाह से मुस्त’दई हूँ, ख़ाल-ए-ताज़ा ब-तक़रीब उ’र्स शरीफ़ मौलवी सोलैमान साहब बिहार आए,शरीक-ए-उ’र्स शरीफ़ हुए और मुझसे भी मुलाक़ात की दूसरे रोज़ मेरे यहाँ कई साहिबों की दावत थी मैंने उन्हें भी मद’ऊ किया चुनांचे वो दस ग्यारह बजे आए तो कुछ इधर उधर की बात होती रहीं फिर वो नदवा के मुताल्लिक़ बातें करते रहे,में चिपका सुनता रहा वो चले गए यहाँ से जाकर उन्होंने मशहूर किया कि शाह साहब ने नदवा को बहुत सी दुआ’एँ दीं और अपनी मुवाफ़िक़त ज़ाहिर की ज़रा उन लोगों की केद्र देखिए अव्वल तो ना-शूदा बात वो भी किसी वह्म-ओ-गुमान से बाहर और कहाँ इसी शहर में यूँ मशहूर की,ख़ुदा जाने किस क़ुमाश के ये लोग हैं।
-अमीन अहमद,अज़ बिहार
रद्द-ए-नदवतुल-ओ’ल्मा कॉन्फ़्रैंस में आपकी ज़ात-ए-पीराना-साली के बावजूद पेश-पेश रही,ब-क़ौल हयात सबात कि जनाब मौलना अब्दुल क़ादिर बदायूनी जल्सा मुस्लेहान-ए-नदवातुल-ओ’लमा में तशरीफ़ लाए थे और जनाबहज़ूर भी तशरीफ़ ले गए थे पहली मुलाक़ात जल्सा-ए-आ’म में हुई मौलाना ने बा’द सलाम के क़दम-ए-मुबारक का बोसा दिया और फ़रमाया
ई लक़ा-ए-तू जवाब-ए-हर-सवाल
मुश्किल अज़ तू हल शोद बे-क़ील-ओ-क़ाल
इस पाकीज़ा मजलिस में हिन्दुस्तान की मो’तबर और मुक़द्दस ख़ानक़ाहों के सज्जादगान-ए-ज़ीशान अ’लल-उ’लूम और सूबा-ए-बिहार की ख़ानक़ाहों के सज्जादगान ख़ुसूसीयत के साथ मदऊ’ थे बल्कि सर्परस्ती फ़रमा रहे थे जिनमें हज़रत अमीन अहमद फ़िर्दोसी, सज्जादा-नशीं ख़ानकाह-ए-मोअ’ज़्ज़म हज़रत मख़्दूम जहाँ,बिहार शरीफ़ के अ’लावा हज़रत मौलाना सय्यद शाह मुहीउद्दीन क़ादरी, सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह मुजीबिया,फुल्वारी शरीफ (हज़रत मौलाना सय्यद शाह मोहम्मद मुहसिन अबुल-उ’लाई सज्जादा-नशीं ख़ानकाह-ए-सज्जादीया अबुल-उ’लाइया,दानापुर शरीफ़ हज़रत मौलाना सय्यद शाह अ’ज़ीज़ अहमद क़मरी, सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह मुनइमीया क़मरिया,मीतन घाट,(पटना,हज़रत मौलना सय्यद शाह नसीरुद्दीन चिश्ती) सज्जादा-नशीं ख़ानक़ाह चिश्तिया,नवादा ख़ुर्द,पटना ,हज़रत मौलाना सय्यद शाह शुहूद उल-हक़ चिश्ती सज्जादा-नशीं आस्ताना चिश्ती चमन,पीरबीघ वग़ैरा जल्सा नदवतुल-ओ’लमा मुनाक़िदा पटना में सात बजे शाम को ताजुल-फ़ुहूल हज़रत मौलाना अब्दुल-क़ादिर बदायूनी ने फ़रमाया कि बरकत के लिए कुछ जनाब भी फ़रमाएं, जनाब हुज़ूर ने फ़रमाया कि आप लोग आ’लिम हैं शौक़ से बयान कीजिए मगर मौलना ममदूह के इस्रार-ओ-हाज़िरीन-ए-जल्सा की आरज़ू भरी ताई’द ने आप को मुस्तइ’द किया और मिंबर पर जाते ही पहले पाँच छेः मिनट तक साकित रहे,उस वक़्त का समाँ सुब्हान-अल्लाह पूरा पंडाल कैफ़ीयत और निसबत से मा’मूर हो रहा था,तब फिर जनाब हुज़ूर ने ये हदीस पढ़ी ‘‘अल्लाहुमा-अहाना मिस्कीना-व-उम्मतना मिस्कीना-व-अहश्रनी फ़ी ज़ुमरतिल-मसाकीन’’ फिर तर्जुमा किया जिससे सामई’न को रक़अ’त हुई आपके बा’द मौलना अब्दुल-क़ादिर साहब बदायूनी मिंबर पर तशरीफ़ ले गए और फ़रमाया कि जिसने सहाबा-ए-कराम को न देखा हो वो हज़रत को देखे और मूतू-क़बल-अन तमूतू की तफ़सीर देखना हो तो वो हज़रत मख़्दूम जहाँ के सज्जादा-नशीं को देखे फिर उसी मज़कूरा बाला हदीस से बयान शुरूअ किया,आ’ला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ फ़ाज़िल बरेलवी जिस वक़्त जलसा-ए-मुस्लिहीन नदवतुल-ओ’लमा की शिरकत को पटना तशरीफ़ लाए थे जनाब हुज़ूर से मिलने को बराबर तशरीफ़ लाया किए और जनाब हुज़ूर से जैसा ख़ुलूस था वो चंद अश्आ’र में नज़्म फ़रमाया है,अ’रबी क़सीदा मंज़ूम ‘आमालुल-अबरार व-उम्मल-अश्रार’ में लिखते हैं।
ब-क़यतुल-औलिया अमीन अहमद
अमीन अहमद अमन-ए-हमूद
शमाइलहु तज़्किरुनस्सहाबा
सहाइबतु अ’ला कुल्लि तजूद
दूसरी जगह समसाम हसन बुर्दा ब-र्फ़तन में हज़रत हसन बरेलवी फ़ारसी मस्नवी में लिखते हैं
वाँ चमन आरा-ए-बहार-ए-बिहार
शाह-ए-अमीन अहमद आ’ली-ए-वक़ार
हामी दी अख़तर बुर्ज शरफ़
पीर-ए-हुदा गौहर-ए-दर्ज शरफ़
यही नहीं बल्कि जनाब हुज़ूर के साहब-ज़ादा वल-इत्बार सय्यद शाह मोहम्मद सई’द अहमद फ़िर्दोसी साहब के मुतअ’ल्लिक़ लिखते हैं
-जैसा जनाब हुज़ूर के नाम से शुरूअ’ था उसी पर ख़त्म किया,तुझे ख़ूबी-ओ-दुनिया-ओ-आख़िरत की ऐ वहीद.
अ’लावा अज़ीं इस तहरीक को ख़ुलूस-ओ-ए’तिक़ाद के साथ जनाब हुज़ूर के अ’लावा उनके साहब-ज़ादगान-ओ-खल़िफ़ा भी शामिल-ए-हाल रहे जिनमें मौलाना सय्यद शाह सई’द अहमद फ़िर्दोसी (साहबज़ादे) सय्यद शाह वसीअ’ अहमद फ़िर्दोसी उ’र्फ़ बराती (साहब-ज़ादे) सय्यद शाह फ़ाज़िल फ़िर्दोसी बिहारी (ख़लीफ़ा),सय्यद शाह फ़ज़ीलत हुसैन फ़िर्दोसी पटना ख़लीफ़ा,(शैख़ ख़ैरात हुसैन फ़िर्दोसी बिहारी) ख़लीफ़ा (वग़ैरा के अ’लावा अस्हाब-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न्न मसलन मौलाना अब्दुल वाहिद ख़ाँ रामपुरी बिहारी,मौलाना क़ारी नूर मोहम्मद देहलवी बिहारी,मौलाना हाफ़िज़ फ़तहुद्दीन (पेश इमाम,मुदर्रिस-ओ-सदर-ए-मज्लिस अह्ल-ए-सुन्नत (मौलाना अमीर अ’ली) मुदर्रिस-ए-आ’ला नॉर्मल स्कूल,नाएब सदर-ए-मज्लिस अह्ल-ए-सुन्नत (सर-ए-फ़हरिस्त हैं ख़ुद तहरीक के सबसे मुतहर्रिक-ओ-फ़आ’ल शख़्सियत क़ाज़ी अब्दुल वहीद फ़िर्दोसी आपके दायरा-ए-इरादत में दाख़िल हो कर तहफ़्फ़ुज़-ओ-बक़ा की ख़ातिर निकल पड़े और हद-दर्जा कामयाब्न-ओ-कामरान हुए,याद रहे कि ओ’लमा-ए-अह्ल-ए-सुन्नत फ़ाज़िल बरेलवी के हम-राह जनाब हुज़ूर की दा’वत-ए-ख़ास पर ख़ानकाह-ए-मुअज़्ज़म हज़रत मख़्दूम जहाँ हाज़िर हुए, और सुब्ह से शंबा से मस्जिद में जामिअ’ और मानेअ’ तक़ारीर-ए-जामिअ’से सामई’न लुतफ़ अंदोज़ होते रहे जिसकी सदारत ख़ुद शाह साहब क़िब्ला फ़रमा रहे थे अल-ग़र्ज़ ये ज़ात तमाम औसाफ़-ओ-कमालात की जामिअ’ मा’लूम होती है ख़ुद हमारे गुल-ए-सर-सबद सिल्सिला-ए-अबुल-उ’लाइया मस्नद-नशीं तरीक़ा अबुल-उलाइया हज़रत सय्यद शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी मुतवफ़्फ़ा1327 हिज्री अपनी मशहूर-ए-ज़माना किताब ‘‘नज़र-ए-महबूब’’ में आपका ज़िक्र कुछ इस तरह करते हैं आपके औसाफ़-ए-हमीदा और अख़लाक़-ए-पसंदीदा हद्द-ए-तहरीर से बाहर हैं तमाम ता’रीफ़ और औसाफ़ का माख़ज़ यही है कि आप हज़रत मख़्दूमुल-मलिक की औलाद और सज्जादा हैं.
हमारे हज़रत पीर-ओ-मुर्शिद बरहक़ मौलाना सय्यद शाह मोहम्मद क़ासिम रज़ी-अल्लाहु अन्हु से भी आप मुशर्रफ़ बिहि मोआ’निक़ा हुए हैं और हज़रत वालिद (सय्यद शाह मोहम्मद सज्जाद अबुल-उ’लाई दानापुरी (दानापुरी क़ुदस सर्रा से मुतवातिर मजालिस उ’र्स में हंगामा-ए-वज्द में मुआ’निक़ा किए हैं,हज़रत क़ुद्सु सर्रहु की किताब निजात-ए-क़ासिम को आपने फ़ारसी नज़्म में (गुल-ए-बहिश्ती की शक्ल में) बहुत ख़ूब तर्जुमा किया है,फ़न्न-ए-शे’र में यद-ए-तूला हासिल है अभी से सज्जादगी के वास्ते अपने फ़र्ज़न्द-ए-रज़ीद नूर-ए-चश्म बुरहानुद्दीन सल्लमहुल्लाहु ता’ला को नामज़द कर दिया है.
नसब भी हज़रत मख़्दूम लमलिक शर्फ़ुद्दीन बिहारी रज़ी-अल्लाहु अन्हु से जा मिलता है
कोई मुझ सा भी सहीहुन-नस्ब अकबर कम है
सिल्सिला अपना किसी ज़ुल्फ़ से जा मिलता है
क्या लिखूँ क्या कहूँ एक दिन ये सितारा भी अपनी चंदँ झलकियों के साथ डूब कर ख़ला पैदा कर गया,और क्या न डूबता क्यूँ कि-
डूब कर बह्र-ए-मोहब्बत से निकलना कैस
पार होने की तमन्ना है तो डूबे रहना
72 बरस की उ’म्र 4 जमादी-अलाख़िर 1321 हिज्री ब-मुताबिक़ 29 अगस्त 1903 ई’स्वी को रूह क़फ़स उ’नसुरी से परवाज़ कर गई, मर्क़द अनवर आस्ताना हज़रत मख़दूम जहाँ क़ुद्सु सर्रहु के पाएँ हलक़ा-ए-सज्जादा नशीनान में है
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